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भारतमै दुर्भिक्ष । कोंकी तरह भारतका खून चूसते रहेंगे। इस दरिद्रताका भी कोई ठिकाना है ?
कारलाइल साहब ऐसे भिक्षुकोंके विषयमें बहुत कुछ लिख कर अन्तमें लिखते हैं--" ऐसे भिक्षुकों का प्रति रविवारको जब छुट्टी रहती है, शिकार खेलना चाहिए । " इसका मतलब यह नहीं कि उक्त साहब उनको सचमुच जानसे मार डालना बतलाते हैं-नहीं ऐसा लिख कर उन्होंने भिक्षुकों के प्रति अपनी अत्यंत घृणा प्रकट की है। __ हिन्दीक धुरन्धर लेखक मिश्रबन्धुओंमें से पं० शुकदेवबिहारी मिश्र बी० ए० वकील हाईकोर्ट लखनऊ लिखते हैं कि" हट्टे कट्टे लोगोंको दान देना देश और उन दोनों के लिये एक ही हानिकारक है । देशको इस लिये कि उसका इतना धन व्यर्थ नष्ट होता है और उसकी द्रव्योत्पादक शक्ति जो उन्नतिकी एक मात्र जननी है, घटती है । और उन भिक्षुकोंकी यों हानि होती है कि वे पुरुषार्थके नितान्त अयोग्य हो जाते हैं। आप कहेंगे कि क्या साधु-फकीरोंको मर जाने दें ? इसका उत्तर यही है कि ऐसे निरुद्यमी कायर पुरुषोंका जो देश पर केवल बोझ मात्र हैं, मर जाना ही उत्तम है । इस शरीरसे जो मनुष्य कुछ भी लाभ नहीं उठाता, उससे तो वह पशु भला जो सैकड़ों काम आता है।" __ भारतवर्षके भिक्षुक बड़े ही चटोरे और फजूल खर्च एवं व्यसनी होते हैं। उनके मुखमें बिना घी-शक्करके ग्रास नहीं उतरता । वे सोनेके जेवर और बढ़िया मूल्यवान् शाल ओढ़ते हैं। बड़े बड़े मंदिरों, बागीचों, मठों और मकानोंके अधिपति होते हैं। हाथी-घोड़े और पालकीमें बैठ कर चलते हैं । चंडू, चरस, गाजा,
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