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भारतमें दुर्भिक्ष।
अपनी टाँगें फैलाता गया। यहाँ तक कि आज न तो कोई भारतवर्षका नगर, कस्बा, गाँव आदि इस अपवित्र शक्करसे बचा है
और न प्लेगसे बचा है। ___ लाहोरके प्रसिद्ध कविराज, कवि-विनोद पं० ठाकुरदत्तजी शर्माने १ अक्टूबर सन् १९०७ के “ मनुष्य-सुधार" नामक पत्रमें तथा २० जनवरी सन् १९०५ के " हितकारी " पत्रमें अपनी सम्मति प्रकाशित की है कि "प्राचीन वैद्यक ग्रंथों-चर्क, आत्रेयी संहिता आदि में विसर्प रोगके बयानमें साफ लिखा है कि भ्रष्ट खाडके सेवनसे जो गन्ने के अतिरिक्त अन्य पदार्थों द्वारा बनाई जावे, ऐसी ही महामारी (प्लेग) फैलती है। इनके सिवाय और भी कई विद्वानोंको सम्मति है । और विसर्पका बयान उक्त ग्रंथों में विस्तार-पूर्वक लिखा है।
यदि किसीको यह शंका उत्पन्न हो कि जिस विलायतमें यह भ्रष्ट खाँड बनती है और जहाँके लोग रात-दिन इसे खाते हैं, वहाँ प्लेग क्यों नहीं फैलता ? इसका उत्तर यह है कि जैसे हर समय मैले और बदबूमें रहनेवाला मनुष्य दुर्गन्धसे बीमार नहीं होता, किंतु साफ
और सुगन्धित स्थानमें रहनेवाला उसी बदबूसे बीमार हो जाता है; अथवा जैसे ६ माशे नित्य अफीम खानेवाला मनुष्य नित्य ६-७ माशे खाकर भला चंगा रहता है और कभी ९-१० माशे खा जाय तो भी उसे कोई हानि नहीं होती; परन्तु यदि न खानेवालेको उतनी ही अफीम खिला दी जाय तो वह जीवित नहीं रह सकताइसी भाँति शीत देशोंके निवासियोंको-जिनके संस्कार ही ऐसे हैं
और जो सदासे ऐसी ही वस्तुएँ खाते हैं---इस खाँडसे हानि नहीं हो सकती । दूसरे देशोंमें विलायती खाँड खाने पर प्लेगके न होने और इस देशमें होने में कई अन्य बातें भी सहायक हैं
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