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उद्योग-धन्धे ।
उद्योग-धन्धे।
" नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वाऽयं नावसीदति ।" सी महत्त्व-पूर्ण और सर्वोपरि कल्याण-प्रचुरा उक्ति है । यदि ठीक
सोच विचारके साथ देखा जाय तो आजकल के इस प्रगतिके युगमें जो भला बुरा देखा जाता है, इस उक्तिका अर्थ उसी पर निर्भर है । इसका सारांश यह है कि कोई देश उन्नत हो गया हो अथवा उन्नति चाहता हो तो बिना उद्योगके वह कदापि उन्नति नहीं कर सकता । अर्थात् सब सुखोंका प्रधान साधन उद्योग ही है। इसे कोई पौराणिक अथवा ऐतिहासिक बात नहीं समझना चाहिए, जिसे हमें पूज्य मान कर अंगीकार करना ही पड़े । किन्तु प्रत्येक विचारशील मनुष्य देख सकता है कि आजकलका युग किस ढंगका है । इस प्रगतिशील युगमें जिन जिन देशोंने उन्नति की है केवल उद्योग-धन्धोंसे ही की है, और उद्योग-धन्धोंसे ही वे प्रभावशाली और शक्ति-सम्पन्न हो रहे हैं । परन्तु उद्योग-धन्धोंके साधन क्या होते हैं और वे किसी रीतिसे प्राप्त किये जाते हैं इसका भी विचार करना आवश्यक है। जिन साधनोंसे देशकी साम्पत्तिक स्थिति सुधार कर, उन्नति की जा सकती है उसके लिये विशेषतासे उसके निसर्गदत्त साधन उस देशमें अवश्य होने चाहिए । जैसे कि खनिज और उद्भिज पदार्थोकी विपुलता, यांत्रिक साधनों तथा शास्त्रीय शोधोंसे उन पदार्थोके तरह तहरके रूपान्तर कर व्यवहारोपयोगी वस्तु बनानेके कारखाने, देशमें तैय्यार किये हुए पदार्थ और कीमत,गुण और विपुलतामें सुभीतेके साथ दूसरे प्रगतिशील राष्ट्रोंके कारखानोंका मुकाबिला कर उन्हींके अनुरूप हरेक बातमें चलनेकी ताकत रख कर
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