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उद्योग-धन्धे। चाहिए। माँचेस्टरसे भारतमें जब कपड़ा आना आरंभ हुआ, तब उसके बराबरीका कपड़ा बनानेवाली मिलें यदि भारतवर्ष में स्थापित नहीं की जाती तो न जाने आज हमारा भारत किस दुरवस्था तक पहुँचता ! परंतु उपर्युक्त धनाढय महाशयोंने किसी बातका भय न रख कर साहस और दीर्घोद्योगसे बम्बई तथा अहमदाबादमें सन् १८५४ ई० से १८६५ तक तेरह कारखाने कपड़ेके खोले । जिसमें उन्हें उनके सदुद्योगका सुमधुर फल मिला और भारत में उनका अच्छा यश फैला।
एकके उद्योगको फला-फूला देख कर दूसरे लोग भी उत्साहित होते हैं और वैसा उद्योग करनेका साहस करते हैं। ठीक इसीके अनुसार और और लोगोंने भी कारखाने खोले जो दिनों दिन बढ़ते ही गये। किन्तु ये बातें व्यक्तिशः अथवा एक दिशासे हो गई हैं;तथापि कौन कौनसे इतर धंधे और कलाएँ नष्ट हो चुकी हैं और उनसे देशकी कितनी हानि हुई इस बातको लोगों पर अच्छी तरह प्रकट करने के लिये और उस औद्योगिक हानिका राष्ट्रीय दृष्टिसे विचार करनेके लिये कुछ थोड़ी मंडलियाँ शीन ही संगठित हुई । किन्तु उनमें अग्रणीयताका मान किसको दिया जाये, यदि यह प्रश्न उपस्थित हो तो उसके लिये स्व० माधवराव रानडे, महादेव मोरेश्वर कुण्टे इन्हीं दो महाराष्ट्र सज्जनोंका नाम जबान पर आता है, किन्तु और और देशके नेता इसमें गिने ही न जावें ऐसा समझना गलत है । अस्तु, इसी बीचमें एक अनुकूल परिस्थिति सर. कारको ओरसे उपस्थित हुई । वह यह थी कि सन् १८८८ में लार्ड डफरिनने यह मत प्रकट किया कि-" हिन्दुस्थानमें उद्योग-धन्धे, उनका विस्तार, उनकी प्रस्तुत स्थिति तथा हरेक जिले अथवा इलाकेमें चलने योग्य धन्धे और उनकी जरूरतका कच्चा माल इत्यादि
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