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आर्थिक दशा। सचमुच इस विषयकी ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए उतना नहीं दिया जाता । इसका फल यह होता है कि भारतकी दरिद्रताका सच्चा वृत्तान्त प्रकाशित नहीं होता । आर्थिक अवस्थाका जो चित्र मि० सूबेदारने खींचा है, वह बड़ा ही भयंकर है। मि. सूबेदारकी बातोंसे जाना जाता है कि भारत एक प्रकारसे विदेशियोंके यहाँ बन्धक हो रहा है। यहाँ विदेशियोंका जितना अधिक व्यापार फैलता जाता है उतने ही हम दबते जा रहे हैं। हम इस बातके बहुत ही विरुद्ध रहे हैं कि हमें आवश्यकताके समय तो विदेशोंसे अधिक ब्याज पर रुपया लेना पड़े और हमारा रुपया विदेशियोंके यहाँ कम ब्याज पर लगे । पर भारतकी अर्थ-व्यवस्थाकी यह विचित्रता है और जब तक इसका संशोधन न होगा तब तक यही दशा रहेगी। दूसरी बात यह है कि आवश्यकता होने पर हम विदेशियोंसे रुयया उधार लें सही, पर उन्हें अपने रुपयेसे देशका दोहन न करने दें। एक देशका दूसरेसे उधार लेना बुरा नहीं है और काम पड़ने पर रुपयेसे अधिक लाभ उठाने के लिये रुपया उधार लेना भी उचित ही है, पर उस रुपयेकी व्यवस्था हमारी आज्ञासे होनी चाहिए। रेलें बनाने में पानीकी तरह रुपया खर्च किया गया है। प्रारंभमें एक मील रेल बनानेमें ३४ लाख रु. खर्च किये गये थे, क्योंकि पूजीवाले समझते थे कि हमें तो मूल पर ब्याज मिलेगा, चाहे रुपये रेल बनाने में लगा दिये जावें या नदीमें फेंक दिये जावें ! इसी अनापशनाप खर्चके कारण कई वर्षों तक रेल भारत पर बोझ सी रही। मि० सूबेदार कहते हैं कि धन एकत्र करने, सामान और माल खरीदने, पटरी आदि बिछानेके ठेकोंमें बेढब घूस खोरी ही इसका कारण है। मि० सूबेदारने करेन्सी और नोटोंके विषयमें भी मार्केकी बातें
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