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कन्द वरता नहीं की जातकायद, पाकी है, लेकिन एक
. भारतमें दुर्भिक्ष । अखबार सिविल एण्ड मिलीटरी-न्यूज़ लुधियानाके ३० जुलाई सन् १९०३ ई० के अंकमें लिखा है___“विलायती कन्द या चुकन्दरी खाड-जिसन हिन्दुस्तानकी ज़रा: भते नैशकरको-गारत किया है गो देखनेमें सुफैद और कीमतमें अरजा है, मगर बकौल मि० फिनले निहायत खतरनाक चीज़ है। सब जानते हैं कि वह हड्डियोंसे साफ की जाती है, लेकिन एक अरजानीके सामने मज़हब, अकायद, पाकीजगी और लज्जतः किसी बातकी परवाह नहीं की जाती । आम तौर पर तमाम हलवाई विलायती कन्द बरतते हैं, और पुराने ख़यालके चन्द आदमियोंके लिये जो अभी तक परहेज किये हैं, बाज दूकानदार इसी हड्डियोंकी खाँडमें गुड़का शीरा मिला-मिला कर रंग सुर्थी मायल कर देते हैं ताकि देशी खाँडके धोखे खरीद करने में कोई एतराज न हो। अब शरबत क्यों नफा नहीं करते और लजीज मालूम नहीं हो', अब शरबत नीलोफर क्यों तिश्नगी फरो नहीं करता ? महज़ इस वजहसे कि तमाम अत्तार चुकन्दरी कन्दके शरबत बनाते हैं । मिस्टर फिनले लिखते हैं कि चुकन्दरी शक्कर ख्वाह ऐसी सस्ती हो जावे जैसे रेतके ज़रें, या ऐसी बेशकीमत जैसे मरवारीद, लेकिन फिल हकीक़त एक खतरनाक चीज़ है । इसको ऐसा समझना चाहिए कि जहरके प्यालेमें दूध मिलाया हुआ है । इसके इस्तेमालसे बहुतसी बीमारियाँ देशमें पैदा हो गई हैं, तबीअतोंमें एक खास किस्मकी खुश्की और हरारत पैदा हो गई है। बकौल मिस्टर फिनले यह हद दर्जे की खुश्क और गरम चीज़ है, और खूनमें गैर-मामूली शिद्दत पैदा करती है, जो मसनई जोशके साथ कमजोर हो जाती है। खूनकी
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