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भारतमें दुर्मिक्ष। बृटिश सत्ताके शुरू होते ही हमारे देशके कला-कौशल आदि पर उसका बड़ा विलक्षण प्रभाव पड़ा, जिससे कि उसका परिणाम विपरीत हुआ। १८ वीं शताब्दीके अन्तमें और उन्नीसवींके आरंभमें इंग्लैण्ड में यांत्रिक शोध हुए और उसके थोड़े काल बाद ही धीरे धोरे राजकीय सत्ता स्थापित हुई। उस सत्ताके कारण मनोनुकूल द्रव्य प्राप्तिका भण्डार अपने व्यापारके प्रवेशके लिये हिन्दुस्थानमें किया हुआ इंग्लैण्डका भगीरथ प्रयत्न और उस प्रयत्नका सफली. भृत होना आदि अनेक अनुकूल परिस्थितियोंके कारण इंग्लैण्डके व्यापार, कला-कौशल और कारखानोंको एक साथ ही उत्तेजना मिली। ऐसी अनुकूल अवस्थामें इंग्लैण्डके कारखानोंके व्यापारोंकी स्थिति, सर्वतोपरि समाधानकारक और सन्तोषजनक होने पर उसी दम उसने खुले तौर पर अपनी व्यापार-पद्धति निधड़क आरंभ कर दी। और इस घातक पद्धतिके द्वारा अनेक यूरोपीय राष्ट्रोंका माल भारतमें अपना पैर जमा कर जबर्दस्त हो गया; जिसका परिणाम यह हुआ कि व्यापार-सम्बन्धी स्पर्धा बड़े विस्तारके साथ आरंभ हुई । अर्थात् बाहिरी माल पर ही संतुष्ट रहना एक पेशा सा हो गया । क्यों न हो, जब कि व्यापारके साधन-रूप यांत्रिक साधन ही उस समयके यूरोपियन व्यापारियोंका सामना करनेके लिये हमारे देशमें नहीं थे; किन्तु ऐसा होना भी देशके लिये अनुचित था । खर, परिणाम यह हुआ कि भारतके उद्योग-धंधे, कला-कौशल नाम मात्रको रह गये। आश्चर्य की बात है कि ऐसे ही मौके पर रावसाहब रानडे महाशयने जो बौद्धिक कार्य किया वह ठीक उसीके जोड़का था; बल्कि उससे बढ़कर कहा जाय तो भी अतिशयोक्ति न होगी। हमारे गुजराती, पारसी और खोजा बन्ध ओंने भी उस समय जो कार्य किया है उसको कभी भूलना न
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