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भारतमें दुर्भिक्ष । लम्बे सूतका जिक्र है। ढाकेकी बनी मलमलका एक वस्त्र बनवा कर
औरंगजेबकी पुत्रीने पहना था। तब उस समय औरंगजेब उस पर नाराज हुआ था । कारण यह था कि उसके सारे अंग दिखाई देते थे । बापको नाराज होते देख कर लड़कीने कहा-"कई तह करके तो मैंने इसे पहना है; इस पर भी यदि इसका बारीकपन दूर न हो तो मेरा क्या कुसूर है ?"
भारतकी कारीगरीकी हद हो गई । भला ऐसे ऐसे सुर-दुर्लभ वस्त्र आदि विदेशोंमें क्यों आदर न पावें ! उस समय भारतवर्ष लक्ष्मीका कीड़ा-स्थल था । स्वप्नमें भी भारतने दुर्भिक्षके दर्शन नहीं किये थे । पर विदेशी हाथोंमें पड़ कर भारतने अपनी स्वतंत्रताके साथ ही व्यापारको भी जलाञ्जलि देदी । यवनोंने इसे खूब कुचला । भुखमरे को जैसे अन्न मिलता हो उसी भाति यवनोंको भारत मिल गया था। बाप-दादोंने जैसे रत्नोंके स्वप्नमें भी दर्शन नहीं किये थे, वैसे बहुमूल्य रत्न वे भारतसे छीन छीन कर अपने देशमें ले गये । भारतको उन्होंने खूब ही लूटा, खूब ही मारा, कुछ कसर न रखी। इसी बीचमें अँगरेज व्यापारियोंकी दृष्टि इस मृतप्राय भारत पर पड़ी। उन्होंने इस कामधेनुको दुहना आरंभ किया--बस क्या था, भारतीय व्यापारकी जड़में ही कीड़ा लग गया । वह निरुपाय हो बैठ रहा।
कला-कौशलके साथ-ही-साथ लक्ष्मी भी रहती है। जब उनका अभाव हुआ तब विष्णुप्रिया लक्ष्मी भी भारतसे भाग कर यरोपमें पहुँच गई । भारतका व्यापार नष्ट हो गया, देश अपना कला-कौशल और सम्पत्तिको दूसरोंके सपुर्द कर बैठा। हमारा समस्त व्यापार विदेशी व्यापारियोंके हाथमें चला गया । भारतमें व्यापार
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