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भारतमें दुर्भिक्ष ।
व्यापारका अर्थ एक देशसे दूसरे देशको माल भेजना और मँगाना ही है । कच्चा माल दूसरे देशों से मँगा कर उसकी हरेक फैशन की चीजें बना कर दूसरे देशोंको भेजना और अपने देशके लिये आवश्यक वस्तुएँ तैय्यार करना सच्चा व्यापार कहलाता है । हमारे वैश्य समाजको इस बातका कुछ भी ज्ञान नहीं । वे जो व्यापार आजकल भारत में चला रहे हैं - वह सच्चा व्यापार नहीं कहा जा सकता । वह तो व्यापारकी नकल मात्र है । कच्चा माल हमारे देशसे जाता है और उसकी नाना भाँतिकी मनोमोहक वस्तुएँ तैय्यार होकर यहाँ आती हैं। इस पर भी असली नफा तो विदेशी खा जाते हैं और जूठन मात्र हमारे हाथमें आती है। विदेशी महाप्रभुओंकी बहुत गुलामी करने पर जो बची हुई जूठन यहाँके व्यापारी समा जके पहले पड़ती है, वही जूठन खा कर यहाँ के व्यापारी मूछों पर हाथ फेर कर संतुष्ट रहते हैं । हम यहाँ पर देश से गये कच्चे मालका और विदेशोंसे तैय्यार होकर आए हुए पक्के मालका दिग्दर्शन कराते हैं-
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सन् १९०६–७ से १९१३-१४ तक अर्थात् लड़ाईके पूर्व का औसत निकाला जाये तो प्रति वर्ष २१०९८८१०००) १० का माल भारतवर्ष से विदेशों को जाता है, उसमेंसे तैयार माल ६७७३८४०००) रु० का, कच्चा माल १३५८६२००००) का और सोना-चाँदी ७२८७७०००) का; और १८५८३६२०००) का माल विदेशोंसे हरसाल आता है, जिसमें तैयार माल १३६२१०८०००) का, कच्चा माल ६४२४२०००) का और ४३२०१२०००) का सोना-चाँदी । इसमें २५१५१२०००) का माल हिन्दुस्तान से हर साल जो आमदनसे ज्यादा जाता है, यह कर्ज के सूद में, अँगरेज अफसरोंकी तनखाह और पेन्शन में, स्टेट सेक्रेटरीकी तनखाह और उसके आसि
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