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वैश्य-समाज ।
उन्नतिके अत्युच्च शिखर पर चढ़ा हुआ था, और आज उसीके वंशजोंकी मूर्खतासे भारत विदेशियोंकी भोग्य वस्तु बन गया। वैश्योंको यह सेठ अर्थात् श्रेष्ठकी पदवी इसी लिये उस समय दी गई थी कि वे कृषिकार्य, गौ-रक्षा, वाणिज्य आदि श्रेष्ठ कार्यों में संलग्न थे । कृषिसे पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिये गौ-रक्षा परमावश्यक है। पर भारतके दुर्भाग्यसे ऐसा कुसमय आ गया कि अन्य वाके कर्तव्य-च्युत होनेके साथ ही वैश्य इतने कर्तव्य भ्रष्ट हो गये कि यदि उनके गुण-कर्मसे देखा जाय तो वे · वास्तवमें वैश्य कहानेके अधिकारी भी नहीं हैं। भारतमें दुर्भिक्षका एक कारण हमारे वैश्य-बन्धु भी हैं, अत एत हमें इन्हींके विषयमें लिखना है। कृषि वैश्योंका सबसे प्रथम कर्म है; जिसे उन्होंने सोलहों आने त्याग दिया है। व्यापार जो कि तीसरा कर्म है उसमें वे लगे हुए हैं, सो भी अनुचित रीतिसे। 'परन्तु जब पदार्थ ही पैदा नहीं किये जाते तब व्यापार कैसा ? यही कारण है कि हमारा व्यापारी समाज सट्टे और फाटके में संलग्न है। ___ यदि व्यापार उचित रीतिसे किया जाय तो भारतके दुःख-दारिद्रय दूर होने में एक क्षण भी न लगे । सब देशोंकी उन्नति उनके व्याणार पर ही निर्भर होती है । व्यापारकी उन्नति जब तक नहीं की जाती तब तक उस देशकी भी उन्नति नहीं होती। जब तक विदेशियोंके हाथमें देशके शासनकी बागडोर है तब तक हमारे व्यापारकी उन्नति भी कठिन है । इस तरह शासन और व्यापारकी बुनियाद एक दूसरेसे मिली हुई है । व्यापार सुचारु रूपसे तब ही चल सकता है जब कि देशके शासनका भार देशवासियोंके ही हाथ में हो । वर्तमान कालमें जापान आदि पर दृष्टि डालिए, उन्होंने व्यापार आदिमें किस प्रकारकी उन्नति प्राप्त कर ली है। यह उनके शासनकी बागडोर हाथ में रहनेका ही फल है।
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