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वैश्य-समाज।
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भारतको हानि और अन्य देशोंको लाभ है। मूर्खता-वश वे अपने भले बुरेको भी नहीं पहचान सकते । बलिहारी ऐसे व्यापारियोंके व्यापारकी जो दूसरे देशोंको धन-धान्यसे पूरित कर स्वदेश भारतको विना अन्न प्राणहीन कर डाले ! हमारा वैश्य-समाज थोड़ेसे लाभ पर, अपने देशका सारा अन्न विदेशियोंके हाथ बेच कर अपने भारतीय बन्धुओंकी, अगणित भूख-प्याससे मरते हुओंको, हत्याका भार अपने सिर पर ले रहा है। हम स्वीकार करते हैं कि यह भी व्यापार ह, किंतु देश और कालका ध्यान रख कर व्यापार करना ही सच्चा व्यापार कहाता है । यदि आपके पास भोजनको ४ रोटिया हैं, और भूख इतनी है कि इतनी रोटियोंसे उसका शांत होना कठिन है। इसी बीचमें यदि कोई आकर आपको द्विगुण मूल्य देकर वे रोटियाँ लेना चाहे और आप दे दें तो निस्सन्देह आपको भूखों मरना पड़ेगा । इसी ति यदि भूखे भारतका अन्न आप दूसरोंको अल्प लाभ पर देते रहेंगे तो भारतकी क्या दशा होगी, इसे आप ही विचार लीजिए ! ऐसी हालतमें वह अन्य देशोंसे अधिक मूल्य देकर भी अपना उदर नहीं भर सकता । अन्य देशोंके पास असंख्य धन है । वहाके लोग साहसी उद्यमी और स्वतंत्र-जीवी हैं। भला यह बेचारा दरिद्र, असहाय, परतंत्र दीन भारत उनकी समानता कैसे कर सकता है ? समय पड़ने पर विदेशीय लोग रुपयेका एक छटाँक अन्न खरीद कर भी “ दुर्भिक्ष है " ऐसा कदापि न कहेंगे! पर यह। तो दशा ही कुछ और है । वर्तमान समयमें लोग जिस विपत्तिका सामना कर रहे हैं, वह आँखोंके आगे हैं । सहस्रों भारतीय भाइयोंके प्राण अन्नके एक एक दानेके लिये तरसते तरसते नित्य शरीरसे कूच कर रहे हैं ! शिव शिव !! कैसा भयङ्कर समय उपस्थित है।
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