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भारतमें दुर्भिक्ष।
एक दिन वह भूखसे छटपटा कर अपने प्राण छोड़ देगा और उसके शवको गीदड़, कौवे आदि मांस-भोजी जीव खा डालेंगे!
भारतीय दरिद्रताका सवाल सार्वभौम दृष्टिसे भी हल किया जा सकता है। आप ही सोचिए कि यदि आप किसी समय रात्रिमें अपने सुसज्जित उत्तम भवनमें लिहाफ ओढ़ कर आरामसे सोते हों और उसी निशीथ रजनीकी प्राकृतिक शान्तिकी मधुरिमाको भंग करनेवाली क्रन्दनध्वनि जो किसी एक तीन दिनके भूखे,जाडेसे काँपते हुए मनुष्यकी उजाड़ झोंपड़ीसे निकलती हो, और उसे आप सुने तो क्या वह आपसे सुनी जायगी? या तो उसे आप उस स्थानसे हटा देंगे, अथवा कुछ सहायता कर उसकी जीवन-रक्षा करेंगे, ताकि फिर ऐसी कारुणिक. आवाज आपके कण-गोचर न हो । सड़को पर चलते समय भिखमंगे आपको दिक करें-, जैसे आजकल तीर्थों पर पण्डे किया करते हैंतो आपको यह भला मालूम होगा? या वे शान्ति-पूर्वक कोई रोजगार कर अपना जीवन निर्वाह करें सो भला मालूम होगा? आप यदि अपनी हैसियतमें कहींके सम्राट ही क्यों न हों, तथापि बहुत संभव है कि आपको पिछली बात बहुत ही अच्छी और उचित अँचेगी। बात भी सत्य है, गरीबी-अमीरीका प्रश्न एक ऐसा पेचीदा है, जिसके हल हुए बिना पूरी शान्ति स्थापित करना हर एक शासनप्रणालीकी सीमाके. बाहरकी बात है। पुलिस रख कर ही कोई शान्ति रक्षा कर सकेगा, यह कोई बात नहीं । जबरदस्ती आप किसीको काननका पाबंद तभी कर सकते हैं जब तक कि उसमें उस बंधनसे छुट जानेकी शक्ति नहीं आई हो । ज्यों ही उसमें आपसे बढ़कर शक्ति पैदा हो जायगी त्यों ही वह तुरन्त आपके फेरेसे निकल कर आपहीको धर दबावेगा । अत एव यह परमावश्यक है कि हम दूसरे की, निर्दयतासे उसकी स्वाधीनता छीन कर उसे अपने मातहत न बनावें ।इस प्रसंगमें यह अँगरेजी कविता उद्धृत करना अनावश्यक न होगाः
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