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कृषि ।
अपने काममें ही तुष्ट रहते हैं। कृषिमें लगी हुई जाति कदापि दासत्वसे मुक्त नहीं हो सकती । स्वेच्छाचारी राजा, सरदार या ब्राह्मण आदि सदा इन्हें पादाक्रान्त करते रहे हैं। वर्तमान कालमें ही देख लीजिए एक दुबला पतला, एक धक्के में ४ गुलाटें खाकर मुहँके बल गिरनेवाला ५) रु. मासिकका चपरारासी भी बेचारे दीन कृषकोंके दो ठोकरें मार ही देता है, मानो ये उसके बापके नौकर हों। ऐसे नीच अत्याचार सह लेनेका कारण यही है कि हमारे कृषकोंके अंग-प्रत्यंगमें दासताका भाव भर गया है । जरा विचारिए भारतीय कृषकोंकी कैसी दुर्दशा है । उनके सिर पर कोई-न-कोई भय सदा सवार रहता है । तो भी कृषकोंकी ही संख्या बढ़ती जाती है। मुख्य बात तो यह है कि निर्धनता उन्हें कृषक बना रही है।
जर्मनी और अमेरिका जैसे देश भी कृषि-प्रधान देश हैं, पर वह। कृषिकी पैदावार बढ़ रही है और कृषकोंकी संख्या घट रही है । कारण यह कि वे दूरदर्शिता और बुद्धिमत्तासे कृषिकार्य में उन्नतिके सर्वोच्च शिखर पर चढ़ गये हैं। भारतीय कृषकके मुकाबले में एक अँगरेज चार गुना और एक अमेरिकन कृषक आठ गुना काम कर सकता है। अमेरिकाकी कृषिविद्या सर्वोच्च है। वहाँ नित्य नये परिवर्तन और सुधार किये जा रहे हैं । कृषि-सम्बन्धी प्रत्येक कार्यके सुधारमें वे लोग दत्तचित्त हैं । कृषि-सम्बन्धी औजारों, कलों आदिमें उन्होंने बहुत कुछ सुधार कर डाला है । वे भारतवर्षकी भैाति परदादाके हाथके बनाये हलको चलाना अपना धर्म नहीं समझते । अमेरिकाके कृषक धनी, तेजस्वी, यशस्वी, शिक्षित और स्वतंत्र हैं। अमेरिकाने कृषिकार्य में अपार सफलता प्राप्त कर ली है। यदि वहाँवालोंको अपने खेतमें पानी देने की आवश्यकता होती है तो भारतीयोंकी भैाति वे चरस,रहँट,या दकलीसे दिनभर सिर नहीं फोड़ते।
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