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भारतमें दुर्भिक्ष ।
आने-जानेकी सुविधायें कर देना था । परन्तु इस देशमें लोह-शिल्प न होनेके कारण केवल कच्चे मालका निर्यात (बाहर भेजा जाना) और बनी वस्तुओंके आयातकी ( बाहरसे आना ) वृद्धि इससे हुई।
(४) भारतवर्ष की पूजी अत्यन्त लाजवती है, जो घरोंके भीतर छिपी पड़ी रहती है। भारतवासी केवल व्यवसाय, लेन-देन तथा अन्य पुराने धन्धों में रुपया लगाते हैं, जिनमें जोखिम नहीं है । जो कुछ उद्योग-धन्धे अभी तक स्थापित हुए हैं वह विदेशियोंके उद्योगसे हुए हैं।
(५) भारतवर्ष में निपुण इंजीनियरों और शिल्पविज्ञान वेत्ताओंका अभाव है। इस विषयमें वह विदेशियों पर आश्रित है । युद्धके समयमें यह पराधीनता तथा मशीनों आदिके यहाँ बनने की आवश्यकता सबको स्पष्ट हो गई है।
(६) राज्यकी ओरसे दो त्रुटियाँ चौथे और पाँचवें कारणकी उत्तेजक हुई। भारतकी सरकारका खरीदका कोई विभाग यहँ। नहीं है। वह इंडिया आफिसके ( भारत-मंत्रीका विभाग) द्वारा इंग्लैण्डसे खरीद करती है। फिर विज्ञानकी शिक्षाका प्रबन्ध न करना सरकारकी एक बड़ी भयंकर भूल है।
सारांश हमारे देशकी औद्योगिक व्यवस्था सर्वथा अपूर्ण है। सामग्री, पूर्जी और लादनेवाले सबके लिये हम विदेशियों पर आश्रित हैं। माननीय मालवीयजीको अपने भिन्न नोट में तीसरे कारणके सम्बन्धमें कुछ और भी बक्तव्य है। एक तो वह यह सिद्ध करते हैं कि इंग्लैण्डने भारतीय आयात माल पर टैक्स बिठला कर और ईस्ट इंडिया कम्पनीके राजनैतिक प्रभुत्वका उपयोग यहाँके उद्योगों को नष्ट करनेमें करके वहाँके स्वार्थी वणिकोंको लाभ उठाने दिया। उदा
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