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भारत की खोज
कोई भी समस्या हल नहीं कर पाए। तो जीवन इतना गंदा हो गया है, जीवन इतना कुरूप हो गया है, जीवन इतना वोझिल हो गया है कि अब सिवाए जीवन को छोड़ने के और कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता । इस मकान में हम बैठे हुए हैं, इस मकान को हम इतना गंदा कर लें, इतनी दुगंध भर लें, इतना कूड़ा करकट इकट्ठा कर लें कि इस मकान के भीतर सांस लेना मुशकल हो जाए तो हर आदमी यह पूछेगा वाह र जाने का दरवाजा कहां हैं? 'मुझे बाहर जाना है ! ' मैं इस मकान के बाहर कैसे हो जाऊं लेकिन काश हम इस मकान को सुंदर कर लें क्योंकि जो मकान असुंदर हो सकता है वह सुंदर भी हो सकता है। जो मकान गंदा हो सकता है वह स्वच्छ भी हो सकता है, जो मकान कुरूप हो सकता है, जो मकान अगली हो सकता है वह ए क सुंदर सौंदर्य का नमूना भी बन सकता है। अगर हम इस मकान को सुंदर कर लें तो फिर कोई नहीं पूछेगा की बाहर का रास्ता कहां है बल्कि सड़क पर चलने वाले लोग पूछेंगे की मकान के भीतर का रास्ता कहां है?
जब कोई कौम, मोक्ष की बहुत ज्यादा चिंता करने लगे तो समझना चाहिए की वह कौम बीमार पड़ गई है। जीते जी आदमी को जीवन की चिंता करनी चाहिए मरने की नहीं जब मरेंगे तब मरेंगे। उसके पहले क्यों मर जाएं। जब मरेंगे तब मर ही जा एंगे तो इतनी जल्दी क्या पहले से मरने का इतना आयोजन क्या है और मेरी अपनी समझ यह है कि जो आदमी जीवन के रस को जान लेता है वह कभी नहीं मरता, क्योंकि जीवन के रस को जान लेने से वह वहां पहुंच जाता है जहां जीवन का स्रो त है जहां परमात्मा है।
और जो लोग जीवन के रस को नहीं जान पाते और जीवन के आनंद को नहीं जान
पाते वह जीते हैं तो मरे हुए मरने की कामना करते हुए और मरके भी वह कहीं नहीं पहुंचते क्योंकि मरेगा कौन? करीब-करीब पहले ही मरे हुए थे मरने का भी उ पाए नहीं। मरते भी तो वह हैं जो जीते हैं। हम मर भी तो नहीं सकते ठीक से क्यों कि ठीक से हम जीए ही नहीं। ठीक से जीने वाला ठीक से मर भी सकता है और मेरी दृष्टि में ठीक से जीना भी एक आनंद है और ठीक से मरना भी एक आनंद है। लेकिन न जीवन कोई आनंद है न मारना कोई आनंद है। सब एक बोझ हो गया है
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क्या एक-एक आदमी के सिर पर यह बोझ दिखाई नहीं पड़ता हैं। एक बच्चा पैदा ह ता हैं और हम बोझ उसके सिर पर रख देते हैं। पैदा होते ही हम बोझ सिर पर र ख देते हैं उसकों हम धार्मिक शिक्षा इत्यादि-इत्यादि अच्छे नाम बोलते हैं की हम ध ार्मिक शिक्षा दे रहे हैं। हर बूढ़ा आदमी यही चाहता है की दुनियां में कोई बच्चा पैद ान हो बच्चे तरह सब बूढ़े पैदा हो।
रविंद्रनाथ ने एक छोटा-सा स्कूल खोला था। सबसे पहले जहां अब शांति निकेतन हैं।
रविंद्रनाथ के पास कोई बच्चे भजने को राजी नहीं हुआ क्योंकि रविंद्रनाथ वहां जीव न की शिक्षा देना चाहते थे और लोगों ने कहा जीवन की शिक्षा ? शिक्षा तो मोक्ष की होनी चाहिए, तब लोग सुधरेगें और रविंद्रनाथ विश्वास योग आदमी न मालूम प
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