Book Title: Bharat ki Khoj
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

View full book text
Previous | Next

Page 105
________________ भारत की खोज पशु हो जाओ नहीं, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि इसे जितना हम पहचानेंगे उतनी ही पहचान के द्वारा, इसमें रूपांतरण में परिवर्तन शुरू होते हैं। अगर कोई आदमी अपने भीतर देख ले कि उस उस दिशा में उसके भीतर पशु है, सर्फ देख ले कुछ और करना नहीं है पहचान ले कि मैं इस दिशा में पशु हूं और पि रवर्तन शुरू हो गया। पहचानते ही परिवर्तन शुरू हो गया। जैसे ही मैंने यह पहचाना कि मेरी यह घृणा, मेरा यह प्रेम, मेरा यह क्रोध, मेरी यह मालकियत, मेरा यह ड ेोमिनेशन एक पशु का हिस्सा है। सुना हुआ नहीं किसी और का कहा हुआ नहीं, मैंने अपने भीतर पहचाना, मैंने अपने भीतर खोज की कि यह मेरा पशु है और मैं आप से कहता हूं यह पहचान, यह रकगनिशन यह प्रतिभिज्ञा कि मैंने पहचाना, यह शु हैं और मेरे भीतर परिवर्तन की शुरुवात हो गई क्योंकि कोई भी पशु नहीं रह सकत है, नहीं रहना चाहता है। पशु हम तभी तक रह सकते है जब तक पशु अनजान हो, अंनोन हो, अनरिकगनाई स हो, पहचाना ना गया हो, जाना ना गया हो, आंख की रोशनी उस पर ना पड़ी ह हो, तभी तक हम पशु रह सकते हैं। और हमारे आदर्शवाद ने यह काम पूरा कर दि या है। आदर्श पर हमारी आंख लगी है आदर्श पर जो हम नहीं हैं, और जो हम हैं वहां से आंख हट गई है। हम देख रहे हैं आदर्श पर आगे, भविष्य में कल परसों, अ हिंसक हो जाऊंगा में, और हिंसा, हिंसा बिना देखे भीतर काम कर रही है । आज न हीं कल परमात्मा हो जाऊंगा मैं, आज नहीं कल इस जन्म में, अगले जन्म में मोक्ष मिल जाएगा। नजर वहां लगी है भविष्य पर और जो मैं हूं वहां से नजर हट गई है। जहां से नजर हट गई है वहां अंधेरा हो गया । जहां अटेंशन नहीं है, ध्यान नहीं है वहां अंधकार हो गया । और जहां अंधकार हो ग या वहां रूपांतरण कैसे होगा, वदलाहट कैसे होगी। आंख ले जानी है वहां जहां मैं हूं जो मैं हूं। लेकिन एक ही कठिनाई है वही कठिनाई रोकती है। स्वयं को देखने से, J और वह कठिनाई यह है कि स्वयं को देखना बहुत कष्टपूर्ण है। बहुत तपश्चर्या पूर्ण है क्योंकि हमने अपने अहंकार में अपनी एक प्रतिमा बना रखी है जो बड़ी सुंदर है और हम बड़े कुरूप है। हम बहुत अग्ली है, और प्रतिमा हमने बड़ी सुंदर बना रखी है। उस प्रतिमा को देखकर दिखाने के हम आदी हो गए हैं, हमारे अहंकार ने कहा है क यही मैं हूं। अब उस प्रतिमा को तोड़ना पड़ेगा, भीतर असली कुरूपता को देखने जाना है। इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं हम | इसको ही मैं तपश्चर्या कहता हूं। स्व यं निर्मित अपने ही अहंकार की प्रतिमाओं के खंडन का नाम तपश्चर्या है। उससे ज्या दा आर्डअस उससे ज्यादा श्रमपूर्ण, उससे ज्यादा कठिन और कुछ भी नहीं है । अपनी ही प्रतिमाओं को अपने हाथ से गिरा देना और उसे देखना, जो मैं वस्तुतः हूं, जो मे री कल्पना नहीं, जो मेरा आदर्श नहीं, जैसा मैं हूं । कैसा हूं मैं? उसे देख लेना उसक नग्नता में पहचान लेना, क्रांति की शुरूवात है। बदलाहट की शुरूवात है। Page 105 of 150. http://www.oshoworld.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150