Book Title: Bharat ki Khoj
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओशो नए भारत की खोज टाक गिवन इन पूना, इंडिया डिस्कोर्स नं० १ भारत की खोज मेरे प्रिय आत्मन्, एक अंधेरी रात में, आकाश तारों से भरा था और एक ज्योतिषि आकाश की तरफ आंखें उठाकर तारों का अध्ययन कर रहा था। वह रास्ते पर चल भी रहा था औ र तारों का अध्ययन भी कर रहा था। रास्ता कब बदल गया उसे पता नहीं क्योंकि जिसकी आंख आकाश पर लगी हों उसे जमीन के रास्तों पर भटक जाने का पता न हीं चलता । पैर तो जमीन पर चलते हैं और अगर आंखें आकाश को देखती हैं तो पैर कहां चले जाएंगे इसे पहले से निश्चित नहीं कहा जा सकता। वह रास्ते से भटक गया और र ास्ते के किनारे एक कुएं में गिर पड़ा। जब कुएं में गिरा तब उसे पता चला। आंखें तारे देखती रहीं और पैर कुएं में चले गए। वह बहुत चिल्लाया अंधेरी रात थी गांव दूर था पास के एक खेत से एक बूढ़ी औरत ने आकर वामुशकल से उसे कुएं के व हर निकाला। उस ज्योतिषि ने उस बुढ़िया के पैर छुए और कहा 'मां! तूने मेरा जीवन बचाया है शायद तुझे पता नहीं मैं कौन हूं? मैं एक बहुत बड़ा ज्योतिषि हूं और अगर तुझे आ काश के तारों के संबंध कुछ भी समझना हो तो तू मेरे पास आ जाना। सारी दु नया से बड़े-बड़े ज्योतिषि मेरे पास सीखने आते हैं। उनसे बहुत रुपया मैं फीस में ले ता हूं, तुझे मैं मुफ्त में बता सकूंगा । उस बूढ़ी औरत ने कहा, बेटे मैं कभी तुम्हारे पास नहीं आऊंगी। क्योंकि जिसे अभी जमीन के गड्ढे नहीं दिखाई पड़ते उसे आकाश के तारों के ज्ञान का कोई भरोसा नहीं। भारत की समस्याएं तो पृथ्वी की हैं और भारत की आंखें सदा से आकाश पर लगी रही हैं। भारत तारों का अध्ययन कर रहा है और जमीन पर उसके सारे रास्ते भट क गए हैं और उस ज्योतिषि को तो पता भी चल गया कि कुएं में गिर पड़ा। भारत को अभी भी पता नहीं चल सका है कि हम हजारों साल से कुएं में ही पड़े हैं। कन आंखें तो कुएं में से भी आकाश को देखती रह सकती हैं। आंखें आकाश के ता रों की ही बात सोचती रहती हैं और जीवन हमारा कुएं में पड़ गया है। बल्कि कुआं Page 1 of 150 http://www.oshoworld.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हमें दिखाई न पड़े इसलिए हम कुएं की तरफ देखते ही नहीं हम आकाश की ही तरफ देखते रहते हैं। कुएं की तकलीफ दिखाई न पड़े इसलिए आकाश की तरफ दे खते रहते हैं और धीरे-धीरे हमने यह भूलने की कोशिश की है कि कुआं है भी ह्व आचार्य शंकर जैसे लोगों ने समझाने की कोशिश की है कि यह सब संसार माया है, यह सब गडढे माया हैं. यह सारी समस्याएं माया है। जिन लोगों ने इस देश के जी वन की सारी स्थिति को माया कहा है उन्होंने समस्या को हल करने में कोई भी सा थ नहीं दिया, समस्या को भुलाने में सहयोग दिया है। जीवन की समस्याएं बहूत वास्तविक हैं। आकाश के तारों से कम वास्तविक नहीं हैं जीवन के रास्ते कुएं और गड्ढे और आंखों से कम वास्तविक नहीं है पैर। आंखें तो सपना भी देखती हैं और झूठ में उतर जाती हैं पैर कभी सपना नहीं देखते और जब भी चलते हैं ठोस जमीन पर ही चलते हैं। इस छोटी-सी कहानी से मैं अपनी इन तीन दिनों की बात शुरू करना चहता हूं। क्यों कि मेरे देखे समस्याएं संसार की हैं और भारत की जो प्रतिभा है, भारत की जो or द्धमत्ता है वह मोक्ष की तरफ झुकी हुई है। समस्याएं सभी की हैं और भारत की जो प्रतिभा है वह आत्मा से नीचे वात नहीं करती। समस्याएं जीवन की हैं और भारत की प्रतिभा कहती है जीवन माया है इनोसंट है। समस्याएं यहां की है और भारत की प्रतिभा वहां दूर आकाश की तरफ देखती रहती है। इस भांति हमारी समस्याएं भी इकट्ठी होती गई हैं हमने कोई समस्या हल नहीं की और हमारी प्रतिभा भी विक सित होती गई है। यह दोनों अद्भुत घटनाएं एक साथ घट गई हैं। प्रतिभा भी विका सत नहीं हैं हमने वूद्ध और महावीर जैसे प्रतिभाशाली लोग पैदा किए है और भारत जैसा गरीब भुखमरा और वीरहीन देश भी पैदा किया। एक तरफ प्रतिभा भी पैदा होती चली गई और दूसरी तरफ हमारी समस्याएं भी इ कट्ठी होती चली गईं। हमारी प्रतिभा और हमारी समस्याओं में कोई तालमेल भी नह । हमारी जिंदगी कहीं और है और हमारा मन कहीं और है। हमारा बुद्धिमान आद मी बातें कुछ और करता है और जीता कहीं और है। हमारे जीने में और हमारे वि चार में एक नियादि द्वत्व, एक विरोध पैदा हो गया है। हमारा विचार एक तरफ चलता है हमारा जीवन दूसरी तरफ चलता है। हमारा विचार और हमारा जीवन ए क दूसरे की तरफ पीठ किए हुए है। इसलिए विचार भी विकसित हो जाता है और जीवन अविकसत रह जाता है। भारत की समस्याओं में पहली समस्या यही है कि हमारे विचार और हमारे जीवन में कोई ताल-मेल नहीं है। हमारा जीवन वैसा ही जीवन है जैसा पृथ्वी पर किसी औ Page 2 of 150 http://www.oshoworld.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज र का, लेकिन हमारे विचार जीवन के यथार्थ को छूने वाले नहीं हैं और हम निरंत र उन लोगों से यह पूछते हैं समाधान, जो समस्याओं को ही इंकार करते हैं। मैंने सुना है न्यूर्याक में एक घुड़दौड़, एक रेस हो रही थी। पांच मित्र संयुक्त रूप से उस घुड़दौड़ में दौड़ लगाने के लिए गए हुए थे । उन पांचों मित्रों ने बैठ कर तय कि या की किस घोड़े पर दांव लगाया जाए । गागरीन नाम के घोड़े पर दांव लगाना है यह उन्होंने तय किया और अपने एक साथी को, वरमन नाम के एक युवक को क हा कि, 'वह जाकर चारों पांचों की तरफ से दांव लगा आए । वह युवक गया, वह दांव लगा कर वापिस लौटा लेकिन उसने कहा कि मैं दांव तो गागरीन नाम के घोड़े पर लगाने गया लेकिन वहां मुझे एक आदमी मिल गया वनसटीन और उसने कहा 'पागल हुए हो गागरीन आने वाला ही नहीं है । तू विक्टोरिया नाम की घोड़ी पर दां व लगा दें', तो मैं विक्टोरिया नाम की घोड़ी पर दांव लगा आया हूं। थोड़ी देर में पता चला की गागरीन आ गया नंबर एक और विक्टोरिया नाम की घोड़ी का कोई पता नहीं चला। पांचों मित्रों ने सिर ठोक लिए। फिर उन्होंने दूसरे दांव पर तय किया । अपोलो नाम के घोड़े पर लगाने के लिए फिर भेजा मित्र को, वह वापिस लौटा और उसने कहा, 'मैं गया वनसटीन फिर मुझे दर वाजे पर मिल गया आफिस के और उसने कहा 'पागल हो गए हो अपोलो कभी आ या ही नहीं कभी आ भी नहीं सकता। ज्योतिषियों का कहना है कि जेड नाम का घो. डा आने वाला है तुम उस पर दांव लगा दो' मैं जेड पर ही दांव लगा आया हूं। थो डी देर बाद खबर आई अपोलो नंबर एक आ गया है, जेड का काई पता नहीं । पांचों मित्रों ने सिर पीट लिए फिर उन्होंने तीसरी बार दांव लगाने उसी मित्र को भे जा उसने लौटकर फिर आकर बताया की वनसटीन मिल गया था और उसने यह ब ताया है की यह घोड़ा तो आने वाला नहीं मैं दूसरे घोड़े पर लगा आया हूं। ऐसे चा र दांव वह हार गए उनके सारे पैसे खत्म हो गए और चारों बार उन्होंने जिस घोड़े को सोचा था वह घोड़ा आया लेकिन उस पर तो दांव नहीं लगाया गया था। फिर उन पांचों के पास इतने ही पैसे बचे थे की उन्होंने कहा अब तो अच्छा यही है की जाकर तुम कुछ काजू खरीद लाओ। अब हम काजू खा लें और घर चल पड़ें। उस मित्र को भेजा और वहां से वह मूंगफली खरीद कर वापिस लौटा तो उन्होंने कहा मूंगफली खरीद लाया। उसने कहा वनसटीन मेट एगेन, वह वनसटीन फिर मिल गया उसने कहा ‘काजू, पागल हो गए हो, काजू खाने से आदमी बीमार पड़ जाता है और मूंगफली वह सभी चीजें हैं जो काजू में होती हैं मूंगफली सस्ती मिलती है', तो मैं मूंगफली खरीद लाया। लेकिन एक बड़े मजे की बात है पांचों बार उसे एक ही अ आदमी मिल गया और पांचों बार वह उसी की बात मानता गया और हर बार हारता चला गया और फिर उसी की बात मानता चला गया और फिर हारता चला गया। Page 3 of 150 http://www.oshoworld.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हमें उस आदमी पर हंसी आती है की पागल था वह, लेकिन अगर हम भारत की पू री कथा उठाकर देखें तो हम हैरान होंगे। जिन लोगों की बात हम मानते जाते हैं और दांव लगाते जाते हैं हर दांव हारते जाते हैं फिर उन्ही के पास पूछने जाते हैं, फिर दांव हार जाते हैं यह हजारों साल से चल रहा है। भारत अब तक कोई दांव जीता नहीं और भारत कभी दांव जीतेगा भी नहीं क्योंकि वह वनसटीन फिर मिल जाता है उसे दरवाजे पर जिनसे हम पूछते हैं जीवन की समस्याओं के हल, वह लोग गलत हैं क्योंकि वह वे लोग हैं जो कहते हैं जीवन असार है और जिन लोगों ने यह मान रखा हो की जीव न असार है, वह जीवन की समस्याओं के हल कैसे बता सकते हैं। जब जीवन असार है तो समस्याएं भी असार हो गईं और असार समस्याओं के समाधान नहीं खोजने प. डते, उन समस्याओं के समाधान खोजने पड़ते हैं जो सार हो और जब जीवन ही अ सार है तो इसकी कोई समस्या सार्थक नहीं है सब व्यर्थ है । और भारत हजारों वर्ष से जीवन को माया कहने वाले लोग, जीवन को व्यर्थ कहने वाले लोगों से मोक्ष को सत्य कहने वाले लोग और पृथ्वी को असत्य कहने वाले लो गों से अपनी समस्याओं के समाधान मांग रहा है। हर बार दांव हार जाता और फिर हम उन्ही के पास हाथ जोड़कर खड़े हो जाते हैं समाधान मांगने के लिए और कोई भी यह नहीं सोचता कि कहीं ऐसा तो नहीं है हमने गलत दरवाजे पर खटखटाना शुरू कीया है। मेरी अपनी दृष्टि में हमारी पहली समस्या यही है की हम गलत जगह समाधान खो ज रहे हैं। जो लोग जीवन को यथार्थ नहीं मानते उनसे जीवन की कोई समस्या का समाधान नहीं हो सकता। जीवन की समस्याओं का समाधान वह लोग कर सकते हैं जो जीवन को यथार्थ मानते हैं जो मानते हैं कि जीवन एक सत्य है जब समस्या अ सत्य है तो समाधान की क्या जरूरत है? एक आदमी को सपने में किसी ने गोली मार दी। वह आदमी जागा और वह आपसे पूछता है, 'मैं अदालत में मुकदमा चला ऊं सपने में एक आदमी ने मुझे गोली मार दी । हम कहेंगे तुम पागल हो, सपना झू ठा है और अदालत में मुकदमा चलाने की कोई भी जरूरत नहीं है। सपना ही झूठ है तो सपने के भीतर जो गोली मारी गई है वह भी झूठी है जिसने गोली मारी वह भी झूठा है, यह सब झूठ है। भारत ने अपनी समस्याओं का समाधान नहीं खोजा है। समस्याओं को इंकार करने की व्यवस्था खोजी है और जो समाज समस्याओं को इंकार कर देता है वह कभी ह ल नहीं कर पाता बल्कि यह भी हो सकता है कि शायद हम हल नहीं कर पाते हैं इसलिए हमने इंकार करने की व्यवस्था खोजी है। शायद हम हल नहीं कर सकते हैं, नहीं कर पाते हैं नहीं सोच पाते हैं कैसे हल करें तो हम कहते यह समस्या ही नहीं है। शतुरमुर्ग रेत में मुंह गड़ा कर खड़ा हो जाता है अगर दुश्मन उस पर हमला करे । रे मुंहगड़ाने से दुश्मन दिखाई नहीं पड़ता । तो शुतुरमुर्ग सोचता है की दुश्मन दि त Page 4 of 150 http://www.oshoworld.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज खाई नहीं पडता. वह नहीं है। जो दिखाई नहीं पड़ता वह हो कैसे सकता है? लेकिन शुतुरमुर्ग के सिर खपा लेने से रेत में आंख बंद कर लेने से दुश्मन मिटता नहीं है। बल्कि शुतुरमुर्ग आंख बंद कर लेने से और कमजोर हो जाता है। खुली आंख में बच भी सकता था, भाग भी सकता था, लड़ भी सकता था लेकिन बंद आंख से शुतुरमु र्ग क्या करेगा। दश्मन के हाथ में और भी खिलवाड हो जाता है। लेकिन शतरमर्ग का लोजिक यह है, तर्क यह हैं जो नहीं दिखाई पड़ता वह नहीं है। वह दुश्मन को दू श्मन से पैदा हुई स्थिति को हल करने में नहीं लगता। दुश्मन को भूलने में लग जात । है, आंख बंद कर भूल जाता है की दुश्मन है। भारत अपनी समस्याओं के प्रति एस्केपिस्ट है पलायनवादि है वह कहता है समस्याएं हैं ही नहीं। संसार माया है यह सब झूठ है जो दिखाई पड़ रहा है और सत्य, सत्य वह है जो दिखाई नहीं पड़ रहा है। सत्य वह है जो आकाश में, सत्य वह है जो मृत् यु के बाद है, सत्य परमात्मा है और प्रकृति, प्रकृति बिलकुल असत्य जवकि सच्चाई उल्टी है। प्रकृति परिपूर्ण सत्य है और अगर परमात्मा भी सत्य है तो वह प्रकृति की ही गहराइयों में खोजने से उपलब्ध होगा, प्रकृति के विरोध में खोजने से नहीं। अगर परमात्मा भी सत्य है तो वह इसी जीवन की गहराइयों में मौजूद होगा। इस जीवन की दुश्मनी में किसी आकाश में नहीं। अगर परमात्मा सत्य है तो वह भी मेरे भीतर सत्य होगा और आपके भीतर सत्य होगा, पत्थर में सत्य होगा, पौधे में सत य होगा। उसका सत्य भी जीवन को इंकार करने में सिद्ध नहीं हो सकता। लेकिन ह मने एक होशियारी, एक चालाकी की बात की है और वह चालाकी की बात यह है की जीवन के पूरे के पूरे रूप को हमने कह दिया। असत्य, माया है, इलूजन है औ र जब सारा जीवन एक सपना है तो समस्याओं को हल करने की जरूरत क्या है ? समस्याएं हैं ही नहीं जो हल करता है वह पागल है। हिंदुस्तान में वह लोग बुद्धिमान हैं जो हल नहीं करते और भाग जाते हैं और वह पागल हैं जो जिंदगी में जूझते हैं , हल करते हैं वह नासमझ है वह अज्ञानी है ज्ञानी तो भाग जाता है हिंदुस्तान में ज्ञ नी वह है जो भाग जाता है और अज्ञानी वह जो जूझता है लड़ता है जिंदगी को व दलने की कोशिश करता है। अगर आप कीसी बीमारी का इलाज कर रहे हैं तो पागल हैं नासमझ हैं अज्ञानी है ज्ञानी तो कहता है बीमारी है ही नहीं क्योंकि शरीर ही असत्य है। अगर आप गरीब । को मिटाने की कोशिश कर रहे हैं तो आप अज्ञानी हैं गरीबी है ही नहीं आत्मा न गरीब होती है न अमीर होती है। वाहर जो दिखाई पड़ रहा है वह सब झूठ है, एक सपना है, न कोई अमीर है, न कोई गरीब है। वह जो भीतर आत्मा है वह न अमीर है न वह गरीब है। इसलिए F हदुस्तान हजारों साल से गरीब है और गरीव रहेगा जब तक उसको वनस्टीन मिलता रहेगा। जब तक इन लोगों से वह जाकर पूछता रहेगा की हम क्या समाधान करें? वह कह देंगे की जिंदगी तो झूठ है इसलिए हिंदुस्तान हजारों वर्ष से गरीव रहने के Page 5 of 150 http://www.oshoworld.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज बाद भी गरीबी को दूर नहीं कर पाया और नहीं दूर कर पाएगा क्योंकि गरीबी को कौन दूर करेगा, बीमारी को कौन दूर करेगा। जिंदगी में इतने दुःख हैं इतना कलह है, इतने कौनसलिट है, इतना संघर्ष है, इतनी कुरूपता है, सारा जीवन एक नरक हो गया। इस नरक को कौन बदलेगा, इस नर क को वह लोग ही बदल सकते हैं जो इस नरक को यथार्थ ही मानते हैं यथार्थ मा नते हो तो बदलने के रास्ते खोजे जा सकते हैं और अगर यह यथार्थ ही नहीं है तो | समाप्त हो गई फिर एक ही काम है आंख बंदकर के बैठ जाने का। हिंदुस्तान की प्रतिभा आंख बंद करके बैठी है। हम आंख बंद करके बैठने वाले लोगों को आदर भी बहुत देते हैं हम समझते है की वह आदमी आंख बंद करके बैठ जाता है वह धार्मिक हो जाता है। हम सोचते हैं। जो आदमी जिंदगी की तरफ पीठ कर लेता है वह ज्ञानी हो जाता है। हम उसके पैर छूते हैं क्योंकि इस आदमी ने संसार का त्याग कर दिया क्योंकि इस आदमी ने जी वन को इंकार कर दिया। जो आदमी जीवन का दुश्मन है उसे हम सम्मान देते हैं। भारत में जीवन विरोधी प्रतिभा को सम्मान मिल रहा है इसलिए जीवन की समस्यों का हल करने का कोई रास्ता नहीं। जीवन की समस्याएं कौन हल करेगा। प्रतिभा से , बुद्धि से जीवन की समस्याएं हल होती हैं और अगर बुद्धि ने इंकार करने का रास ता पकड़ लिया हो तो समस्याएं कैसे हल होगी? हम एक स्कूल में बच्चों को एक सवाल दें और वह सारे बच्चे उठकर कहें सवाल ि मत्था है, माया है क्यों हल करें जो है ही नहीं तो उस स्कूल में फिर गणित विकसि त नहीं होगा। गणित के विकास की क्या जरूरत रहेगी? सवाल को सही माना जाए तो सवाल को हल करने की कोशिश की जा सकती है और सवाल को इंकार कर दिया जाए तो हल करने का क्या सवाल? भारत जीवन के सवालों को इंकार कर र हा है, बात ही नहीं कर रहा है और अगर कभी कोई बात भी करता है तो वह बा त एक्स्प्लेशन होती है, व्याख्या होती है, समाधान नहीं होता जैसे भारत गरीब है ह जारों साल से गरीब है, आज। आदमी और गरीबी को मिटाया जा सकता है, धन पैदा करना आदमी के हाथ में है , धन को बांटना आदमी के हाथ में है, धन की सारी व्यवस्था आदमी के विचार से निसपन्न होती है लेकिन भारत ने एक व्याख्या खोज रखी है। वह कहता है आदमी ह पहली तो बात यह है की सब झूठ है जो बाहर दिखाई पड़ता है तो गरीबी भी ए क सपना है अमीरी भी एक सपना है, और जब दोनों ही सपने हैं तो फर्क क्या है? सपनों को बदलने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। भूख भी एक सपना है और पेट भरा होना भी एक सपना है। पेट भरे होने वाले आ दमी के लिए तो यह वात बहुत अच्छी है लेकिन भूखे आदमी के लिए बहुत खतरना क है। पेट भरा आदमी कहता है की विलकुल ठीक कहते हैं महाराज। सव जिंदगी सपना है क्योंकि पेट भरे आदमी को यह व्याख्या बहुत सहयोगी है जब सभी सपना Page 6 of 150 http://www.oshoworld.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लोगों को नं है तो वह लोगों को लूटता चला जाए, लोगों का खून पीता चला जाए, गा और भूखा करता चला जाए जब सभी सपना है तो हर्ज क्या है ? पेट भरे आदमी के लिए यह व्याख्या ठीक है लेकिन भूखे आदमी के लिए यह व्याख्य ा जहर है, अफीम है। क्योंकि भूखा आदमी भूखा रह जाएगा और भूख बहुत सत्य है शरीर बहुत सत्य है, यह जो पदार्थ है बहुत सत्य है, यह जो चारों तरफ दिखाई प ड रहा है यह बहुत सत्य, यह असत्य नहीं है, इस जगत में कुछ भी असत्य नहीं है । इस जगत में जो भी है वह सत्य है और इस जगत के पूरे सत्य को जो जान लेत है वही परमात्मा को भी जान पाता है । जगत के सत्य को अस्वीकार करने से नहीं लेकिन या तो हम एक तरकीब है हमारे पास की हम कह दें सब झूठ है। एक दूस री तरकीब है की हम कुछ व्याख्याएं खोज लें हम गरीब आदमी को कहें की तू अप ने पिछले जन्मों के पापों का फल भोग रहा है, इसलिए हम क्या कर सकते हैं ? कल मैं जिस ट्रेन में था तीन आदमी मेरे डिब्बे में और थे। तीनों पढ़े लिखे लोग थे। वह तीनों बडी देर से विवाद कर रहे थे फिर एक आदमी ने कहा की इस साल भ ऐसा मालूम पड़ता है की पानी नहीं गिरेगा । जगह-जगह अकाल होगा। दूसरे आदम की ने कहा, 'होने ही वाला है। सब हमारे पापों का फल है ।' पानी नहीं गिर रहा वह हमारे पापों का फल है। बिहार में अकाल पड़ा तो गांधी जी ने कहा की बिहार के लोगों ने हरिजनों के साथ जो पाप किए हैं उसका फल भोग रहे हैं। जैसे हिंदुस्तान भर के लोगों ने हरिजनों के साथ पाप नहीं किए। हमारी हजारों साल की व्याख्या यह है की जिंदगी की समस्या को इंकार करने के लए कोई व्याख्या दे दो। आदमी गरीब क्यों है? उसने पिछले जन्मों में बुरे पाप किए हैं, बुरे कर्म किए हैं इसलिए गरीब है। बात खत्म हो गई क्योंकि पिछले जन्मों के कर्मों को अब तो नहीं बदला जा सकता है अब तो भोगना ही पड़ेगा। हां, इस जन् म में बुरे कर्म न करें। वह आदमी तो अगले जन्म में वह भी सुख भोग सकता है। अब अगले जन्म का कोई पता नहीं है और पिछले जन्म के साथ कुछ भी नहीं किया जा सकता फिर इस गरीबी के साथ क्या किया जाए। सिवाय स्वीकार करने के को ई रास्ता नहीं है। हमारी व्याख्याएं स्वीकृती सिखाती है बदलाहट नहीं, क्रांति नहीं, परिवर्तन नहीं एक गरीब आदमी क्या करे गरीबी मिटाने के लिए पहली तो बात यह है गरीबी उसके कर्मों का फल है और कर्म अब नहीं बदले जा सकते। जो उसने पिछले जन्म में किए हैं उनका फल भोगना पड़ेगा मैंने अगर आग में हाथ डाल दिया है तो मेरा हाथ ज लेगा और मुझे जलन भोगनी पड़ेगी। पिछले जन्म में कर्म किए उनकी गरीबी मुझे इस जन्म में भोगनी पड़ेगी। अब एक ही रास्ता है मैं अगले जन्म को सुधार सकता हूं जिसका कोई भी पता नहीं और व ह मैं कैसे सुधार सकता हूं? वह मैं अभी कोई बुरे कर्म न करूं और क्रांति भी एक बुरा कर्म है यह ध्यान रहे, बदलाहट की चेष्ठा भी एक बुरा कर्म है अस्वीकार करना विद्रोह करना भी एक बुरा कर्म हैं किसी को दुःख पहुंचाना भी एक बुरा कर्म है अ Page 7 of 150 http://www.oshoworld.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज और अगर जिंदगी को बदलना है तो कुछ लोगों को दुःख पहुंचेगा जो लोग जिंदगी की छाती पर सवार है उन्हें उतारने में दुःख पहुंचेगा । तब एक ही रास्ता है की मैं अप नी गरीबी को भोगूं और भगवान से प्रार्थना करूं की अगले जन्म में मुझे गरीब नव नाए फिर इस गरीबी को बदलने का कोई उपाए नहीं रह गया गरीबी भोगनी पड़ेगी " समस्या को झेलना पड़ेगा और अगर बहुत कठिन हो जाए समस्या तो समझना पड़े गा यह सब माया है यह सब खेल चल रहा है, यह सब सपना है, यह सब सच नहीं जैसे एक आदमी बहुत मुसीबत मैं होता है और शराब पी लेता है कभी आपने सो चा है की आदमी शराब क्यों पी लेता है ? आदमी शराब इसलिए पी लेता है की श राब पी के मुसीबत सपना मालूम पड़ने लगती है झूठ मालूम पड़ने लगती है एक आ दमी की पत्नी बीमार है और वह दवा नहीं ला पाता है, और वह इलाज नहीं करव पाता है और पत्नी मरने के करीब पड़ी हैं वह आदमी शराब पी के बैठा है पत्नी भी झूठ है मकान भी झूठ है सारी दुनिया झूठ है और वह मजे में है अब न पत्नी की चिंता है, न बीमारी की, न दवा का इंतजाम करना हैं वह आदमी शराब पी के क्या कर रहा है? वह शराब पी के सारी दुनिया झूठ कर रहा है वह शराब पी के सारी जिंदगी की चिंताओं को भूलने का उपाए कर रहा है। शराब पी के एक आदमी जो करता है पूरे भारत में जिंदगी को झूठे कहके वहीं क काम किया है पूरी कौम ने शराब पी ली और तब फिर समस्याओं को हल नहीं कीया जा सकता एक शराबी आदमी कैसे समस्याओं को हल करेगा, वह तो समस्याओं इं कार कर रहा है। वह तो यह कह रहा है समस्याएं है ही नहीं। शराब पिया हुआ अ आदमी जिंदगी को नहीं बदल सकता क्योंकि जिस जिंदगी को बदलना है उसे तो शरा ब पी के उसने झूठ कर दिया उसको भूल गया उसका विस्मरण कर दिया। भारत ने एक तरह की शराब पी रखी है भारत की पूरी प्रतिभा एक तरह की शराब पीए हुए बैठी है और वह शराब है। इस बात की कि हम समस्याओं से घबराकर समस्याअ ों को ही इंकार कर दिए हैं। इसलिए पांच हजार सालों के इतिहास में हमने एक भी समस्या हल नहीं की कोई भी समस्या हल नहीं की हल करने का हमने सवाल ही नहीं उठाया अगर आदमी क उम्र कम है तो हम कहते - भाग्य में इतना लिखा हुआ है सारी दुनिया में उम्र बढ़ ती चली जाती है सिर्फ हमारे भाग्य में उम्र लिखी हुई है फिर उसके भाग्य में उम्र नहीं लिखी हुई है, स्वीजरलेंड के भाग्य में उम्र नहीं लिखी हुई है, अमेरिका के भाग्य में उम्र नहीं लिखी हुई है । १९१७ में रूस में क्रांति हुई तब वहां की औसत उम्र ते ईस वर्ष थी आज उनकी औसत उम्र अड़सठ वर्ष है उनकी उम्र भाग्य में लिखी हुई नहीं थी भारत की उम्र भाग्य में लिखी हुई है यहां का पढ़ा लिखा आदमी भी चार आने के, किनारे रास्ते के बैठे ज्योतिषि से अपनी उम्र पूछता है पढ़ा लिखा आदमी उम्र पूछने चार आने के आदमी के पास जाता है और उम्र का पता लगता है। उम्र Page 8 of 150 http://www.oshoworld.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज कितनी भी हो सकती है, उम्र कितनी भी की जा सकती है उम्र को बदला जा सक ता है, उम्र को लंबा किया जा सकता है, उम्र को छोटा किया जा सकता है। हीरोसीमा पर एटम बम गिरा एक लाख बीस हजार आदमी मर गए उन सब के हा थ की रेखाएं समान नहीं थी । उन एक लाख बीस हजार लोगों के हाथ उठाकर देख ले उन के हाथ की रेखाएं उसी दिन समाप्त नहीं होती थी, सभी की समाप्त नहीं होती थी। शायद ही कीसी एक आद आदमी की उम्र की रेखा उस दिन वहां समाप्त हो रही हो वह संयोग की बात होगी। एक लाख बीस हजार आदमी मर जाते हैं ए क घडी भर में, एक बम उनके जीवन को समाप्त कर देता है । लेकिन हम इस दे श में उम्र की समस्या को लेकर बैठे हैं और हमने मान रखा है की उम्र तो तय है जनसंख्या बढ़ती चली जाती है हम कहते वह तो भगवान देता है बच्चे हम से ज्याद ा बेईमान प्रतिभा खोजनी मुशकिल है बहुत कनिंगमाइंड है हमारा। जो भी हम नहीं बदलना चाहते हैं उस को हम भगवान पर, भाग्य पर, संसार के ऊंचे-ऊंचे सिद्धांतों पर थोप देते हैं जापान अपनी संख्या सीमित कर लेगा, फ्रांस ने अपनी संख्या सीमित कर ली। फ्रांस पर मालूम होता है भगवान का कोई बस नहीं चलता। वह तय कर ते हैं की कितने बच्चे पैदा करने हैं। हम पर ही भगवान का बस चलता है या तो ऐसा मालूम पड़ता है की भगवान का बस सिर्फ कमजोर और न समझों पर चलता है और ऐसे भगवान की कोई जरूरत नहीं है जो कमजोरों पर बस चलाता हो लेकि न सच्चाई उल्टी है भगवान का इससे कोई संबंध नहीं हैं। जिस भगवान की हम बातें कर रहे हैं वह भी हमारे भीतर बैठा हुआ है काम कर रहा है हमारे हाथों से वही कर रहा है, वह हमसे अलग होकर नहीं कर रहा है अ गर हम उम्र बड़ी कर लेंगे, अगर हम गरीबी मिटा देंगे, अगर हम बच्चे कम पैदा करेंगे तो यह भी भगवान ही कर रहा है हमारे द्वारा। वह जो भी करता है हमारे द्व ारा करता है हमारे द्वारा के अतिरिक्त उसके पास और कोई उपाए भी नहीं क्योंकि हम वहीं हैं हम उसके ही हिस्से हैं हम जो भी कर रहे हैं वही कर रहा है। रूस में भी वही कर रहा है और फ्रांस में भी वही कर रहा है और भारत में भी व ही कर रहा हैं लेकिन हमने यहां एक भेद कर रखा है हमने जिंदगी जैसी है उसका जो स्टेटसको है जैसी हो गई है स्थिर और उसको वैसा ही बनाए रखने के लिए भग वान का सहारा खोज रखा है और हम कहते हैं की उम्र भगवान की, बीमारी भगवा न की, अंधा आदमी पैदा हो, काना आदमी पैदा हो तो सब भाग्य का भगवान का जम्मा यह कोई भी जिम्मा भाग्य और भगवान नहीं । यह सारी बातें होती रही है क्योंकि आदमी अज्ञान में है और आदमी का ज्ञान बड़े तो किसी आदमी के अंधे पैदा होने की कोई भी जरूरत नहीं, किसी आदमी के लग. डे-लूले पैदा होने की कोई भी जरूरत नहीं है। किसी आदमी के बेवक्त मर जाने की कोई भी जरूरत नहीं है । वैज्ञानिक तो कहते हैं की आदमी के शरीर को देखकर ऐसा लगता है की इस शरीर को कितने ही लंबे समय तक जिंदा रखा जा सकता है। इस शरीर के भीतर मर Page 9 of 150 http://www.oshoworld.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज जाने की कोई अनिवार्यता नहीं कोई इनएवटीविल्टी नहीं की शरीर मरे ही नहीं आज रूस ने डेढ़ सौ वर्ष की उम्र के सैंकड़ों बूढ़ेह्व अभी एक स्त्री की मत्य हई जिसकी उम्र एक सौ अठठत्तर वर्ष थी। आज रूस में कि सी को यह कहना की तम सौ वर्ष जियो आशीर्वाद देना वह आदमी नाराज हो जाए गा। क्योंकि उसका मतलब है की आप जल्दी मर जाने की कामना कर रहे हैं। हम अपनी समस्याओं को आज यथार्थ कहके अनरीयल कहके उनसे बच गए बच जाने से समस्याएं मिट नहीं गई समस्याएं इकट्ठी होती चली गई भारत के पास जितनी समस्याएं हैं उतनी दुनिया के किसी देश के पास नहीं। क्योंकि भारत में पांच हजार वर्षो में समस्याओं का ढेर लगा दिया है। सब समस्याएं इकट्ठी होती चली गईं कोई समस्या हमने हल ही नहीं की। बैलगाड़ी जब बनी थी उस जमाने की समस्या भी मौजद है और जेट बन गया उस जमाने की समस्या भी मौजूद है वह सारी समस्याएं इकट्ठी होती चली गई उन सब का बोझ हमारी छाती पर है और उन को हम हल नहीं कर पाएंगें। जब तक हम आधारभूत सिद्धांतों को न बदल दें जिनकी वजह से वह इकट्ठी हो गई हैं। उनमें पहली बात आप से कहना चाहता हूं, स्पेलिबिल, वह यह भागने से काम नह चलेगा पलायन से काम नहीं चलेगा एसकेपीजम से काम नहीं चलेगा इंकार करने से काम नहीं चलेगा जिंदगी को माया कहने से काम नहीं चलेगा और जिंदगी को मा या कहने वाले लोगों से पूछने से काम नहीं चलेगा। जिंदगी एक यथार्थ है और कित ने आश्चर्य की बात है की जिंदगी के यथार्थ को भी सिद्ध करना पड़ेगा यह भी कोई सिद्ध करने की वात है। एक अंग्रेज विचारक था वरकले, वह कहता था सब झूठ है, सव माया है वह डाक्टर जॉनशन के साथ घूमने निकला था एक रास्ते पर रास्ते में वह वात करने लगा की सव जो दिखाई पड़ रहा है सब झूठ है डा० जॉनशन ने रास्ते के कीनारे तक पत्थर उठाकर बरकले के पैर पर पटक दिया वरकले पैर पकड़ कर बैठ गया पैर से खून वहने लगा जॉनशन ने कहा क्यों बैठ गए हो पैर पकड़ कर। उठो! सब झूठ है, पत्थ र भी झूठ है और चोट भी झूठ है। पैर पकड़ कर क्यों बैठ गए हो? लेकिन वरकले उतना चालाक नहीं था अगर वह भारत में पैदा हुआ होता तो जोनशन इस तरह उ त्तर नहीं दे सकते थे। मैंने सुना है एक दार्शनिक को जो कहता था जगत असत्य है एक राजा के दरबार में लाया गया और उसने सिद्ध कर दिया की जगत असत्य है। सिद्ध करने की तर कीवें हैं सिद्ध किया जा सकता है। सच तो यह है की सत्य को सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं होती सिर्फ असत्य को ही सिद्ध करने की जरूरत पड़ती है। सत्य तो है उसे सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं असत्य को सिद्ध करने के लिए श स्त्र लिखने पड़ते हैं तर्क और आरग्यूमेंट और विवाद देने पड़ते हैं मेरी दृष्टि में सिर्फ असत्य को ही सिद्ध करने की जरूरत पड़ती है सत्य को सिद्ध करने की कोई जरू Page 10 of 150 http://www.oshoworld.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज रत नहीं पड़ती यह बात सिद्ध करने की कोई जरूरत नहीं की दीवार हैं। वह आप जानते हैं लेकिन अगर दीवार नहीं है। यह सिद्ध करना हो तो फिर बडे प्रयास करने पडेंगे वडे तर्क देने पड़ेंगे। उस विचार क ने बड़े तर्क दिए और उसने कहा सब असत्य है। तर्क क्या हैं असत्य सिद्ध करने के? पहला तर्क तो यह है की हम कभी भी चीजें जैसी है उनको नहीं जान सकते। चीजों को हम जान ही नहीं सकते जो भी हम जानते हैं पिक्चर्स जानते हैं चित्र जा नते है मैं आप को देख रहा हूं पता नहीं आप वहां है या नहीं सिर्फ मुझे मेरी आंख के भीतर चित्र दिखाई पड़ रहा है की कुछ लोग यहां बैठे हुए हैं। यह कुछ लोग वह है या नहीं मुझे क्या पता? रात को सपना देखता हूं तब भी मुझे लोग दिखाई पड़ ते हैं इसी तरह दिखाई पड़ते हैं जिस तरह अब दिखाई पड़ रहे हैं कोई फर्क नहीं हो ता। रात सपने में भी आप दिखाई पड़ते हैं। दिन में भी आप दिखाई पड़ते हैं दोनों में फर्क क्या है? दोनों हालतों में मुझे चित्र दिखाई पड़ते हैं आपका मुझे कोई पता नहीं है की आप हैं भी या नहीं अगर हम कहें की मैं आप को छु कर देख सकता हूं तो भी वह दार्शनिक कहते हैं की छूता हाथ है, मैं तो छूता नहीं आप को हाथ छूता है और खवर भीतर जाती है, वह खवर झूठ भी हो सकती, वह खवर सच भी हो स कती है, उस खबर का क्या भरोसा किया जाये जाने हाथ सच कह रहा है या झूठ कह रहा है? कौन जाने? और कैसे हम मान लें की हाथ जो कहता है वह सच कह ता है कुछ नहीं कहा जा सकता उस वैज्ञानिक ने विचारक ने बड़े ही तर्कों से सिद्ध किया कि नहीं है जगत सब माया है। उस राजा ने कहा, 'मैं मान गया सव माया है। उसने कहां, लेकिन ठहरिए आखरी प्रयोग और हो जाए' उस राजा के पास एक पागल हाथी था। उसने अपने महावतों को कहा कि, 'उस पागल हाथी को ले आओ और इस दार्शनिक को पागल हाथी के सामने छोड़ दो।' महल के दरवाजे पर वह पागल हाथी ले आया गया। सव द्वार बंद कर लिए गए रास्ते पर वह पागल हाथी छोड़ दिया गया और उस दार्शनिक को छोड़ दिया गया वह दार्शनिक चिल्लाता है भागता है हाथ पैर जोड़ता है कि, 'मुझे बचाओ मैं मर जाऊंगा।' वह हाथी उसके पीछे भाग रहा है वह दार्शनिक चिल्ला र हा है वह राजा के सामने हाथ जोड़े गिड़गिड़ा रहा है राजा अपने महल के ऊपर ख. डा है और हंस रहा है फिर वामश कल उसे हाथी से बचाया गया है। वह पसीना-पसीना हो आंख से उसके आंसू बह रहे हैं उसकी छाती धड़क रही है। र जा ने उससे कहा कि, 'यह हाथी सत्य था उस दास ने इतना कहा, 'महाराज हा थी भी असत्य था और वह जो आदमी चिल्ला रहा था वह भी असत्य था और मेरी यह जो धड़कन है यह भी असत्य है सभी कुछ असत्य है। आपने मुझे बचाया यह भी असत्य है जव सभी कुछ असत्य है तो हाथी भी असत्य है उसका रोना क्यों?' लेकिन वरकले को यह पता नहीं था। नहीं तो वह डा० जॉनशन से कहता यह पैर Page 11 of 150 http://www.oshoworld.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज खून वह रहा है यह भी असत्य है यह मैं पकड़ कर बैठा हूं यह भी असत्य है यह आप ने पत्थर मारा यह भी असत्य है सभी कुछ असत्य है। सभी कुछ असत्य सिद्ध किया जा सकता है लेकिन उससे हल क्या होता है ? उससे जदगी कहां बदलती है जिंदगी वैसी की वैसी चली जाती है। गरीबी, गरीबी की जग ह होगी, बीमारी, बीमारी की जगह होगी, दुख, दुख की जगह होगा, समस्या, समस् या की जगह होगी जिंदगी को असत्य कहने से हल क्या होगा ? सवाल यह है जिंदग श्री को असत्य कहने से समाधान क्या है जिंदगी को असत्य कहने से सिर्फ एक समाधा न है और वह यह है की मैं आंख बंद कर लूं जो असत्य है, भूल जाऊं उसे जो अस त्य है, खयाल छोड़ दूं उसका जो असत्य है लेकिन तब भी क्या फर्क होगा मेंरे आंख बंद करने से भी गरीब, गरीब होगा, बीमार, बीमार होगा समस्याएं अपनी जगह ह ोंगी। भारत ने असत्य कहेकर कुछ भी हल नहीं कीया और इसी लिए तो भारत पर दुश्मन आए भारत पराजित हुआ गुलाम बना । और भारत का साधु संन्यास यह सब माया है यह सब संसार है यह सब चलता रह ता है भारत दुश्मनों की शान में हारा उस हार में भारत की कमजोरी नहीं थी भार त की फिलोसफी थी, भारत का दर्शन था जब सभी असत्य है तो हार भी असत्य है जीत भी असत्य है। कौन जीतता है, कौन हारता है ? कोई फर्क नहीं है। कौन दि ल्ली के सिंहासन पर बैठता है ? कोई फर्क नहीं हैं। कौन राज्य करता हैं कौन पराजि ナ त होता है, कौन शोशक है, कौन शौक्षित है? कोई फर्क नहीं है । भारत में जो जीवन दर्शन सिद्ध किया हैं । जगत को माया बताने वाला उस जगत क माया बताने वाले भीतर की दृष्टि ने ही भारत को हजारों साल तक गुलाम रखा । वह दृष्टि अब भी मौजूद है उस दृष्टि के कारण हम जिंदगी की सभी समस्याओं को अस्वीकार कर देने में समर्थ हो गए। जो भी हुआ हमने अस्वीकार कर दिया की स व असत्य है। हमें एक तरकीब हाथ लग गई। एक ऐसी तरकीब हाथ लग गई जिस सें हम हर चीज को इंकार कर सकते हैं और इंकार कर देना हमेशा आसान होता है। क्योंकि स्वीकार करना . करना पड़ता है इंकार करने में कुछ भी नहीं करन ा पड़ता। स्वीकार करने पर श्रम करना पड़ेगा बदलने की चेष्टा करनी पड़ेगी, बदलने के ऊपाए खोजने पड़ेंगे। कौन उठाए यह झंझट ? भारत की प्रतिभा ने झंझट उठाने से इंकार कर दिया है इस लिए भारत का प्रतिभाशाली आदमी जंगल भाग जाता है वह कहता है कौन उठाए यह झंझट ? दुनिया के प्रतिभाशाली लोग झंझट को बदलने की कोशिश करते हैं। भा रत का प्रतिभाशाली जंगल भाग जाता है वह कहता है कौन उठाए यह झंझट । भारत की प्रथम कोटि की जो प्रतिभा है वह जंगल चली जाती है द्वितीय और तृती य कोटि की प्रतिभा संसार को चलाती हैं। दुनिया के दूसरे मुल्कों की प्रथम कोटि क प्रतिभा जीवन को चलाती हैं। इसलिए हम दुनिया के किसी भी मुल्क का मुकावला नहीं कर सकते हमेशा पिछड़ते चले जाएंगे। उन का फस्ट रेड माईंड दुनिया को च लता है हमारा सैकिंड रेड और थंड रेड माइंड दुनिया को चलता है। Page 12 of 150 http://www.oshoworld.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज घुट हम उनके सामने खड़े नहीं हो सकते। हमारा प्रथम कोटि का विचारक तो भागता है प्रथम कोटि के विचारक अगर दो-चार भाग जाएं तो सब कुछ गड़बड़ हो जाता है । शायद आप को पता नहीं होगा हो सकता था एक आदमी आइनस्टीन जर्मनी से न भगाया गया होता तो शायद दुनिया का इतिहास दूसरा होता । एक आइनस्टीन को जर्मनी से भगा देने का परिणाम यह हुआ की जो एटमबम जर्मनी में बन सकता था वह अमेरिका में बना। सारे दुनिया का इतिहास अब और ही होगा। अगर हिटलर ज ळीतता और जापान और जर्मनी जीतते तो दुनिया का इतिहास बिलकुल दूसरा होता हम कल्पना ही नहीं कर सकते की दुनिया का नक्शा कैसा होता आज ? लेकिन एक विचारक एक प्रथम कोटि की प्रतिभा का जर्मनी से भागना सारे इतिहास को बदलने का कारण हो गया । वह आदमी अमेरिका पहुंच गया । वह जो एटमी शोध जर्मनी में चलती थी वह अमेरिका में जाकर पूरी हुई और उसी एटम ने ने टिकवा दिए जापान के और जर्मनी के। वह एटम जर्मनी में भी बन सकता था। सर्फ एक आदमी के भाग जाने के कारण अब दुनिया का इतिहास बिलकुल दूसरा हो गा। हिंदुस्तान से कितने प्रथम कोटि के लोग भाग गए हैं इसका हमें पता हैं । हम ए क भी आइनस्टीन पैदा नहीं कर सके, एक भी न्यूनटन पैदा नहीं कर सके। हमारे पास प्रतिभाओं की कमी नहीं थी कोई बुद्ध महावीर, या शंकर या नागाअर्जुन के पास कम प्रतिभा नहीं हैं। लेकिन प्रतिभा की दिशा भागने की हैं, प्रतिभा की दि शा जीवन से जूझने की नहीं, जीवन को बदलने और संघर्ष करने की नहीं हैं, आंख बंद कर लेने की खो जाने की हैं। शायद हम दुनिया में सबसे ज्यादा बड़ा वैज्ञानिक समाज पैदा कर सकते थे। लेकिन यह नहीं हो सका। क्योंकि विज्ञान वहां पैदा होता है जो जिंदगी को यथार्थ मानते हैं जो जिंदगी को अयथार्थ मानते हैं अनरीयल मानते हैं वहां विज्ञान पैदा नहीं होता। साईंस का मतलब यह है कि जिंदगी सत्य है और उस सत्य के हमें भीतर प्रवेश करना है। जिंदगी के सत्य में प्रवेश करने की कला क नाम साईंस है लेकिन जिंदगी असत्य हैं। तो प्रवेश करने का सवाल नहीं इसलिए भारत में साईंस पैदा नहीं हो सकी है। भार त में आज भी साईंस पैदा नहीं हो रही । आप कहेंगे की मैं यह क्या बात कह रहा हूं? हमारे न मालूम की कितने बच्चे विज्ञान पढ़ रहे हैं, विज्ञान के ग्रेजुएट हो रहे एम॰ एसी॰ हो रहे हैं, डी० एसी ० हो रहे हैं। हिंदुस्तान में न मालूम कितने ल ोग विज्ञान का अध्ययन कर रहें हैं कितने वैज्ञानिक पैदा हो रहे हैं और मैं कहता हूं कि— हिंदुस्तान में विज्ञान अभी भी पैदा नहीं हो रहा और मैं कुछ कारण से कहता हूं बहुत सोच के कहता हूं। हिंदुस्तान में विज्ञान तब तक पैदा नहीं होगा जब तक हिंदुस्तान का फिलसफा हिंदुस्तान के जीवन की फिलासफी नहीं बदलती। हिंदुस्तान में वैज्ञानिक शिक्षण हो रहा हैं ट्रेनिंग हो रही हैं हिंदुस्तान में टैक्नोलौजी स मझाई जा रहीं हैं। बच्चे साईंस पढ़ रहे है लेकिन फिर भी उनका माईंड साईंटीफीक नहीं हैं। Page 13 of 150 http://www.oshoworld.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज बी० ए सी॰ पढ़ रहा है एक लड़का और परीक्षा के वक्त हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़ के खड़ा हो जाएगा । उसका बी० ए सी० का पढ़ना उसका साईंस का पढ़ना और हनुमान जी के मंदिर के सामने हाथ जोड़ में उस कोई कंट्राडीक्शन न हीं दिखाई पड़ेगा, कोई विरोध नहीं दिखाई पड़ेगा । मैं कलकत्ते में एक डाक्टर के घर में मेहमान था, वह एक बड़े फिजीशियन थे। इंग्लैं ड रहे हैं पश्चिम से डिग्रीयां ले कर आए हैं वह मुझे मटिंग में ले जाने के लिए बाह र निकले उनके पोर्च में मैं निकल ही रहा था की उनकी छोटी बच्ची को छींक आ गई। उस बड़े डाक्टर ने कहा, 'एक मिनट रुक जाइए।' मैंने कहा, 'क्यों?' उसने क हा, 'आप देखते नहीं बच्ची को छींक आ गई हैं।' मैंने कहा, 'तुम्हारी बच्ची को छ ̈क आए इससे मेरे रुकने का क्या संबंध है ? और तुम डाक्टर हो और तुम भली-भ भांति जानते हो की छींक के आने का कारण क्या होता है ? ' तुम भी यही कह रहे हो एक गांव का ग्रामीण यह कहता तो माफ किया जा सकता था तुम्हें माफ नहीं किया जा सकता । तुम्हें तो हिंदुस्तान के पास अगर किसी दिन कोई सच में अदालत होगी उसके सामने खड़ा किया जाना चाहिए और तुम्हारें सारे सट्रीफिक्ट छीन लेने चाहिए और तुम्हारी डाक्टरी को जुर्म करार दे देना चाहिए था । तुम डाक्टर नहीं हो सकते। क्योंकि जो आदमी छींक आने से रुकता है वह आदमी डाक्टर कैसे हो सकता है। लेकिन वह डाक्टर बड़े हैं, वह डाक्टरी एक तरफ है औ र उनका वह जो ग्रामीण मास्तिष्क है वह दोनों एक साथ चल रहे हैं। वह एक साथ दोनों काम चल रहा है। वह एक तरह की टैक्नोलोजी जो उन्होंने सीख ली, कि नस् तर कैसे लगाना? फलां बीमारी में फलां दवा देनी हैं वह सब उन्होंने सीख लिया है। वह तोता रटंत हैं लेकिन उनके पास साईंटीफीक माईंड नहीं। तो मुझे रोकने से पह ले वह कुछ सोचते की छीक आने से रुकने का क्या संबंध हो सकता हैं । नहीं कन यह प्रश्न उनके मन में नहीं उठा। यह प्रश्न उठा ही नहीं मुझसे कह दिया और जब मैंने प्रश्न उठा दिया तो उन्होंने कहा, 'हां आप ठीक कहते, लेकिन हा, हर्ज ही क्या है रुक भी गए तो हर्ज क्या है । क्या बिगड़ गया ?' मैंने उनसे कहा, 'बहुत कु छ बिगड़ गया, तुम्हारे रुकने का सवाल नहीं है पूरे मुल्क की प्रतिभा रुक गई हैं। तु म्हारे रुकने का सवाल नहीं, तुम तो बिलकुल रुक जाओ अब इस छींक के बाद घ र से निकलो ही मत तो कोई हर्जा नहीं हैं। लेकिन पूरे मुल्क का दिमाग अगर इस तरह सोचेगा तो इस मुल्क में कभी भी विज्ञान का जन्म नहीं हो सकता ।' मैं जालंधर में एक घर में अभी था एक मित्र ने एक बड़ा मकान बनाया। वह एक इंजीनियर हैं पंजाब के बड़े इंजीनियर बहुत अच्छा मकान बनाया । मुझसे कहा की उ नके मकान का उदघाटन कर दूं। मैं गया उनका फीता काटा देखा की नए मकान में सामने एक हांड्डी लटकी है काली और हांड्डी के ऊपर बाल वगैरहा लगे हुए हैं और आदमी का चेहरा बना हुआ । मैंने पूछा यह क्या है, उन्होंने कहा कि, 'मकान को नजर न लग जाए इसलिए लटकानी पड़ती हैं।' अब यह आदमी इंजीनियर है, यह Page 14 of 150 http://www.oshoworld.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज आदमी शानदार मकान बनाता है और मकान के सामने एक हांड्डी लटका देता है न जर न लग जाए। मकान को नजर लगती है! इस आदमी को वैज्ञानिक नहीं कह सकते यह आदमी टैक्नीशियन है। इस आदमी ने विज्ञान का तंत समझ लिया लेकिन विज्ञान इसकी आत्मा नहीं बन सका। इसके पास वैज्ञानिक का सोच विचार नहीं है। इसके पास वैज्ञानिक की जिज्ञासा नहीं हैं. इसके पास आस्था तो धार्मिक की है और शिक्षण वैज्ञानिक का हैं और यह वडी खतनाक बात हैं। इसका हार्दिक हिसा भीतर को पूराने धार्मिक का है और उसके ऊपर का मस्तिष्क वैज्ञानिक का है। इसके भीतर एक इनमनीट र्पसनैल्टी है। दो हिस्सों में टूट गया है यह आदमी जहां तक इससे सलाह लोगे मकान बनाने के संबंध में यह एक वैज्ञानिक की तरह व्यवहार करेगा और जहां जिंदगी का सवाल उठेगा यह बिलकुल अवैज्ञानिक हो जाएगा। यह ताबीज बनवा सकता हैं, यह जाकर कुछ भी कर सकता है इसका कोई भरोसा नह । यह आदमी विश्वास के योग्य नहीं। भारत में विज्ञान की शिक्षा चल रही है लेकि न भारत की आत्मा में वैज्ञानिक प्रतिभा पैदा नहीं हो पा रही है। इसलिए हमारा वि ज्ञान नकल से ज्यादा नहीं हो सकता। हम पश्चिम की नकल कर सकते हैं और नकल से कभी भी विज्ञान पैदा नहीं होता, नकल से क्या हो सकता है? वह पश्चिम में कुछ बनाएंगे उसकी नकल करके हम भी बना लेंगे। लेकिन जब तक हम नकल कर पाएंगे तब तक वह हम से वहुत आगे निकल जाएंगे। अब ऐसा मालूम पड़ता है की हम सदा ही पीछे रहेगे। शायद हम कभी भी उनके सामने खड़े नहीं हो सकते, हम कितना ही दौड़ेंगे तो हम पीछे रहें गे। क्योंकि हम बुनियादी वात भूले हुए वैठे हैं हमारे पास वैज्ञानिक चिंतन नहीं हैं और वैज्ञानिक चिंतन न होने का कारण, न होने का कारण हमने जगत और जीवन कि जो रियेलिटी हैं, वह जो यथार्थ हैं जीवन का वह जो पदार्थ की सत्ता है। वह जो मैटर का पदार्थ का होना है चारों तरफ हम उसको ही इंकार करके बैठे हुए हैं। तो उसकी खोज कौन करे? उसको जानने कौन जाए? उसके रहस्यों का कौन अवि ष्कार करे? कौन उसके कानून खोजे? कौन उसके नियम खोजे? और जो समाज वै ज्ञानिक नहीं, वह समाज धीरे-धीरे शक्तिहीन हो जाता है, शक्ति विज्ञान से पैदा हो ती है। विज्ञान से शक्ति पैदा होती है चाहे किसी तरह की शक्ति हो, धन विज्ञान से पैदा होता है, चाहे किसी तरह का धन हो। जीवन का, स्वास्थ का, समृद्धि का, सारा शोध विज्ञान से आता है। हमने पांच या छः सालों में किस तरह का विज्ञान पैदा किया है। किसी तरह का विज्ञान पैदा नहीं किया जो भी हमने सीखा हैं वह सब उधार है। शायद बैलगाड़ी के बाद हमने कोई अविष्कार नहीं किया और पता नहीं वैलगाड़ी भी हमने अविष्कार की या वह हमने कभी सीखी होगी, उसका भी कोई भरोसा नहीं। और अभी भी हमारे सोचने का जो ढंग है वह बैल गाड़ी वाला ही है। सोचने का जो ढंग है सोचने का हमारा ढंग बैल गाड़ी से आगे विकसित नहीं हुआ। हम वही सोच रहे हैं बल्कि हमारे बीच तो कई Page 15 of 150 http://www.oshoworld.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लोग हैं जो उससे भी पीछे हैं। वह पद यात्रा करते हैं, वह कहते हैं बैलगाड़ी, बैल गाड़ी भी खतरनाक हैं पैदल ही चलना चाहिए। सारी दुनिया धीरे-धीरे आटोमेटिक यंत्रों पर चली जा रही है। सारी दुनिया धीरे-धीरे सारे यंत्रों को स्वचालित बना लेगी। आदमी को उन्हें चलाने की भी जरूरत न रह जाए। लेकिन हमारे समझदार लोग कहते हैं कि हमें चर्खा और तकली पर निर्भर र हना चाहिए। हमारे ...खद को यह बातें अपील भी करती हैं. यह बातें हमारे स मझ में भी आती हैं क्यों? इसलिए नहीं यह बातें ठीक हैं बल्कि इसलिए हमारी प्रति भा विकसित नहीं हो पाई है इसलिए अविकसित वातें हमारी समझ में आती हैं, वि कसित वातें हमारी समझ में नहीं आती हैं। जब भी हमें कोई बैलगाड़ी की दुनिया की बातें कहे तो हमें अपील करता हैं। क्यों क हमारी बुद्धि वहीं तक विकसित हो पाई है और जब हमसे कोई आगे की दुनिया की बातें कहे तो हमें बहुत घबराहट होती हैं। क्योंकि उस अनजान दुनिया में हम असुरक्षित पाते हैं अपने को वहां हमारी सुरक्षा नहीं मालूम होती। हमें डर लगता है हमें भय लगता हैं क्योंकि हम कुछ भी नहीं जानते उस दुनिया के बारे में, लेकिन भयभीत रह कर हम जी नहीं सकेंगे और अव आने वाले जगत में या तो हमें अपनी समस्याएं हल करनी पड़ेंगी या हमारी समस्याएं हमारी हत्या कर देंगी। उन्होंने करीव करीब हमें मार डाला है हमारी समस्याओं ने हमें करीब-करीब मार डाला है और इसलिए इस मुल्क में कोई आदमी प्रसन्न दिखाई पड़ता है, न कोई अ दिमी आनंदित दिखाई पड़ता है, न जिंदगी में हम जिसको जीवन का रस कहें की क ई आदमी जीने का रस भोग रहा है कि उसके पैर में कोई गर्मी है, कि उसके हृद य में कोई उतास है, की उसके प्राणों में कोई गीत है ऐसा कुछ भी नहीं दिखाई पड़ ता। हर आदमी उदास और वोझ से भरा हुआ है हर आदमी ऐसा दवा हुआ है कि न मालूम कितने पहाड़ उसके सिर पर रखे हुए हैं। हर आदमी ऐसे चल रहा हैं की कव गिर पड़े तो गिरते ही सुख मालूम हो कब खत्म हो जाए तो अच्छा है। हर आ दमी के भीतर यह बहाव चलता है कि कब खत्म हो जाऊं, कब आवागमन से छुट कारा हो जाए, कव जीवन से छुट्टी मिल जाए। मैं भावनगर में था एक चौदह साल की लड़की ने मुझसे आकर कहा की आप मुझे आवागमन से छुटकारे का रास्ता बताइए। चौदह साल की लड़की, वह पूछती है की जीवन में न आऊं ऐसा कोई रास्ता बताइए। अभी चौदह साल की लड़की को पूछन । चहिए की जीवन का रास्ता बताइए कि जीवन में कैसे जाऊं। जीवन को कैसे जीयू , जीवन का आनंद, जीवन का रस कैसे पाऊं। चौदह साल की लड़की जीवन के द्वार पर खड़ी होकर पूछती है कि जीवन से कैसे बचू, मरूं कैसे, मरने का रास्ता बताइ वह जो लोग पूछते हैं मोक्ष का रास्ता वताइए, मोक्ष अच्छा शब्द है, सिर्फ। मोक्ष अच छा शब्द है सिर्फ वह मरने का रास्ता पूछ रहे हैं और ऐसे मरने का रास्ता पूछ रहे की अल्टीमेट डैथ फिर न जाना पड़े, फिर न लौटना पड़ें आखरी मरना हो जाए। सौ Page 16 of 150 http://www.oshoworld.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज साइडल हैं वह लोग आत्मघाती है वह लोग जीवन के रास्ते से परमात्मा तक पहंचा जा सकता है, मरने के रास्ते से नहीं। अगर परमात्मा कहीं भी मिलेगा तो जीवन की गहराईयों में। लेकिन हम जीवन से भागे हओं से पछ रहे हैं कि मरे कैसे? कोई मरने का सुगम रास्ता बताइए ऐसा कुछ रास्ता बताइए की जीते-जी अधमरे हो जा एं। पहली बात- उसका नाम संन्यास रख छोड़ा है हमने जीते जी आधा मरा हुआ आ दमी हो उसको हम संन्यासी कहते है। अगर वह जरा जीवन का रुख दिखाए तो गड़ बड़ हो गया है, भ्रष्ट हो गया है। जीवन के प्रति वह विलकुल ही दृष्टता का व्यवहा र करें, जीवन के सब रस द्वार बंद कर दे, जीवन का सारा आनंद सब तरफ से रो कले, जीवन के संगीत की कहीं से कोई कड़ी सुनाई न पड़ने दे, सब तरफ से बहर , अंधा, लुला, लंगड़ा हो जाए। फिर हम उसको आदर देंगे की यह आदमी अच्छा आदमी है। मरा हुआ आदमी अच्छा आदमी है, इसलिए तो जब आदमी कोई मर ज |ता है तो हम कहते हैं वहुत अच्छा आदमी था, जिसने हमें जिंदगी में कभी नहीं क हा की अच्छा आदमी था, मरने पर सारा मुल्क कहता है बहुत अच्छा आदमी था। असल में हम मरे हुए को ही आदर देते हैं अगर जिंदा में ही वह आदमी मर जाता तो भी हम आदर देते। अगर वह मरा-मरा जीता तो भी हम आदर देते। अगर य ह उसने भूल की नहीं, ऐसा किया तो फिर हम मरने के बाद ही सम्मान करेंगे। जदा आदमी का हमारे मन में स्वीकार नहीं क्योंकि जीवन का ही हमारे मन सत्कार नहीं। जीवन ही हमें खतरनाक मालूम पड़ता है,जीवन जोखम मालूम पड़ती हैं इसलिए हम इस मुल्क में बूढ़े का सम्मान करते हैं जवान का नहीं। जो मल्क जितना जीवित हो ता है उतना ही युवा का सम्मान करता हैं, जो मुल्क जितना मरने लगता है उतना बूढ़े का सम्मान करता बूढ़े के सम्मान का क्या मतलब, बूढ़े के सम्मान का सिर्फ एक मतलव है कि यह आदमी हमसे मौत के ज्यादा करीव है, यह आदमी मरने के दर वाजे के हमसे ज्यादा करीब पहुंच गया है। बूढ़े का सम्मान जीवन के कारण हम नहीं कर रहे हैं बूढ़े का सम्मान जीवन के कारण भी हो सकता है कि यह आदमी इत ना जीया इसलिए हम सम्मान करें लेकिन तब हम जवान का भी सम्मान करेंगे। क्यों कि जवान जितनी तेजी से जीता है बूढ़ा कैसे जी सकता है? जवान का भी सम्मान होगा और एक बूढ़े का सम्मान इसलिए होगा की आदमी इतना जीया लेकिन अभी इसने सम्मान होता अभी इसलिए सम्मान होता है जिस आदमी का जीवन से संबंध टूटने लगा, अब यह मौत के करीब पहुंचने लगा, अब यह आदमी करीब-करीब मरा हुआ हो गया इसका एक पैर कव्र में चला गया। अब यह आदमी आदर के योग्य है | और इसके पैर कब्र में गए आदमी में हमें जीवन के प्रति थोड़ा रस मिल जाए तो हम कहेंगे अरे! इस आदमी का अभी जीवन में रस है। हम जीवन विरोधी हैं और जीवन विरोधी हम क्यों हैं? और सारा मुल्क क्यों हजारों साल से मोक्ष की कामना कर रहा है। इसका कुल एक कारण है हम जीवन की क Page 17 of 150 http://www.oshoworld.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज कोई भी समस्या हल नहीं कर पाए। तो जीवन इतना गंदा हो गया है, जीवन इतना कुरूप हो गया है, जीवन इतना वोझिल हो गया है कि अब सिवाए जीवन को छोड़ने के और कोई रास्ता नहीं दिखाई पड़ता । इस मकान में हम बैठे हुए हैं, इस मकान को हम इतना गंदा कर लें, इतनी दुगंध भर लें, इतना कूड़ा करकट इकट्ठा कर लें कि इस मकान के भीतर सांस लेना मुशकल हो जाए तो हर आदमी यह पूछेगा वाह र जाने का दरवाजा कहां हैं? 'मुझे बाहर जाना है ! ' मैं इस मकान के बाहर कैसे हो जाऊं लेकिन काश हम इस मकान को सुंदर कर लें क्योंकि जो मकान असुंदर हो सकता है वह सुंदर भी हो सकता है। जो मकान गंदा हो सकता है वह स्वच्छ भी हो सकता है, जो मकान कुरूप हो सकता है, जो मकान अगली हो सकता है वह ए क सुंदर सौंदर्य का नमूना भी बन सकता है। अगर हम इस मकान को सुंदर कर लें तो फिर कोई नहीं पूछेगा की बाहर का रास्ता कहां है बल्कि सड़क पर चलने वाले लोग पूछेंगे की मकान के भीतर का रास्ता कहां है? जब कोई कौम, मोक्ष की बहुत ज्यादा चिंता करने लगे तो समझना चाहिए की वह कौम बीमार पड़ गई है। जीते जी आदमी को जीवन की चिंता करनी चाहिए मरने की नहीं जब मरेंगे तब मरेंगे। उसके पहले क्यों मर जाएं। जब मरेंगे तब मर ही जा एंगे तो इतनी जल्दी क्या पहले से मरने का इतना आयोजन क्या है और मेरी अपनी समझ यह है कि जो आदमी जीवन के रस को जान लेता है वह कभी नहीं मरता, क्योंकि जीवन के रस को जान लेने से वह वहां पहुंच जाता है जहां जीवन का स्रो त है जहां परमात्मा है। और जो लोग जीवन के रस को नहीं जान पाते और जीवन के आनंद को नहीं जान पाते वह जीते हैं तो मरे हुए मरने की कामना करते हुए और मरके भी वह कहीं नहीं पहुंचते क्योंकि मरेगा कौन? करीब-करीब पहले ही मरे हुए थे मरने का भी उ पाए नहीं। मरते भी तो वह हैं जो जीते हैं। हम मर भी तो नहीं सकते ठीक से क्यों कि ठीक से हम जीए ही नहीं। ठीक से जीने वाला ठीक से मर भी सकता है और मेरी दृष्टि में ठीक से जीना भी एक आनंद है और ठीक से मरना भी एक आनंद है। लेकिन न जीवन कोई आनंद है न मारना कोई आनंद है। सब एक बोझ हो गया है I क्या एक-एक आदमी के सिर पर यह बोझ दिखाई नहीं पड़ता हैं। एक बच्चा पैदा ह ता हैं और हम बोझ उसके सिर पर रख देते हैं। पैदा होते ही हम बोझ सिर पर र ख देते हैं उसकों हम धार्मिक शिक्षा इत्यादि-इत्यादि अच्छे नाम बोलते हैं की हम ध ार्मिक शिक्षा दे रहे हैं। हर बूढ़ा आदमी यही चाहता है की दुनियां में कोई बच्चा पैद ान हो बच्चे तरह सब बूढ़े पैदा हो। रविंद्रनाथ ने एक छोटा-सा स्कूल खोला था। सबसे पहले जहां अब शांति निकेतन हैं। रविंद्रनाथ के पास कोई बच्चे भजने को राजी नहीं हुआ क्योंकि रविंद्रनाथ वहां जीव न की शिक्षा देना चाहते थे और लोगों ने कहा जीवन की शिक्षा ? शिक्षा तो मोक्ष की होनी चाहिए, तब लोग सुधरेगें और रविंद्रनाथ विश्वास योग आदमी न मालूम प Page 18 of 150 http://www.oshoworld.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज डे। सुंदर कपड़े पहनते हैं अगर नंगे होते लंगोटी लगाते तो ख्याल आता, की आदमी ठीक है। बड़े-बड़े बाल रखते हैं आईने के सामने आधा-आधा घंटा बाल संवारते हैं एक बार गांधी जी रविंद्रनाथ के पास ठहरे हुए थे। दोनों घुमने जाते थे सांज को ि नाथ ने कहा दो छण ठहरें मैं थोड़े बाल सवार आऊं । गांधी के तो बरदाश के बा हर हो गया कोई कहे बाल संवार आऊं वाल सवारने की जरूरत है पहली तो बात बाल रखने की जरूरत नहीं। लेकिन रविंद्रनाथ से कुछ कह भी न सके एक दम से । रविंद्रनाथ भीतर चलेगए सोचा था जल्दी लोट आएंगे, लेकिन दस मिनट बीत गए हैं उनका कोई पता नहीं हैं वह तो लीन हो गए हैं आईने में, पंद्रह मिनट बीत गए हैं गांधी के, सामर्थ के बाहर हो गए । त्यागी की सामर्थ बहुत कम होती है त्याग के लिए तो बहुत होती हैं जीवन के रस के लिए बहुत कम होती है खिड़की से झांक कर देखा। रविंद्रनाथ तो जैसे के कहीं खो गए हैं आदम कद आईने के सामने वाल संवारे जाते हैं। गांधी जी ने कहा- 'क्या कर रहे हैं बुढ़ापे में, चलिए अब उनकी आंखों में दिखाई पड़ गया होगा रविंद्रनाथ को रविंद्रनाथ हंसते हुए बाहर आए गांधी जी ने कहा इस उम्र में और इतना बाल संवारते हैं। रविंद्रनाथ ने कहा जब जवान था बिना संवारे भी चल जाता था । तब ऐसे भी निकल पड़ता था, तब ऐसे भी सुंदर था अब संवारना पड़ता हैं और रविंद्रनाथ ने कहा की किसी को मैं करूप मालूम प हूं. इसे में हिंसा मानता हूं। किसी को सुंदर मालूम पडूं अच्छा लगूं इसे मैं अहिंसा म ानता हूं। किसी को करूप लगना भी तो चोट पहुचाना है लेकिन यह जीवन को रस लगने वाला करूप हैं, किसी को करूप लगना भी तो उसको दुःख पहुचाना हैं, किसी को सुंदर लगना भी तो उसको सुख पहुंचाना हैं। लेकिन यह जीवन के रस वाला क हेगा। इस रविंद्रनाथ ने जब पहली दफा यह स्कूल खोला तो यह कोई भरोसे का आ दमी नहीं था, यह। तो कौन इसके पास अपने बच्चों को भेजें। डर यही था की बच्चे बिगड़ न जाए क्योंकि रविंद्रनाथ वीणा बजाएगें नाचेंगे गीत गाएंगे। बच्चे क्या सिखे गे यह सब नाचना, गाना, और संगीत यह सब ठीक बात नहीं यह अच्छे लोगों के लक्ष्ण नहीं हैं फिर भी कुछ मित्रों ने बच्चे दिए लेकिन बच्चे ऐसे थे जो पहले ही इत ने बिगड़ चुके थे की रविंद्रनाथ उनको बिगाड़ नहीं सकते थे। इस आशा में दिए की इनको तुम क्या बिगाड़ोगे दस-पंद्ररहा बीस बच्चों को लेकर रविंद्रनाथ ने वहां स्कूल शुरू किया। बंगाल के एक बहुत बड़े विचारक थे उन्होंने भी अपना बच्चा दिया हुआ था। वह ती न चार महीने बाद देख गए की क्या हालत है। देखा एक चेरी के वृक्ष के नीचे क्ला स लगी हुई है रविंद्रनाथ टीके बैठे हुए हैं पांच सात बच्चे नीचे बैठे हुए हैं पन्द्रह सो लह बच्चे ऊपर वृक्ष पर चढ़े हुए हैं। फल पक्क गए हैं बच्चे फल खा रहे हैं। पांच स बच्चे नीचे बैठे हैं किताब बंद हैं रविंद्रनाथ आंखें बंद किए बैठे हैं। यह क्लास ल गी हुई है। क्रोध से भर गए वह मित्र जाकर हिलाया रविंद्रनाथ को कहा यह क्या ह रहा, यह स्कूल है ? यह क्लास लगी हुई है ? यह पढ़ाई हो रही हैं। यह क्या है य ह लड़के ऊपर चढ़े हैं। रविंद्रनाथ ने कहा की मैं भी दुःख अनुभव कर रहा हूं। लेकि Page 19 of 150 http://www.oshoworld.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज न जो ऊपर चढ़े हैं उनके लिए नहीं जो नीचे बैठे हैं उनके लिए फल पक्क गए हैं अ और फल बुला रहे हैं। मैं बूढ़ा हो गया हूं चढ़ नहीं सकता हूं। लेकिन आत्मा मेरी वह " है। मैं इन बच्चों के लिए हैरान हो रहा हूं की यह पांच सात वच्चे कितावें खोले क्यों बैठे हैं। जव फल तुला रहे हों और जव चढ़ने की ताकत हो तव जो नीचे रह जाए रूगड़ हैं, अस्वस्त हैं, बीमार हैं। मैं इन बच्चों के लिए चिंतित हूं। आंख बंद क र के मैं इन्हीं के लिए सोच रहा था की क्या करूं की यह भी वृक्ष पर चढ़ जाएं। ले किन जिन्होंने फलों की पुकार नहीं सूनी वह मेरी पूकार सूनेंगे। यह जो जीवन को जीने की कला, कुछ और तरह की शिक्षा होगी। जीवन को जीने का मार्ग बच्चों को किसी और दिक्षा में शिक्षित करेगा। लेकिन हम अब तक जो करते रहे हैं वह जीवन की कला नहीं वह जीवन से भागने की कला है। छोटे-छोटे बच्चों को दीक्षा दी जाती हैं मुलक में। इससे बड़ा कोई अपराध नहीं हो सकता। एक संन्यासी मेरे पास मेहमान था। उनकी उम्र होगी कोई बावन वर्ष । मेरे पास दो चार दिन रहे, मेरी बातें समझीं तो सरल हो गए, सीधी-सीधी बात करने लगे और मुझसे बोले की मैं कई अडचनों में हूं। क्योंकि जब मैं बारह साल का था तब मुझे दीक्षा दे दी गई और मैं संन्यासी हो गया और मेरी बुद्धि बारह साल पर ही अटक के रह गई। क्योंकि उसके बाद मैंने कुछ अनुभव नहीं किया जिंदगी के सब अनुभव मेरे लिए वर्जनित हो गए। तो मैं ने कहा फिर भी तुम मुझे कहों की तुम्हें कौन-कौ न से अनुभव की इच्छा हैं। तो उन्होंने कहा और सव तो वाद मैं कहूंगा सवसे पहले तो मुझे सिनेमा देखना हैं। मैंने कहा-'यह क्या कहते हैं आप सिनेमा!' उन्होंने कहा की मैं वड़ा हैरान रहता हूं मैं किसी टाकिज के भीतर अव तक नहीं गया। दरवाजों पर भीड़ लगी दिखती हैं टिकीट घर के सामने क्यू लगा हुआ हैं। हजारों लोग क्या देख रहे हैं? वहां क्या है? मैं एक वार भीतर जाकर देखना चाहता हूं। यह वारह साल के एक बच्चे की जिज्ञासा है। यह बावन साल के बुद्धिमान आदमी की जिज्ञासा नहीं। लेकिन क्रोध किस पर किया जाए इस आदमी पर या उन न समझों पर जिन्ह ने इसे बारह साल में इसे दीक्षा करके और संन्यासी बना दिया। मैंने पड़ोस के एक मित्र को बुलाया और उनसे कहा इन्हें आप ले जाकर टाकिज दि खा लाए। उन्होंने कहा क्षमा करीए जिस धर्म को मैं मानता हूं उसी धर्म के यह संन् यासी हैं और किसी ने मुझे देख लिया की मैं इन्हें लेकर आया हूं तो मैं भी झंझट में पड़ जाऊंगा। अगर यह कोट पतलून पहनने को राजी हो तो मैं कोट पतलून ले आ ता हूं। यह इनका दंड कमंडल ले कर मैं नहीं ले जा सकता हूं। कोट पतलून पहनने को वह राजी न हुए। क्योंकि उन्होंने कहा कोई कोट पतलून पहने देख लेगा तो फि र वड़ी मुशकील हो जाएगी। फिर मैंने कहा फिर भी कोई रास्ता निकालो। क्योंकि इ नकी इतनी सरल सी जिज्ञासा पूरी न हो पाए तो यह मोक्ष नहीं जा सकेगें। मरते व क्त भी जव चारों तरफ मोक्ष की चर्चा चल रही होगी तव यह कीसी सिनेमा टाकि ज के आस-पास घूम रहे होगें। चित्त वहां घूमता हैं जहां अटका रह जाता हैं। जिसे हम नहीं जान पाते चित्त वहीं अटका रह जाता हैं। Page 20 of 150 http://www.oshoworld.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज जीवन ही जाने योग्य हैं ताकी हम जीवन से ऊपर उठ सके जीवन में गहरे जा सके, जीवन भागने योग्य नहीं हैं। भागा हुआ आदमी जीवन से गहरे भी नहीं जाता ऊपर भी नहीं जाता। वहीं अटक जाता हैं जहां से भाग जाता हैं। मैं मित्र को कहा कछ भी करो यह वड़ा पुण्य कार्य तो मैंने कहा ले जाओ। वामुशकील वह राजी हुए फिर उन्होंने कहा फिर भी मैं इनको कैंटनमैंट ऐरिया में ले जा सकता है। वहां अंग्रेजी क फिल्म चलती हैं. वहां हिन्दी के देखने वाले नहीं होते और मेरी जाति के सब लोग बाजार में रहते हैं। वहां कोई जाता वाता नहीं, और वहां जाते भी हैं तो ऐसे लोग जाते हैं जो विगड़ चुके हैं। इनको मैं वहां ले जा सकता हूं। पर वह कहने लगे की वह संन्यासी अंग्रेजी नहीं जानते, वह कहने लगे मैं अंग्रेजी नहीं जानता हूं फिर भी मैं ने कहा कोई हर्ज नहीं फिल्म तो देख लेंगे आप। यह तो पता चल जाएगा की क्या हैं वह अंग्रेजी फिल्म ही देखने गए। लौट के मुझसे कहने लगे। मेरे मन का इतना वो झ उतर गया मैं भी कैसा पागल हूं। वहां तो कुछ भी न था लेकिन मैंने कहा यह ज न के ही जाना जा सकता हैं। यह बिना जाने नहीं जाना जा सकता। और किसी दू सरे के कहने से भी नहीं जाना जा सकता। अव तुम जा के किसी बच्चे को दीक्षा म त दे देना। उससे कहना की तू जान ले और जानने से ही जीवन में धीरे-धीरे फूल । खलता है जो संन्यास का। वह संन्यास भर पूरा नहीं होता। वह जीवन के रस और संगीत से ही आया हुआ होता हैं। तब वह संन्यास हंसता हुआ होता हैं, तव वह रो ता हुआ नहीं होता, तब वह संन्यास जीवंत होता है, लिविंग होता हैं, तब वह डेढ नहीं होता। भारत अपने बाहर के जीवन की कोई समस्या हल नहीं कर पाया और इसी लिए भ रित अपने भीतर के जीवन की भी कोई समस्या हल नहीं कर पाया हैं। क्योंकि जो बाहर की ही समस्याएं हल नहीं कर सकते वह भीतर की समस्याएं कैसे हल कर स केगें? वाहार की समस्याएं बहुत सरल हैं हम वहीं हार गए भीतर की समस्याएं बहु त जटिल हैं हम वहां कैसे जीतेंगे। जो समाज विज्ञान पैदा नहीं कर पाया मैं आप से कहना चाहता हूं। वह समाज धर्म भी पैदा नहीं कर सकता हैं क्योंकि धर्म तो पर्म विज्ञान हैं। वह तो सुपरिम साईंस है जो अभी पद्वार्थ के ही नियम नहीं खोज पाया वह परमात्मा के नियम नहीं खोज स कता है। जो अभी बाहर के ही जगत को नहीं समझ पाया है वह भीतर के जगत क ने भी नहीं समझ सकता है। पहले विज्ञान फिर धर्म पहले विज्ञान का जन्म हो तो ही एक विज्ञानिक धर्म का जन् म हो सकता है। अन्यथा धर्म एक प्लायन होगा, भागना होगा, बचाव होगा। समस्या ओं से भागना और तव धर्म एक जहर और अफीम का काम करता है। वह मार्कस ने गलत नहीं कहा है की धर्म अफीम का नशा है। वह है! यह धर्म अफीम का नशा हैं। लेकिन मार्कस गलत कहेगा अगर वह कहे की ऐसा धर्म हो ही नहीं सकता जो अफीम का नशा न हो। ऐसा धर्म हो सकता हैं लेकिन वह विज्ञानिक चिंतन से पैदा होता है वह विज्ञान की ही प्रकिया को अंतरजगत में लगाने से उपल्बध होता है। ि Page 21 of 150 http://www.oshoworld.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वज्ञान एक मथडलौजी है. विज्ञान एक विधि है अगर बाहर की तरफ लगाओ तो पद र्थ के राजों को वह जान लेती है और अगर भीतर की तरफ लगाओ तो परमात्मा के राजों को वह जान लेती है। बाहर से भीतर की तरफ भागना नहीं है, बाहर से भीतर की तरफ विकसित होना है इन दोनों बातों के भेद को ठीक से समझ लेना चाहिए। वाहर से भीतर की तरफ विकसित होना है, वाहर से भीतर की तरफ भाग ना नहीं है। पद्वार्थ से परमात्मा की तरफ भागना नहीं है, पद्वार्थ से परमात्मा की तर फ विकसित होना है क्योंकि पद्वार्थ और परमात्मा एक ही चीज के दो झोर हैं, दो चीजें नहीं। आत्मा और शरीर एक ही संस्था के दो हिस्से है दो चीजें नहीं, दो पहलू हैं दो चीजें नहीं। बाहर का जीवन और भीतर का जीवन एक ही जीवन के दो चह रे हैं दो जीवन नहीं। और समस्याओं को जो हल करना चाहता हैं उसे समस्याओं क ो स्वीकृति देनी होगी और समस्याओं की स्वीकृति से समस्याओं को हल करने के मा र्ग खोजने होगे। यह पहली बात आप से कहता हूं। समस्याएं सत्य हैं तब हम सत्य समाधान खोज स कते हैं और जो प्रतिभा समस्याओं के सत्य को स्वीकार कर लेती है। वह बड़ी चिनौ ती स्वीकार करती है बड़ा चैलेंज क्योंकि फिर यह ध्यान रहे जिस समस्या को हम स् वीकार करते हैं। जब तक वह हल न हो जाए तब तक हमारे प्राणों को चयन नहीं मिलती। जो समस्या स्वीकृत हो जाएगी वह चैलेंज वन जाती है प्राणों के लिए की उसे हल करो। और अगर हमने समस्या को कह दिया की वह झूठ हैं चिनौती खत्म हो गई। फिर हल करने का प्रश्न ही नहीं उठता। जितनी ज्यादा समस्याएं हम स्वी कार करेंगे। उतनी ही ज्यादा हमारी प्रतिभा विकसित होगी, उन्हें हल करने में, और यह भी ध्यान रहे प्रतिभा हल करने में ही विकसित होती हैं। सार्मथ झूझने से ही ि वकसित होती हैं। चिनौती से सोई हुई शक्तियां जागती हैं। जितनी बड़ी चिनौती उ तनी ही बड़ी भीतर की शक्तियां जागृति होती हैं। भारत ने बाहर की चिनौती इंकार करके भीतर की प्रतिभा को सो जाने का मोका ि दया। भारत के प्राण सो गए। इसलिए बाहर की सारी समस्याएं सत्य हैं यथार्थ हैं य ह मैं नहीं कह रहा हूं की वह ही यथार्थ हैं और यथार्थ भी है। जो उनसे गहरा और ऊपर भी है। लेकिन जो इसी के यथार्थ को नहीं जान पाता वह उस यथार्थ को के से जान पाऐगा। इसलिए भागना नहीं है, जीवन की एक-एक समस्या को हल करन । हैं और जितनी समस्या हल हो जाती हैं। हमारी प्रतिभा उतनी सरिष्ट और ऊपर उठ जाती है। हम और बड़ी समस्याओं को हल करने के योग बन जाते हैं। लेकिन अभी उलटी हालत हैं हम से छोटी समस्या हल नहीं होती और बड़ी समस्या ओंको हल करने का हम विचार करते हैं। साईकील का पैचर भी जोड़ नहीं सकते और परमात्मा की बातें करते हैं। अजीब सी स्थिति हैं और यह धोखा भी हमें नहीं दिखाई पड़ता की हम एक सेलफ डिशेफ्सन में हैं, एक आत्मपरवंचना में पड़े हुए हैं। इसलिए पहला सूत्र जीवन यथार्थ हैं, शरीर यथार्थ हैं, पद्वार्थ हैं, जीवन की सारी स मस्याए यथार्थ हैं और जो कहते हैं की जीवन माया हैं वह गलत कहते हैं। क्योंकि Page 22 of 150 http://www.oshoworld.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वह जीवन को हल करने का मार्ग नहीं बताते। जीवन में नशें में दूब जाने अफीम पी लेने की व्यवस्था करते हैं और जब तक हम इन्हीं लोगों से पूछे चले जाएंगे। जब तक भारत की प्रतिभा साधु-संन्यासियों से ही पूछे चली जाएगी । तब-तब भारत बार -बार हारा बार-बार पराजित हुआ बार-बार दु:खी हुआ, बार-बार दांव चुक गया आगे भी दांव चुकता जाने वाला है। साधुओं से नहीं, जीवन से भागे हुए लोगों से न हीं, जीवन के संर्घष में उतरी हुई विज्ञानिक प्रतिभा से हमें पूछना पड़ेगा। क्या है ह ल? क्या है समाधान ? और अगर वह प्रतिभा नहीं हैं तो वह हममें पैदा करनी पड़ेग ी। वह प्रतिभा पैदा होती है, कैसे पैदा हो सकती है, उन सूत्रों कल सुबह, और पर सों सुबह आप से बात करूंगा। इस संबंध में जो भी प्रश्न हो वह आप लिख कर दे देंगे। ताकी सांझ उनकी बात हो सके। ओशो नए भारत की खोज टाक गिवन इन पूना, इंडिया डिस्कोर्स नं० २ मेरे प्रिय आत्मन्, सुबह की चर्चा के संबंध में बहुत-से प्रश्न पूछे गए हैं। एक मित्र ने पूछा है, 'पश्चिम से पढ़कर आए हुए युवक, विज्ञान और तकनीक की नई की नई शिक्षा लेकर आए हुए युवक भी भारत में आकर विवाह करते हैं तो दहेज मांगते हैं। तो उनकी वैज्ञा निक शिक्षा का क्या परिणाम हुआ । ' पहली तो बात यह है कि जब तक कोई समाज, अरेंज मैरिज विना प्रेम के और सामाजिक व्यवस्था से विवाह करना चाहेगा तब तक वह समाज दहेज से मुक्त नहीं हो सकता। दहेज से मुक्त होने का एक ही उपाय है, युवकों और युवतियों के बीच मां-बाप खड़े ना हों। अन्यथा दहेज से नहीं बचा जा सकता। प्रेम के अतिरिक्त विवा ह का और कोई भी कारण अगर होगा तो दहेज किसी ना किसी रूप में जारी रहेगा । दहेज हमेशा जारी रहा है। कुछ समाजों में लड़कियों की तरफ से दहेज दिया जात ा रहा, कुछ समाजों में लड़कों की तरफ से भी दहेज दिया जाता रहा । लेकिन दहेज दुनियां में जारी रहा है। क्योंकि विवाह की जो सहज प्राकृतिक व्यवस्था हो सकती है वह हमने स्वीकार नहीं की। समाज अब तक प्रेम का दुश्मन सिद्ध हुअ Page 23 of 150 http://www.oshoworld.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज । है। वह कहता है. 'बिना प्रेम करके सोच-विचार करके मां-बाप तय करेंगे, पंडित परोहित तय करेंगे कि विवाह होगा। जब तक पंडित परोहित कंडली जन्म और इन सारी बातों को देखकर और मां-बाप विवाह तय करेंगे तब तक दहेज जारी रहेगा। क्यों? क्योंकि जहां प्रेम नहीं है वहां पैसे के अतिरिक्त और किसी चीज से संबंध नह होता। या तो दो व्यक्तियों के वीच में प्रेम हो तो पैसा खड़ा नहीं होता, और अग प्रेम ना हो तो पैसा ही एक मात्र संबंध का रास्ता रह जाता है। सारा मूल्क इनक र करता है कि दहेज मिटना चाहिए। अभी कोई पंद्रह दिन हा प्राइमरी स्कल के शिक्षक मेरे पास आए। गरीब आदमी हैं. लड़की का विवाह करना है। तो मुझसे कहने लगे कि एक इंजीनियर युवक से विवा ह की बात चल रही है लेकिन वह बारह हजार रुपए मांगता है। उन्होंने बहुत विरो ध मेरे सामने जाहिर किया कि यह तो बहुत ज्यादती की बात है। मैंने उनसे कहा ि क, ‘पहली तो बात यह है कि इंजीनियर आप इंजीनियर लड़के से विवाह क्यों करन [ चाहते हैं। किसी चमार लड़के से विवाह क्यों नहीं करते, किसी मजदूर लड़के से ि ववाह क्यों नहीं करते। आप यह तो कहते हैं कि लड़का वारह हजार रुपए मांगता है, लेकिन लड़के तो हजार रुपए महीने मिलते हैं इसीलिए आप उसके साथ विवाह कर रहे हैं। सौ रुपए वाले मेहनताना पाने वाले लड़के से विवाह करने को आप भी राजी नहीं हैं। दुनिया में आप यह कहेंगे कि मैं तो विवाह करने को राजी हूं लेकिन वह लड़का ह जार, वारह हजार रुपए मांगता है। लेकिन आप उस लड़के की तरफ क्यों उत्सुक हु ए, क्योंकि उसको हजार रुपए महीने मिलते हैं। आप भी रुपए का ही विचार कर र हे हैं। वह भी रुपए का ही विचार कर रहा है। गलती कहां है? और गलती तब त क जारी रहेगी, कि जब तक लड़के और लड़कियों को प्रेम से तय करने का मौका नहीं मिलता। एक वार प्रेम वीच में आ जाए फिर पैसे का कोई सवाल नहीं। लेकिन मां-बाप को यह बर्दाश्त नहीं है, दहेज बर्दाश्त है। विवाह के साथ चलने वाली सार ी ना समझीयां बर्दाश्त है, लेकिन प्रेम बर्दाश्त नहीं है। और प्रेम को रोकने के लिए सारा इंतजाम किया हुआ है। शिक्षकों से लेकर मां-बाप तक, युवक और युवतियों के बीच सिपाहियों की तरह तैनात हैं। उनके बीच प्रेम पैदा ना हो जाए, और बड़े मजे की बात है वह समझते हैं कि प्रेम के पैदा हो जाने से अनैतिकता पैदा हो जाएगी। जबकि सच यह है कि जिस समाज में विवाह बिना प्रेम के होता है वह समाज बुनियादी रूप से अनैतिक हो जाता है। क्योंकि जीवन में इससे बड़ी अनीति नहीं है कि एक व्यक्ति एक ऐसी स्त्री के साथ रहने को राजी हो जाए जिससे उसका प्रेम नहीं। इससे ज्यादा इममोरेल इससे ज्यादा अनैतिक और को ई बात नहीं हो सकती। लेकिन अगर एक युवक और युवती में प्रेम हो और उनका बच्चा पैदा हो जाए तो हम कहेंगे इललीगल है नाजायज है। जवकि सच यह है कि जिन पुरुष और स्त्री में प्रेम नहीं है। और किसी पंडित ने सात चक्कर लगाकर उनका विवाह करवा दिया उ Page 24 of 150 http://www.oshoworld.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज के सब बच्चे नाजायज हैं। क्योंकि सात चक्कर लगाने से कोई बच्चा जायज नहीं ह ो सकता। बच्चा सिर्फ एक बात से जायज हो सकता है कि स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम का संबंध रहा हो, प्रेम के अतिरिक्त और कोई चीज जायज नहीं हो सकती। ले किन प्रेम नाजायज हो सकता है । और कानून और व्यवस्था जायज है। तो जैसे ही हम प्रेम को बचाने की कोशिश करते हैं, पैसा उसकी जगह ले लेता है । फिर हम चाहते हैं कि पैसा भी जगह ना ले। यह नहीं हो सकता, यह असंभव है। इ समें कसूर विज्ञान की शिक्षा लेकर आ गए युवक का नहीं है। आज के पूरे समाज क ी व्यवस्था और विवाह के संबंध में सोचने का ढंग बुनियादी रूप से गलत है। एक व ात, और दूसरी बात, जो व्यक्ति वैज्ञानिक शिक्षा लेकर आया है जैसा मैंने सुबह कह ा वैज्ञानिक शिक्षा से कोई वैज्ञानिक नहीं हो जाता। और ध्यान रहे अगर आपके बेटे वैज्ञानिक शिक्षा से वैज्ञानिक हो गए तो आप दहेज देने से भी बड़ी मुसीबतों में पड़ जाएंगे। क्योंकि जो बच्चा वैज्ञानिक चिंतन करने लगा है वह कभी भी ऐसी लड़की से विवाह करने को राजी नहीं हो सकता जिससे उसका प्रेम नहीं है। यह बिलकुल अवैज्ञानिक बात है। वह बेटा इस बात के लिए भी राजी नहीं हो सकत ा कि बाप उसके लिए पत्नी चुने, वह बेटी भी राजी नहीं हो सकती वह मां और ब ाप उसके लिए लड़का चुनें। मां-बाप अपने साथी चुन नहीं पाए, वह उसका बदला अपने बेटों से ले रहे हैं । हर आदमी को कम से कम प्रेम करने का और जिंदगी में जिसके साथ रहना है उ से चुनने का सीधा हक होना चाहिए। कोई दूसरा आदमी यह काम नहीं कर सकता । मां-बाप कितने ही समझदार हों, लेकिन समझदारी से प्रेम का कोई हिसाब नहीं ल गाया जा सकता। गणित और हिसाव से प्रेम का कोई संबंध नहीं है। और मजे की बात यह है कि गणित में ठीक उतरते विवाह कर लेना खतरनाक है प्रेम में गलत उतरकर विवाह कर लेना ठीक है । प्रेम की गलती भी ठीक है गणित की ठीक भी ठीक नहीं। क्योंकि जिंदगी के रास्ते गणित के हिसाब के रास्ते नहीं है। लेकिन जब हमने हिसाव बिठा रखा है और जो बच्चे राजी हो जाते हैं उनके राजी हो जाने का कारण यह नहीं है कि उनको गलत शिक्षा मिली। उनके राजी हो जाने का कुल कारण इतना है कि उन्होंने विज्ञान की ऊपर से शिक्षा ले ली है भीतर से अवैज्ञानिक आदमी मौजूद है। वह जो गैर साईंटीफिक दिमाग है अगर ज्ञानी चित्त है वह मौजूद है। वह शिक्षा से नष्ट नहीं होता । वह अकेली शिक्षा से नष्ट नहीं होता । उसे नष्ट करने के लिए हमारे जो मन के आधार हैं उनको बदलना जरूरी है। जैसे, हम बच्चे को बचपन से ही सीखाते हैं विश्वास करो। जो बच्चा बचपन से सी खता है विश्वास करना वह बच्चा कभी वैज्ञानिक नही हो सकता है। क्योंकि विज्ञान का पहला सूत्र है संदेह करो । डाऊट विज्ञान का पहला सूत्र है। और हमारी सारी शि क्षा का पहला सूत्र है विश्वास करो। जो लड़का विश्वास करता है बचपन से विश्वास में दीक्षित होता है वह बच्चा स्कूल में जाता है। स्कूल का गणित का शिक्षक क T दो और दो चार होते हैं वह बच्चा इसमें भी विश्वास करता है। फिजिक्स का Page 25 of 150 http://www.oshoworld.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज शक्षक समझाता है कि जमीन में कशिश है इसलिए चीजें जमीन की तरफ गिर जात हैं। वह बच्चा इसमें भी विश्वास करता है। वह विज्ञान की शिक्षा लेकर लौटता है लेकिन उसके दिमाग में डाऊट पहले ही हआ है वह विज्ञान पर भी विलीफ करता है. उसकी विलीफ बदल गई है। वह गीता पर विश्वास ना करके आस्टिन पर विश्वास करने लगा लेकिन विश्वास करना जारी है। और जो आदमी विश्वास करता है वह कभी वैज्ञानिक नहीं हो सकता। विज्ञान का पहला सूत्र है संदेह, लेकिन ना मां-बाप चाहते हैं कि बेटे संदेह करें। क्योंकि संदेह ब गावती है संदेह रिवैलियन है। अगर वेटे संदेह करेंगे तो मां-बाप का बहुत-सा ज्ञान झूठा सिद्ध होगा। और किसी आदमी का अहंकार यह मानने को राजी नहीं होता कि मेरे बेटे मेरे ज्ञान को झूठा सिद्ध कर दें। हर बाप अपने बेटे के सामने सर्वज्ञ है। हर मां अपनी बेटी के सामने सर्वज्ञ है। हर स् कूल का शिक्षक सर्वज्ञ होने का दावा करता है। और यह सर्वज्ञता का दावा दो तरह से सिद्ध हो सकता है एक तो यह कि यह आदमी सर्वज्ञ हो, जबकि सर्वज्ञ दुनिया में ना कभी हुआ है और ना कभी हो सकता है। और दूसरा रास्ता यह है सर्वज्ञ सि द्ध होने का कि दूसरा सामने वाला आदमी संदेह करने वाला ना हो। तो फिर हर अ दमी सर्वज्ञ है। तो दुनिया में हमने यह तरकीब जाहिर की है शिक्षकों ने, मां-बाप ने , समाज के व्यवस्थापकों ने कि बच्चे संदेह ना करें। इसलिए बचपन से ही उनको वि श्वास करने का जहर पिलाया जाता है। हर चीज में विश्वास करो। क्यों विश्वास करो? क्योंकि पिता कहते हैं इसलिए विश्व स करो, क्यों विश्वास करो क्योंकि गीता में लिखा है इसलिए विश्वास करो। कोई । पता ने, या किसी कृष्ण ने, या किसी क्राइस्ट ने, या किसी महावीर ने ठेका लिया हु आ है सव आदमियों के मन का और बुद्धि का। क्यों किसी का विश्वास करो। यह जो एथोरिटियन है, यह जो आज्ञता सिखाई जाती है यह विज्ञान जीरो की है विज्ञान कहता है संदेह करो सब पर संदेह करो और तब तक संदेह करो जब तक तुम खो ज कर पहुंच ना जाओ किसी बात को तुम ना जान लो। तो ठीक से डाऊट करना । वज्ञान की प्रक्रिया है। लेकिन हिंदुस्तान में कोई बेटा संदेह करता ही नहीं। वह विज्ञान की शिक्षा लेकर लौ ट . . . आ जाता है। लेकिन उसके मन में संदेह का जन्म नहीं होता। उसका सारा मन इस बात से ही भरा रहता है। वह वहीं का वहीं आदमी है। उसमें कोई फर्क न हीं पड़ा हुआ है। शिक्षा का कसूर नहीं है यह, यह जो हमारे मन की व्यवस्था है मौ लक व्यवस्था वह गलत है। अगर हमें इस देश को वैज्ञानिक बनाना हो तो जिस तर ह हमने अब तक विश्वास सीखाया है बिलीव सीखाई है उसी तरह हमें अब अपने वे टों को संदेह सिखाना पड़ेगा। हमें उन बच्चों को सिखाना पड़ेगा कि वह पूछे, जिज्ञासा करें। और जो हम नहीं जा नते हैं कहना पड़ेगा अपने बच्चों से कि हम नहीं जानते हैं हमें खुद ही पता नहीं है। तुम जिंदगी में खोजना हो सकता है तुम्हें पता हो जाए। और मैं आपसे कहता हूं Page 26 of 150 http://www.oshoworld.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज जो बात झूठे ज्ञान का दावा नहीं करता अपने बेटे के सामने बेटा जिंदगी भर उसका अनुग्रहित रहेगा। और उस पिता के प्रति उसका सम्मान सदा कायम रहेगा। क्योंकि आज नहीं कल बेटा खुद ही पता लगा लेगा कि बाप कुछ भी नहीं जानता था कन बचपन से दावे करता रहा कि मैं सब जानता हूं। और जिस दिन उसे पता चल जाएगा उस दिन बात सदा के लिए झूठा हो जाएगा । यह जो दुनिया में मां और बाप का आदर खत्म हो गया है उसका कुल एकमात्र का रण है कि बच्चे जब शिक्षित होकर बड़े होकर देखते हैं तो पाते हैं कि उनके मां-बा प उतने ही अज्ञान थे जितना कोई और। लेकिन बचपन से उन्हें धोखा दिया गया है। और हर ऐसी बात को मां-बाप ने जानने का दावा किया जिसे वह बिलकुल नहीं जानते थे। तब श्रद्धा विलीन हो जाती है। और एक अश्रद्धा और एक अपमान पैदा हो जाता है दुनिया में मां-बाप का अपमान जारी रहेगा जब तक मां-बाप बच्चों को धोखा देते हैं। और सबसे बड़ा धोखा ज्ञान का धोखा है। किसी आदमी को यह हक नहीं, अगर मुझे पता नहीं है ईश्वर का तो मुझे भूलकर कभी किसी से नहीं कहना चाहिए कि ईश्वर है। मुझे मालूम नहीं है कुछ लोग कहते है 'है' कुछ लोग कहते हैं 'नहीं है' मैं खुद कुछ भी नहीं जानता मुझे कुछ भी पता नहीं । समझदार बाप एगनोस्टिक होगा। समझदार शिक्षक भी एगनोस्टिक होगा, वह अज्ञेयव ादी होगा, वह कहेगा जो मुझे पता नहीं है वह पता नहीं है वह विनम्र होगा। और यह विनम्रता जिज्ञासा पैदा करेगी और संदेह पैदा करेगी बच्चे सोचेंगे जरूरी नहीं कि सोचने से वह सब कुछ जा जान लेंगे। लेकिन जितना वह जान लेंगे वह वैज्ञानिक ह गा । जितना वह नहीं जानेंगे वह कभी दावा नहीं करेंगे कि हम जानते हैं वह जानने की चेष्ठा करेंगे वह नहीं जान सकेंगे उनके बेटे जानेंगे, उनके बेटे नहीं तो उनके बे टे नहीं तो उनके बेटे जानेंगे। आगे जानने की खोज जारी रहेगी। कोई आदमी दावा कर भी नहीं सकता कि वह सब जानता है। और जिन लोगों ने दावे किए हैं इस ज मीन पर उनसे ज्यादा खतरनाक आदमी नहीं हुए । जिन्होंने दावा किया है हम सब जानते हैं। क्योंकि उन्होंने ज्ञान की यात्रा की हत्या कर दी, छुरा भौंक दिया ज्ञान की पीठ में उसके बाद फिर ज्ञान का बढ़ना मुश्किल हो गया। हमें मन के आधार बदलने पड़ेंगे इसमें शिक्षा का सवाल नहीं है बहुत । बच पन से ही पहले दिन से ही संदेह का बीजारोपण होना चाहिए। और स्कूल में भी संदे ह का बीजारोपण को सहारा मिलना चाहिए । शिक्षक भी सहारा नहीं देता । युनिवर्सि टी के प्रोफेसर भी सहारा नहीं देते। दूसरों की तो हम बात छोड़ दें जो लोग तर्क श शास्त्र पढ़ाते हैं वह शिक्षक भी संदेह नहीं सिखाते। वह शिक्षक भी विश्वास करना सि खाते हैं। 'मैं दु मैं खुद एक युनिवर्सिटी में तर्क शास्त्र पढ़ता था । जो शिक्षक मुझे तर्क शास्त्र सिखाते थे वह भी मुझसे यह कहते थे कि हम कहते हैं इसलिए मान लो । मैंने कहा, निया में सब की मान लूंगा। लेकिन राज्य के शिक्षक की तो नहीं मान सकता। तो मुझे तो तर्क से सिद्ध करना पढ़ेगा, क्योंकि मैं तर्क से सीखने आया हूं।' आठ महीने Page 27 of 150 http://www.oshoworld.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लग गए, एक इंच आगे बढ़ना नहीं हुआ क्योंकि वह कुछ भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं थे, और मैंने कहा, 'सिद्ध नहीं कर सकते हैं तो लौजिक की क्लास बंद कर दे नी चाहिए। कहना चाहिए कि कुछ सिद्ध हो नहीं सकता इसलिए लौजिक वेईमानी है आखिर उन्होंने इस्तीफा लिखकर दे दिया। या तो मैं पढू या वह पढ़ाएं दो में से एक ही काम हो सकता है। मझे उस यनिवर्सिटी से निकल जाना पडा। क्योंकि यनिवर्सि टी उन पुराने शिक्षकों को निकालने को राजी नहीं है। मैंने वाईसचांसलर को कहा, तुम्हारा यह विश्वविद्यालय कभी भी वैज्ञानिक शिक्षा का गढ़ नहीं बन सकता। अन्यथ [ अवैज्ञानिक शिक्षा का गढ़ रहे । क्योंकि तुम एक ज्यादती की बात कर रहे हो।' त कशास्त्र का शिक्षक कहता है कि तर्क नहीं किया जा सकता। तो फिर मुश्किल हो गई। तो फिर धर्मशास्त्र का शिक्षक कैसे तर्क करने देगा। तर्कशास्त्र का शिक्षक यह कहता है कि, 'आरगयू मत कहो! हम जो कहते हैं जो ि कताब में लिखा है वह मानो।' अरस्तु ने जो कहा है दो हजार साल पहले वह सच, अरस्तु को मरे दो हजार साल पहले वह सच है। अरस्तु को मरे दो हजार साल हो गए। अरस्तु की बहुत सी ना समझीयां जाहिर हो गई। अरस्तु बहुत से मामलों में इतना कम जानता था जितना हमारा प्राईमरी स्कूल का बच्चा ज्यादा जानता है। ले कन वह दो हजार वर्ष पुरानी किताब लेकर बैठे हैं कि अरस्तु ने जो लिखा है वह त र्क के अंतिम नियम हो गए। तो फिर अरस्तु के साथ दुनिया को मर जाना चाहिए था आगे जिंदा रहने की कोई जरूरत नहीं रह गई। और अरस्तु ने जो लिखा है हम सोचें ठीक हो माने ना ठीक हो ना माने। अरस्तु की दो औरतें थीं। लेकिन अरस्तु ने अपनी किताव में लिखा है कि पुरुषों के दांत स्त्रिय में से ज्यादा होते हैं। यूनान में भी अफवाह थी कि स्त्रियों के दांत कम होते हैं, अस ल में पुरुष मानने को को राजी नहीं होता कि स्त्रियों में कुछ भी पुरुष से ज्यादा हो सकता है। दांत भी ज्यादा कैसे हो सकते हैं। स्त्रियों में दांत कम होने ही चाहिए। और स्त्रियां तो ना समझ हैं उन्होंने अपने दांत कभी गिने नहीं, और पुरुष गिनते क्य में। और अरस्तु की दो औरतें थी एक भी नहीं, कभी भी बिठाकर मिसीज अरस्तु को कह सकता था कि जरा दांत गिन लूं तुम्हारे। वह दांत उसने नहीं गिने लिखा कित वि में स्त्रियों के दांत कम होते हैं। और आज भी उसकी किताब में यही लिखा है लेकिन अगर आज मुझसे कोई कहे यह मान लो अरस्तु ने कहा है तो मैं कहता हूं ि क इतनी स्त्रियां हैं किसी के भी दांत गिन लो। स्त्रियों के दांत सिद्ध करेंगे कि स्त्रियों के दांत सही हैं या अरस्तु कि किताब सही है, कि अरस्तु का कहना सिद्ध नहीं कर सकता। लेकिन मेरे तर्कशास्त्र के शिक्षक नारा ज हो गए। उन्होंने कहा, 'क्या तुम अरस्तु से ज्यादा समझदार होने का दावा करते हो?' मैंने कहा, 'मैं यह दावा नहीं करता, मैं सिर्फ इतना कहता हूं कि अरस्तु ने सि त्रयों के दांत नहीं गिने, मैं गिनने का दावा करता हूं। और मैं गिन कर कहता हूं ि Page 28 of 150 http://www.oshoworld.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लेकिन त क दांत बराबर हैं।' अरस्तु ने जो लिखा है वह गलत लिखा है । यह... र्कशास्त्र भी नहीं सीखाता, तब तो बड़ी मुश्किल हो गई । तो विज्ञान कैसे पैदा होगा ? विज्ञान पैदा होता है चिंतना से, चिंतना पैदा होती है सं देह से, संदेह पैदा होता है जिज्ञासा की शिक्षा से, तो जिज्ञासा की शिक्षा चाहिए कि बच्चे पूछ सकें, बच्चे पूछते हैं, क्योंकि हर बच्चा संदेह लेकर पैदा होता है। संदेह प रमात्मा का सबसे बड़ा वरदान है। हर बच्चे में परमात्मा संदेह का बीज रोपता है। क्योंकि संदेह से ही, संदेह के बीज से ही ज्ञान का वृक्ष विकसित होगा। लेकिन समा ज ज्ञान नहीं चाहती समाज अज्ञानी लोगों की भीड़ चाहती हैं। पुरोहित, धर्मगुरु, रा जनेता सब तरह के शोषक वह सब चाहते हैं कि भीड़ अज्ञानी हो। क्योंकि जिस दिन ज्ञान विस्तीर्ण होगा उसी दिन बगावत शुरू हो जाएगी । तो भगवान तो हर आदमी में संदेह पैदा करता है बच्चा तो जन्म से ही संदेह करने लगता है। वह पूछता है ऐसा क्यों है ? यह वृक्ष हरा क्यों है ? यह बच्चे कहां से पैद होते हैं? यह सब दुनिया कहां से आई, चांद कितनी दूर है, चांद को हम हाथ में ले सकते है या नहीं कहते । और बाप डांट- डांटकर चुप करता है कि चुप रहो बक वास बंद करो। हम जानते हैं कि तुम कुछ भी नहीं जानते हो। हम जो कहते हैं वह ठीक है। बच्चे की जिज्ञासा की हत्या की जाती है फिर विज्ञान कैसे पैदा होगा। फि र विज्ञान पैदा नहीं हो सकता। बच्चे की जिज्ञासा बढ़ाई जानी चाहिए । लेकिन धर्मगु रु सदा से ज्ञान के दुश्मन रहे हैं । बाईबिल की कहानी आपने सुनी होगी। आपने सुना होगा आदम को इडन के बगीचे से क्यों निकाला गया। उसे इसलिए निकाला गया कि बड़ी मजेदार कहानी पुरोहितों ने लिखी। और वह कहानी यह लिखी कि भगवान ने इडन के बगीचे में, अदम को कहा, 'तुम खूब मजे से रहो आनंद से रहो, जीवन भोगो लेकिन एक बात खयाल र खना एक जार है ट्री ऑफ नौलिज । एक ज्ञान का वृक्ष है तुम उसके फल मत चखना ! बस उसके फल चखे कि हम तुम्हें निकाल बगीचे के बाहर कर देंगे। यह बड़े मजे की बात भगवान ने कही भगवान ज्ञान का दुश्मन मालूम होता । लेकिन ऐसा मालूम होता है कि भगवान को पता ही नहीं होगा कि कहानी पुरोहितों ने गढ़ी है। पुरोहित ज्ञान के दुश्मन हैं। लेकिन रोक दिया अदम को कि मत खाना इसका. लेकिन जिस चीज से रोका जाए उसकी तरफ मन होना स्वभाविक है। लेकिन अदम के मन में टैप्पेशन शुरू हो गया होगा, स्वभाविक था । अगर पूना में एक वृक्ष हो अ और सारे लोगों को कह दिया जाए कि इस वृक्ष के फल मत खाना ! और सब खाओ। और सारे वृक्ष बेकार हो जाएंगे। उसी वृक्ष की तरफ सारे लोग चल पढ़ेंगे उसके फ ल खाकर देख लेना चाहिए मामला क्या है । पुरोहित कहते हैं, 'शैतान ने आदम को भड़काया, शैतान ने आदम को भड़काया, शैतान ने नहीं भड़काया । आदम की जिज्ञा सा आदम का संदेह, आदम जानना चाहता है कि ज्ञान का फल क्या है । कोई शैतान नहीं है कहीं लेकिन पुरोहित कहते हैं कि संदेह शैतान है । Page 29 of 150 http://www.oshoworld.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज तो वह कहते हैं कि जो संदेह करेगा वह भटक जाएगा। और विज्ञान कहता है कि जो संदेह करेगा वही सत्य को जान सकता है इसलिए पुरोहित और विज्ञान के बीच एक दुश्मनी है जो पूरी कभी नहीं हो सकती। जब तक पुरोहित है तब तक विज्ञान नहीं हो सकेगा। और अगर विज्ञान होगा तो पुरोहित को विदा हो जाना पड़ेगा । तो पुरोहितों ने कहा, 'ज्ञान का वृक्ष मत चखना आदम के मन में जिज्ञासा हुई होगी स् वाभाविक है जिस चीज को इनकार किया जाता है। उसकी जिज्ञासा पैदा होती है अ दम तो भोले बच्चे की तरह रहा होगा। वह पहला आदमी वह गया और उसने ज्ञा न का फल चख लिया। और फिर उसने निकाल बाहर कर दिया । और ईसाई पुरोहि त कहते हैं कि उसी ज्ञान के फल चखने के पाप के कारण आज भी अब तक कष्ट भोग रही हैं। हम जो कष्ट भोग रहे हैं वह ज्ञान का फल चखने के कारण भोग रहे हैं । अगर हम पुरोहितों की मान लें और ज्ञान को जला डालें तो हम सब बड़े आनंद में हो जाएंगे क्योंकि हम सब मूढ़ हो जाएंगे । मूढ़ तो आनंद में होता ही है । क्योंकि मूढ़ को दुःख का भी पता नहीं चलता । मूढ़ तो मूढ़ है वह बगावत भी नहीं करता। इस लिए दुनिया के पुरोहित समझदार हैं ज्ञान मत बढ़ने दो । ज्ञान बढ़ता है जिज्ञासा से, जिज्ञासा पैदा होती है संदेह से इसलिए संदेह के बीज को नष्ट कर दो इसको जला डालो। हिंदुस्तान में कितने हजारों वर्ष से शूद्र हैं। करोड़ों शूद्र हैं लेकिन कोई बगावत नहीं हो सकी शूद्रों की क्यों ? क्योंकि हिंदुस्तान के ब्राह्मणों ने बहत होशियारी की उन्होंने ज्ञान से शूद्रों को वंचित कर दिया जहां ज्ञान वंचित हुआ वहां बगावत नष्ट हो जाती है। शूद्र कोई बगावत नहीं कर सके कोई विद्रोह नहीं कर सके। उनको मूढ़ता में रखा ग या, इग्नोरेंस में रखा गया। उन्हें पढ़ने का हक नहीं, पढ़ना तो दूर उन्हें धर्मशास्त्र क शब्द सुनने का हक नहीं। गांधी जी जिन राम के राज्य को आने की चर्चा करते थे कहानी यह कहती है कि उन राम ने ही एक शूद्र के कानों में एक शीशा पिघलवा कर भरवा दिया। क्योंकि उसने एक मकान के पास से निकलते हुए, मकान के भी तर ऋषि पढ़ रहे थे वेद । उसने खड़े होकर वेद के वचन सुन लिए, यह पाप है। शू द्र को ज्ञान का हक नहीं है। ऐसा राम राज्य गांधी जी हिंदुस्तान में लाना चाहते थे। वहां शूद्रों के कानों में शीशा पिघलवा कर भरवाया जाएगा। क्योंकि शूद्र को ज्ञान का हक नहीं हो सकता । शूद्र को ज्ञान का हक क्यों नहीं है ? इसलिए नहीं हैं कि जिस दिन शूद्र को ज्ञान मि ला उसी दिन उपद्रव शुरू हो जाएगा। उपद्रव शुरू हो गया। अंग्रेजों ने शूद्रों को शिक्षा दी और उपद्रव शुरू हो गया। डा० अम्बेडकर भारत के पूरे हजारों साल के इतिहा स में पहला शूद्र है जो ठीक से शिक्षित हुआ। कोई शूद्र शिक्षित नहीं हो सका है। इ सलिए शूद्रों की लम्बी कथा में एक भी नाम नहीं है जो आप लेकर बता सकें कि ह म नाम भी ले सकें कि कोई एक नाम पैदा हुआ हो प्रतिभाशाली कोई एक व्यक्ति पै हुआ हो । Page 30 of 150 http://www.oshoworld.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज नहीं हो सका कैसे होगा? शूद्रों में बगावत भी पैदा नहीं हुई। इसीतरह स्त्रियों को ि शक्षा से वंचित किया गया कि स्त्रियों को शिक्षा मत मिलने दो, अन्यथा वगावत हो जाएगी। इसलिए सारे परुषों ने यह साजिश की कि स्त्री शिक्षित ना हो पाए। इसलि ए दनिया में स्त्री को अशिक्षित रखा गया। अशिक्षित स्त्री का मालिक हआ जा सक ता है शिक्षित स्त्री का नहीं. शिक्षित स्त्री का नहीं। शिक्षित स्त्री का मालिक होना क ठिन है। क्योंकि कोई भी शिक्षित व्यक्ति किसी को मालिक मानने को राजी नहीं हो सकता। शिक्षित व्यक्ति अपना खुद मालिक हो सकता है। दूसरे को मालिक नहीं हो ने दे सकता है। मालकियत गंदगी है और मालकियत रास्ता है। पुरुष को पति होना पति का मतलब होता है मालिक, स्वामी, स्त्रियां लिखती हैं चिट्ठी के नीचे आपकी दासी, और पति देव बहुत प्रसन होते हैं। और स्त्रियां भी सोचती हैं कि बड़े प्रेम की बात लिख रही हूं अब दासीयों में और स्वामीयों में कभी प्रेम हो सकता है। प्रेम होता है दो समान स्तर के लोगों में, दासी और स्वामी में क्या प्रेम हो सकता है। पुरुष को पति होने में बहुत रस है। इसीलिए तो हम देश के प्रधान को राष्ट्रपति क हते हैं। राष्ट्रपत्नी अगर कोई स्त्री बन गई तो हम कहने को राजी नहीं होंगे। कोई स त्री राजी नहीं होगी कि राष्ट्रपत्नी है ऐसा कैसे हो सकता है। लेकिन राष्ट्रपति, राष्ट्र पति हो सकते हैं आप। क्योंकि पुरुषों की यह दुनिया है पुरुषों ने यह दुनिया वनाई है। स्त्री एतराज नहीं करती कि राष्ट्रपति का क्या मतलब होता है? सब के पति, कोई स्त्री एतराज नहीं करती कि हम राष्ट्रपति नहीं मान सकते किसी आदमी को। क्योंकि पति के संबंध में हमारी धारणा ही भूल गई कि वह स्वामी होने की बात है। लेकिन अगर पुरुष को स्वामी रहना है तो स्त्री को अशिक्षित रखना पड़ेगा। इसलिए स्त्रियों की सारी शिक्षा बंद कर दी। उन्हें अशिक्षित रखा गया। अशिक्षित स्त्रियां विद्र ही नहीं हो सकतीं। पश्चिम में भूल हो गई पुरुषों से स्त्रियों को शिक्षा दी और वगा वत शुरू हो गई। हिंदुस्तान में भी बगावत होगी। स्त्रियां शिक्षित होंगी और वगावत होगी। इसी मित्र ने एक बात और पूछी है उसने पूछा है कि, 'स्त्रियां भी शिक्षित हो जाती हैं। फिर वह कुछ नहीं करती सिर्फ गहने पहनती है, अच्छी साड़ियां पहनती हैं और घरों में वैटकर गपशप करती हैं और कुछ भी नहीं करतीं।' वह गपशप करेंगी, और गहने पहनेंगी, और साड़ियां पहनेंगी। क्योंकि पुरुषों ने सिवा य इसके उन्हें कुछ भी नहीं सीखाया। पुरुषों ने उन्हें गुड्डियां बनाना सीखाया। आदमी वनने की हिम्मत उनमें नहीं है। कोई स्त्री गुड्डी के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। और स्त्री जब गहने पहनती है तो आप यह मत समझना कि यह स्त्री पहनती है। स्त्री ग हने पहनती है लेकिन इज्जत पति को मिलती है। और पति चाहता है कि स्त्री गहने पहनकर उसके साथ बाजार में चले। वह पति विलकुल साधारण सा कमीज पहने हु Page 31 of 150 http://www.oshoworld.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ए है उसकी उसे फिक्र नहीं है लेकिन उसकी पत्नी गहनों से लदी हुई है। यह उसकी इज्जत का मामला है। पत्नी तो खिलौना है पति का, इसलिए पत्नी कौन-सी साड़ी पहनती है उसकी इज्ज त अंतत: पति को मिलती है। पत्नी को नहीं पत्नी इस भल में ना रहे। पत्नी केव ल प्रदर्शन है। पति का प्रदर्शन है। पति की ताकत का, धन का, इज्जत का। और प त्नी को गुड्डी बनाकर रखना उसमें आदमियत आने नहीं देना। क्योंकि उसमें आदमिय ता आई तो वगावत शुरू हो जाएगी। तो स्त्री क्या करे वह गुड्डी वनकर बैठी हुई है वह सोचती है बहुत बड़ा आदर हो रहा है उसका। पति गहने लाकर दे रहा है, सा. डयां लाकर दे रहा है, उसे सोफा पर विठाए हुए है घर में नौकर लगा दिए हैं उसे कोई काम नहीं करना पड़ता, पत्नी बड़ी प्रसन्न है उसे पता नहीं कि यह प्रसन्नता का . . . यह प्रसन्नता वहुत मंहगी है। उससे आदमियत छीन ली गई। उसे केवल डिसप्ले का सामान बनाया गया है। वह ि सर्फ सामग्री है जिसका प्रदर्शन किया जा रहा है। और पति के अहंकार ने एक गहना जोड़ा गया है और वह गुड्डी बनी बैठी है। अव वह गुड्डी वनी वैठी क्या करे, गपशप ना करे तो और क्या करेगी। तो वह वैठकर फिजूल की बातें कर रही है। वह आ स-पास की पत्नियों के कपड़ों की, स्त्रियों के कपड़ों की वातें कर रही है। और किस का चरित्र कैसा है इसका विचार कर रही है। और उसकी खुद की आत्मा खो गई है उसका उसे पता ही नहीं है। स्त्रियों के पास आत्मा ही नहीं बची जिस दिन उन्हों ने गुड्डी वनने को राजी हो गई उनके पास कौन-सी आत्मा है। लेकिन पति चाहता न हीं कि स्त्रियों के पास आत्मा हो क्योंकि आत्मा खतरनाक चीज है। बहुत डेंजरस है। जिसके पास आत्मा होगी उसको गुलाम नहीं बनाया जा सकता। तब दुनिया में मित्र हो सकते हैं स्त्री और पुरुष । पत्नी और पत्नियां नहीं हो सकते । अगर दुनिया में वैज्ञानिक चिंतन लाना है तो आपको मानना पड़ेगा, समझना पड़ेगा कि यह किसी तरह की गुलामी नहीं चलेगी। ना आर्थिक गुलामी चलेगी, ना सेक्सुव ल स्लेविरी चलेंगे, ना और तरह की गुलामियां चलेंगी। किसी तरह की गुलामी नहीं चल सकती। क्योंकि वैज्ञानिक चिंतन सभी तरह की गृलामियों के विरोध हैं। अभी में अमृतसर में था। एक मित्र मुझसे कुछ पूछ रहे थे। मैंने उनसे कहा कि, 'सि त्रयों को स्वतंत्र होना चाहिए।' तो वह मित्र कहने लगे कि, लेकिन स्त्रियों को स्वतं त्रता की जरूरत क्या है।' वह मित्र पढे-लिखे हैं, जज हैं। वह कहने लगे स्त्रियों को स्वतंत्रता की जरूरत क्या है? मैंने उनसे कहा, 'अंग्रेज कहते थे कि भारतीयों को स्व तंत्रता की जरूरत क्या है?' और गलत नहीं कहते। मालिक कभी नहीं चाहता कि गृलाम स्वतंत्र हो। क्योंकि स्वतंत्र होने से मालिक के जितने स्वार्थ पूरे हो रहे हैं वह सव समाप्त हो जाएंगे। लेकिन फिर भी मैं कहता हूं, कि अंग्रेजों को तो भारत के स वतंत्र होने सिवाय नुकसान के कोई फायदा नहीं हुआ। लेकिन मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि जिस दिन स्त्रियां स्वतंत्र होंगी उस दिन पुरुष को फायदा होगा, स्त्रियों Page 32 of 150 http://www.oshoworld.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज भी नहीं हुआ। क्योंकि गुलाम स्त्री की गुलामी से पुरुष को सिवाय • नुकसान के कुछ कभी भी प्रेम का संबंध पुरुष से नहीं जोड़ सकती। उसका प्रेम भी गुलामी का हिस्सा है। उसका प्रेम भी उसकी मजबूरी है वह देने में वतंत्र नहीं है उसे देना पड़ता है। उसे देना पड़ेगा। और जब प्रेम देना पड़ता हो, मज बूरी हो तो प्रेम कुम्हला जाता है, सूख जाता है, नकली हो जाता है। प्रेम जब स्वतं सा दिया जाता है जब वह दान होता है तभी जीवंत होता है, असली होता है, खला हुआ होता है, नहीं तो मुरझा जाता है। इसलिए घरों में जिनका पत्नियां बना कर बिठा लिया है उनसे प्रेम की आशा नहीं हो सकती। उनसे खाना बनवाया जा स कता है, घर का काम करवाया जा सकता है, वह घर की नौकरानियां हो सकती हैं । लेकिन प्रेम की साथीन नहीं । हां, कलह की साथीन हो सकती हैं और चौबीस घंटे कलह जारी रहेगी। पति और पत्नी के बीच जितनी कलह है उतनी दुनिया में दो दुश्मनों के बीच भी नहीं होती। लेकिन चूंकि साथ रहना पड़ता है इसलिए कलह भी करनी पड़ती है और दोस्ताना भी बनाना पड़ता है। वह दोस्ताना भी कलह के बाद ही कलह से निपटने के लिए ब नाना पड़ता है। वह सारी अच्छी बातें भी जो बूरी बातें कह दी हैं उनको पौंछने के लिए वह कहनी पड़ती हैं। सारा प्रेम अभिनय और धोखा हो गया । मैंने सुना है एक बहुत बड़े अभिनेता की पत्नी गुजर गई। उसकी लाश जब कब्र में उतारी जा रही थी कि वह छाती पीट-पीटकर रोने लगा उसकी आंख से आसुंओं की धारा बही जा रही थी । उसके एक मित्र ने कहा, 'कि तुम्हें देखकर मुझे ऐसा लगत है कि तुम्हें बहुत तकलीफ हुई । मैं इतना नहीं सोचता था कि तुम अपनी पत्नी क ो इतना प्रेम करते हो। तुम्हारा दुःख तो आश्चर्यजनक है तुम बहुत दुखी हो । कैसे तु म्हें शांति मिलेगी।' उस अभिनेता ने कहा कि, 'छोड़ो भी, यह तो कुछ भी नहीं है जस वक्त मेरे घर से अर्थी उठाई जा रही थी उस वक्त देखते। यह तो कुछ भी नह है जो मैंने किया। जब अर्थी उठ रही थी तब देखते मेरे आंसुओं की धारा और मे री आवाज और छाती का पीटना । यह तो कुछ भी नहीं है। ' लेकिन अभिनेता अभिनय करे यह तो चल सकता है। लेकिन हम सब भी बहुत तरह के अभिनय कर रहे हैं। हमारी जिंदगी का जो सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है प्रेम वह भ अभिनय हो गया है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि प्रेम से हम जुड़े नहीं हैं। प्रे म से हमारा संबंध नहीं हुआ । प्रेम को हमने एक व्यवस्था के भीतर जबरदस्ती खींच कर विकसीत करना चाहा है और स्त्री परतंत्र है उसे प्रेम देना पड़ रहा है। इस लि ए कोई स्त्री प्रेम देने में आनंदित नहीं है। मेरे पास सैंकड़ों स्त्रियां आती हैं, और मैं एक स्त्री को ऐसा नहीं पाता हूं जिसने मुझे यह कहा हो कि वह अपने पति को प्रेम देकर आनंदित है। प्रेम देना भी जैसे एक बोझ मालूम होता है। वह भी एक खींचन है । खींचा जा रहा है। देना पड़ रहा है। जब तक स्त्री परिपूर्ण स्वतंत्र नहीं है। जब तक वह मित्र की हैसियत पर खड़ी नहीं होती तब तक कोई पुरुष उससे प्रेम भी नहीं पा सकता । और तब तक परिवार सुंद Page 33 of 150 http://www.oshoworld.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज र नहीं बन सकता है। पति और पत्नी विदा होंगे दहेज घर विदा नहीं होगा। अगर वैज्ञानिक चिंतन होगा तो पति पत्नी भी विदा हो जाएंगे, रह जाएगी एक मित्रता। लेकिन मित्रता वहत घबराने की बात है। क्योंकि मित्रता में इनसिक्योरिटी है असरक्ष [ है। और पति-पत्नियों में हमने विलकुल सुरक्षा का इंतजाम कर लिया है। हमने स ब तर रह के कानन का इंतजाम कर लिया है. पलिस और अदालत विठाल दी है। का नून और समाज की इज्जत और सारी बातें विठाल दी हैं। पति-पत्नी को हमने सारे सामाजिक जकड़ों में बांध दिया है, सुरक्षा है पत्नी को पति रहना पड़ेगा, पति को पति रहना पड़ेगा। यह सुरक्षा के पीछे हमने जीवन का जो भी मूल्यवान है वह सब खो दिया है। लेकिन मेरा मानना है प्रेम ही सच्ची सुरक्षा है, कानन सच्ची सुरक्षा नहीं है। हम सिर्फ का नून से बंधे हैं। और इसलिए जब में कहता हूं कि प्रेम होना चाहिए अगर प्रेम ना हो तो किसी व्यक्ति को पति और पत्नी होने का हक नहीं है, पाप है। तो मेरे पास अनेक लोग आकर कहते हैं कि आपकी बात से तो सारा समाज विक्षीप्त हो जाएगा। तो मैं उनको कहता हूं कि जिनको यह डर पैदा होता है कि समाज विक्षीप्त हो जा एगा। वह मेरी बात सिद्ध करते हैं वह यह कहते हैं कि, 'अगर लोगों को मुक्त कर दिया गया कानून से तो पति पत्नी अभी विखर जाएंगे, अभी अलग हो जाएंगे। मत लव कानून से ही जुड़े हैं और कोई जोड़ नहीं है। पुलिस वाला खड़ा हुआ है एक वंदूक लिए हुए इसलिए आप एक दूसरे को प्रेम कर रहे हैं। और अगर मैं कहता हूं इस पुलिस वाले को जाने दो तो आप कहते हैं कि सव गड़बड़ हो जाएगा। लेकिन हमने बड़े सूक्ष्म पुलिस वाले खड़े किए हैं जो दिखाई नहीं पड़ते। और इसलिए हम पहचान भी नहीं पाते। वैज्ञानिक चिंतन तो जीवन के सारे पहलूओं को बदल देगा लेकिन वैज्ञानिक चिंतन तो जीवन के सारे पहलूओं को बदल देगा लेकिन वैज्ञानिक चिंतन पैदा नहीं हो पाता। और नहीं पैदा इसलिए नहीं हो पाता कि हमने उसके मूल जड़ को ही काट डाला है। और हिंदुस्तान में तो यह जड़ इतने लंबे समय से काटी गई है कि हम भूल ही गए हैं कि वह जड़ कभी थी भी। ऐसा आदमी नहीं मिलता जो संदेह करता हो। मेरी बातें सुनकर लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमें आपकी बातों पर विश्वास आ गया। तब तो बड़े मजे की वात है। मुझसे कहते हैं कि, 'आप हमारे गुरु बन जाइए। हम तो आपकी बात माने गे, हम तो आपके पीछे चलेंगे। हद हो गई, हमारे भीतर से विचार की सारी संभा वना समाप्त हो गई है। जो आदमी हमसे विचार करने को कहे हम कहेंगे कि चलो ठीक है तुम ही ठीक हो हम तुम्हारे प्रति अंधे हुए जाते हैं। हम तुम्हीं को माने लेते अगर हमें कोई संदेह की बात भी सिखाए तो हम उस पर भी विश्वास कर लेंगे। ऐ सा मालूम होता है कि संदेह की कल्पना ही हमारे चित्त के मानस से कलैक्टिव माइं ड से हमारे सामूहिक चित्त से उसकी जड़ ही उखड़ गई है। उखड़ भी सकती है, अ Page 34 of 150 http://www.oshoworld.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज गर हजारों साल तक ऐसा किया गया हो तो बिलकल स्वभाविक है। लेकिन कौन क रता है यह वैज्ञानिक चिंतन के पैदा होने को कौन बाधा देता है। सब तरह के स्वर्थ वाधा देते हैं। सव तरह के स्वार्थ, सव तरह के स्वार्थ का यही हित है कि मनुष्य क म से कम ज्ञानी हो. कम से कम शिक्षित हो. वह कछ ना जाने। बिलकल ना जाने अंजाना रहे। अंजाने आदमी पर किसी भी तरह का शोषण किया जा सकता है। फिर शोषण के कई रूप हैं धार्मिक शोषण है. राजनैतिक शोषण है. सामाजिक शोष ण है, शिक्षा का शोषण है सब तरह का शोषण है। गुरुओं का शोषण है, ज्ञानियों क । शोषण है, सब तरह का शोषण है। इस शोषण को अगर उखाड फैकना हो तो संदे ह के बीज को अंकुरित करना जरूरी है। और मेरी मान्यता है संदेह परमात्मा का ि दया हुआ है, विश्वास पुरोहित का दिया हुआ है और मेरा यह भी मानना है और मैं आपको कहना चाहूंगा इस पर सोचना, जो आदमी संदेह करेगा वह किसी दिन उस जगह पहुंच जाएगा जहां सब संदेह गिर जाते हैं। और जहां श्रद्धा उत्पन्न होती है। लेकिन वह श्रद्धा बहुत दूसरी वात वह विदित नहीं। वह ज्ञान से आया हुआ वोध । जो आदमी संदेह से यात्रा करता है वह एक दिन श्रद्धा को उपलब्ध होता है। यह बड़ी मजे की बात है और जो आदमी विश्वास से यात्रा करता है वह हमेशा संदे ह में ही जीता है और मरता है। वह कभी श्रद्धा को उपलब्ध नहीं होता। क्योंकि उ सने विश्वास कर लिया। और भीतर उसके संदेह है संदेह वह परमात्मा के घर से ले कर आया हुआ पैदाइश से साथ लेकर आया हुआ है। भीतर संदेह है ऊपर विश्वास है। वह भीतर संदेह बना रहेगा, छिपा रहेगा, कभी-कभी सिर उठाएगा आप डरकर उसको दवा देना। और ऊपर से विश्वास को ओढ़े रहना। वह विश्वास कभी-भी आप के प्राणों तक नहीं पहुंचेगा। इसीलिएतो विश्वास करने वाले लोग बहुत डरते हैं। हिंदू ग्रंथों में लिखा है, ऐसा ही जैन ग्रंथों में लिखा है लिखा है हिंदू ग्रंथों में कि, 'अ गर पागल हाथी भी तुम्हारे पीछे पड़ा हो और जैन मंदिर आ जाए तो तुम पागल ह थी के पैर के नीचे दवकर मर जाना ठीक समझना, लेकिन जैन मंदिर में मत जाना ! क्यों? क्योंकि वहां अगर जैन शास्त्रों की बातें सुन ली तो संदेह पैदा हो सकता है। यही बात जैन ग्रंथों में भी लिखी है कि हिंदू मंदिर में मत जाना, पागल हाथी के पैर के नीचे दबकर मर जाना क्योंकि वहां अगर गए मंदिर में और तुमने कोई ऐसी बात सुन ली कि धर्म से चित्त डगमगा जाएं और भटक जाओ। दुनिया के सब धर्म सीखाते हैं किसी दूसरे की बात मत सुनना, यह सबूत है इस बात का कि यह धर्म जो बातें कह रहे हैं कमजोर नपुंसक बातें हैं इसलिए दूसरी बातें सुनने से डरती हैं। ज्ञान कभी डरता नहीं अज्ञान हमेशा डरता है। जो धर्म गुरु कहते हैं कान में हाथ डाल लेना नास्तिक की बात मत सुनना वह धर्म गुरु झूठे हैं और उनकी बातों को मानने वाले लोग अपनी आत्मा का हन्न कर रहे हैं । क्योंकि जो वात किसी की बात सुनने से नष्ट हो जाती है वह दो कौड़ी की है। उ सका कोई मूल्य नहीं है जो वात सभी संदेहों के वीच भी टिकती है और जीती है अ और बच जाती है वही सत्य है। संदेह की अग्नि से जो गुजर कर बच जाता है उसी Page 35 of 150 http://www.oshoworld.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज का नाम सत्य है। संदेह के गजरने से ही जो डर जाता है उसका नाम असत्य है। सं देह की आग से जो डरता है वही है असत्य। और संदेह की आग से जो गुजरता है वही है सत्य। सोना नहीं कहता कि मैं आग से नहीं निकलंगा क्योंकि मैं जल जाऊंगा। लेकिन सोने के साथ जो कचरा लगा है वह कहता है नहीं नहीं आग से मत गुजरना, आग में बड़ी मुश्किल होती है सब जल जाता है। सोना तो निकल जाता है आग से, कचरा जल जाता है। सोना निखर कर बाहर आ जाता है। सत्य को कोई संदेह नहीं मिटा सकता। असत्य को मिटा सकता है। और इसलिए मैं कहता हूं, जितने लोगों ने विश् वास करना सिखाया है उन्होंने जरूर किसी-ना-किसी असत्य के आधार पर विश्वास का भवन खडा किया होगा। विश्वास की शिक्षा असत्य के लिए देनी पड़ती है। सत्य के लिए विश्वास की कोई शिक्षा नहीं। सत्य के लिए शिक्षा है संदेह की । और वि ज्ञान सत्य की तरफ जाने की यात्रा है।' लेकिन आप कहेंगे फिर धर्म क्या है? तो मैं आपसे कहना चाहता हूं कि धर्म भी वि ज्ञान है। धर्म अंतर विज्ञान है। वह साईंस आफ इनर वह जो भीतर है उसका विज्ञान है। और जिसको हम विज्ञान कहते हैं वह बाहर का विज्ञान है साईस आफ दा आ ऊटर। वह जो बाहर फैला हुआ जगत है। वह एक ही विज्ञान के दो पहलू हैं अगर वाहर कोई संदेह से खोज करेगा तो जिसका हम साईंस कहते हैं उसका जन्म होता है और भीतर अगर कोई संदेह से खोज करेगा तो जिसे मैं धर्म कहता हूं उसका जन् म होता है। जिसे आप धर्म कहते हैं उसका नहीं। आप तो उसे धर्म कहते हैं जिसे अंधा होकर मानना पड़ता है जिसकी खोज नहीं कर नी पड़ती। जिसकी खोज कोई महावीर पहले कर चुके हैं। जिसकी खोज कोई बुद्ध प हले कर चुके, जिसकी खोज कोई मौहम्मद पहले कर चुके उसको मान लेना पड़ता है। ऐसा धर्म अवैज्ञानिक है और ऐसे धर्म के लिए विश्वास की शिक्षा जरूरी है। इसी लिए धार्मिक मुल्क वैज्ञानिक नहीं हो पाते। मेरी दृष्टि में तो जो वैज्ञानिक नहीं हैं। वह धार्मिक भी नहीं है। झूठा है उसका धर्म, भारत जैसा देश वैज्ञानिक नहीं हो पात T। क्योंकि भारत जैसे देश के मन में झूठे मन की प्रतिष्ठा है। विज्ञान का जन्म कैसे होगा। झूठे धर्म को जानना पड़ेगा। विज्ञान आएगा, और विज्ञा न के साथ ही सच्चा धर्म भी आएगा। जो धर्म विज्ञान की कसौटी पर खरा ना उतर ता हो वह धर्म कैसे सच्चा हो सकता है। कसौटी तो सदा वैज्ञानिक चिंतन है, कसौट । सदा वैज्ञानिक तर्क है, कसौटी सदा विज्ञान की संदेह की अग्नि है। तो जिन मित्र ने पूछा है कि, क्या है आधारभूत बात जिसकी वजह से पश्चिम से शक्षा लेकर भी कोई आता है और वैज्ञानिक नहीं हो पाता वह आधारभूत बात यह है कि भारतीय मानस अवैज्ञानिक है। वह इंडियन माइंड अवैज्ञानिक है। पश्चिम की ि शक्षा से क्या होगा। और ऐसा नहीं है कि पश्चिम में सब चित्त वैज्ञानिक हैं। पश्चिम में भी थोड़े से लोगों से लोगों ने हिम्मत करके विज्ञान को जन्म दिया है। Page 36 of 150 http://www.oshoworld.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज अधिकतर जनता पश्चिम में उतनी ही अवैज्ञानिक है जितनी यहां। इसीलिए तो यहां के योगी महाराजों के पीछे वहां पागल इकट्ठे हो जाते हैं । नहीं तो कहां से इकट्ठे हो जाएंगे। यहां का कोई पहुंच जाए तो वहां भी भीड़ इकट्ठी होती है। वह भीड़ लोगों की है वह किन्हीं वैज्ञानिकों की है। वह उसी तरह के लोगों की भीड़ है जिस तरह के लोगों की यहां। लेकिन सफेद चमड़ी का बहुत असर है। अगर दो चार सफे द चमड़ी के पगलों को लेकर इस मुल्क में आ जाओ तो महायोगी हो जाने में देर नहीं लगती। असल में सफेद चमड़ी के हम इतने दिन तक गुलाम रहे हैं कि हमने सफेद चमड़ी में भी सुपेरिटीटि स्वीकार कर ली है। सफेद चमड़ी होना ही बहुत ऊंची बात हो गई है। तो अगर चार पश्चिम के पगले किसी आदमी के पीछे चले आएं. मुझे मेरे मित्र सहायता देते हैं। कि आप यहां मेहनत मत करिए, पहले आप परि चम चले जाईए वहां के दस पच्चीस लोग आपके साथ आए कि यहां अच्छा परिणाम होगा। मैंने कहा, 'वैसा परिणाम डालना इस मुल्क की गुलामी को बढ़ाना है । वैसा परिणाम डालना ही गलत ढंग है। क्योंकि उसका मतलब क्या है सफेद चमड़ी की जो गुलामी हमारे दिमाग में उसका मजबूत करना है। मैं इस योगी को यहां को ई पूछेगा नहीं, लेकिन बिटल पीछे चले आएगें और सारा हिंदुस्तान दिवाना हो जाएग ा और सारे हिंदुस्तान के नेता और सारे अखवार दिवाने हो जाएंगे। अंग्रेजों की गुला मी से खत्म होना बड़ा मुश्किल मालूम होता है । लगता है कि हम शायद कभी गुला मी के ऊपर नहीं उठ पाएंगे। असल में विश्वास करने वाला चित्त बुनियादी रूप से गु लाम होता है। और ध्यान रहे जिन पंडित पुरोहितों ने हमें गुलामी की शिक्षा दी थी वे ही पंडित पु रोहित अंग्रेजों की गुलामी और मुसलमानों की लंबी गुलामी का कारण बने। हम गुल मी के लिए राजी हो गए। हमारा माइंड सलेवेरी के लिए राजी हो गया। जो भी कत में है हम उसी को मानने लगे। और आज अगर आपके बेटे पश्चिम जाते हैं डि ग्री लेने तो आप यह मत समझना कि विज्ञान की शिक्षा लेने जा रहे हैं। आज पश्चि म की प्रतिष्ठा है। पश्चिम की डिग्री की प्रतिष्ठा है। और आज पश्चिम में विज्ञान की इज्जत है। आपके बेटे जो इसमें विश्वास करके उसकी शिक्षा लेने जाते हैं उनके म न में कोई विज्ञान की खोज नहीं है। और आप भी जो उन्हें भेजते हैं कोई विज्ञान क खोज के लिए नहीं भेजते। आप उन्हें भेजते हैं कि वहां से वे डिग्रीयां लेकर आते है तो उसी डिग्री की हैसियत का इस मुल्क में तीन सौ पाता है। वही आदमी इंग्लैंड और जर्मनी डिग्री लेकर आता है। तो बारह सौ पाता है। तो आप भी जानते हैं कि पश्चिम की डिग्री की प्रतिष्ठा है । इसलिए विश्वास करके वहां चले जाते हैं। इसमें विश्वास जैसी कोई विज्ञान की खोज नहीं है। भारत के मानस में वह क्रांति पैदा नहीं हो पाई जिससे विज्ञान जन्मे । पश्चिम में भी थोड़े से मानस वैज्ञानिक हुए हैं। सभी मानस वैज्ञानिक नहीं हो गए हैं। और उन थोड़े से लोगों ने जिन्होंने विज्ञान को पश्चिम में जन्म दिया बहुत तकलीफ उठानी पड़ी। हिंदुस्तान में कोई तकलीफ उठाने को राजी नहीं है। हिंदुस्तान की इतनी पुरानी व्यव Page 37 of 150 http://www.oshoworld.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज स्था हो गई है कि इसमें अगर सुख और शांति से जीना हो तो बिना किसी बात को छेड़े, जो कहा गया हो सब को ठीक कहने से बड़ा आराम रहता है। मेरे पास आप आएं और कहें कि सब ठीक है मैं कहता हूं सब ठीक है गीता तो अमृत वचन है। आप मेरा पैर छूएंगे अब मैं फिर इसकी झंझट में क्यों पढू कि नहीं सब अमृत वचन नहीं है। तो मेरा पैर भी नहीं छूएंगे, और आज नहीं कल डंडा लेकर मेरे पीछे घूमें गे। फायदा क्या है? इस मुल्क के चित्त को जरा भी क्रांति की तरफ ले जान की क ोशिश करो तो वह क्रोध से भर जाता है। ऐसा ही पश्चिम में भी हुआ । तीन सौ सा ल में पश्चिम के थोड़े से लोगों ने जितनी तपश्चर्या की है तुम्हारे हिंदुस्तान के सारे ऋषि-मुनियों ने मिलकर भी कभी नहीं की। वह थोड़े से लोग वह नहीं है जो झाडों के नीचे बैठे हैं। वह थोड़े से वह लोग है जिन्होंने पश्चिम की हजारों साल की मान सक गुलामी को वैज्ञानिक चिंतन से तोड़ने की कोशिश की । तीन सौ वर्ष में थोड़े से लोगों ने जो तप किया है वहां, उस तप का फल सारी दुनि या भोग रही है। सारी दुनिया को उससे सुख मिल रहा है लेकिन कुछ लोगों ने बहु त दुःख भोगा है। गल्लियो ने जब पहली बार कहा कि, 'पृथ्वी चक्कर लगाती है सूर ज का, सूरज नहीं लगाता चक्कर । तो सारा पश्चिम पागल हो गया । और गल्लियों को हथकड़ियां डाल कर अदालत में लाया गया कि तुम क्षमा मांगो। तुमने गलत बा त कही है। क्योंकि वाइविल में तो लिखा है कि पृथ्वी का चक्कर सूरज लगाता है। और दिखता भी तो यही है कि सूरज रोज चक्कर लगाता है। तुम मांफी मांगो लिखित, सत्तर साल का बूढ़ा आदमी, उसे सैंकड़ों मील पैदल चला कर लाया गया अदालत में और उससे कहा गया कि मांफी मांगो अन्यथा फांसी हो जाएगी। वह बूढ़ा आदमी हंसा और उसने एक कागज पर लिखा, वह दस्तावेज बड़ी अद्भुत है इसमे गल्लियों ने लिखा, 'तुम कहते हो, तो मैं माने लेता हूं कि सूरज ह पृथ्वी का चक्कर लगाता होगा, लेकिन मैं क्या कर सकता हूं, लगाती तो पृथ्वी ही सूरज का चक्कर है। मैं क्या कर सकता हूं, तुम कहते हो झंझट हम खड़ी नहीं क रते ठीक है। लेकिन सच बात तो यही है कि चक्कर तो पृथ्वी ही सूरज का लगाती है। मैं इसमें कुछ कर भी नहीं सकता। अब मैं जो कहता हूं इसके लिए मांफी मांगे लेता हूं। लेकिन पृथ्वी चक्कर लगाती है इसके लिए मैं कैसे मांफी मांगूं । पृथ्वी लगा ती है इसमें मैं क्या कर सकता हूं।' यह तीन सौ वर्षों ने थोड़े से पश्चिम के लोगों ने हिम्मत की, हिम्मत किस बात की करनी पड़ी। सबसे बड़ी हिम्मत करनी पड़ती है आदर छोड़ने की । और हिंदुस्तान के विचारक आदर छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। हिंदुस्तान का कोई विचारक अ ादर छोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। हिंदुस्तान का कोई विचारक आदर छोड़ने क हिम्मत नहीं जुटा पाता । मकान छोड़ना आसान है, धन छोड़ना आसान है, पत्नी ब च्चे छोड़ना आसान है, सबसे कठिन बात है आदर छोड़ना और हिंदुस्तान में वेवकुफि यों के मानने के लिए आदर मिलता है। और अगर उनको छोड़िये तो आदर मिलना बंद हो जाता है। Page 38 of 150 http://www.oshoworld.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज तो हिंदस्तान में एक. एक व्यवस्था कर रखी है आदर उसका दो जो तुम्हारी सारी ना समझियों को स्वीकार करता हो। और जो तुम्हारी ना समझियों को इनकार करत । हो उसको आदर देना बंद करो। और हिंदुस्तान में अभी इतने हिम्मतवर विचारकों की धारा खडी नहीं हो पाई है कि वह हिम्मत करें और आदर को लात मार दें। और कहें कि जो ठीक है हम वही कहेंगे. चाहे अनादर मिले चाहे फांसी मिले। मेरा अपना मानना यह है कि हिंदुस्तान की प्रतिभा ने अभी भी तपश्चर्या शुरू नहीं की, धूप में खड़ा होना तपश्चर्या नहीं है सरकस का खेल है। और दो चार दिन खड़े हो जाएं तो अभ्यास हो जाता है। फिर मकान के भीतर खड़े होने में तकलीफ होती है। भूखा मरना कोई तपश्चर्या नहीं है, सिर्फ अभ्यास है। दो चार दस दिन महीने भर भू खे रह जाएं, तो फिर खाना खाने में बड़ी मुश्किल होती है। इन सारी बातों को हम तपश्चर्या कह रहे हैं। तपश्चर्या सिर्फ एक है, सत्य के लिए सब तरह के सम्मान क ो छोड़ने की हिम्मत को छोड़ने की हिम्मत के अतिरिक्त प्रतिभा के सामने और कोई तपश्चर्या नहीं है। लेकिन हिंदुस्तान ऐसी हिम्मत नहीं जुटा पाया या जब उसने हिम मत जुटाई थोड़े से लोगों ने तो कुछ विचार पैदा हुआ और फिर खो गया। अब जरू रत है अगर हिंदुस्तान में वैज्ञानिक चिंतन पैदा करना है और मैं आपसे कहता हूं अ गर वैज्ञानिक चिंतन नहीं पैदा होता है तो आने वाली सदी में हम कहीं के भी नहीं होंगे, हम धूल में मिल जाएंगे। वैज्ञानिक चिंतन पैदा करना है तो कुछ लोगों को हिम्मत जुटानी पड़ेगी कि वह सत्य के लिए बलिदान हो जाएं। असत्य के लिए तो बहुत बलिदान हो चुके, मुसलमानों के लिए बलिदान हो चुके, हिंदूओं के लिए बलिदान हो चुके, जैनियां के लिए बलिदा न हो चुके, ईसाईयों के लिए वलिदान हो चुके यह सव असत्य के लिए वलिदान हैं। सत्य के लिए वलिदान मुश्किल से हुए हैं। और सत्य के लिए वलिदान ना हो तो ि वज्ञान का जन्म नहीं हो सकता कुछ लोगों को हिम्मत जुटानी पड़ेगी। कुछ लोगों को सारे सम्मान, सारे आदर की फिक्र छोड़ देनी पड़ेगी। अपमानित होने की हिम्मत क रनी पड़ेगी। और वह अगर नहीं होता है तो फिर कैसे विज्ञान का जन्म हो, कैसे वि चार का जन्म हो। और बच्चों को संदेह की शिक्षा देनी पड़ेगी। उनके खून में संदेह भर देना पड़ेगा कि वह कभी भी किसी कीमत पर मानने को राजी ना हों जब तक जान ना लें, हां ना जानें तो ना मानने के लिए भी आग्रह ना करें। दो तरह के विश्वास होते हैं एक अ स्तिक का विश्वास होता है एक नास्तिक का। आस्तिक कहता है ईश्वर है और मान ता है जानता नहीं। नास्तिक कहता है कि ईश्वर नहीं है मानता है जानता नहीं। यह दोनों विश्वास हैं। और यह दोनों खतरनाक हैं इन दोनों से विज्ञान का जन्म नहीं ह ो सकता। इन दोनों से विज्ञान में बाधा पड़ेगी। और जहां भी विश्वास होता है वहीं ि वज्ञान में वाधा पड़ती है। चाहे वह विश्वास किसी तरह का क्यों ना हो। अगर नासि तक का विश्वास भी जोर पकड़ जाए, तो विज्ञान में वाधा डालता है। क्योंकि विश्वा स पाता है। Page 39 of 150 http://www.oshoworld.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज एक हवा पैद की जानी चाहिए, जिसमें हर बच्चा इस तरह बडा हो कि वह कहे कि , यह मैं जानता हूं यह मैं नहीं जानता हूं, यह मैं जानने की कोशिश कर रहा हूं। और जो मैं जानता हूं वह भी अभी तक जितना ज्ञान है मेरा उस हिसाब से कहता हूं कल ज्ञान बदल जाएगा, बढ़ जाएगा तो मैं जो जानता हूं उसका दावा नहीं करूंगा । जो लोग दावा करते हैं कि हम जिंदगी में कंसिस्टैंट रहे। बीस साल की उम्र में ज ने मानते थे अस्सी साल की उम्र में भी वही मानते हैं हम पक्के ईमानदार हैं। वह ई मानदान नहीं सिर्फ जड़ बुद्धि हैं। बीस साल की उम्र में जो आदमी मानता है अस्सी साल की उम्र में कैसे मान सकता है या तो साठ साल उसने कुछ सोचा ही ना हो, कछ खोजा ही ना हो, बीस साल में ही उसकी खोपड़ी रुक गई हो। उसका विकास ना हुआ हो, और अगर विकास हु आ होगा तो अस्सी साल में आदमी वही कैसे मान सकता है जो वीस साल में मानत [ था। लेकिन आप बड़े मजे की बात देखें बच्चा हिंदू ही पैदा होता है हिंदू ही मरता है। बच्चा जिन नासमझियों को मान कर खड़ा होता है वह उन्हीं को मरते दम तक मानता रहता है जिस बचपन में उसका सीखाया गया था राम-राम का जाप मरते वक्त आखिरी सांस छोड़ता है और कहता है हे राम! और सारा मूल्क बड़ा प्रसन्न ह ता है कि बहुत धार्मिक आदमी था राम-राम कहते हुए मर गया। जड़ वृद्धि था, स्टूपिड था। जो बचपन में सीखा दिया गया था उसको जिंदगी भर दौ हराता रहा, ना उसने सोचा, ना उसने खोजा, ना वह आगे बढ़ा, लेकिन वह आदमी कहेगा कि मैं कनिसस्टैंट हूं। मैं संगत हूं मैंने कल जो कहा था वही मैं आज कहता हूं। मैंने परसों जो कहा था वही में आज कहता हूं। मैंने बचपन में जो कहा था वह । मैं बुढ़ापे में कह रहा हूं। जिंदगी, जिंदगी बहुत विकास की बात है। तो वैज्ञानिक बुद्धि का आदमी यह नहीं कहता कि जो मैं आज कह रहा हूं वही चरम सत्य है। व ह यह कहता है कि आजतक मैं जो जानता हूं उसके आधार पर यह सत्य मालूम प. डता है। कल मैं और जान लूंगा और हो सकता है कि सत्य की बदलाहट हो जाए। कल मैं और जान लूं और हो सकता है कि नया ही सत्य स्थापित हो जाए। कल मैं और जान लूं, और जिसे मैं आज सत्य कह रहा हूं वह असत्य हो जाए। मैं जानता रहूंगा, मरते क्षण तक जानता रहूंगा। इसलिए दावा नहीं करूंगा कि सत्य को जान लिया है। सत्य को जानने की चेष्ठा करनी चाहिए, जान लेने का दावा न हीं। और जो कौम दावा करती है कि हमने सत्य को जान लिया और उन कौमों में हम सबसे अद्भुत कौम हैं, हमारा दावा यह है कि हम जान चुके, अव हमारा एक ही काम है कि हम दुनिया को जनावें, तो हमारे मुल्क के सारे नेता कहते फिरते हैं। सारी दुनिया हमारी तरफ देख रही है ज्ञान के लिए, कोई नहीं देख रहा किसी की तरफ। हमारे गुरु समझाते हैं कि सारी दुनिया भारत की तरफ देख रही है कि हमें आध्याति मक ज्ञान दो, मार्ग दर्शन दो, कोई. . . कौन देख रहा है आपकी तरफ। यह खुद ही आप कहे चले जा रहे हैं। और क्यों कोई देखेगा, आपके पास है क्या? जिसके लिए Page 40 of 150 http://www.oshoworld.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज देखने की जरूरत है। आपको देख लेना काफी है, उसे पता चल जाता है कि पास कुछ भी नहीं है। लेकिन हम दावा करते हैं कि हमने सत्य को जान लिया है। हम सत्य को जान ही चुके हैं, जानना नहीं है, कुछ बाकी नहीं है । हमारी किताबों में सब लिखा है, और सब अंतिम सत्य लिख दिया गया है। यह अवैज्ञानिक है एंटिसा टफिक, विज्ञान विरोधी चित्त की धारणाएं हैं। सत्य विकास और सत्य की दिशा और सत्य का अनुभव विकास मान है एव्यूलुशनरी है। कोई जान नहीं लिया गया है कहीं ठहर नहीं गई है दुनिया । हम जानते चले ज रहे हैं एक-एक यात्रा है नोईन की, जानने की, जानते जा रहे हैं, जानते जा रहे हैं और कभी ऐसा वित नहीं आएगा कि हम सब कुछ जान लेंगे। इतना अनंत है गत कि हम जितना जानेंगे वह हमेशा उससे थोड़ा होगा। जो जानने को शेष रह जा एगा। इतना अनंत है विस्तार, इतना असीम है विस्तार और बड़े मजे की बात है ज धार्मिक आदमी है वह एक तरफ तो कहते हैं कि भगवान अनंत है और दूसरी तर फ कहते हैं कि भगवान जान लिया गया है। दोनों बातें बड़ी उल्टी हैं। जो जान लिय जाए वह अनंत नहीं हो सकता जानने की वजह से सीमित हो जाता है शांत हो जाता है फाईनाईट हो जाता है। सच तो यह है कि विज्ञान ने पहली दफा कहा कि, 'सत्य अनंत है क्योंकि कभी भी पूरा नहीं जाना जा सकेगा।' हम समुद्र में कूद सकते हैं लेकिन हमने समुद्र पा नहीं लिया। ऐसे ही हम सत्य के सागर में कूद सकते हैं यात्रा कर सकते हैं लेकिन कभ ऐसा नहीं होगा कि हम कहेंगे कि हमने पूरे सत्य को पा लिया, तब तो हम सत्य से बड़े हो जाएंगे। तब तो सत्य हमारी मुट्ठी में हो जाएगा। और जिन लोगों ने यह कहा कि सत्य पा लिया गया, उन्हीं लोगों ने दुनिया में मतांधता पै निटिइजम पैदा किया। क्योंकि मुसलमान कहता है कि हमने सत्य जान लिया और हिंदू कहता है ह मने सत्य जान लिया और जैन कहता है हमने सत्य जान लिया और तीनों के सत्य बड़े अलग-अलग हैं। अब तीनों में झंझट होते हैं कि सत्य किसका है तो तलवारें निकल आती हैं, और कोई सिद्धांत सिद्ध करने के उपाय ही नहीं हैं। किसके पास बड़ी तलवार है कौन कि सकी गर्दन काट सकता है वही सत्य है। तो मुसलमान छाती में छुरा भौंकता है। हिं भौंकता है, झगडे होते हैं और झगड़े किस बात के हो रहे हैं, झगड़े इस बात के हो रहे हैं और झगड़ा उन लोगों ने करवाया, जिन्होंने कहा कि सत्य जान लिया गय TI जिन लोगों ने सत्य को जानने का दावा किया, वह दुनिया को झगड़ों में डालने का कारण बने। विज्ञान के कारण झगड़ा नहीं हुआ आप हैरान होंगे, धर्मों ने झगड़े करवाए, विज्ञान ने पहली दफा झगड़ों को खत्म किया। विज्ञान के पास कोई झगड़ा नहीं क्योंकि विज्ञा न दावेदार नहीं है। विज्ञान यह नहीं कहता कि हमने सत्य जान लिया। वह विनम्र है बहुत हंबल है। वह कहता है हम जानने की कोशिश कर रहे हैं अगर हमने भी कु छ जाना हो तो आओ शेयर कर लें। हम बांट लें। इसलिए दुनिया का वैज्ञानिक Page 41 of 150 http://www.oshoworld.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज सी कोने में जान रहा हो, उसका जाना हुआ सबका एक साथ हो जाता है। वह सब का जाना हुआ हो जाता है। लेकिन यह धार्मिक गुरु इनका जाना हुआ एक नहीं हो पाता क्यों । क्योंकि यह विनम्र नहीं हैं। यह जानकर आप हैरान होंगे कि धर्म कहते हैं कि विनम्र बनो। और धर्मों जितना आदमी को इगोइसट बनाया, अहंकारी बनाया। उतना किसी ने भी नहीं व नाया। और विज्ञान कभी भी नहीं कहता कि विनम्र बनो, जिसको वैज्ञानिक बनना है उसे विनम्र बनना पड़ता है, उसे हंबल होना पड़ेगा। पहली ह्यमिलीटी तो उसे यह सीखनी पड़ती है कि मैं जानता नहीं हूं। दूसरी विनम्रता उसे यह सीखनी पड़ती है क जो भी जान लिया वह कल गलत हो सकता है। तीसरी विनम्रता उसे यह सीखन की पड़ती है कि जो मैं जानता हूं वह बहुत अल्प है, जो मैं नहीं जानता हूं वह अनंत है। इसलिए वैज्ञानिक इगोइस्ट नहीं हो सकता। और धार्मिक आदमी जिसको हम धार्मिक कहते हैं, मैं नहीं। धार्मिक आदमी एक दम अहंकारी होता है। वह दावे करता है क सत्य हमारे पास मेरी मुट्ठी में है और किसी की मुट्ठी में नहीं है और जो मेरे पा स आएगा वही जा सकता है स्वर्ग। और जो मेरे पास नहीं आया वह नहीं जाएगा। फर उसके भक्त बेचारे, सेवा भाव के कारण दूसरों को भी उसकी मुट्ठी में लाने की कोशिश करते हैं वह सिर्फ दया भाव के कारण मुसलमान सोचता है कि सब दुनिया को मुसलमान बनाओ। क्यों, क्योंकि अगर मुसलमान दुनिया ना बन पाई तो सब नर क में पड़े रहेंगे स्वर्ग नहीं जा सकते हैं। स्वर्ग तो मुसलमान ही जा सकते हैं। ईसाई सोचता है कि सबको ईसा के झंडे के नीचे लाओ। यह दया के कारण कि जो आदमी ईसाई नहीं बना वह बेचारा भटक जाएगा। नरक की अग्नियों में सड़ेगा। ई साई बनाओ उसे, किसी भी तरह बनाओ, पैसा देकर बनाओ, धमका कर बनाओ, जबरदस्ती बनाओ, गरीब का शोषण करके बनाओ, कोई प्रलोभन भय कुछ भी देकर बनाओ, यह दयावश। यह बड़ी अद्भुत दया है । उसको बनाओ तकी वह स्वर्ग जा सके। तो सारी दुनिया में वह विश्वास और ज्ञान के दावे में विज्ञान की हत्या की है कि वह विकसित नहीं हुआ ? और भारत में यह हवा इतनी तेज है जिसका कोई हि साब नहीं। कोई भी आदमी कहता है कि मैं जगतगुरु हूं। बिना जगत से पूछे हुए। अभी एक ज गतगुरु मेरे साथ थे पटना में । कुछ बातें मैने कहीं वह एक दम नाराज हो गए, माई क छीन लिया और माईक पर खड़े होकर उन्होंने कहा कि, 'मैं जगतगुरु हूं। सर्व शा स्त्रों का ज्ञाता। मैं जो कहता हूं वही ठीक है । जगतगुरु अगर हैं तो फिर जो कहते हैं वह ठीक ही है। क्योंकि फिर कोई उपाय नहीं रहा उनसे झंझट करने का, सर्व शा स्त्रों के ज्ञाता, वह जो कहते हैं ठीक ही है । उसमें कुछ गलत हो नहीं सकता । यह दावा वैज्ञानिक बुद्धि नहीं कर सकती । वैज्ञानिक बुद्धि सदा विनम्र है वह कहती हैं आप जो कहते हैं वह भी ठीक हो सकता है। लेकिन सोचें विचार करें मेरा तर्क आप सुनें, आपके तर्क को मैं सुनूं, खोजे संदेह करें, हो सकता है जो सही हो वह वि Page 42 of 150 http://www.oshoworld.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वाद से. विचार से. तर्क से निकल आए। सत्य जीत जाएगा। मैं भी हार जाऊं. आप भी हार जाएं। हमारे हारने जीतने का कोई मल्य नहीं है सत्य जीतना चाहिए। ले कन धर्मगुरु कहता है मैं जीतूं कि तुम। सत्य से किसी को भी प्रयोजन नहीं है। पहली दफा कंसन फार टूथ सत्य से प्रयोजन, वैज्ञानिक दुनिया को दिया है। सत्य से प्रयोजन, व्यक्तियों से प्रयोजन नहीं। ना मेरा सवाल है, ना किसी और का सवाल है। सवाल यह है कि सत्य क्या है? आप खोजें सोचें विचारेलेकिन उसके लिए तो ओपिन माइंड खुला हआ मन चाहिए। एक अंतिम वात और वह यह कि भारत की बुनियादी भूलों में क्लोज्ड माइंड, बंद दमाग एक भूल है जिसकी वजह से विज्ञान पैदा नहीं होता। वैज्ञानिक पद्धिति को आ पननेस चाहिए, खुलापन चाहिए कोई द्वार, दरवाजा नहीं चाहिए दिमाग के ऊपर क्य । हम पहले से ही बंद किए बैठे हैं हमें पहले से ही पता है कि सत्य क्या है। जो आ दमी यह मानकर चलता है कि मुझे पहले से ही पता है। वह आदमी कैसे खोज करे गा। मुझे पहले से मालूम है आपको पहले से मालूम है हम दोनों लड़ें लेकिन कभी क ई निर्णय नहीं हो सकता संवाद नहीं हो सकता कौम्यनिकेशन नहीं हो सकता ता, विव द हो सकता है। आप चिल्लाते रहें, मैं चिल्लाता रहूं, कोई किसी की सुनेगा नहीं, क्योंकि दोनों पहले से तय हैं। प्रचुडिस दिमाग है इस मुल्क का सारा आदमी एक-एक आदमी पक्षपात से भरा हुआ है उसने सव तय कर रखा है। किसने तय किया हुआ है लेकिन. . . आप एक जैन घर में पैदा हो गए। बस इतना ही आपका कसूर है। कि आपके दिमाग में जैन शास् त्र घुसेड दिए गए। एक आदमी हिंदू घर में पैदा हो गया इतना ही उसका अपराध है। कि उसके दिमाग में हिंदु शास्त्र डाल दिए गए। एक आदमी मुसलमान घर में पै दा हो गया इतना ही उसकी भूल है। कि उसके दिमाग में कुरान डाल दिया गया। अब जिंदगी भर वह उसी को दोहराता रहेगा। और कभी नहीं खोजेगा क्या है सत्य ? कुरान को रखू अलग, गीता को रखू अलग, महावीर को नमस्कार करूं, वुद्ध को नमस्कार करूं | और कहूं कि मुझे भी खोजने दो, आपने अपने लिए खोज लिया मुझे भी इतनी कृपा करो। आप जाओ मैं खोदूं मैं भी कुछ जानने का कुछ प्रयास करूं | लेकिन नहीं, हमारे दिम [ग में सव भरा हुआ है और भरने की तरकीब आपको पता है क्या है। भरने की त रकीव आपको समझा कर नहीं भरा गया है। समझाकर गलत चीज भरी ही नहीं जा सकती। गलत चीज हमेशा विना समझाए भरी जाती है यह ध्यान रहे । इसी लिए सब धर्मगुरु चाहते हैं कि बचपन में ही बच्चों के दिमाग में धर्म डाल दिया जाए। क योंकि जवान होने पर समझाना जरूरी हो जाएगा। और समझाना वड़ा मुश्किल माम ला है। और गलत बातें समझाना तो बहुत मुश्किल है। अगर गणित पढ़ाना हो तो बीस साल के आदमी को पढ़ाया जा सकता है। क्योंकि ग णित के सीधे सूत्र हैं। गणित समझाया जा सकता है सच तो यह है कि जितना सत्य हो उतनी ही बड़ी उम्र में आसानी से समझाया जा सकता है। और जितनी असत्य Page 43 of 150 http://www.oshoworld.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज बातें सीखानी हों, उतनी अबोध अवस्था में जब बच्चे के पास कोई बुद्धि नहीं होती। इसलिए पाठशालाएं खली हैं मंदिरों में साध संन्यासी बैठे हैं बच्चों को बाल वोध प ढा रहे हैं। वह सबसे बड़ा अपराध हो रहा है। क्योंकि उन वच्चों को वातें समझाई मानी जिन्हें कछ पता नहीं। उन बच्चों को समझाया जा रहा है निवोध होता है. आ त्माएं होती हैं. भतप्रेत होते हैं. स्वर्ग होता है. नरक होता है. मोक्ष होते हैं. इतने दे व होते हैं, इतने रूप होते हैं। वह बच्चे बेचारे सुन रहे हैं। वह बिलकुल सजैस्टिविल हैं। अभी उनको जो भी कहा जाता है वह सोचते हैं जो कहा जाता है वह ठीक ही कहा जाता होगा। क्योंकि यह आदमी झूठ क्यों बोलेगा, उन्हें अभी जिंदगी का कुछ भी पता नहीं है। कि यहां जि नको हम बहुत अच्छे आदमी कहते हैं वह बहुत बुनियादी झूठ बोल रहे हैं। यहां बूरे आदमी जिनको हम इस दुनिया में कहते हैं वह वेचारे छोटे-मोटे झूठ बोल रहे हैं अ और बदनाम हैं। एक आदमी चोर है बेईमान है कौन-सा झूठ बोलता है छोटा-मोटा झुठ पांच रुपए ब चा लेता है। और एक आदमी स्वर्ग और नरक के मोक्ष के नक्शे समझा रहा है, ओ र इस मजे से समझा रहा है जैसे सच बोल रहा हो। और उसे कुछ भी पता नहीं व ह सरासर झूठी वातें कर रहा है। और वह साधु है पूज्य और बच्चों के दिमाग में य ह भरा जा रहा है। भरने की एक ही तरकीव है। समझाओ मत सिर्फ दोहराओ। सम झाने की कोई जरूरत नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं सिर्फ दोहराओ बस रोज अखबार में निकालो कि बिना का कुछ प्रेत सबसे अच्छा है। समझाओं मत कि क्यों अच्छा है इसकी कोई जरूरत ही नहीं है। क्योंकि इस झंझट में पड़े तो मुश्किल में पड़ जाओगे सिनेमा में पोस्टर लगाओ कि बिना कथित पेस्ट खरीदो। फिल्म अभिनेत्री को मुस्करा ते हुए दांतों के साथ खड़ा करो। कि इतने चमकीले दांत विनाका से हो गए हैं। सम झाओ मत, ना कोई पूछने जाता है कि फिल्म अभिनेत्री ने कव विनाका किया। मैंने अभी सुना कि एक बूढ़ा था फ्रांस में कोई एक सौ दस वर्ष का। उसके पास एक पत्रकार गया उसकी एक सौ दसवीं वर्ष गांठ पर, और उसने पूछा कि, 'आपकी इ तनी लंबी उम्र का राज क्या है?' उसने कहा कि, 'अभी ठहरो! अभी दो तरह की कम्पनियों से मेरी बात चल रही है। कि मैं किस कम्पनी के बिस्कुट खाता हूं। जब व ति तय हो जाए तब मैं बता सकता हूं कि किस वजह से मेरी उम्र ज्यादा है। अभी वातचीत चल रही है। अभी निगाशिएशन हो रहा है। अभी तय नहीं हुआ है कि मेर उम्र का असली राज क्या है। जो कम्पनी ज्यादा पैसा देगी उसी के बिस्कुट से मेरी यह उम्र हो गई है। तो फिर मृत्यु को खड़ा करो नचाओ। उसकी सैक्स अपील है। उस अपील का भी फायदा लो और हर पुरुष भूखा है स्त्री का, इसलिए स्त्री को नंगा खड़ा करो। और टूथपेस्ट बेचो। वह स्त्री की वजह से वि केगा, और स्त्री के नंगेपन की वजह से विकेगा। और टूथपेस्ट विकेगा, स्त्री के नंगेपन से टूथपेस्ट का क्या संबंध? कोई संबंध हो सकता है स्त्री के नंगा खड़ा करने से औ Page 44 of 150 http://www.oshoworld.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज र टूथपेस्ट से कोई संबंध नहीं है लेकिन होशियार आदमी जानते हैं कि आदमी के दि माग को कंडिशन करने की तरकीब है। एक बच्चे को कहो कि नरक में आग जल रही है । और आग में पड़ते है वह लोग जो भगवान को नहीं मानते। बच्चा आग में डलने से डरता है कहता है, 'भगवान क जो नहीं मानते वह आग में जलते हैं ।' और स्वर्ग में क्या होता है कि वहां भगवा न मानते हैं वहां कल्प वृक्ष है उसके नीचे बैठ जाओ जो भी कामना करो फोरन हो जाती है। बच्चा कहता है, 'जो भी कामना करो!' उसके नीचे बैठ कर कहो खिलौना आ जाता है तो खिलौना आ जाता है बच्चा कहता है कि स्वर्ग ही जाना ठीक है ।' यह उसको प्रलोभन दे रहे हैं आप। उसके दिमाग को खराब कर रहे हैं उसका चिंत न खराब कर रहे हैं। जहर डाल रहे हैं और दोहराए चले जाओ। दोहराए चले जाअ ो। रोज रोज वही कहो कि बिनाका टूथपेस्ट, रेडियो खोले तो बिनाका टूथ पेस्ट। सड़ क पर निकलो तो विनाका टूथ पेस्ट, अव तो बिजली के नए नए आविष्कार है वष्कार पहले तो यह है कि बिजली के बल्ब स्थिर रहते थे। जले रहते थे अब वह जलते बूझते रहते हैं। वैज्ञानिकों ने कहा कि जलाओ बूझाओ क्योंकि अगर जले ही र हैं तो एक ही दफा पढता है आदमी और अगर बूझाओं बार-बार तो उसको बार-बा र पढ़ना पड़ता है। वह मजबूरी है। अब विनाका फिर बुझ गया, फिर जला फिर पढ़ ना पड़ेगा बिनाका। फिर बूझ गया फिर पढ़ना पडेगा । जितनी देर निकलो उसके नीचे से उतनी देर वह बूझेगा । और जब बार बार बूझेगा तो फिर मजबूरी है आपको दे खना पड़ेगा कि विनाका फिर विनाका, और वह दिमाग में घुसता चला जा रहा है। घूसा दिमाग में डालते रहो । फिर वह आदमी बाजार गया दूकान पर टूथपेस्टों की र लगा हुआ है। दूकानदार पूछता है, 'कौन सा टूथपेस्ट ?' वह कहता है, 'बिनाका । ' और वह सोचता है कि मैं सोच कर कह रहा हूं वह सोच कर नहीं कह रहा। उस के दिमाग की रील पर बिनाका ठोक दिया गया है। हेमर कर दिया गया है। अब व ह बेचारा कह रहा है बिनाका । अभी अमरिका में उन्होंने सर्वे किया। जो अमरिका में सुपर मार्केट बनाए हुए है वहां उन्होंने स्त्रियों का सर्वे किया जो स्त्रियां वहां सामान खरीदने आती हैं। और जिस न तीजे पर पहुंचे वह बड़ी हैरानी का है। उन्होंने जो नतीजा दिया वह यह है कि स्त्रिय ां जो चीजें खरीदने आती हैं वह तो खरीदती ही नहीं, दूसरी खरीदकर चली जाती हैं। आमतौर से स्त्रियों के बाबत यह सच है। यहां भी, अमरीका में भी, वह वो नहीं खरीदती जो खरीदने गई थीं। वह वो खरीद लाती हैं जो दूकानदार बेचना चाहता है। और बेचने के सब उपाय किए हुए हैं वहां के मनोवैज्ञानिक ने कहा हुआ है जो चीज बेचनी हो किस रंग के डिब्बे में होनी चाहिए । स्त्रियों को कौन-सा रंग जल्दी से उनके हृदय में उतर जाता । रंग, डिब्बे के भीतर क्या है इससे कोई मतलब नहीं है। तो वह वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर उसी डिब्बे को लाल रंग में पोतकर रखो। तो सौ में नब्वे मौके उसके बिकने के उसको तीन रंग में रखो तो सौ में तीस मौके हैं Page 45 of 150 http://www.oshoworld.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज बकने के चीज. वही है। उसको अलमारी पर बिलकल ऊपर रखो तो फिर सौ में । क मौका है विकने का, अगर बिलकल नीचे रखो दस मौके हैं अगर आंख की बिल कुल सीध में रखो तो उसके नब्बे मौके हैं। तो दुकानदार अमरीका के सुपर मार्केट में ऊपर वह डिब्बे रखता है जिनमें मनाफा कम है। बीच में वह डिब्बे रखता है जो सर्वाधिक मनाफा के हैं जो स्त्री की आंख के ठीक सीध में पड़ते हैं। जिन पर उसकी आंख पहले पड़ती है। और स्त्रियों के साथ उन्होंने यह अनुभव किया कि अगर काउंटर पर कोई आदमी हो तो वह आदमी पूछता है कि, 'क्या खरीदना है आपको? तो स्त्री को पहले से जो सोचकर आई है वह बताना पड़ता है। और उसको घर से सोचकर आना पड़ता है। और उसको घर से सोचकर आना पड़ता है। इसलिए अमरीका के सुपर मार्केट से, काउंटर से आदमी हटा लिया गया है, क्योंकि उसको घर से सोच कर आना पड़ता है और काउंटर पर आदमी पूछता है हिंदुस्तान की दुकान पर वह जाएगी तो दुकान दार पूछेगा कि क्या चाहिए आपको, तो वह कहती है कि मुझे टूथपेस्ट चाहिए तो टू थपेस्ट बताया जाता है। सुपर मार्केट में अमरीका के काउंटर पर से आदमी हटा दिया गया सब चीजें रखी है उनके नाम लिखे हैं उनके दाम लिखे हैं। सिर्फ दरवाजे पर पैसा लेने वाला आदमी आपके हाथ में छोटी थैला गाड़ी दे दी गई, आप थैला गाड़ी लो और दूकान के अंदर चले जाओ अब आपसे कोई पूछने वाला नहीं है आपको जो जंचे वह निकाल कर र ख लो और जंचनी कैसे चाहिए कोई चीज उसका सब इंतजाम किया हुआ है। तो उ नका जो नतीजा निकला है वह यह कि दस चीजों में से तीन चीजें तो वह होती है जो खरीदने आदमी आता है सात वह होती हैं जो वैज्ञानिक तरकीव से उसका वेच दी गई हैं। दस में से सात चीजें आप वह खरीदते हैं जो आपको खरीदनी ही नहीं थीं। लेकिन यह कोई समझाने से नहीं होता। माइंड को कंडिशन करने की तरकीबें हैं। धर्मगुरु प हले से वह तरकीबें जानते हैं दुकानदारों को अब पता चल रहा है। धर्मगुरु पुराने द कानदार हैं नए दुकानदार नए धर्मगुरु हैं। अब वह नई विज्ञान, वैज्ञानिक ढंग से धर्म गुरुओं ने आदमी के मन को किस तरह से शोषण किया है अब दूकानदार भी उसी तरह से शोषण कर रहा है। और आप हैरान होंगे जानकर कि समझाकर नहीं हो र हा है यह बिन समझाए आपके दिमाग में कुछ बात डाली जा रही है। आपको किसने हिंदू बना दिया किसी ने समझाया था कि हिंदू धर्म दूनिया में सबसे अच्छा है, किसी ने बताया था कि मुसलमान धर्म क्या है? जैन धर्म क्या है? ईसाई धर्म क्या है? फिर आपने चुना था, कोई चोइस थी आपके चुनने में कि आप हिंदू कै से हो गए। नहीं, कोई चुनाव नहीं था बचपन से ही हिंदू धर्म सर्वश्रेष्ठ है। हिंदू भूमि पर देवता पैदा होने को तरसते हैं। किस देवता से पूछ कर यह बात बताई जा रह है? बस दिमाग में डाला जा रहा है। और यह भी समझाया जा रहा है दूसरे की बात मत सुनना। इसलिए हिंदू मुसलमान की मस्जिद में नहीं जाता, मस्जिद में जाने Page 46 of 150 http://www.oshoworld.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वाला हिंदू के मंदिर में नहीं आता। यह तो दूर की बातें हैं शिव के मंदिर में जाने वाला विष्णु के मंदिर में नहीं जाता। क्योंकि दूसरे की बात सुनने से गड़बड़ा सकता है मामला। अगर बस चले तो बिनाका वाले कभी पसंद नहीं करेंगे कि आपको दूसरे टूथपेस्ट की वात सुनने को मिल जाएं। लेकिन जरा मुश्किल है इस पर रोक लगाना। लेकिन ध म गरुओं ने वहत होशियारी की उन्होंने रोक लगा दी विनाका वाला क्या कर सकत । है? अपने बोर्ड लगा सकता है लेकिन दूसरों के बोर्ड थोड़े ही निकाल सकता है। और रेडियो में अपनी खबर दे सकता है लेकिन दूसरे, टूथपेस्ट वालों की खबर को नहीं रोक सकता। लेकिन धर्मगुरुओं ने यह भी इंतजाम किया है। अपना बोर्ड लगवा ओ, अपनी किताब पढ़ाओ अपना भाषण दो, अपने गुरु से समझवाओ, और दूसरे ग रु के पास जाने मत दो दूसरे की किताब मत पढ़ने दो, दूसरे को बोलने मत दो। सलिए धर्म के मामले में जितना अज्ञान है उतना किसी और मामले में नहीं है। क्य कि धर्म के संबंध में हमें सोचने-विचारने का मौका नहीं दिया गया। सोचता-विचार ता जो है उसका दिमाग खुला चाहिए। पहले इस संबंध में इस देश के बंद मन को तोड़ देने की जरूरत है। सब द्वार खिड़क खोल देने की जरूरत है। ताजी हवा आए, तो हम वैज्ञानिक चित्त को जन्म दे सक ते हैं। और प्रश्न रह गए वह कल मैं वात करूंगा। कल सुवह परसों के सूत्रों में भी वात करूंगा। जो प्रश्न उनसे संबंधित होंगे उनकी सुबह के सूत्रों में वात हो जाएगी। मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुग्रहित हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें। नए भारत की खोज टाक्स गिवन इन पूना, इंडिया डिस्कोर्स नं ३ मेरे प्रिय आत्मन्, एक छोटी-सी कहानी से आज की बात मैं शुरू करना चाहूंगा। वह कहानी तो आपने सुनी होगी लेकिन अधूरी सुनी होगी। अधूरी ही बताई गई है अब तक, पूरा वताना खतरनाक भी हो सकता है। इसलिए पूरी कहानी कभी बताई भी नहीं गई और अ धूरे सत्य, असत्यों से भी ज्यादा घातक होते हैं। असत्य सीधा असत्य होता है दिखा ई पड़ जाता है। आधे सत्य, सत्य दिखाई पड़ते हैं और सत्य होते नहीं क्योंकि सत्य कभी आधा नहीं हो सकता है। या तो होता है या नहीं होता। और बहुत-से अधूरे सत्य मनुष्य को वताए गए हैं, इसलिए मनुष्य असत्य से मुक्त नहीं हो पाता। असत्य से मुक्त हो जाना तो बहुत आसान है। अधूरे सत्यों से मुक्त होना बहुत कठिन है Page 47 of 150 http://www.oshoworld.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज क्योंकि वह सत्य होने का भ्रम देते हैं और सत्य होते भी नहीं हैं। और एसी ही यह आधी कहानी ही बताई गई है। छोटे-छोटे बच्चों को हम स्कूल में पढ़ाते हैं। सभी को वह कहानी पता होगी। वह क हानी यह है कि: एक सौदागर टोपियां बेचता है। वह टोपियां बेचने एक बाजार की तरफ गया है। रा स्ते में थक गया है और एक वृक्ष के नीचे सो गया है। वृक्ष पर बंदरों का निवास है। उस सोए हुए सौदागर को देखकर वह नीचे उतरे हैं। उन्होंने उसकी टोकरी खोल ली है। वह सौदागर टोपियां बनाकर बेचता है। उन बंदरों ने वह टोपियां पहन ली हैं और वृक्ष पर चढ़ गए। सौदागर की नींद खुली। सारी टोपियां वृक्ष पर बंदरों के पा स चलीं गई थीं। बड़ा मुश्किल था उन टोपियों को बंदरों से वापस लेना । लेकिन मुश्ि कल नहीं भी था। नकलचियों से कुछ भी करवा लेना बहुत मुश्किल नहीं होता । सौदागर ने अपने सिर पर पहनी टोपी निकाल कर रास्ते पर फैंक दी। बंदरों ने भी अपनी टोपियां निकाल कर रास्ते पर फैंक दीं । सौदागर ने टोपियां इकट्ठी कर लीं औ र घर लौट आया। इतनी कहानी आपने सुनी होगी। यह आधी कहानी है। फिर सौदा गर का बेटा बड़ा हुआ और उस बेटे ने भी टोपियां बेचनी शुरू की। क्योंकि बहुत क म बेटे ऐसे होते हैं जो बाप से आगे बढ़ते हों। हलांकि दुनिया उन थोड़े बेटों से आगे बढ़ती है जो बाप से आगे बढ़ते हैं। लेकिन कोई बाप नहीं चाहता कि बेटे बाप की सीमा को पार करके आगे जाएं। और ऐसे सब बाप खतरनाक सिद्ध होते हैं क्योंकि समाज के लिए सब बाप जंजीरें साबित होते हैं। बाप ने बेटे को भी टोपियां बेचना सिखाया। बाप वही सीखा सकता है जो खुद सीखा हो। बेटा टोपियां बेचने गया और उसी झाड़ के नीचे रूका जहां उसका बाप रूका था । ना लायक बेटे वहीं ठहर जाते हैं जहां बाप ठहरते हैं और उसने वहीं वह अपनी टोकरी रखी जहां बाप ने रखी थी क्योंकि और दूसरी जगह कैसे रख सकता था । उन बंदर ों की बीती भी बदल गई थी। नए बेटे वृक्ष पर बैठे थे। सौदागर सो गया। वह बंदर नीचे उतरे, उन्होंने टोपियां लगाईं और वृक्ष पर चले गए। सौदागर की नींद खुली। उसे खयाल आया कि बाप ने कहा था, 'एक बार बंदर उसकी टोपियां ले गए थे, त उसने अपनी टोपी फैंक दी थी।' वह हंसा, उसने कहा, 'पागलो, तुम्हें पता नहीं, तुमने समस्या खड़ी की है लेकिन मेरे पास समाधान है। मेरे बाप ने मुझे समाधान दि या है। उसने अपनी टोपी सड़क पर फैंक दी ।' लेकिन बड़ा चमत्कार हुआ एक बंदर नीचे उतरा और उस टोपी को भी उठाकर ऊपर चला गया। क्योंकि बंदर अब तक सीख गए थे। जो धोखा एक बार खा गए थे वह दोबारा खाने को राजी नहीं थे। लेकिन वह आदमी का बेटा वही समाधान पकड़े था जो बाप ने पकड़ा था। समस्या बदल गई क्योंकि बंदर बदल गए थे। समय बदल गया था लेकिन समाधान पुराना था। यह आधी कहानी आपको पता नहीं होगी और यह आधी कहा नी ज्यादा जरूरी है पहली आधी कहानी से। क्यों ? इससे अपनी बात शुरू करना चा हता हूं। इसलिए कि भारत की समस्याओं और भारत की प्रतिभा के संबंध में सोचते Page 48 of 150 http://www.oshoworld.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज समय दूसरा सूत्र, एक सूत्र मैंने कल कहा, एसकेपिजम पलायनवाद । भारत की प्रति भा का आत्मघात सिद्ध हुआ है। दूसरा सूत्र में आज कहना चाहता हूं, परंपरावाद ट्रे डीसनलिजम। उसने भारत की प्रतिभा को विकसित नहीं होने दिया। समस्याएं रोज बदल जाती हैं और समाधान हमारे बदलते ही नहीं। समाधान हमारे सास्वत हैं और समस्याएं क्षण-क्षण में बदल जाती हैं। इससे कोई समस्याओं को नुक सान नहीं होता इससे पकड़े हुए जो समाधान को वैठे हैं वह पराजित हो जाते हैं, हा र जाते हैं और जीवन का मुकाबला नहीं कर पाते। बदली हुई समस्या बदला हुआ समाधान चाहती है। लेकिन परंपरावादी की दृष्टि यह होती है कि जो समाधान परंप रा ने दिया है वही सत्य है। जो पुराने से आया है वही सत्य है, नए की खोज करन [ पाप है। पुराने को मानना पूण्य है और धर्म है। और जो समाज पुराने को मानने को ही धर्म समझ लेता है और नए से भयभीत हो जाता है उस समाज की प्रतिभा का विकास अवरुद्ध हो जाए तो आश्चर्य नहीं है, क्योंकि प्रतिभा विकसित होती है न ए की खोज से, निरंतर नए की खोज से, जितना हम नया खोजते हैं उतना हमारा मस्तिष्क विकसित होता है जितना हम पूराने को पकड़ लेते हैं उतना ही मस्तिष्क के विकास की जरूरत समाप्त हो जाती है। नई समस्या एक मौका बनती है कि हम नई चुनौती स्वीकार करें, नया समाधान खोजें, ताकि हम विकसित हो जाएं। ना स मस्या का उतना मूल्य है, ना समाधान का उतना मूल्य है लेकिन समस्या समाधान को खोजने की चुनौती देती है। अंतिम मूल्य चेतना के विकास का है लेकिन जो लो ग पुराने समाधान से चिपट कर रह जाते हैं उनकी चेतना चुनौती खो देती है और वह विकसित नहीं हो पाते। भारत की प्रतिभा पुराने समाधानों को पकड़ कर ठहर गई है। और इतनी हैरानी मा लूम होती है कि पता नहीं कब ठहर गई है, कितने हजार वर्ष पहले यह भी कहना मुश्किल है। ऐसा ही लगता है कि ज्ञात इतिहास जव से हम जानते हैं इतिहास को तव से भारत ठहरा ही हुआ है। और जितना पुराना समाधान हो हमारे मन में उस का उतना ही आदर है। जितनी पुरानी किताब हो; उतना ही सम्मान है। यह पुराने का आदर यह पूराने का सम्मान नए को कैसे जन्म होने देगा। और जो प्रतिभा नए को जन्म देना बंद कर देती है वह प्रतिभा बहुत पहले मर चुकी है अब उसकी जीवं तता खो गई है अब वह जीवित नहीं है। जीवन की प्रत्येक बात के उत्तर हमने खो ज लिए हैं। पता नहीं कब खोज लिए हैं? और ऐसा मालूम होता है कि जिन शास्त्रों को पकड़ कर हम बैठे हैं, वह शास्त्र भी यह कहते हैं कि, 'फलां ऋषि से फलां ऋषि ने सुना, फलां ऋषि से फलां ऋषि ने सूना, उनसे हमने सुना। जो हमने सुना है उसी से हम स्मरण करके हम कहते हैं।' हमारे पुराने शास्त्रों का नाम है श्रुति और स्मृति। श्रुति यानि जो सुना है, जाना न हीं। स्मृति जो याद किया गया है, जाना नहीं। हम सदा से सुनते और याद ही करते रहे हैं। हमेशा पिछले से सुना है और आगे दोहरा दिया है। हजारों वर्ष से हम दोह रा रहे हैं। Page 49 of 150 http://www.oshoworld.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज इस दोहराने में. इस रिपिटीशन ने जंग लगा दी है। सारी मस्तिष्क को सारी मेघा क है. हमारी सारी बद्धि सड गई है। हमारे मस्तिष्क के पास सिवाय पराने उधार सडे ह ए समाधानों के और कछ भी नहीं है। इसीलिए जिंदगी में हम रोज हारते चले गए हैं। और आज भी हार रहे हैं और कल भी बहुत कम आशा दिखाई पड़ती है कि ह म जीत सकें क्योंकि जब तक यह मस्तिष्क है, यह पुराना दिमाग, तब तक हमारी जीत जीवन के संघर्ष में हमारी विजय असंभव मालूम होती है। क्योंकि प्रत्येक नई समस्या कहती है नया समाधान लाओ, और हम अपनी किताब में खोजने चले जाते है और पुराना समाधान ले आते हैं। वह पुराना समाधान काम न हीं करेगा। कोई पुरानी स्थिति फिर दोबारा नहीं दोहरती है। जो लोग कहते हैं कि हस्ट्री रिपीटस इटसैल्फस वह बिलकुल झूठ कहते हैं। जगत में कुछ भी नहीं दोहरता है। इतिहास कभी नहीं दोहरता है कुछ भी नहीं दोहरता है, कुछ भी दोहर नहीं सक है। कोई पुनरुक्ति नहीं हो सकती। इतना अनंत जाल है, कि पुनरुक्ति होना असं भव है। फिर से वही नहीं हो सकता जो था। ठीक वैसा नहीं हो सकता जैसा था। अ र अगर हमें दिखाई पड़ता है कि वैसा ही है तो वह सिर्फ हमारे देखने की नासमझी है। वह देखने की कम गहराई का सबूत है। वह देखने के सूक्ष्म विकास नहीं हो सका इसलिए हमें वैसा ही दिखाई पड़ता है। आ प कल सुबह भी आए थे, ना तो आप वही हैं, मैं कल सुबह भी आया था मैं भी व ही नहीं हूं। चौबीस घंटे में गंगा का बहुत पानी बह चुका। आपकी चेतना का भी व हुत जल बह चुका। आप वही नहीं हैं और अगर वही हैं, तो बहुत दु:खद है यह बा त क्योंकि आप फिर मरे हुए आदमी, सिर्फ मरा हुआ नहीं बदलता जीवन तो बदल ता चला जाता है। आप वही नहीं हो सकते जो कल थे। और इस घंटे भर के वाद जब आप इस हाल से निकलेंगे तो वही नहीं होंगे जो इस हाल में प्रवेश करते समय थे। कैसे वही हो सकते हैं, घंटे भर में कितना सव बदल जाएगा। घंटे भर में चित्त कितनी नई बातें सोचेगा कितना पुराना बह जाएगा, कितना नए का प्रवेश हो जाए गा। जीवन में पूराना कहीं भी नहीं है। जीवन तो प्रतिपल नया है लेकिन हमारा मन पूरा ना है। पुराने मन और नए जीवन में जो नहीं बैठता, तालमेल नहीं बैठता और तब, तव जिज पैदा होती है। परेशानी पैदा होती हैं, तब चिंता पैदा होती है। भारत के सामने जो बड़ी से बड़ी चिंता है वह यह है कि जिंदगी रोज-रोज नए-नए सवाल ख. डे कर देती है। और हमारे पास पुरानी कितावें हैं और पुराने समाधान हैं। अगर अ छूत के संबंध में फिर से सोचने का सवाल है तो मन की स्मृति खोल कर बैठे हैं य ह लोग और खोज रहे हैं कि मनुस्मृति में क्या लिखा हुआ है। कुल तीन हजार वर्ष पहले मनु ने क्या कहा है? उसका आज क्या उपयोग हो सकत । है? क्या अर्थ हो सकता है ? समस्या आज की है और विलकुल नई है। लेकिन हम समाधान सदा पुराने खोजेंगे। जिंदगी का सवाल उठेगा और आदमी गीता खोलकर समाधान खोजेगा। गीता किसी समस्या का उत्तर थी। अर्जुन के सामने कोई सवाल Page 50 of 150 http://www.oshoworld.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज खड़ा हो गया होगा और गीता उस सवाल का उत्तर थी लेकिन जब अर्जुन ने सवाल खड़ा किया था तो कृष्ण ने कोई पुरानी किताब खोलकर समाधान नहीं खोजा था । वे नहीं गए थे कि खोल लेते वेद और वेद पढ़कर सुनाने लगते अर्जुन को । एक समस्या सामने खड़ी थी अर्जुन के । युद्ध था, युद्ध से भागने का मन था, हिंसा थ की, हिंसा से छूटने का मन था, अपने ही प्रियजन थे, उनके हत्या करने का सवाल था और अर्जुन का मन डांवांडोल हो गया है। तो कृष्ण कोई पुरानी किताब खोजने न हीं चले गए । कृष्ण ने उस समस्या का सामना किया एनकाउटर किया। एक जवाब दया, वह जवाब लिख कर हम बैठे हुए हैं। और गांधी के सामने कोई समस्या हो तो गीता माता को खोलकर बैठ जाएंगे। खतरनाक है यह प्रवृति। सवाल नए हैं, किता बें सब पुरानी हैं किताबें नई कैसे हो सकती हैं। लिखी गई कि पुरानी हो गई। कोई उत्तर दिया गया कि पुराना हो गया। सभी उत्तर पुराने हैं क्योंकि देते ही पुराने हो जाएंगे। और सब सवाल नए हैं । और नया सवाल नई चेतना की मांग करता है। नई चेतना का क्या अर्थ है ? नई चे तना का अर्थ है जिसके पास कोई बंधा हुआ उत्तर नहीं है, जिसके पास कोई बंधे हु ए सूत्र नहीं हैं, जिसके पास कोई जागती हुई चेतन आत्मा है और उस आत्मा को उस सवाल के सामने खड़ा कर देता है जैसे हम आईने के सामने किसी को खड़ा क र दें, जो खड़ा हो जाता है आईने में उसी की तस्वीर बन जाती है। आईने के पास अपनी कोई तस्वीर नहीं है, अपना कोई चित्र नहीं है, अपना कोई इमेज नहीं है, अ पना कोई उत्तर नहीं है । आईना यह नहीं कहता कि ऐसी शक्ल होनी चाहिए, ऐसी आंख होनी चाहिए, तब मैं चित्र बनाऊंगा । आईना कहता है जो भी होगा उसका चित्र बन जाएगा । आईने की सफलता यही है कि आईना बिगाड़े ना जैसा है उसको वैसा ही बता दे। नई चेतना का अर्थ है सवाल जो सामने खड़े हों, आईने की तरह हमारी चेतना के सामने स्पष्ट और साफ हो ज एं जैसे वह हैं। लेकिन वह कभी स्पष्ट नहीं होंगे अगर हमारे पास उत्तर पहले से मौ जूद हैं। उत्तर सवाल को समझने में सबसे बड़ी बाधा है। तैयार उत्तर, रेडिमेड उत्तर समस्या को समझने ही नहीं देता और समस्या को समझने ही नहीं देता, और समस् या को समझ ना सके तो समाधान कैसे खोजा जा सकता है। सच तो यह है किसी सवाल को ठीक से समझ लेना ही उसका समाधान है। किसी सवाल को उसके पूरे जड़ों तक समझ लेना उसका सवाल का जवाब है । जवा ब तो आ जाएगा चेतना से लेकिन सवाल को समझने का सवाल है, और सवाल को हम नहीं समझ पाते क्योंकि हमारे पास जवाब सब पहले से तय हैं। भारत की प्रतिभा में जो सबसे बड़ा अवरोध है वह उसका परंपरा, परंपरावाद है। प रंपराएं तो होंगी, लेकिन परंपरावाद बिलकुल दूसरी बात है। ट्रैडिशन तो होंगी, लेकि न ट्रैडिशनलिज्म बिलकुल दूसरी बात है। परंपराएं तो बनेंगी लेकिन अगर परंपरावादी चित्त ना हो तो हम कभी उनसे बंधे नहीं होंगे। उनसे सदा ऊपर उठते रहेंगे। उनक ट्रनसेंड करते रहेंगे, राज उनके पास जाते रहेंगे। लेकिन अगर परंपरा का वाद पैदा Page 51 of 150 http://www.oshoworld.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हो गया कि जो अतीत में है, जो पुराना है उसे पकड़ना है क्योंकि वही सत्य है, व ही ऋषि मुनियों का जाना हुआ है। वही ज्ञानियों का कहा हुआ है। हम अज्ञानी कैसे खोज सकते हैं? हम तो सिर्फ मान सकते हैं । तो फिर, फिर पूरे मुल्क की जीवन चेतना एक कोल्हू के बैल की तरह चक्कर लगा ने लगेगी। फिर सीधी रेखा में गति नहीं होगी, फिर हम चक्कर लगाते रहेंगे। फिर हमारा एक ही काम होगा कि हम पुराने को सिद्ध करने की सारी ताकत लगाते रहें समस्याएं हमारी फिक्र नहीं करेंगी वह बदलती चली जाएंगी। वह इस बात की चिं ता नहीं करेंगी कि आपके लिए रुकी रहें। वह रोज बदलती चली जाएंगी। और हम, हम रोज पिछड़ते चले जाएंगे। भारत कंटैपररी नहीं है। हम बीसवीं सदी में नहीं रह रहे हैं। हम रह रहे हैं कोई ई सा से एक हजार साल पहले, कोई तीन हजार वर्ष पहले । हम वहीं ठहरे हैं जहां गीता और मनु, महावीर और बुद्ध ठहर गए हैं। हम उसके आगे नहीं बढ़े, तीन हजार साल से हमारी चेतना इस चक्कर में घूम रही है । और एक ही काम कर रही है कि पुराने का गुणगान करो, पुराने को सिद्ध करो पुराना ठ ̈ीक है। और पुराने को ज्यादा पुराना सिद्ध करो। जाहिर है कि हमारे वेद पांच हजार वर्ष से ज्यादा पुराने नहीं हैं लेकिन हमारे मन को बड़ी चोट लगती है। अगर कोई यह कहे कि वह पांच हजार वर्ष पुराने हैं। ऐसे लोग है इस मुल्क में जो पचहत्तर ह जार वर्ष पुराना सिद्ध करना चाहते हैं, नब्बे हजार वर्ष पुराना सिद्ध करना चाहते हैं । ऐसे लोग भी हैं जिनकी तृप्ति इससे भी नहीं होती जो कहते है वह सनातन हैं। व ह हमेशा से समय में उनको बांधा नहीं जा सकता। ऐसे लोग भी है जो कहते हैं पह ले वेद बना और फिर सब बना। यह पीछे खींचने का पागल मोह क्या है ? क्यों पीछे खींचना चाहते हैं? यह पीछे खीं चने का मोह इसलिए है कि हमारा खयाल यह है कि जो जितना पुराना है उतना स त्यतर है, उतना शुद्धतर है। जो जितना नया है उतना अशुद्ध है, उतना गलत है। पुराना होना ही बड़े बहुमूल्य बात है। शराब के संबंध में तो कहा जाता है कि पुरान शराब अच्छी होती है। लेकिन सत्य पुराने अच्छे नहीं होते। लेकिन हम सत्य सा थ भी शराब का ही व्यवहार कर रहे हैं। उसको भी पुराना सिद्ध करने में बड़ी ताक त लगाते हैं। अब सत्य कोई नशा लाने के लिए थोड़े है। शराब इसलिए अच्छी होती है कि जितन पुरानी होती है उतनी सड़ जाती है जितनी सड़ जाती है उतनी नशे वाली हो जा है। सत्यजितना पुराना हो जाता है उतना ही सड़ जाता है उतना ही खतरनाक हो जाता है उतना फैंकने योग्य हो जाता है। सत्य रोज नया चाहिए। हां, शराब पु रानी चल सकती है। लेकिन कुछ लोग शास्त्रों के साथ भी वही करते हैं जो शराब के साथ करते हैं। शास्त्र भी उनकी शराब हैं। और इसलिए पुराना करने की कोशिश चलती है कि हमारा शास्त्र तुमसे ज्यादा पुराना है। हिंदुस्तान की प्रतिभा का ज्यादा समय इस तरह की नौनसैंस में बेवकूफिओं में खर्च होता है। Page 52 of 150 http://www.oshoworld.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज मैं एक सभा में बोल रहा था । एक सज्जन खड़े हुए थे और उन्होंने मुझसे कहा कि, 'आपसे मुझे एक बात पूछनी है कि उम्र महावीर की बड़ी थी कि बुद्ध की बड़ी । मैं तीन साल से शोध कर रहा हूं। मैंने कहा कि, 'मुझे पता नहीं, और कोई जरूरत भी नहीं, कि बुद्ध की उम्र बड़ी थी कि महावीर की बड़ी थी । एक बात तय है कि तुम्हारी तीन साल की उम्र खराब हो गई।' वह कुछ भी कोई बड़ा रहा हो उससे कु छ लेना देना नहीं है। लेकिन नहीं, इसमें भी अगर महावीर को उम्र में बड़ा सिद्ध कया जा सके तो जैसे वह बड़े हो जाएंगे बुद्ध से या बुद्ध को बड़ा सिद्ध किया जा सके तो वह बड़े हो जाएंगे, वह ज्यादा पुराने हो जाएंगे । यह पुराने का मोह, यह पुराने का मोह अकारण नहीं है । इसके पीछे कारण है वह कारण हमारी समझ में आ जाएं तो हम भारत की प्रतिभा को नए के लिए मुक्त क र सकते हैं। वह कारण समझने चाहिए। पहली बात, पुराना सुरक्षित है सिक्योरिटी है उसमें, वह जाना माना है, वह परिचित है, उसे हम भलीभांति जानते हैं। वह शा स्त्र में रेखाबद्ध लिखा हुआ वह लीक पीटी हुई है । उस पर जाने में डर नहीं है नया हमेशा खतरनाक है, डेंजरस है। पता नहीं क्या हो । लीकबद्ध नहीं है, रेखाबद्ध नहीं है, कोई नक्शा नहीं है, अनचार्टिड है तो नए में डर मालूम पड़ता है। असुरक्षा मा लूम पड़ती है, कहीं ऐसा ना हो कि पुराने को छोड़ दें, और नया भटका दें, इसलिए पुराने को पकड़े रहो। नए पर मत जाओ । जो कौम जितनी भयभीत होती है उतना पुराने का आदर करती है। पुराने के आदर के पीछे फियर है, भय काम करता है। जो कौम जितनी निर्भय होती है उसमें नए की खोज करती है। नए का एडवेंचर है, नए का साहस । जो नहीं जाना है उसे जा न ले, निश्चित ही उसमें खतरे हैं। क्योंकि हो सकता है कि नया रास्ता गड्डों में ले जाएं, पहाड़ों में ले जाएं, खतरों में ले जाएं, ऐसी जगह ले जाए जहां जिंदगी मुश्कि ल में पड़ जाएं, नया खतरे में ले जा सकता है। पुराना पहचाना हुआ है उसी रास्ते से हजारों बार हम गुजरे हैं, हजारों लोग गुजरे हैं, उस रास्ते पर हजारों लोगों के चरण चिन्ह हैं वह पहचाना परिचित है उस पर चलने में सुविधा है, सुरक्षा है। लेकिन ज्ञात होना चाहिए जितना जीवन सुरक्षित हो जाता है उतना ही मर जाता है । जितनी असुरक्षा को वरन करने की हिम्मत हो जीवन उतना ही लिविंग और जीवं तत होता है। क्यों? सच तो यह है कि जीवन स्वयं एक असुरक्षा है। जो मर गए हैं वह ही सुरक्षित हैं अब उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ा जा सकता। इसलिए कब्र से ज् यादा सुरक्षित कोई स्थान नहीं है । कोई बीमा कम्पनी इतनी सुरक्षा नहीं दे सकती जतना मरघट देता है। क्योंकि उसके बाद कुछ भी नहीं बिगड़ सकता । पहली तो बात यह कि मरने के बाद फिर आप मर नहीं सकते। मर गए और म र गए, अब खत्म, वह बात खत्म हो गई, अब मरने का कोई डर नहीं। मरने के ब ाद बीमार नहीं पड़ सकते। मरने के बाद पाप नहीं कर सकते, अपराध नहीं कर स कते, मरने के बाद कुछ भी नहीं हो सकता, नया कुछ भी नहीं होगा। मरने का मत लब है कि नए का होना बंद हो गया, अब जो हो गया सब चीजें वहीं ठहर जाएंगी। Page 53 of 150 http://www.oshoworld.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज एक आदमी मर गया एक तारीख को महीने की तो दो तारीख नहीं आएगी तीन ता रीख नहीं आएगी अव कुछ नहीं आएगा। एक तारीख पर सव ठहर गया उस आदमी के लिए, अब नया नहीं होगा। अव जो हो गया वह हो गया। अब सिर्फ इतिहास ह गा. भविष्य नहीं होगा। मरे हए आदमी का सिर्फ अतीत होता है भविष्य नहीं होता । भविष्य खतरनाक है लेकिन जीवन भी एक खतरा है। जीवन भी एक असरक्षा है। जो लोग जीवन को प्रेम करते हैं वह असुरक्षा को भी प्रेम करते हैं। जीवन का प्रेम अनिवार्य रूप से खतरे का प्रेम है। जो लोग जीवन को प्रेम नहीं करते सोसाइडल हैं , आत्मघाती हैं वे सुरक्षा को प्रेम करते हैं। वह सब तरह का इंतजाम कर लेते हैं। मैंने सुना है एक सम्राट ने एक मकान बनाया, एक महल, और सब तरह का इंतजा म किया कि कोई खतरा ना हो। तो डर के कारण उसने सिर्फ एक दरवाजा रखा उ स महल में, दूसरे दरवाजे खिड़कियां रखना खतरनाक है, रात को दुश्मन घुस जाए, चोर घुस जाए, डाक घुस जाए, फिर बहुत दरवाजे हों तो बहुत पहरेदार रखने पड़ें गे। फिर बहुत पहरेदार हों तो बहुत पहरेदार रखने पड़ेंगे, फिर वहुत पहरेदार हों तो पहरेदारों से भी डर हो सकता है। इसलिए एक दरवाजा रखा। और अपने ही आद मी रखे और अपने आदमियों पर भी और अपने आदमी रखे। एक हजार पहलेदार र खे, एक के ऊपर एक पहरेदार, एक के ऊपर एक पहरे दार, खतरे का कोई ऊपाय नहीं कोई खतरा नहीं हो सकता। एक दरवाजा है, एक खिड़की नहीं, दूसरा दरवाजा नहीं। सारा महल वंद सिर्फ एक दरवाजा है भीतर बाहर जाने का। पड़ोस का राजा उसका महल देखने आया। और बहुत प्रसंन हुआ उसने कहा, 'ऐसा महल में भी बना लूंगा, यह तो बिलकुल सुरक्षि त है। जब पड़ोस का राजा प्रशंसा करके द्वार से निकल रहा था, और महल का मा लक खुश हो रहा था कि मैंने एक अदभुत महल बना लिया, तो सड़क के किनारे बै ठा हुआ एक बूढ़ा भिखारी जोर से हंसने लगा। उस महल के मालिक ने पूछा, 'क्यों हंसता है, क्या हो गया है कोई भूल रह गई। उस भिखारी ने कहा, 'मालिक! आपने पूछा है, तो बता दूं। जब से यह महल बन रहा है तभी से मैं देख रहा हूं, एक भूल रह गई है।' सम्राट ने कहा, 'कौन-सी भूल , हम उसे ठीक कर लें। उस भिखारी ने कहा, 'इसमें एक दरवाजा भी नहीं होना चाहिए। आप भीतर हो जाईए, और दरवाजा बंद करवा लिजिए। आप बिलकुल सूरी क्षत हो जाएंगे, यह एक दरवाजा खतरनाक है इससे मौत भीतर घुस सकती है। उ स राजा ने कहा, 'पागल, अगर इसको भी मैंने बंद कर लिया तो मैं मरने के पहले ही मर जाऊंगा।' उस भिखारी ने कहा, 'तो फिर ठीक से सुन लें, जितने दरवाजे आपने बंद किए उस अंश में आप मरते चले गए। थोड़े से जिंदा हैं एक दरवाजे की वजह से। यह भी वंद कर लें तो बिलकुल मर जाएंगे। मेरा भी महल था लेकिन मैंने पाया कि महल में जिंदा रहना पूरा नहीं हो सकता क्योंकि पहरा है। और जहां पहरा है वहां जिंदगी पूरी कैसे हो सकती है। दीवारें हैं, और मैंने पाया कि जितने ज्यादा दरवाजे हों जिं Page 54 of 150 http://www.oshoworld.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज दगी उतनी होती है। तो फिर मैंने दरवाजे खोलने शुरू किए। फिर धीरे-धीरे मुझे ख याल आया क्यों ना खुले आकाश के नीचे क्यों ना चला जाऊं जहां जीवन पूरा होगा, टोटल होगा। इसलिए मैं महल को छोड़कर खुले आकाश के नीचे आ गया ।' मैं आपसे कहता हूं अगर मरना हो तो सुरक्षा पूरी कर लें, और अगर जीवित रहना हो, तो असुरक्षा, असुरक्षा के वरन् और स्वागत की हिम्मत और साहस होना चाहि ए। यह भारत की जो परंपरावादिता है यह जो पुराने को पकड़ लेने का आग्रह है य ह नए का भय है, नए का भय जीवन का भय है, और मैं आपसे कहना चाहता हूं क भारत की प्रतिभा सोसाइडल है, आत्मघाती है। हम मरने में ज्यादा उत्सुक हैं जी ने में कम। इसलिए हम मोक्ष की ज्यादा बातें करते हैं जीवन की कम। हम इस बा त में ज्यादा आतुर हैं कि मरने के बाद क्या है, मरने के पहले क्या है हमारी इसमें कोई उत्सुकता नहीं है। हम स्वर्ग और नरक के लिए ज्यादा चिंतित हैं। हम यह पृथ्वी स्वर्ग बने या नरक व ने इसके लिए बिलकुल चिंतित नहीं हैं। हम अभी और यहां, हमारा कोई रस नहीं है। हमारा रस सदा वहां है मृत्यु के बाद, मृत्यु के बाद। मुझे लोग रोज मिलते हैं। जो पूछते हैं कि मरने के बाद क्या होगा । मैं उस आदमी की तलाश में हूं जो पूछे की मरने के पहले क्या हो ? वह नहीं कोई पूछता कि मरने के पहले क्या हो, लोग पूछते हैं कि मरने के बाद क्या हो ? ऐसा प्रतित होता है कि हम मृत्यु की छाया में जी रहे हैं। और हमारी प्रतिभा ने मृत्यु की छाया को बहुत बड़ा करके बता दिया है और इतना बड़ा करके बता दिया है कि धीरे-धीरे हम यह भूल ही गए है कि जी ना है। हम सिर्फ इसी फिक्र में लगे हैं कि मृत्यु से किस तरह बच जाएं या मृत्यु से कि तर ह पार हो जाएं। हम भयभीत हैं । और भय से भरे हुए लोग कभी भी जीवंत नहीं ह ो सकते। परंपरावाद से मुक्त होना हो तो सुरक्षा के अतिमोह से मुक्त होना जरूरी है। और मजे की बात यह है कि जीवन में सुरक्षा हो ही नहीं सकती । सब सुरक्षा भ्र म है। मैं कितना ही बड़ा मकान बनाऊं, और कितनी ही लोहे की दीवारें बनाऊ, अ और कितनी ही संघीनें पहरे पर रख दूं तो भी मैं मरूंगा । मरने से, बीमार होने से, क्या सुरक्षा है? मैं कितने ही विवाह के कानून बनाऊं, कितनी ही अदालतें बिठाऊं । जरूरी नहीं है कि जो पत्नी मुझे आज प्रेम करती है, व ह कल भी मुझे प्रेम करे। मैं कितना ही दोहराऊं कि प्रेम सास्वत है, लेकिन जगत में कुछ भी सास्वत नहीं है। ना प्रेम ना कुछ और, इस जगत में सभी कुछ बदलता हुआ है इसलिए कितने ही कानून बिठाओ कितनी ही अदालतें बनाओ, कितने ही नि यम बनाओ, कोई सुरक्षा नहीं है कि जिसने मुझे आज प्रेम दिया वह कल भी मुझे म देगा। कल असुरक्षित है। एक खतरा और है, अगर मैंने सुरक्षा का बहुत इंतजाम किया तो शायद कानून की व्यवस्था इतनी सक्त हो जाए, कि वह आज मुझे प्रेम दे सकता था वह भी ना ए। इतना मुक्त ना रह जाए कि प्रेम आज भी दे सके। ना प्रेम का कोई भरोसा है Page 55 of 150 http://www.oshoworld.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ना जीवन का कोई भरोसा है। सांस चल रही है, एक क्षण बाद नहीं चले। ऐसा क्षण आएगा ही कि एक क्षण वाद नहीं चलेगी। क्या सरक्षा है. मित्र का कोई भरोसा है जो मित्र है वह कल मित्र ना रह जाए। शत्रु का तक भरोसा नहीं है जो शत्रु है क ल शत्रु ना रह जाए। शत्रु का ही जहां भरोसा नहीं, मित्र का जहां भरोसा नहीं, जह किसी चीज का भरोसा नहीं है वहां हम एक इलयजरी सिक्योरिटी बनाकर एक क ल्पनिक सुरक्षा का जाल बनाकर उसके भीतर वैठकर मर जाते हैं। नहीं जीवन असुरक्षा है। जीवन ही इनसिक्योरिटी है, जीवन है ही ऐसा। जीवन के इ स तथ्य को यह जीवन की जो सचनैस है कि जीवन ऐसा है। कि यहां जन्म है, यहां मृत्यु है यहां स्वास्थ्य है, यहां बीमारी है यहां मिलना है, यहां बिछड़ना है। यहां दोस् ती है, यहां दृश्मनी, यहां सांस आएगी और जाएगी भी। और जाना भी उतना ही सू खद है जितना आना। और जन्म भी उतना ही आनंद है जितनी मृत्य। लेकिन सिर्फ उसके लिए, जिसने सुरक्षा का पागल मोह नहीं पकड़ लिया। सूकरात मर रहा था। जहर देने के पहले उसके मित्रों ने सूकरात को पूछा, 'कि हम ने पता लगाया है कि जिन लोगों ने तुम्हें मृत्यु की सजा दी है। वह कहते हैं अगर तुम सत्य के संबंध में बोलना बंद कर दो, तो तुम्हे क्षमा किया जा सकता है तुम ब च सकते हो।' सुकरात ने कहा, 'क्या वे यह कहते हैं कि फिर मैं सदा वच सकूँगा। अगर वह ऐसा कहते हों तो मैं सोचूं।' मित्रों ने कहा, 'सदा बचने का भरोसा कोई भी नहीं दे सकता। तो सुकरात ने कहा, 'जब मरना ही है तो फिर मरने से सुरक्ष [ के लिए असत्य बोलना समझ में नहीं आता। फिर मरना ही है तो फिर सत्य बोल ते ही मरना अच्छा है।' फिर जहर पीसा जाने लगा। वाहर जहर पीसा जा रहा है, और सुकरात वार-बार पू छने लगा अपने मित्रों से कि, 'देखो! वड़ी देर हुई जाती है, जहर पीसने वाला वहुत देर लगा रहा है।' मित्र रो रहे हैं और वह कहने लगे कि, 'तुम पागल हो गए हो। जितनी देर हो जाए, उतना अच्छा तुम जितनी देर और जी लो उतना अच्छा। इत नी उत्सुकता क्या है मरने की? सुकरात कहने लगा, मृत्यु नई है, अपरिचित है उ से जानने का मन होता है। उसे कभी जाना नहीं, वह विलकुल नया है, वह मृत्यु कैसी है? वह मृत्यु का लोक कैसा है? हम बसते हैं कि नहीं बसते हैं मैं उसे जानने के लिए आतुर हूं। मैं नए को जानने के लिए आतुर हूं। जीवन तो जाना जा चुका, वह पुराना पड़ चुका। सुकरात जैसे लोगों को मारा नहीं जा सकता। क्योंकि उन्हें मृ त्यु भी. . . नई है, और जीवन का एक हिस्सा है। जो जानता है वह जन्म और मृत्यु को समान ही मानेगा। जन्म भी अगर हम बहुत खयाल से देखें तो एक खतरा है। हमें पता नहीं है यह दूसरी बात है। जो वच्चा मां के पेट में है वह बहुत सुरक्षित है, आपको पता है, उससे ज्यादा सुरक्षा सिर्फ कव्र में ही मिलेगी, और कहीं भी नहीं मिलेगी। मां के पेट में जो बच्चा है ना नौकरी क रनी पड़ती है, ना दूकान करनी पड़ती है, ना जिंदगी के खतरे हैं, ना खाने की चिंत | है, ना पीने की चिंता है। मां के पेट में वह करीव-करीव मोक्ष में है। वहां कुछ भी Page 56 of 150 http://www.oshoworld.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज नहीं करना पड़ता। सिर्फ जीता है। सब मां करती है, सब मां से होता है। वह सिर्फ जीता है. वह सिर्फ जीता है। वहां कछ भी नहीं करना पड़ता। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि 'मोक्ष की जो कल्पना लोगों को पैदा हई वह मां के गर्भ की स्मृति से ही पैदा हुई वह जो हमारा अनकोनसीयस माइंड है उसको पता है कि एक सुख का क्षण था जो खो गया। एक ऐसा वक्त था कि जब ना कोई चिंता थी ना कोई दुःख था, ना कोई पीड़ा थी। वह हमारे अचेतन चित्त को पता है। वह किस कौने में हमें ज्ञात है। वह मां के पेट में वह जो सूख था जब बच्चे को मां के पेट के बाहर आना पड़ा होगा तो अगर वह प्रार्थना कर सका होगा। तो उसने हाथ जोड़ कर कहा होगा हे भगवान! कहां असुरक्षा में भेज रहे हो। कहां खतरे में भेज रहे हो । सव सुरक्षा छूटती है, जीवन की सब व्यवस्था छूटती है, सव इंतजाम था वह छूट ता है, कहां खतरे में भेजते हो। जन्म बहूत बड़ा खतरा है और खतरा शुरू हो जात है। शायद बच्चा पैदा होते से इसलिए रोता हो, चिल्लाता हो कि कहां मुसिबत में डाल दिया। हंसते हुए बच्चे की पैदा होने की कोई खबर नहीं सुनी गई। उसकी सुरक्षा छिन गई है। उसका सव छीन गया है वह अपप्रूटिड कर दिया गया है जैसे किसी वृक्ष को उस की जड़ों से उखाड़ लिया गया है। मां के भीतर उसकी जड़ें थी। वह मां का एक हि स्सा था। कोई चिंता ना थी, कोई एनजाइटी ना थी कोई समस्या ना थी सब समाधा न था। मां के पेट में वच्चा समाधि में था। वहां से निकालकर वाहर फेंक दिया गया फिर रोज-रोज असुरक्षा बढ़ती चली जाएगी। जब तक छोटा होगा मां की गोद होग । धीरे-धीरे मां की गोद भी छोड़ देनी पड़ेगी। स्कूल आएगा, और खतरे आने शुरू होंगे। और फिर स्कूल के बाद जिंदगी आएगी। और समस्याएं आनी शुरू होंगी, मां से दूर होता चला जाएगा। और खतरों में उतरता चला जाएगा। जिंदगी का नाम खतरा है। मौत भी खतरा नहीं है जन्म के बाद सभी कुछ खतरा है | लेकिन इस खतरे से हमने एक मानसिक बचाव का उपाय कर लिया है कि वचा लो अपने को। तिजोरियां खड़ी करते हैं, महल खड़े करते हैं, पद प्रतिष्ठा बनाते हैं, मित्र संगी-साथी बनाते हैं। शिष्य चेले बनाते हैं। वेटा, बाप बेटे को खड़ा करता है ि बना बेटे के असुरक्षा अनुभव करता है। परिवार बनाता है। सारा इंतजाम करता है | कस बात के लिए। सिर्फ एक बात के लिए कि जिंदगी में कोई खतरा, कोई असुरक्ष [, कोई समस्या ना हो। सव तरह से सुरक्षित हो जाऊं। वह जो मां का गर्भ था वह मिल जाए फिर वैसे ही हो जाए सब, वह कभी नहीं हो पाता। वह हो ही नहीं पा एगा। वह सिर्फ कव्र में होगा। वह सिर्फ मरने पर होगा। मृत्यु वहीं पर पहुंचा देगी जहां पर जन्म ने आपको हटाया था। इसलिए मरने की क मिना भी पैदा होती है। मरने की कामना भी हमारे भीतर इसीलिए पैदा होती है। य ह बहुत समझने की बात है मरने से बचने की कामना भी सुरक्षा के लिए पैदा होती है। और मरने की कामना भी सुरक्षा के लिए पैदा होती है। जब आदमी वहुत असू रक्षित हो जाता है। जिससे प्रेम करता है वह भटक जाता है, खो जाता है, जिसे चा Page 57 of 150 http://www.oshoworld.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हता है वह बिछुड़ जाता है। जिस धन को इकट्ठा किया था वह डूब जाता है, जिस मकान को बनाया था उसमें आग लग जाती तब वह एक दम मरना चाहता है। वह कहता है अब मैं मरना चाहता हूं मैं जीना नहीं चाहता। क्यों मरना चाहते हैं अ प? शायद मन भीतर से कहता है कि अब मरने में ही सुरक्षा मिल सकती है मर जाओ सुरक्षित हो जाओगे। आदमी शराब पीकर चिंता को भूलना चाहता है क्यों ? आदमी सोकर चिंता को भूलना चाहता है क्यों ? सोने में थोड़ी देर के लिए अस्थाई मृत्यु घटित हो जाती है। टैम्प्रेरी डैथ थोड़ी देर के लिए आप मर जाते हैं। थोड़ी देर के लए दुनिया खत्म हो जाती है आप खत्म हो जाते हैं। वही शराब भी काम करती है । शराब में थोड़ी देर के लिए सब मिट जाता है, आप मर जाते हैं, वह भी टैम्प्रेरी डैथ है। शराब पीने वाला भी आत्मघाती है। अपने को भूलाने की सब कोशिश आत्म घात है। या जिंदगी में इतनी चिंता आ जाती है कि सुरक्षा नहीं मिलती तो आदमी मर जाता है। पश्चिम में रोज हजारों लोग आत्महत्या कर रहे हैं, क्यों ? घबरा गए हैं जिंदगी की असुरक्षा से। मर जाने में लगता है कि ठीक है मर जाओ, मर जाने से सब झुटकारा हो जाएगा। मरने से बचने की चेष्ठा भी सुरक्षा के लिए है, और अंत में मर जाने की कामना भी सुरक्षा के लिए है, और मोक्ष की कामना भी सुरक्षा के लिए है । स्व र्ग और भगवान के चरणों को पकड़ लेने की कामना भी सुरक्षा के लिए है। लेकिन यह ध्यान रहे कि जो सुरक्षित हो जाता है वह जीवन से पीठ फेर लेता है, और सा रा आनंद है जीवन में। और सारी मुक्ति है जीवन में और सारा परमात्मा है जीवन में। उस जीवन में जहां मृत्यु भी है, उस जीवन में जहां चिंता भी है उस जीवन में जहां समस्याएं भी हैं, उन सबका इकट्ठा स्वीकार ही जीवन को जीने की कला है। यह जो हमारा अतीत से मोह है वह सुरक्षा के कारण है । भय को छोड़ना पड़ेगा जी वन का भय। बहुत कम लोग हैं जो जीने की हिम्मत जुटा पाते हैं। यह बात अजीब मालूम पड़ेगी। लेकिन बहुत कम लोग हैं जो जीने की हिम्मत जुटा पाते हैं। मरने की हिम्मत बहुत लोग जुटा लेते हैं। जीने की हिम्मत बहुत कम लोग जुटा पाते हैं। जो जीने की हिम्मत जुटा लेता है उसे ही मैं संन्यासी कहता हूं। संन्यासी का मतलब है जिसने सुरक्षा को छोड़ दिया, असुरक्षा को वरण कर लिया। लेकिन जिसको हम संन्यासी कहते हैं वह संन्यासी नहीं। वह छोटी सुरक्षा को छोड़ता है। बड़ी सुरक्षा को वरण कर लेता है। और मौलिक सुरक्षा को कभी नहीं छोड़ता । एक संन्यासी, संन्यासी होने के बाद भी हिंदू बना रहता है, मुसलमान बना रहता है, जैन बना रहता है क्यों? वह कहता है, 'मैंने घर छोड़ दिया है सुरक्षा छोड़ दी, मैं ने पत्नी छोड़ दी सुरक्षा छोड़ दी, मैंने धन छोड़ दिया सुरक्षा छोड़ दी, लेकिन जैन ह ेना नहीं छोड़ता, क्योंकि अगर जैन होना छोड़ दे तो जैन समाज से जो सुरक्षा मिल रही है वह मिलनी बंद हो जाएगी। अगर हिंदू होना छोड़ दे तो हिंदू जो कहते हैं जगतगुरु है यह, वह कहना बंद कर देंगे। अगर मुसलमान होना छोड़ दे तो मस्जिद Page 58 of 150 http://www.oshoworld.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ठहराएगी नहीं। मकान उसने छोड़ दिया क्योंकि मस्जिद ठहरने को मिल गई है । अग र वह गुरु होना छोड़ दे तो शिष्य उसको छोड़ देंगे। उसने बाप था बेटे छोड़ दिए हैं लेकिन उसने एक बेटे छोड़ कर उसने पचास बेटे इकट्ठे कर लिए हैं। शिष्य इकट्ठे कर लिए है शिष्याएं इकट्ठी कर ली हैं । और फिर सुरक्षा का इंतजाम इकट्ठा कर लि या है। घर छोड़ दिया है। अब एक आश्रम बना लिया है। लेकिन सुरक्षा के नए उपाय कर लिए हैं। और एक नई सुरक्षा उसने यह कर ली है कि वह भगवान को पाने की कोशिश में लगा है वह पुण्य कर रहा है, पुण्य धन क ा सिक्का है, मोक्ष में चलता है यहां नहीं चलता । वह पुण्य इस लिए कर रहा है कि सिक्का चल सके स्वर्ग में, मोक्ष में, भगवान को पा लिया है। भगवान को पाने की कोशिश कर रहा है, वह मोक्ष पाने की कोशिश कर रहा है। इस मोक्ष का मतलब, जहां कोई समस्या नहीं होगी । सिद्ध शिला पर बैठ कर सारी समस्याओं से आदमी मु क्त हो जाएगा। लेकिन जहां कोई समस्या नहीं होगी वहां कोई जीवन भी नहीं होगा । समस्याओं से बचने की कोशिश जीवन से बचने की कोशिश है। समस्याओं को जीतन है इसलिए नहीं कि समस्याएं समाप्त हो जाएंगी, बल्कि इसलिए कि नई समस्याएं खड़ी होंगी। जीवन एक सतत संघर्ष है। समस्याएं कभी समाप्त नहीं हो जाएंगी। एक समस्या बदलेगी नई समस्या होगी। नीचे की समस्याएं बदलेंगी ऊपर की समस्याएं ह ोंगी। गरीब आदमी के सामने एक समस्या होती है भूख की, अभाव की । अमीर आद मी के सामने एक दूसरी समस्या खड़ी हो जाती है, अतिरेक की, एफोलुएंस की । हिं दूस्तान की समस्या है पेट कैसे भरे, अमरीका की समस्या है पेट भर गया अब क्या करें। योग करें, ध्यान करें, माला फेरें क्या करें ? अमरीका की समस्या वही है जो बुद्ध और महावीर की समस्या रही होगी । अमीर के बेटे थे, पेट भरा था, कपड़े उपलब्ध थे, सब उपलब्ध था जो उपलब्ध हो सकता था । फिर समस्या खड़ी हो गई अब सब है अब क्या करें। समस्याएं मिट नहीं सकती, समस्याओं के तल बदलते हैं। और चेतना ऐसी होनी चाहिए जो हर तल पर हर नई समस्या का साक्षात कर सके आनंद से भय से नहीं। क्योंकि भय से किया गया सा क्षात कभी साक्षात नहीं हो सकता। स्वीकार से अस्वीकार से नहीं क्योंकि जिसने अस् वीकार किया वह पीठ कर लेता है। पीठ करके कभी साक्षात नहीं हो सकता। सहज भाव से कि जीवन ऐसा है और जीवन जैसा है और जैसा होगा वैसा मुझे अंगीकार है। मैं दावे नहीं करता कि वह ऐसा ही हो जैसा कल था । आने वाला कल बिलकुल नया होगा, आने वाला सूरज बिलकुल नया सूरज होगा, सु बह उठेंगे फिर कल का सक्षात्कार करेंगे, नहीं उठ सके तो मौत का साक्षात्कार करें गे। जो होगा उसका साक्षात्कार करेंगे। और हमारी तैयारी इतनी होनी चाहिए कि ह म हर साक्षात्कार के बाद ज्यादा अज्ञान, ज्यादा आनंद, ज्यादा अनुभव, ज्यादा जीवंत होकर बाहर निकल आएगे। लेकिन इतनी हिम्मत नहीं है, इतना करेज नहीं है इस Page 59 of 150 http://www.oshoworld.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लए पुराने को पकड़े हुए बैठे हैं। पुराने को पकड़ना हमेशा साहस की कमी है भय क [ लक्षण है। इसलिए पहली बात अगर परंपरावाद से भारत की प्रतिभा को मक्त होना हो तो भ य छोड़ देना पड़ेगा। और सबसे बड़ा भय जीवन का भय है। और जीवन के भय से ही मृत्यु का भय पैदा होता है। जो जीवन से डरते हैं वे ही मृत्यु से डरते हैं। जो ज विन को जीते हैं वह मृत्यु को भी जीते हैं। उन्हें कोई भी भय नहीं, भय का कोई सवाल नहीं, और भयभीत होकर जीवन बदल नहीं जाता, सिर्फ हम एक मेंटल कैप्सू ल में एक झूठी कल्पना के घेरे में अपने को बंद कर लेते हैं। मेरे एक मित्र हैं बूढ़े हैं। कुछ दिनों से उन्होंने सव पूजा-पाठ मंदिर जाना सब छोड़ ि दया था। मुझसे कहते थे, के 'सव मैंने छोड़ दिया। अब मैं सबसे मुक्त हो गया हूं।' मैंने उनसे कहा, 'आप बार-बार कहते हैं कि सब छोड़ दिया, सबसे मुक्त हो गया। इससे शक होता है कि ठीक से मुक्त नहीं हो पाए हैं ठीक से छूट नहीं पाया है।' फर उनको हृदय का दौरा हुआ स्टआटैक हुआ। मैं उन्हें देखने गया, वह करीब-कर वि आधी बेहोशी में पड़े थे। और बेहोशी में उनके मुंह से राम-राम, राम-राम का प ठ चल रहा था। मैंने उन्हें हिलाया मैंने पूछा, 'यह क्या कर रहे हो? तुम तो कहते थे सब छोड़ दिया। वह कहने लगे, मैं भी सोचता था कि छोड़ दिया लेकिन यह मौत सामने आई तो नामालूम कैसे मशीन की तरह भीतर से राम-राम होने लगा । क करो राम-राम, कहीं राम होना और अगर हुआ तो भूल हो जाएगी फिर हर्ज भी क्या है।' राम-राम जप लेने में हर्ज भी क्या नहीं हुआ, तो कुछ हर्ज ना हुआ, और अगर हुअ [ तो सुरक्षा का इंतजाम कर लिया। वह मौत सामने खड़ी है तो आदमी राम-राम जप रहा है, वह जो मंदिरों में हाथ जोड़े खड़े हैं उन्हें भगवान से कोई मतलब नहीं है, वह जो मालाएं फेर रहे हैं उन्हें भगवान से कोई मतलब नहीं है, और वह जो श स्त्रिों में आंखें गढ़ाए हुए कंठस्थ कर रहे हैं सूत्रों को, उनको भगवान से कोई मतलव नहीं है। यह सब भय से पैदा हुई प्रवृत्तियां हैं। जिसे हम धर्म कहते हैं वह हमारा ि फयर है। और वह धर्म जो अभय से फियरलैसनैस से आता है उसका हमें कोई पता ही नहीं। यह जो मंदिर और मस्जिद और यह जो पूजा और काबा और काशी खड़े हैं यह मनु प्य के भय से उत्पन्न हुए हैं। और यह जो मूर्तियां और यह जो भगवान की पूजाएं चल रही हैं यह मनुष्य के भय से जन्मी हैं। हम भयभीत है, हम डरे हुए हैं, हम सु रक्षा चाहते हैं। अज्ञात से हम सुरक्षा चाहते हैं हम किसी के चरण पकड़ना चाहते हैं , हम कोई सहारा चाहते हैं। यह जो गुरुढम चल रही है सारे देश में, यह जो जगह -जगह छोटे-बड़े गुरु, छोटे-बड़े महात्मा, आधे और पूरे महात्मा इकट्ठे हैं सारे मुल्क में, और उनके आसपास लोग चरण पकड़े हुए हैं यह गुरुढम किसी ज्ञान या किसी स त्य की खोज से नहीं चल रही है। भय, हम डरे हुए हैं और डरने में हम किसी का Page 60 of 150 http://www.oshoworld.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज भी सहारा चाहते हैं। कहते हैं ना आदमी डूवता हो तो तिनके का भी सहारा पकड़ लेता है। फिर इसी भय में वह कहता है कि, 'मेरे गुरु वहुत महान गुरु हैं, इसलिए नहीं कि उसको पता चल गया है कि वह महान हैं। बल्कि अपने को समझाता है कि अगर म हान नहीं हैं तो मैं डूवा, तो अपने गुरु को महान वताता है, अपने तीर्थांकर को श्रेष ठ बताता है। अपने अवतार को असली बताता है। दूसरों के अवतारों को नकली व ताता है क्योंकि वह यह कह रहा है कि मेरी सुरक्षा मजबूत होनी चाहिए जो मैंने प कड़ा है वह सच्चा और खरा है। वह आंख बंद करके पकड़ता है। वह आंख बंद कर के ही पकड़े रहता है। वह कभी आंख खोलकर देखता भी नहीं कि यह क्या हो रहा है? वह देख भी नहीं सकता। वह डरा हुआ है वह खुद ही डरा हुआ है वह आंख खोलकर देखेगा तो एक आदमी पाएगा अपने ही जैसा जिसके वह चरण पकड़े हुए है और भगवान समझे हुए है। लेकिन वह आंख नहीं खोलेगा, और आप आंख खोलने को कहेंगे तो वह नाराज होग । भय भीतर है। अगर आप आंख खोलकर देखने को कहते हैं तो खतरा है कि कह गुरु विलीन न हो जाए। कहीं भगवान खो ना जाए, कहीं मूर्ति ना मिट जाए, कहीं मंदिर खो ना जाएं, कहीं प्रार्थनाएं भूल ना जाएं फिर क्या होगा मैं तो अकेला हूं। लेकिन सच यह है कि आप अकेले ही हैं। इस सत्य को झूठलाने से कुछ भी ना होग Tआदमी अकेला है आदमी बिलकुल अकेला है और कोई सहारा नहीं है और जिंद गी असुरक्षा है। और सब सुरक्षाएं काल्पनिक इमेजिनरी हैं। यह सत्य जितना स्पष्ट ह ो जाए, और इस सत्य की जितनी स्वीकृति हो जाए आदमी उतना ही भय से मुक्त हो जाता है। और जब आदमी भय से मुक्त हो जाता है तो पुराने से मुक्त हो जाता है। और जब आदमी भय से मुक्त हो जाता है तो शास्त्रों से मुक्त हो जाता है। और जब आदमी भय से मुक्त हो जाता है तो गुरुओं से मुक्त हो जाता है। और जव आदमी भय से मुक्त हो जाता है तो समाज, परंपरा रूढ़ियां उनसे मुक्त हो जाता है। और जिसकी प्रतिभाएं इन सबसे मुक्त हैं पहली बार उस इनटेलीजेंस का, उस चेतना का, उस बुद्धिमत्ता का जन्म होता है जो सत्य को जान सकती है। उस बुद्धिमत्ता का, उस वि जिडम का जन्म होता है जो जीवन की हर समस्या का साक्षात्कार कर सकती है उस सजगता को उस बोध का जन्म होता है जिस वोध की अग्नि में जीवन की कोई चिंता नहीं दिखती हर चिंता का अतिक्रमण हो जाता है। और वैसा अतिक्रमण अग र चेतना प्रतिभा ना कर पाए, तो जीवन एक बोझ है, जीवन एक भार है, जीवन एक दुःख है। दुःख होगा ही क्योंकि हम गलत, हम बिलकुल ही गलत, हम बिलकुल ही काल्पनिक, हम बिलकुल ही झूठी दुनिया में खो गए हैं जो है ही नहीं। भारत की पूरी चेतना पीछे की तरफ देख रही है भविष्य के भय के कारण। भारत की पूरी चेतना गुरुओं को पकड़े हुए है। अकेले होने के डर के कारण पति पत्नी को पकड़े हुए है। पत्नी पति को पकड़े हुए है। दोनों अकेले हैं दोनों डरे हुए है दोनों एक दूसरे Page 61 of 150 http://www.oshoworld.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हुए हैं । गुरु भी डरा हुआ को पकड़े हुए हैं। और कोई भी नहीं पूछ रहा कि दो डरे हुए आदमी अगर इकट्ठे हो जाएं तो डर दुगना हो जाता है। आधा नहीं । गुरु शिष्यों को पकड़े हुए हैं, शिष्य गुरुओं को पकडे है कि अगर शिष्य खो गए तो मैं अकेला पड़ जाऊंगा । तो गुरु भी संख्या रखता है कि कि तने अपने शिष्य हैं । एक शिष्य खोने लगता है तो मन को बड़ी पीड़ा होती है। जैसे एक ग्राहक को खोते देखकर दूकानदार दुःखी होता है, एक शिष्य को खोते देखकर गुरु दुखी होता है। शिष्य को डर लगता है कि कहीं गुरु ना छोड़ दे और दोनों डरे हुए एक दूसरे को पकड़कर भीड़ किए हुए हैं। और यह भीड़ करीब-करीब वैसी ही है जैसे कोई नाव डूब रही है। और डूबती हुई नाव में सारे लोग एक ही तरफ एक ही कोने में दौड़कर इकट्ठे हो जाएं। उनके दौड़ने और इकट्ठे होने से नाव बचेगी नह ळीं, जल्दी डूबेगी। वह अकेले अकेले खड़े रहें नाव पर तो नाव बच भी सकती है, लेकिन जहां सब भा ग रहे होंगे वहीं नाव के सारे यात्री भागेंगे और एक ही कोने में सब एक दूसरे को पकड़ कर करीब करीब खड़े हो जाएंगे। जैसे करीब करीब खड़े होने से अकेलापन मटता है किसी को कितना ही छाती से लगा लो। फिर भी अकेलापन नहीं मिटता जसे छाती से लगाया वह भी अकेला है । जिसने लगा लिया वह भी अकेला है। अके लापन नहीं मिटत, सिर्फ भ्रम पैदा होता है कोई सांस है। कोई सांस नहीं है। और जो आदमी इस सत्य को समझ लेता है कि कोई साथ नहीं है टोटल एलोन । टो टली एलोन समग्री भूतरूप अकेला हूं। इस बात की पूरी पूरी समझ और इस अके लेपन से बचने के सब उपाय झूठे हैं कोई उपाय कारगर नहीं हैं। जिस दिन यह सम झ पूरी साफ हो जाती है उसी दिन आदमी भय से मुक्त हो जाता है। उसी दिन अ भय को उपलब्ध हो जाता है, वह उसी दिन भविष्य के लिए उन्मुख हो जाता है, व ह उसी दिन नए के लिए स्वागत का द्वार खुल जाता है, उसी दिन जीवन को जीने की क्षमता, साहस, एडवेंचर, अभियान शुरू हो जाता है। एक व्यक्ति के लिए भी यह सच है । एक समाज के लिए भी यही सच है, चेतना मु क्त होनी चाहिए भय से । लेकिन भय से हम मुक्त नहीं हैं। और इस लिए हम अती त से बंधे हैं। एक बात मौलिक कारण जो है वह सुरक्षा का आग्रह है । और सुरक्षा का आग्रह भयभीत आदमी की मांग है। और भयभीत आदमी कितनी ही सुरक्षा करे कुछ हो नहीं सकता, सब सुरक्षा और भयभीत करेगी, फिर और सुरक्षा करनी पड़े गी, फिर और सुरक्षा करनी पड़ेगी । रविंद्रनाथ के घर में कोई सौ लोग थे। बड़ा परिवार था । मनों दूध आता था, रविंद्रन नाथ के एक भाई थे। उन्होंने देखा कि दूध में पानी मिल कर आता है। तो उन्होंने ए क नौकर रखा और कहा कि, 'दूध का निरीक्षण करो । पानी मिला दूध घर ना आने पाए।' लेकिन घर के लोग हैरान हुए जिस दिन से नौकर रखा उस दिन से दूध में और ज्यादा पानी आने लगा। क्योंकि उस नौकर का हिस्सा भी जुड़ गया Page 62 of 150 http://www.oshoworld.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज जट्टी थे उन्होंने उसके ऊपर एक सुपरवाईजर रखा। लेकिन घर में और हैरानी हई द ध में और ज्यादा पानी आने लगा, क्योंकि सुपरवाईजर का हिस्सा भी जुड़ गया। रविंद्रनाथ के पिता ने उन्हें बुलाकर कहा कि, 'अब और चीफ सुपरवाईजर रखने का इरादा तो नहीं है।' रविंद्रनाथ के भाई ने कहा, 'मेरा तो इरादा है। मैं तो किसी त रह इस इस पानी को आने से रोकंगा।' एक और आदमी को जो निकट परिवार से संी धत है उनको चीफ सपरवाइजर रखा। उसी दिन पानी में एक मछली भी आ गई । रविंद्रनाथ के पिता ने कहा, 'सबको विदा कर दो, क्योंकि जिस बात की सुरक्षा के । तुम उपाय कर रहे हो, वह सब उपाय और सुरक्षा मांगेंगे, फिर और सुरक्षा मा गेंगे, फिर और सुरक्षा मांगेंगे। और इसका कोई अंत नहीं है।' आदमी जो इंतजाम करता है पहले वह धन कमाता है कि धन से भय से मुक्त हो जाएगा। मेरे पास धन है फिर धन है इसका भय पैदा हो जाता है कि कहीं चोरी ना चला जाए धन, तो तिजोरी खरीद कर लाता है। तिजोरी में ताले लगाता है। फिर डरता है कि यह चावी चोरी ना चली जाए। फिर रात भर सोता नहीं, फिर इस । चावी की फिक्र करता है, फिर घर पर पहरेदार रखता है, फिर डर लगता है कि क ही पहरेदार ही भीतर घुसकर बंदूक छाती से ना लगा दे। और यह डर चलता चला जाता है। और यह इंतजाम, यह इंतजाम, और यह इंतजाम होता चला जाता है। स्टेलिन और हिटलर के संबंध में कहा जाता है, उन्होंने अपने डवल रख छोड़े। स्टेलि न ने एक आदमी रख छोड़ा था जो स्टेलिन जैसा दिखाई पड़ता था। और अब यह व डे मजे की वात है आदमी नेता होना चाहता है इसलिए कि हजारों लाखों लोगों की भीड़ उसे स्वागत करे। लेकिन जब हजारों लाखों लोगों की भीड़ उसे स्वागत करती तो डर पैदा होता है कि कोई गोली ना मार दे। तो स्टेलिन ने एक आदमी रख छो. डा था जो स्टेलिन जैसा दिखाई पड़ता था स्टेलिन अपने कमरे में बंद रहता और जब हजारों लोगों की भीड़ में जाना पड़ता तो वह नकली स्टेलिन हाथ जोड़कर वहां ख. डा रहता स्वागत करता। क्योंकि कोई गोली मार दे तो नकली आदमी मरे। किस लिए यह भीड़ इकट्ठी की थी? यह भीड़ इसलिए इकट्ठी की थी कि कभी हजार लोग सम्मान देंगे, उसका मजा लेंगे, और जो भी भीड़ इकट्ठी कर लेता है फिर भी ड से बचना पड़ता है। फिर पहरेदार इकट्ठे करने पड़ते हैं। फिर राष्ट्रपति के आस पा स बंदूकें चल रही है कि कहीं कोई मार ना दे। कहीं कोई पत्थर ना फैंक दे, फिर खतरा बढ़ता चला जाए। तो फिर असली राष्ट्रपति नहीं चलेगा घोड़ा गाड़ी में, नक ली राष्ट्रपति चलेगा असली राष्ट्रपति घर के भीतर बंद रहेगा। हिटलर ने मरते दम तक शादी नहीं की। मरने के दो घंटे पहले शादी की। क्योंकि हटलर इतना भयभीत था कि पता नहीं पत्नी जहर दे दे। सब पर तो पहरा रखोगे, पत्नी पर कैसे पहरा रखोगे? पत्नी तो उसी कमरे में सोएगी जिसमें आप सोते हो। रात को उठे और गर्दन दवा दे, कोई पत्नी को मिला ले, विश्वास नहीं किया जा सकता किसी दूसरे का। तो हिटलर ने शादी नहीं की। जिस स्त्री से उसका प्रेम चल ता था वारह वर्षों से वह उसका टालता रहा, कि अभी मुझे फूर्सत नहीं है, कुछ लो Page 63 of 150 http://www.oshoworld.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज गों को प्रेम करने की फूर्सत भी नहीं होती । क्योंकि दूसरे इतने जरूरी काम मालूम प डते हैं। टालता रहा, जिस दिन वार्लिन बम गिरने लगे और जिस दिन हिटलर जहां छिपा था नीचे जमीन में उसके बाहर गोलियां चलने लगीं, तब उसने खबर भेजी कि तू जल्दी आजा और पुरोहित को ले आ हम विवाह कर लें। क्योंकि अब कोई खत रा नहीं है अब मौत सामने ही आ गई है। मरने के दो घंटे पहले एक कलघरे में ए क कोई भी आदमी को पुराहित को नींद से उठा कर बुला लिया गया। और दोनों का विवाह करवा दिया उसने। और दो घंटे बाद दोनों ने जहर खाकर गोली मार दी | आदमी जीवन से इतना भयभीत हो सकता है और इंतजाम किस लिए करता है। अ और इंतजाम इसलिए करता है कि भय के बाहर हो जाए और सारे इंतजाम और भ य में गिराते चले जाते हैं। वही आदमी भय के बाद होता है जो अकेले होने की स्थि ति को स्वीकार कर लेता है। वही आदमी सुरक्षित होता है। जो इनसिक्योरिटी को, असुरक्षा को अंगीकार कर लेता है वही आदमी मृत्यु के भय के ऊपर उठ जाता है जो मृत्यु को जीवन का अंग मान लेता है। मान नहीं लेता, जान लेता है कि मृत्यु जीवन का अंग है बात खत्म हो गई। जीवन की जो तथाता है, सचनैस है, जीवन जैसा है उससे बचने का उपाय मत रए। जीवन से कैसे बच सकते हैं ? जीवन जैसा है उस जीवन के साथ वहा जा सक ता है। बचा नहीं जा सकता। बहने की कोशिश में जीवन खो जाता है। हमारे चित्त ने जीवन खो दिया। हम जीवन की धारा से बहुत पीछे खड़े हैं। एक क्षण में हम जी वन की धारा में आ सकते हैं। लेकिन भय क्या है, सुरक्षा की कामना क्या है तो य ह हो सकता है। और हमारी परंपरावादीता हमारा पुराण पंथ, हमारी पुरानी किताब पुराना गुरु हमारा उसके चरणों को पकड़े चले जाना, हमारे सिर्फ भयभीत होने क सबूत है। , यह दूसरा सूत्र आपसे कहना चाहता हूं भारत की प्रतिभा को भय का पक्षाघात है पै रालीशिस लगा हुआ है। भारत की प्रतिभा भयभीत है। वह अभय नहीं है । इसलिए वह कुछ भी जानने से डरती है । वह कुछ भी जानने से डरती है। और जहां जहां उ से डर लगता है कि कोई नई बात जानी जाएगी वहां वह देखती ही नहीं। वहां वह आंख ही नहीं उठाती। वहां से वह अपने को बचा लेती है भूल जाती है। अपने भीत र भी वह वह नहीं देखना चाहता, जिससे डर हो सकता है। वह आंख चुरा लेता है, वह भजन कीर्तन करने लगता है, वह भुला देता है कि होगा कुछ हमें मतलब नहीं है। वह धीरे-धीरे इतना भूल जाता है कि खुद का जो असली है वह छिप जाता है और खुद का जो असली है वह नकली मालूम पड़ने लगता है । हम सब नकली आदमी हैं | मैंने सुना है कि एक खेत में एक नकली आदमी खड़ा था। सभी खेतों में नकली आदमी खड़े हैं, ऐसे तो दूकानों में दफ्तरों में, आफिसों में सब जगह नकली आदमी खड़े हैं। लेकिन उनको पहचानना जरा मुश्किल है। क्योंकि वह चलते-फिरते हैं, बात Page 64 of 150 http://www.oshoworld.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज चीत करते हैं, वह खेत में नकली आदमी सब पहचान लेते हैं। डंडा गढ़ा है, हांडी लगी है, कुर्ता पहना हुआ है। वह खेत में किसान लगाए हुए है जानवरों को डराने के लिए है। एक दार्शनिक खेत के नकली आदमी के पास से गुजरता था । अनेक बार गुजरा था वर्षा, धूप, गर्मी, रात, दिन वह नकली आदमी वहीं अकड़कर खड़ा रहता था । नक ली आदमी हमेशा अकड़े हुए रहते हैं। क्योंकि अगर अकड़ चली जाए तो कहीं नकल ना खुल जाए । तो जहां भी अकड़ा हुआ देखें तो समझना कि नकली आदमी है। औ र नकली आदमी अकड़ की जगह की तलाश में रहता है। ऐसी कुर्सी मिलनी चाहिए जिस पर अकड़कर बैठ सके। तो वह दिल्ली तक की यात्रा करता है, वह सब नक ली आदमियों की यात्रा है । वह खेत में नकली आदमी खड़ा है वह कई दफा दार्शनि क वहां से निकला है। कई दफा उसका मन हुआ कि इस मूर्ख से पूछे, 'तू अकेला खड़ा रहता है। कभी घबराता नहीं, उवता नहीं, बोरडम नहीं मालूम पड़ती, ना को ई संगी ना कोई साथी वर्षा आती है, धूप आती है तू खड़ा ही रहता है, तूझे मजा क्या है। और जब भी मैं निकलता हूं तू अकड़ा रहता है और ऐसा लगता है कि बड़ खुश है। एक दिन हिम्मत जुटा कर वह दार्शनिक उसके पास गया । दार्शनिक को हिम्मत जुटा नी पड़ती है। क्योंकि नकली आदमियों से प्रश्न पूछना बड़ा खतरनाक है। क्योंकि नक ली आदमी नाराज हो जाता है। क्योंकि उसने सभी प्रश्नों के झूठे उत्तर मान रखे हैं । अगर आप उससे प्रश्न पूछिए तो उसके झूठे उत्तर खिसकने लगते हैं। तो वह कहत है कि प्रश्न पूछो ही मत नकली आदमी सिर्फ उत्तर की मांग करता है प्रश्न की क भी मांग नहीं करता। जो आदमी उससे प्रश्न पूछता है वह कहता है गोली मार देंगे। सुकरात को इसीलिए तो जहर पिला देता है। क्योंकि सुकरात नकली आदमियों को सड़क पर पकड़ लेता है और कहता है रूको, मेरे प्रश्न का जवाब दो, और प्रश्न का जवाब नहीं और हर नकली आदमी समझता सब जवाब मेरे पास हैं । और जब पूछने वाला मिलता है तो जवाब वह जाते हैं पानी में जैसे नकली रंग कच्चा रंग ब ह जाता है। तो वह नकली आदमी था, दार्शनिक ने सोचा पूछूं या ना पूछूं कहीं नाराज ना हो ज ए लेकिन एक दिन सोचा कि चलो पूछ ही लूं, नाराज ही होगा, वह दार्शनिक उस नकली आदमी के पास गया और कहा, 'मेरे मित्र ! नकली आदमी ने गुस्से से देखा।' क्योंकि नकली आदमी किसी को मित्र देखना पसंद नहीं करता या तो आप उसके शत्रु हो सकते हैं, या उसके अनुयायी हो सकते हैं, नकली आदमी का मित्र कोई नह हो सकता। उसके शिष्य हो सकते हैं, शत्रु हो सकते हैं, नकली आदमी के मित्र न हीं हो सकते। हिटलर का कोई मित्र नहीं, मित्र बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। क्यों क मित्र जो है वह समान होने का दावा करता है, नकली आदमी किसी को समान नहीं मानता। Page 65 of 150 http://www.oshoworld.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज उसने कहा, 'मित्र! तुमसे मेरी क्या मित्रता है?' फिर भी उसने कहा, 'मैंने सिर्फ सं वोधन किया नाराज मत हो जाओ! मझे कछ सझा नहीं इसलिए मैंने यह संवोधन किया। यह सवाल महत्त्वपूर्ण नहीं है मैं तो कुछ और पूछने आया हूं। मैं यह पूछने आया हूं, वर्षा, धूप, रात दिन तुम अकेले खड़े रहते हो, ऊब नहीं जाते, घबरा नहीं जाते, वेचैन नहीं हो जाते।' वह नकली आदमी खिल-खिलाकर हंसने लगा। उसने कहा, 'बेचैन, ऊब, अरे! बड़ा आनंद है यहां। दूसरों को डराने में बड़ा आनंद आता है। पक्षी डर कर भागते हैं बहुत मजा आता है, जानवर डर कर भागते हैं बहुत म जा आता है, दूसरों को डराने में बहुत आनंद है, एक दम आनंद ही आनंद है।' उस दार्शनिक ने कहा कि, 'तुम ठीक कहते हो। नकली आदमियों को सिर्फ दूसरों क से डराने में ही आनंद आता है। और कोई आनंद नहीं आता। अपने पास बड़ी तिजो री है छोटी तिजारी वाला डर जाता है। अपने पास बड़ा मकान है, छोटा मकान वा ला डर जाता है। अपने पास दिल्ली का पद है, पूना का पद वाला डर जाता है। न कली आदमी को दूसरे को डराने में मजा आता है। उसका आनंद सिर्फ एक है, दूस रे को भयभीत। और ध्यान रहे जो आदमी दूसरे को भयभीत करने में आनंदित होत । है वह आदमी स्वयं भयभीत होना चाहिए। अन्यथा यह आनंद असंभव है। जो भय भीत है वही भयभीत करके आनंदित देता है, क्यों? क्योंकि जब वह दूसरे को भयभ ति कर देता है, तो उसे विश्वास आता है कि अब मैं भयभीत नहीं हूं। जव वह दूस रे को डरा देता है तो वह कहता है, 'बिलकुल ठीक, मुझसे दूसरे डरते है मुझे डरने की क्या जरूरत है।' वह डराने के लिए है। किसी से ना डरने के लिए है । लेकिन चाहे डराने के लिए त लवार हो, चाहे ना डरने के लिए तलवार हो तुम डरे हुए आदमी हो। तलवार हर हालत में सिद्ध करती है। उस दार्शनिक ने कहा, 'बिलकुल ठीक कहते हो नकली आदमी सदा दूसरों को डराने में आनंद लेते हैं।' वह फिर खिल-खिलाकर हंसने लगा। और उसने कहा कि, 'तुम ने कभी कोई असली आदमी भी देखा। उस दार्शनिक से उस नकली आदमी ने पूछा , खेत पर तुमने कभी असली आदमी भी देखा।' उस नकली आदमी ने कहा, 'मुझे तो बड़ी हैरानी होती है, कि मुझे लोग नकली कहते हैं। मैंने तो सब आदमी ऐसे ह देखे हैं। हां, थोड़ा फर्क है कि मैं जरा चल फिर नहीं सकता। लेकिन चल फिर क र तुम करते क्या हो दूसरों को डराते ही हो ना, मैं बिना ही चले फिरे डरा लेता हूं । तो फर्क क्या है? जो काम मैं बिना चले कर लेता हूं वह तुम चल-फिर कर कर ते हो ना तुम्हारी सारी स्पीड, तुम्हारे यान, तुम्हारा चांद तक जाना, चांद तक जाने के लिए है कि किसी को डराने के लिए।' वह जो रूस के यान चांद की तरफ भाग रहे हैं और अमरीका के वह चांद तक जा ने के लिए है चांद को ना रूस से मतलव ना अमरीका को रूस अमरीका को डराना चाहता है, अमरीका रूस को डराना चाहता है। जो पहले पहुंच जाएगा वह डराने में समर्थ हो जाएगा। सारी गति डराने के लिए चल रही है। उस नकली आदमी ने Page 66 of 150 http://www.oshoworld.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज कहा, 'तुम्हें कभी कोई असली आदमी मिला ।' उसका उत्तर वह दार्शनिक नहीं दे स का है। आपसे भी पूछा जाए तो उत्तर बहुत मुश्किल है । असली आदमी मिलना बहु मुश्किल है। असली आदमी वही हो सकता है जो जीवन की तथता को वह जो ज जीवन की सैक्टिशीटी है वह जो जीवन की सचनैश है जीवन जैसा है उसको वैसा स्वी कार करता है ना भयभीत है ना सुरक्षा की खोज में है ना चिंता में है । जीवन जैसा है जन्म है तो जन्म, मृत्यु है तो मृत्यु, स्वास्थ्य है तो स्वास्थ्य, बीमारी है तो बीमा री उसको अंगीकार करता है। जीवन की प्रत्येक स्थिति का जिसके मन में स्वीकार है और नए अज्ञान अपरिचित रास्तों पर जाने की जिसकी हिम्मत है जो डरा हुआ नहीं है वही आदमी आथेंटिक असली हो सकता है, प्रमाणिक हो सकता है। भारत न कली आदमियों की जमात हो गया है क्योंकि भारत ने पुरातन परंपरा को पकड़कर असली आदमी को पैदा होने की व्यवस्था बंद कर दी है । यह दूसरा सूत्र है जो पुरातन से बंधा है वह नकली आदमी है। जो अतीत से बंधा है वह भयभीत है और भयभीत आदमी कभी असली आथेंटिक प्रमाणिक नहीं हो सक ता। भारत की आत्मा आथेंटिक नहीं रह गई प्रमाणिक नहीं रह गई। अप्रमाणिक हो गई हैं। और फिर दूसरी जितनी अप्रमाणिकता पैदा हुई है इसी से पैदा हुई है। और जब तक यह अप्रमाणिकता नहीं मिटती है तब तक और किसी तरह की अप्रमाणि कता नहीं मिट सकती क्योंकि वह इसकी बाई प्रोडेक्ट है वह इससे आएगी। कल सुबह तीसरे सूत्र पर आपसे बात करूंगा, मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना उससे अनुग्रहित हूं। और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करत हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें। ओशो नए भारत की खोज टाक्स गिवन इन पूना, इंडिया डिस्कोर्स नं० ४ मेरे प्रिय आत्मन्, एक मित्र ने पूछा है. जैसा मैंने कहा, ‘सब आदमी नकली हैं।' उन मित्र ने पूछा है, 'कि नकली कौन है ? असली कौन है? हम कैसे पहचानें पहली तो बात यह है। दूसरे के संबंध में सोचें ही मत कि वह असली है या नकली । सिर्फ नकली ही आदमी दूसरे के संबंध में इस तरह की बातें सोचता है। अपने संबं ध में सोचे कि मैं नकली हूं या असली । और अपने संबंध में सोचना ही संभव है अ और जानना संभव है। इसलिए पहली बात है हमारा चिंतन निरंतर दूसरे की तरफ ल Page 67 of 150 http://www.oshoworld.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज गा होता है। कौन दूसरा कैसा है। नकली आदमी का एक लक्षण यह भी है। स्वयं के संबंध में नहीं सोचना और दूसरों के संबंध में सोचना। असली सवाल यह है कि मैं कैसा आदमी हूं। और इसे जान लेना बहुत कठिन नहीं क्योंकि सबह से सांझ तक जन्म से लेकर मरने तक मैं अपने साथ जी रहा है। और अपने आप को भलीभांति जानता हूं। ना केवल दूसरों को. . . मेरी जो असली शक्ल है वह मैंने छिपा रखी है। और जो मेरी शक्ल नहीं है वह मैं दिखा रहा हूं वह मैने बना रखा है। दिन भर में हजार बा बदल जाते हैं। असली आदम तो वही होगा सूबह भी सांझ भी, हर घड़ी वही होगा जो है। लेकिन हम, हम अ लग नहीं वही होते हैं जो हम नहीं हैं। एक फकीर था नसरूदीन। एक सम्राट की पत्नी से उसका प्रेम था। एक रात वह अप नी प्रेमिका से विदा हो रहा है। और उसने उस स्त्री को कहा, 'तुझसे ज्यादा सुंदर स् त्री पृथ्वी पर दूसरी नहीं है। और मैंने सिर्फ तुझे ही चाहा है। मेरे कानों में बस तेरे अतिरिक्त और किसी की कामना और अकांक्षा नहीं है। वह स्त्री आनंद से भर गई। उसकी आंखें खुशी से भर गई, और तभी उस फकीर ने कहा, 'ठहर, ठहर मैं तुझे यह भी बता दूं यही बात दूसरी स्त्रियों से भी मैं कहता रहा हूं।' यह फकीर अद्भुत आदमी रहा होगा। और इस क्षण में इसने अपने नकलीपन को भ पहचाना होगा। और अपने असलीपन को भी जाहिर करने की हिम्मत की है। हम सव पहचानते हैं कि हम नकली हैं। हम जैसे दिखाई पड़ते हैं वैसे हैं, यह किसी दूस रे के संबंध में सोचने का सवाल नहीं है। क्योंकि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे के भी तर प्रवेश नहीं कर सकता बाहर से ही देख सकता है। वाहर से जो दिखाई पड़ता है वही हम देख सकते हैं। लेकिन अपने तो हम भीतर जा सकते हैं। वहां तो हम देख सकते हैं हम कौन हैं। एक आदमी मंदिर में वैठकर माला जप रहा है, भगवान का नाम ले रहा है। वाहर से दिखाई पड़ता है वह माला जप रहा है भगवान का नाम ले रहा है। धार्मिक पूजा और प्रार्थना में तल्लीन है। हम तो बाहर से इतना ही देख सकते हैं। लेकिन वह अ दिमी भीतर से देख सकता है कि वह क्या कर रहा है? यह माला मंत्र की तरह हा थ फेर रहे हैं। यह राम का जप हाथों पर मशीन की तरह हो रहा है। भीतर क्या हो रहा है वह आदमी सच में क्या कर रहा है? मैंने सुना है एक आदमी अपनी पत्नी से निरंतर कहता था कि कभी मेरे गुरु के पास चल वह परमसाधु हैं। उनसे मुझे जीवन मिला शांति मिली भगवान का रास्ता मिल T। वह पत्नी हंसती और बात टाल देती। आखिर उस आदमी ने अपने गुरु को कहा कि, 'आप कभी आए और मेरी पत्नी को समझाएं उसका जीवन नष्ट हुआ जा रह [ है वह नर्क के रास्ते पर है। एक दिन सुबह पांच बजे वह गुरु उस शिष्य के घर प हुंचा। उसका शिष्य मंदिर में बैठकर, घर के सामने ही घर के बगीचे में ही मंदिर ब ना रखा है उसमें बैठ कर राम-राम जप रहा है माला फेर रहा है। Page 68 of 150 http://www.oshoworld.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज गरु ने जाकर मकान का दरवाजा खटखटाया पत्नी ने द्वार खोला और पत्नी से उसने पछा कि. 'मेरा शिष्य कहां है?' उसकी पत्नी ने कहा जानकर 'मैं समझती हं आ पका शिष्य बाजार पहुंच गया है। और एक जूते की दुकान से जूते खरीद रहा है। अ और उसका जूता खरीदने में झगड़ा हो गया, और उसने चमार की गर्दन दबा ली। उ सका पति बगल के मंदिर में बैठा यह सब सन रहा है। वह बाहर निकलकर आ गय । उसने कहा, 'सरासर झठ है यह बात। मैं मंदिर में प्रार्थना कर रहा है। अभी वा जार भी नहीं खुला है अभी दुकानें भी नहीं खुली हैं और यह मेरी पत्नी झूठ बोल र ही है।' उसकी पत्नी ने. . . . उसके गुरु ने भी कहा कि, 'हैरानी की बात है, तेरा पति मं दर में पूजा कर रहा है। उसकी पत्नी ने कहा, 'आप मेरे पति से पूछिए सच में व ह क्या कर रहा है?' और उसका पति हैरान हो गया है। सच में ही पूजा तो वह व हर से कर रहा था। लेकिन पहुंच गया था वह एक जूते की दुकान पर। जूता खरीद रहा था और दाम घटाने बढ़ाने पर झगड़ा हो गया और चमार की गर्दन पकड़ ली। लेकिन उसने पूछा, 'तुझे कैसे पता चला। उसने कहा, 'रात सोते वक्त तुमने मुझ से कहा था कि सुबह उठकर ही जूते खरीदने जाना है। जहां तक मेरा अनुभव है रा त के सोते समय जो अंतिम विचार होता है सुबह उठते समय वही पहला विचार हो ता है।' तो मैंने सोचा कि शायद तुम बैठे तो माला जप रहे हो, लेकिन तुम्हारे चेहरे से ऐसा लग रहा था कि तुम किसी से झगड़ रहे हो। तो मैंने सोचा कि कहीं जूते की दूका न पर तो नहीं पहुंच गए हो। वह नकली आदमी मंदिर में पूजा कर रहा था असली आदमी चमार की गर्दन दवा रहा था। लेकिन इसे वाहर से जानना पहचानना बहुत मुश्किल है। अनुमान लगाए जा सकते हैं लेकिन अनुमान गलत भी हो सकते हैं। ह र आदमी को स्वयं को जानना पड़ेगा, कि मैं कितना असली हूं कितना नकली हूं। य ह चौवीस घंटे का परिक्षण है जन्म से लेकर मृत्यु तक का। अंतहीन परिक्षण है आवजरवेशन हैं कि मैं क्या हूं और ध्यान रहे जितना नकली आ दमी हमारे ऊपर बढ़ता चला जा रहा है। जीवन उतना ही दु:ख होता चला जाता है | अगर जीवन दु:ख हो तो जानना कि नकली आदमी भारी हो गया है। एक ही जां च की छोटी है सिर्फ नकली जब हमारे ऊपर बहूत बोझिल हो जाता है। तो दु:ख अ और चिंता और पीड़ा और उदासी छा जाती है। और जब असली प्रकट होता है तो f जदगी में बहुत सुगंध, बहुत संगीत, वहुत आनंद भजन होता है। हमारा दुःख देखकर कहा जा सकता है कि हम सब नकली हो गए हैं। ऊपर से आदमी दिखाता है कि अहिंसक है। और भीतर हिंसा होती है, ऊपर से आदमी दिखाता है कि मैं त्याग कर रहा हूं, और भीतर त्याग में भी लोभ होता है। रामकृष्ण के पास एक दिन एक आदमी आया। तो उसने कहा, 'मैं हजार स्वर्ण मुद्रा एं लाया हूं। हे परमहंस! इन हजार स्वर्ण मुद्राओं को रखो।' और उसने जोर से थैली खोल कर पत्थर पर, वह स्वर्ण मुद्राएं पटकी। राम कृष्ण ने कहा, 'मेरे भाई! धीरे Page 69 of 150 http://www.oshoworld.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज से रख दो, इतने जोर से क्या पटकते हो कि पड़ोस के लोगों को आवाज सुनाई पड़ जाए।' अब दान अगर धीरे से करो तो मजा ही चला जाता है। तो दान तो आदम ऐसे करता है कि सारा गांव सुन ले । इतने जोर से रुपए पटकता है कि सारा गांव सुन ले। वह आदमी चौंका होगा। लेकिन रामकृष्ण ने उसके नकली पन को पकड़ लया है। फिर भी वह कहने लगा कि नहीं भूल से गिर गई । वह झूठ बोल रहा है। फिर रामकृष्ण ने कहा कि, 'मैं क्या करूंगा इन रुपयों का ? स्वर्ण मुद्राएं है हजार हैं तुम एक काम करो तुम इनकी गठरी बांध लो और जाकर गंगा में डाल आओ । नी चे ही गंगा बहती है। पास ही सीढ़ियां उतरे और वह गंगा में डाल आए। अब राम कृष्ण को दे चुका था। इस लिए मना भी नहीं कर सकता था, गया मजबूरी थी कन बहुत देर हो गई लौटा नहीं। रामकृष्ण ने एक आदमी को भेजा, जाकर देखो उ स आदमी का क्या हुआ ? उस आदमी ने लौट कर कहा कि, 'वह आदमी एक - एक रुपए को बरसाता है गिन रहा है, और एक एक रुपए को फेंक रहा है। और वहां ब. भीड़ इकट्ठी हो गई।' फिर वह आदमी लौटा। रामकृष्ण ने कहा, 'तू बड़ा पागल है, आदमी धन इकट्ठा करता है तो गिनकर इकट्ठा करना पड़ता है। लेकिन जब गंगा में फैंकने गया तो गिन कर फेंकने की क्या जरूर त थी। गिनकर तो बचाया जाता है, गिनकर फैंका नहीं जाता। तो तू ऊपर से तो फैंक रहा था, और भीतर से बचा रहा होगा। नहीं तो गिनती क्यों करता। ऊपर से ही दिखाई पड़ रहा था वह देख रहा है । और भीतर से वह बचाने में लगा था। वह लोग जो मंदिर बना रहे हैं बाहर से लगता है दान कर रहे हैं भीतर से वह स्व र्ग में रिर्जवेशन कर रहे हैं, संरक्षण कर रहे हैं, वहां इंतजाम कर रहे हैं। यहां लगत कि वह दान कर रहे हैं। वह वहां कमाई कर रहे हैं। यहां लगता है वह दे रहे हैं वह इनवेस्ट कर रहे हैं। वह वहां आगे लेना चाहते हैं। T एक आदमी घर छोड़ देता है त्यागी हो जाता है। सब छोड़ देता है लेकिन पूछो उस की आत्मा में प्रवेश करके उसने कुछ भी नहीं छोड़ा है, छोड़ा है इसलिए है मल सके और ज्यादा मिल सके और किताबें कहती है कि जो एक छोड़ेगा उसे हजा र मिलेंगी। आदमी एक छोड़ता है के हजार मिल सकें। बाहर त्यागी हैं, भीतर भोगी बैठा हुआ है। बाहर छोड़ने वाला है भीतर पकड़ने वाला बैठा हुआ है। लेकिन यह कौन पहचानेगा। एक आदमी बाहर से सफेद कपड़े पहने हुए है और अगर कपड़े खा हों तो और भी अच्छा है। और भीतर भीतर एक बिलकुल काला आदमी बैठा हुआ है। सच तो यह कि सफेद कपड़े में काला आदमी भी अपने को छिपाने की कोशिश क र रहा है। वह भीतर काला वह सफेद कपड़े पहन रहा है । और सफेद कपड़े वालों के हाथ में कोई कौम और समाज चला जाए तो बड़ा खतरा हो जाता है इस मुल्क के साथ हो ही गया है। कपड़े सफेद हैं आदमी काले हैं। लेकिन हम तो जान ही स कते हैं कि मैं भीतर कैसा आदमी हूं। मैं वाहर जैसा हूं वहीं मैं स्त्रों से दिखाई पड़ता है वही मेरी आत्मा है। लेकिन नहीं जब भीतर हूं। जो मेरे व यह कहता हूं तो Page 70 of 150 http://www.oshoworld.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लोग विचार करने लगते हैं पड़ोसी के बाबत कि वह कैसा है। जरूर सफेद कपड़े पह नता है भीतर काला आदमी होगा। हम सब पड़ोसी के संबंध में चिंतन करते हैं । विचारशील व्यक्ति अपने संबंध में चिंत न करेगा। क्योंकि पड़ोसी के संबंध में चिंतन करने से क्या प्रयोजन है, क्या अर्थ है ? हल तो एक ही हो सकता है कि मैं अपने संबंध में निरीक्षण करूं कि मैं कैसा आद मी हूं। और मैं आपसे कहना चाहता हूं अगर मैं निरीक्षण करूं और मुझे दिखाई पड़ जाएं कि मैं नकली आदमी हूं तो बदला है तर्कक्षण शुरू हो जाएगी कभी नहीं बढ़ेग TI इसीलिए हम निरीक्षण नहीं करना चाहते हैं क्योंकि निरीक्षण क्रांति की शुरूवात है। अगर मैं जान लूं कि मैं झूठा आदमी हूं तो इस झूठे आदमी के साथ जीना मुश्कि ल हो जाएगा। इस झूठे आदमी को बदलना ही पड़ेगा । इसलिए देखता ही नहीं अपनी तरफ, दूसरे की तरफ देखता हूं। आंखें सदा दूसरे की तरफ देखती रहती हैं। हम दूसरों की निंदा में इतने उत्सुक होते हैं आनंददीत होते हैं उसका कोई और कारण नहीं है। अपनी तरफ देखने से हम बचना चाहते हैं इस लए दूसरे की निंदा में संलग्न हो जाते हैं और ध्यान रहे चोर दूसरों की चोरी की नदा करता हुआ दिखाई पड़ेगा, बेईमान दूसरों की बेईमानी की निंदा करता हुआ दि खाई पड़ेगा, क्यों? अपनी बेईमानी को देखने से बचना चाहता है। हम सब अपने से बचना चाहते हैं। हम सब यह चाहते ही नहीं कि हमें दिखाई पड़ जाए कि हम कौन हैं ? नकली और असली कहीं और खोजने नहीं जाना है अपने ही भीतर खोज लेना है। व स्तुतः मेरे भीतर क्या है ? जब मैं एक भीखमंगे को दो पैसे दान करता हूं तो मेरे भ ळीतर भीखमंगे के प्रति दया है या चार लोग मुझे देख रहे होंगे कि मैं दो पैसे दान क रता हूं। यह भाव... इसलिए भीखमंगे आपसे अकेले में भीख मांगने में बहुत डरते हैं। चार मित्रों के साथ आप खड़े हों तो वह बिलकुल हाथ पैर जोड़कर खड़े हो जा एंगे। वह चार आदमियों की आंख में आपकी इज्जत का फायदा उठाना चाहते हैं, व ह भी जानते हैं कि आदमी कमजोर है कहां कमजोर है। कोई दया से कोई दान नह ीं करता। अहंकार की तृप्ति के लिए दान होते हैं। तो भीखमंगा देखता है कि जब आदमी सड़क पर हो चार आदमी देख रहे हों और इनकार ना कर सके तो पैसों के लिए तब हाथ फैला देता है। आपको अगर दया आ ए तो आप दो पैसे देकर मुक्त नहीं हो जाएंगे दया इतनी सस्ते में मुक्त नहीं हो स कती। अगर एक भीखमंगे पर दया आए, तो आप एक ऐसे समाज को बनाने की चेष् ठा करेंगे जहां भीख ना मांगी जा सके जहां कोई भीखमंगा ना हो। लेकिन अगर आ पको मजा आता है अहंकार का कि मैंने दिए दो पैसे एक गरीब आदमी को तो आप एक ऐसा समाज बनाएंगे जिसमें गरीबी रहे, भीखमंगा भी रहे नहीं तो आप कसको देंगे। मुझे खयाल आता है कि करपात्री जी ने एक है रामराज्य और समाज द्वार। उस किताब Page 71 of 150 किताब लिखी है उस किताब का नाम उन्होंने एक बहुत मजेदार बात लिखी http://www.oshoworld.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज है जो धार्मिक आदमी के ढोंग को खोल देती है। उसमें उन्होंने लिखा है कि, 'शास्त्र में में लिखा हआ है कि दान के विना मोक्ष नहीं और दान तो तभी हो सकता है ज व दान लेन वाले गरीब दुनिया में हों। इसलिए समाजवाद अधार्मिक है। क्योंकि समा जवाद से गरीब मिट जाएंगे और कोई दान लेने वाला नहीं होगा तो मोक्ष को कोई कैसे जा सकता है। समाजवाद के खिलाफ जो दलील वह दे रहे हैं वह बड़ी अदभुत है। वह यह कह रहे हैं कि गरीव रहना चाहिए भीखमंगा रहना चाहिए तो दया कै से करोगे और बिना दया के मोक्ष कैसे जाओगे? दुनिया में दया के लिए भीखमंगों का रखना बहुत जरूरी है। यह दयावान है जिसने दुनिया बनाई है जिसमें भीखमंगे पैदा हुए हैं और यह दयावान दो-दो पैसे देकर भीख मंगे को मिटा नहीं रहे हैं भीखमंगे को जिला रहे हैं। जिंदा रखना चाह रहे हैं। लेकि न कोई देखने नहीं जाता भीतर कि मेरे क्या है? एक तरफ मैं हजारों रुपए इकट्ठे करूं और दूसरी तरफ दो पैसे दान करूं और दयावान हो जाऊं, दानवीर हो जाऊं। यह धोखा है यह झूठा आदमी, और कहां खोजने जाना पड़ेगा कि झूठा आदमी हम देखें। हम अपने झूठे आदमी को सब तरह से जस्टीफाइ करते हैं उखाड़ते नहीं हैं। उसको सब तरह से न्याययुक्त ठहराते हैं। हम सब तरह की दलीलें खोजते हैं कि वह हमार । झूठा जो आदमी हमने ऊपर चढ़ा रखा है वही सच्चा है। और जब तक कोई आद मी इस कोशिश में लगा रहे कि अपने झूठ को ही सत्य सिद्ध करता रहे, अपने वस्त्र ों को ही कहे कि यह मेरी आत्मा है, तब तक वह आदमी धार्मिक नहीं हो सकता, उस आदमी के जीवन में वह क्रांति नहीं हो सकती जिसके आदमी के अंतिम परिणा म में प्रभु के मंदिर का द्वार खुलता है। झूठा आदमी प्रभु के मंदिर में प्रविष्ठ नहीं हो सकता। उस मंदिर में तो वह ही प्रविष्ठ हो सकते हैं जो सच्चे हैं अथेटिक हैं जो व ही हैं जो हैं। इस अर्थ में मैंने सुबह कहा कि, 'हम सब झूठे आदमी हो गए हैं, हमारा पूरा समाज झूठा हो गया। और जब मैंने यह कहा कि, 'मेरा मतलब यह नहीं था कि दूसरा झूठा हो गया, मेरा मतलब यह था कि हम झूठे हो गए हैं मैं झूठा हो गया हूं।' इस झूठ की खोज करनी चाहिए यह कौन बताएगा कि कैसे? हम खुद जानते हैं। हम भलीभांति पहचानते हैं, जब हम मुस्कराते हैं तो हमारी मुस्कराहट सच्ची है भीतर आग जल रही है और क्रोध जल रहा है। रास्ते पर एक आदमी मिलता है और हम कहते हैं आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई और भीतर मन कहता है इस दृष्ट का सुबह-सुबह से चेहरा कैसे दिखाई पड़ गया। अब कौन वताएगा कि झूठ है। आदमी कहां खोजने जाना है। घर में कोई मेहमान अ [ गया और हम कहते हैं कि बड़ा आनंद आ रहा कि आप आ गए। और प्राण संकट में पड़े हैं कि यह मेहमान आ कैसे गया पहले पता चला जाता तो ताला लगा कर कहीं खिसक गए होते, कहीं चले गए होते। लेकिन चूक हो गई। इसीलिए मेहमान को हम पुराने समय में अतिथि कहते थे अतिथि कहते थे। जो बिना तिथि की खबर Page 72 of 150 http://www.oshoworld.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज दिए घर पर हाजिर हो जाए। वताए ना कि किस तारीख को आ रहे हैं कब आ र हे हैं। क्योंकि बता दिया तो घर वाले समझेंगे बहत कम उम्मीद है कि वह घर में ि मलें। इसीलिए अतिथि कहते हैं उसे । विना तिथि वताए आ कर खड़े हो गए हैं। भीतर कछ और है बाहर कछ और है। एक वेटा जिंदगी भर बाप को तकलीफ देता है, कष्ट देता है, सम्मान नहीं देता, आदर नहीं, प्रेम नहीं और मरते वक्त वैठ कर आंसू बहाता है। झूठ की भी कोई हद है। किसके लिए आंसू बहा रहे हो? उस बाप के लिए जिसको एक दफा खुशी का मौका नहीं दिया। फिर श्राद्ध करता है। बैठा है सिर मुढा कर उदास, दु:खी यह दु:ख कैसा है यह सच्चे आदमी का हो सकता है। और जिंदा था तब यह बाप तब। मैं मानता हूं जिन लोगों ने मरे हुए वाप के श्राद्ध किए हैं ज्यादती है यह खतरनाक लोग हैं यह पश्चाताप कर रहे हैं, इन्होंने बाप क ो जिंदगी में आदर नहीं दिया होगा। क्योंकि जिसे हमने जिंदगी में आदर दिया, उस को मरने के बाद आदर देने का ढोंग दिखाने की कोई जरूरत नहीं है। जिस दिन बेटे बाप को जीवन में आदर देंगे उसे श्राद्ध वराद की जरूरत नहीं हो जा एगी। सब बेईमान लोगों की इजाद है। मर जाने के बाद सारा पाखंड चल रहा है। और जिंदा आदमी के साथ दुर्व्यवहार चल रहा है। मरे हुए लोगों के साथ हम बड़ा सदव्यवहार करते हैं क्यों? कोई आदमी मर जाए अगर दुनिया में सदव्यवहार चाहना हो तो मरने के सिवाय कोई रास्ता ही नहीं है। अगर दुनिया में अच्छे सिद्ध होना ह तो मर जाना चाहिए। उसे सारी दुनिया कहती है बहुत अच्छा आदमी था। जिंदा में उस आदमी को किसी ने सदव्यवहार नहीं दिया। कोई आदर नहीं कोई प्रेम नहीं कोई मर गया और सब ठीक हो गया। यह क्या है, यह गिल्ट यह अपराध है हमारे चित्त में हम जिंदा आदमी के साथ जो नहीं कर पाए वह मरने पर हम प्रकट करते हैं दिखावा करते हैं। लेकिन कैसे पूछते हैं कैसे हम पहचानें, कोई पहचानने की तरकीब होगी, पहचानने की तरकीब सिर्फ इतनी ही होगी कि हम देखें हर क्षण एक-एक क्षण धोखा चल रह । है। ऐसा थोड़े ही है कि दिन के किसी खास समय में हम धोखा देते हैं हम चौबीस घंटे धोखे दे रहे हैं। चलते हैं तो कमजोर आदमी डरा हुआ आदमी ऐसे चलता है जैसे बहुत बहादूर हो। धोखा दे रहा है किसी को भी नहीं अपने को धोखा दे रहा ह गा। अंधेरी गली है और एक आदमी निकलता है सीटी बजाता हुआ। वह सीटी बज किर सारे मौहल्ले पर अपने को धोखा दे रहा है अंधेरे से मैं डर नहीं रहा देखो कि स खुशी से सीटी बजा रहा हूं। और सीटी सिर्फ डर में बजा रहा है, और कोई कार ण नहीं है। सिर्फ डरा हुआ था। और डर में सीटी बजाकर सैल्फ कौंफीडेंस पैदा करने की कोशिश कर रहा है। कि आत्म विश्वास आ जाए। हम तो सीटी बजा रहे हैं, हम कोई डरते नहीं हैं। यह कहां-कहां उसे जांच करने जाना पड़ेगा, उसे जीवन की समग्र क्रिया में, जीवन के प्रत्येक छोटे काम में जागरूक होकर देखना पड़ेगा मैं क्या कर रहा हूं वही जो मैं हूं। और मैं आपसे कहता हूं, अगर हिंसक हैं तो अहिंसक होने के ढोंग में मत पड़न Page 73 of 150 http://www.oshoworld.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज 1. अन्यथा अहिंसक कभी नहीं हो सकेंगे। अगर हिंसक हैं तो अपनी हिंसा को जानना जो आदमी अपनी हिंसा को जान लेता है वह अपनी हिंसा को बर्दाश्त नहीं कर स कता। हिंसा बर्दाश्त नहीं की जा सकती उसे बदलना ही पड़ता है। लेकिन जो आदम । हिंसा को अहिंसा के ढोंग में छिपा लेता है वह हिंसक बना रहता है और अहिंसा का गुणगान करता है। और तव तख्ती लगा लेता है 'अहिंसा परमो धर्मा। जहां भी यह तख्ती दिखे समझ लेना कि नीचे आसपास हिंसक आदमी वैठे होंगे। अि हसक आदमी 'अहिंसक परमो धर्मा' नहीं कहेगा, यह हिंसक आदमी ही कहता है। हदुस्तान में अहिंसा की कितने हजार सालों से चर्चा हो रही है। और कोई आदमी अ हिंसक है कोई समा नहीं सकती। हिंदुस्तान में जिनके हाथ में आज सत्ता है उन सब ने अहिंसा का बहुत ढोंग पीटा, लेकिन सत्ता आने पर अंग्रेजों ने दो सौ साल की गू लामी में इतनी हिंसा नहीं की थी जितनी बीस साल के अहिंसकों ने की। आश्चर्यजन क है, जितनी गोली इन्होंने चलाईं, जितने लोगों की हत्या इन्होंने की, छोटे से मान ने से लेकर जितने इन्होंने लोगो को मारा इतना अंग्रेजों ने दो सौ वर्षों में नहीं मारा जितना इन्होंने वीस वर्षों में मार डाला। यह अहिंसक हैं वह हिंसक थे। हिंसक आदमी पर भरोसा किया जा सकता है। कम से कम वह सच्चा तो है। अहिंस क आदमी पर भरोसा करना बहुत मुश्किल है खतरनाक है। भीतर हिंसा है ऊपर से अहिंसा का ढोंग है। अहिंसकों ने अहिंसा की बातें चल रही हैं सैकड़ों वर्षों से, और हिंदुस्तान का समाज जरा भी अहिंसक नहीं है। पाकिस्तान का हमला हुआ, चीन क । हमला हुआ तो एक आदमी ने नहीं कहा कि अब अहिंसा का उपयोग करना चाहि ए। नहीं सवाल ही कहां है वह अहिंसा का उपयोग तो जब हम गुलाम थे, कमजोर थे और हिंसा नहीं कर सकते थे तब थी वह सब अहिंसा की बातचीत। वह सरासर धोखा था। कमजोरी को छिपा रहे थे अहिंसा के नाम से और अब जव हाथ में ताकत आ गई तव सीधी हिंसा की वातें कर रहे हैं। और साधारण लोगों क ो तो हम छोड़ दें जिनको हम बहुत अच्छे लोग कहते हैं उनके भीतर ही दोहरी पर तें होती हैं। उन्नीस सौ तीस के करीब, एक अदभूत घटना घटी। वह घटना यह थी कि पंजाब के एक गांव में, मुसलमानों के गांव में दंगा हो गया। और अंग्रेजों की यह नीति थी क अगर मुसलमानों का गांव हो और दंगा हो तो हिंदूओं की मिलेट्री भेजो वहां दवा ने के लिए। मिलेट्री तो दबाएगी ही, हिंदू होने की वजह से और दंगों को झौंक देगी। अगर हिंदूओं को गांव में दंगा हो जाएं तो मुसलमानों को भेजो। तो वैसे तो दवाएं गे ही और हिंदू और मुसलमान की वजह से और छाती में छूरे भौंक देंगे। उस मुस लमान गांव को दवाने के लिए गोरखों की, सिखों की उनकी बटालियन भेजी गई। लेकिन वह अदभूत घटना घटी वहां, उस घटना को कीमत दी जानी चाहिए। वह ज बटालियन भेजी गई थी उसने कह दिया की हम बंदूक चलाने से इनकार करते हैं हम अपने भाईयों पर बंदूक नहीं चलाएंगे। और उन्होंने जाकर वह सारी की सारी वं Page 74 of 150 http://www.oshoworld.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज दूकें थाने में समर्पित कर दी और हथकड़ियां लगवा लीं कि हम बंदूक नहीं चलाएंगे हम खद मरने को तैयार है ना कि हम भाईयों पर गोली नहीं चला सकते। सारे दुनिया ने सोचा कि गांधी जी इसकी तारीफ करेंगे। लेकिन गांधी जी ने इसकी निंदा की। यह तो अहिंसा का अद्भुत उदाहरण था। हमारे खयाल में आएगा कि गां धी जी को तारीफ करनी चाहिए कि अदभत बहादर सैनिक हैं वह जिन्होंने हिंसा क रने से इनकार किया और जिन्होंने अपने भाईयों पर गोली नहीं चलाई। लेकिन गांध । जी ने इसका विरोध किया और निंदा की। गांध । फ्रांस में पत्रकारों ने उनसे पूछा कि. 'हम हैरान हो गए है आप तो अहिंसक है, और आपने सेनिको ने अहिंसा का एक उदाहरण उपस्थि त किया है, उसकी आपने निंदा की। तो गांधीजी ने क्या कहा आपको पता है? गां धीजी ने कहा, 'मैं इस तरह की अनुशासनहीनता की समर्पण नहीं कर सकता। क्यों क इन्हीं सैनिकों के हाथ में कल आजादी आएगी, कल इन्हीं सैनिकों के भरोसे हमक । हुकूमत करनी है। अगर इन्होंने अहिसा इस तरह के काम की अनुशासन के . . . तो हम किन बातों के बल पर हुकूमत करेंगे।' बड़ी मजे की बात है, इसका मतलब यह है कि अंग्रेजों से अहिंसा से लड़ना है। और लड़ लेने के बाद जब ताकत हमारे हाथ में आ जाए तो बंदूक के कुंदे से हिंदुस्तान को दबाना है। इसका क्या मतलब हुआ? इसका अर्थ क्या होता है? इसका अर्थ य ह होता है कि भीतर बहुत गहरे में चाहे हम जानते चाहे ना जानते हों हिंसा की प रतें छिपी हैं। और ऊपर, ऊपर अहिंसा की एक व्यवस्था है। और अगर एक हिंसक आदमी अहिंसक हो जाए, तो वह अहिंसा को भी इस तरह थोपने की कोशिश करेगा जैसे कि हिंसा को थोपने की कोशिश की जाती है। वह दूसरों को भी जबरदस्ती अ हिंसक बनाने की कोशिश करेगा। वह उनकी भी गर्दन पकड़ लेगा। गर्दन पकड़ने के ढंग बहुत तरह के हो सकते हैं मैं आपकी छाती पर छुरालेकर खड़ा हो जाऊं और कहूं कि मेरी बात मानीए अन्यथा मैं छुरा मार दूंगा। तो हम कहेंगे ि क यह हिंसा है। और मैं आपके सामने अपनी छाती पर छुरा लेकर खड़ा हो जाऊं और कहूं कि मेरी बात मानते हैं कि नहीं नहीं तो मैं छुरा मार लूंगा। तो हम कहेंगे कि यह अहिंसक है। यह अहिंसा है यह सत्याग्रह है। यह भी हिंसा है। और यह पह ली वाली हिंसा से ज्यादा खतरनाक और सूक्ष्म है। क्योंकि उसमें दूसरे आदमी को म रने की धमकी नहीं अपने को ही मारने की धमकी दी जा रही है। दूसरे आदमी को मारने की धमकी में तो दूसरा आदमी बचाव भी कर सकता था। अपने को मारने की धमकी में दूसरा आदमी विलकुल कमजोर हो गया वह बचाव भी नहीं कर सक ता। अगर हिंसक आदमी अहिंसक हो जाए तो उसकी अंहिसा भी दूसरे को गर्दन दव ने के काम में आएगी। और उसे दिखाई नहीं पड़ेगा। मैंने एक मजाक सुनी। मैंने सुना है एक गांव में एक युवक ने एक घर के सामने जा कर विस्तर लगा दिया और कहा कि, 'मैं अनशन करता हूं, सत्याग्रह करता हूं, मु झे इस घर की लड़की से विवाह करना है। अन्यथा मैं मर जाऊंगा।' गांव भर में ता Page 75 of 150 http://www.oshoworld.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज रीफ हुई कि वह सत्याग्रह कर रहा है। सबने कहा कि, 'सत्याग्रह तो अच्छा होता है ।' वह तो बेचारा खुद मरने के लिए कह रहा है । दूसरे का हृदय परिवर्तन करने क कोशिश कर रहा है। यह हृदय परिवर्तन की कोशिश है। घर के लोग घबरा गए। अगर वह लड़का छुरे से धमकी देता तो पुलिस में इंतजाम कर देते। लेकिन वह कह रहा है कि मैं अनशन करके मर जाऊंगा, मैं सत्याग्रह कर रहा हूं। मैं हृदय परिव र्तन की कोशिश कर रहा हूं। मैं अपनी आत्मशुद्धि कर रहा हूं और लड़की के बाप की आत्मशुद्धि कर रहा हूं। ताकि वह राजी हो जाए । और गांव भर में सत्याग्रह को समर्थन देने वाले लोग मिल गए। और जय-जयकार होने लगी। बाप धवराया कि क्या करे? लोकमत सत्याग्रह के पक्ष में है। तो बाप ने एक पुराने वृद्ध सत्याग्रही से जाकर पूछा कि, 'कुछ रास्ता बताओ।' उसने कहा कि —घबराओ मत! शाम को इंतजाम कर देंगे।' वह एक बूढ़ी वैश्या के पास गया औ " र उससे कहा कि, ‘रात को बिस्तर लेकर आ जाओ, और जब हम लड़के के सामने अनशन कर दोगी जब तक मुझसे विवाह नहीं करोगे मैं मर जाऊंगा।' उस बुढ़िया ने आकर अनशन कर दिया, वह लड़का रात में ही बिस्तर लेकर भाग गया। एक दूसरे की गर्दन इस तरह भी दबाई जा सकती है। लेकिन आप जब तक दूसरे की गर्दन दबा रहे हैं। चाहे गर्दन दबाने का ढंग अहिंसक हो, भीतर हिंसा मौजूद है। दूसरे आदमी को दबाने के पीछे हिंसा है। लेकिन दूसरे के खोजबीन में जाना बहुत मुश्किल है अपनी खोजबीन में जाना बहुत आसान है। हम देख सकते हैं कि हमारी अहिंसा हिंसा तो नहीं है। हमारा प्रेम घृणा तो नहीं है। हमारे सत्य के पीछे झूठ तो नहीं बैठा है। हमारे स्दभाव के पीछे दुर्भाव तो नहीं है। हम जैसे है भीतर भी हम वै से ही हैं, अगर नहीं हैं तो एक काम है और वह यह है कि हम जैसे हैं उसे जानने में लग जाएं चाहे कितने ही बूरे हों बूरे को जानना है। बुरे को बदलने को ही एक रास्ता है। जैसे भी हैं, कोई फिक्र नहीं कि बूरे हैं। लेकिन बूरे ही हैं तो हम उसे जा नें पहचानें। धोखा ना दें, छिपाएं ना। जिस घाव को छिपा लिया जाए वह मिटता न हीं है। अंत तक बढ़ता चला जाता है, नासूर बन जाता है। कैंसर भी बन सकता है। और हमने मन सब धाव छिपा रखे हैं। और ऊपर हम इस तरह कि कोई घा व ही नहीं, ऊपर हम बिलकुल ठीक हैं। किसी भी आदमी से पूछो वह कहेगा बिलकुल ठीक है । और कोई आदमी बिलकुल ठ ळीक नहीं, सब आदमी भीतर गड़बड़ हैं लेकिन पूछो कि क्या सच कह रहे हैं ? तो व ह कहेगा कि कहना पड़ता है इसलिए कह रहे हैं सब उपचार हैं। फार्मिलिटी से आद मी ने कहा कि सब ठीक है । सब खुश है लेकिन कोई खुश नहीं । भीतर इसकी एकएक व्यक्ति को अपनी ही निरीक्षण और खोज करनी जरूरी है। ताकि हम पहचान सकें कहां हम असली हैं कहां हम नकली हैं। और ध्यान रहे कि असली को पहचान लेना ही बहुत अदभुत काम है क्योंकि असली को पहचानते ही जो हो रहा है गरना शुरू हो जाता है और जो शुभ है वह बढ़ना शुरू हो जाता है । Page 76 of 150 http://www.oshoworld.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ज्ञान की जो अग्नि है उसमें बुरा जल जाता है और जो शुभ है वह शेष रह जाता है । लेकिन जाने ही ना तो अज्ञान में शुभतलाहिता अशुभ बढ़ता चला जाता है। जैसे कसी के घर में अंधेरा हो दरवाजे बंद हों कोई भीतर मालिक जाता ही ना हो, तो वहां कूड़ाकरकट इकट्ठा होता, कीड़े मकोड़े इकट्ठे होते हैं सांप बिच्छू इकट्ठे होते हैं, अंधेरे में गंदगी इकट्ठी होती है, दुर्गंध फैलती है। फिर मालिक उस मकान के भीतर जाए सिर्फ जाए। और उसके जाने से ही फर्क शुरू हो जाएगा। क्योंकि जैसे ही वह दे खेगा कि मेरे घर में कीड़े-मकोड़े इकट्ठे हैं, इन कीड़े-मकोड़ों के साथ कैसे रहा जा स कता है। कीड़े-मकोड़ों को हटाना पड़ेगा । वह हटा देगा। लेकिन मालिक बैठा है घर में ताला लगाकर, बाहर पीठ टेके हुए बस । और घर के भीतर ही नहीं जाता, और भीतर यह सब बढ़ता चला जा रहा है। और घर के सामने उसने बड़ी-बड़ी तख्तियां लगा रखी हैं। यहां कोई कीड़े-मकोड़े न हीं हैं, यहां कोई अंधेरा नहीं है, यहां सब अच्छा है आईए स्वागत है आपका। और वहीं सीढ़ियों पर सब स्वागत चल रहा है । और घर के भीतर ना वह खुद जाता है ना किसी और को ले जा सकता है। जहां खुद ही नहीं गया वहां दूसरे को कैसे ले जाएगा। हम जिसे प्रेम करते हैं उसको भी अपने भीतर का हिस्सा नहीं देखने देते। उसे भी हम धोखा ही देते चले जाते हैं । इसलिए कोई प्रेम भी नहीं हो पाता। हम खुद ही डरते हैं अपने को देखने से तो हम दूसरे को कैसे देखने दें। आत्म साक्षातकार का मतलब यह नहीं है कि बैठकर एक आदमी चिल्लाए कि मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं, मैं ब्रह्म हूं। यह मुढ़ता है आत्म साक्षात कार का उपाय नहीं। आत्म साक्षातकार का अर्थ है कि मैं जानूं कि मैं कैसा हूं। मैं जैसा हूं वैसा जानूं, उसे पहचानूं। उसे पूरी सच्चाई में पहचान लूं कि मैं ऐसा आदमी हूं। यह मेरे भीतर है। और आप कहेंगे कि जब दिखाई पड़ जाएं तो फिर हम क्या करें? मैं कहता हूं कि पहले देख लें जल्दी मत करें कि हम क्या करें। पहले देख ले ना जरूरी है। और देखने से ही जो करना है वह दिखाई पड़ना शुरू हो जाएगा कि हम क्या करें ? रास्ते पर आप जा रहे हैं और एक सांप आ गया है रास्ते पर। फिर आप किसी से पूछते हैं कि अब मैं क्या करूं? फिर आप पूछते हैं कि जाऊं किसी गुरु के पास पता लगाऊं कि सांप रास्ते पर आ जाए तो क्या करना चाहिए ? सांप रास्ते पर दिखा फर ना गुरु की फिक्र ना किसी से पूछने की आदमी छलांग लगाता है। घर में आग लग जाए फिर आप गीता खोल कर देखते हैं कि घर में आग लगी है तो क्या करन चाहिए। गीता-वीता वहीं घर में पड़ी रह जाती है, आदमी छलांग लगाकर बाहर हो जाता है। जब जिंदगी की असलीयत दिखाई पड़नी शुरू होती है वहां सांप और आग दिखाई प. डनी शुरू होती है। वहां जहर दिखता है तो कोई पूछने नहीं जाता कि क्या करूं छल लांग लग जाती है। वह इतनी खतरनाक चीजें हैं कि उनके साथ एक क्षण रहा नहीं जा सकता है एक सडन चेनज । एक जैसे विस्फोट हो गया हो। इस तरह का परिवर्त Page 77 of 150 http://www.oshoworld.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज न शुरू हो जाता है। जीवन में जो क्रांति आती है वह आपके बदलने से नहीं आती। आपके जानने से आती है। ज्ञान के अतिरिक्त और कोई क्रांति नहीं। नौलिज इज ट्रां सफोरमेशन। बस ज्ञान की ही क्रांति है। लेकिन हम ज्ञान से ही बचते हैं और अज्ञान में जीते हैं। और हम लोगों से पूछते हैं अहिंसा लाना है तो क्या करें ? क्रोध हटाना है तो क्या करें? अशांति मिटानी है तो क्या करें ? दूसरों से पूछते हैं । एक मित्र मेरे पास आए और मुझसे कहने लगे कि, 'मैं श्री अरविंद आश्रम गया त नहीं मिली वहां भी, ऋषिकेश गया वहां भी शांति नहीं मिली, किसी ने आपका नाम लिया आपके पास आ गया छः महिने से भटक रहा हूं, कृपा करके मुझे शांति दें।' मैंने उनसे पूछा, ‘अशांति लेने के लिए किस आश्रम गए थे।' अरविंद आश्रम ग ए थे, ऋषिकेश गए थे, मेरे पास आए थे। अशांति खुद ही पैदा कर ली, बड़े काईय ां और चालाक मालूम होते हैं। और शांति दूसरों से पाने के लिए निकले हुए हैं। स ढंग से अशांति पैदा की है उस ढंग को समझो। शांति पैदा होनी शुरू हो जाएगी । क्योंकि अशांति तुमने पैदा की है, मैंने पैदा की है। तो मैं जानू कि मैंने शांति कैसे पैदा की है। मैं जानता हूं कि मैंने कैसे पैदा की है । उसको बदलना भी नहीं च ता। अशांति के जो कारण हैं उनको देखना भी नहीं चाहता । फिर किसी गुरु पू छता हूं कृपा हो जाए प्रसाद मिल जाए भगवान का कि चित्त शांत हो जाए।' अशांति के कारण भी नहीं बदलना है । और शांत भी होना है यह असंभव है। इसलि ए मैं कहता हूं कि शांति को खोजना ही मत । अशांति को खोजना। अशांति को जो खोज लेता है वह शांत हो जाता है। अहिंसा को खोजना ही मत, हिंसा को पहचानन TI जो हिंसा को पहचान लेता है वह अहिंसक हो जाता है। घृणा को छोड़ना ही मत प जो छोड़ेगा वह खतरे में पड़ जाएगा। क्रोध को छोड़ना ही मत, जो छोड़ेगा उसके भीतर क्रोध इकट्ठा होने लगेगा। ना ही क्रोध को जानना, पहचानना, क्रोध को देखना समझना और क्रोध विलीन हो जाएगा। जो अशुभ है वह ज्ञान के सामने टिकता ही नहीं। जैसे दीए के सामने अंधेरा नहीं टिकता । ऐसे ज्ञान के सामने अशुभ नहीं टिक ता। वह जो नकली आदमी है उसको देखें। वह नकली आदमी विदा हो जाएगा वह कब घर छोड़कर चला गया। और असली आदमी आ गया। इसका पता भी नहीं चलेगा। लेकिन हम कहते हैं कि दूसरे आदमी में कैसे पहचानें। दूसरे आदमी में पहचानने की पहली तो बात जरूरत नहीं, दूसरी बात, दूसरे आदमी को पहचानने में समय खोना खतरनाक है, समय बहुत सीमित है, समय बहुत अल्प है। उसका अपने काम में ल गाईए। तीसरी बात दूसरे आदमी में नकली आदमी देखकर प्रसंन होने का चित्त होत है। यह सब नकली हैं तो हर्ज क्या है आगर हम भी नकली हुए। एक तृप्ति मिलती है कि सभी नकली हैं आदमी सुबह से अखबार पढ़ता है और उस में देखता है फलां जगह हत्या हो गई, फलां जगह चोरी हो गई, फलां जगह फलां औरत फलां आदमी के साथ भाग गई। वह बहुत खुश होता है कि सारी दुनिया खरा Page 78 of 150 http://www.oshoworld.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ब है. क्यों? वह सोचता है अपने खराव होने में कोई खास हर्जा नहीं ऐसा है ही। अगर कोई अखबार अच्छी अच्छी खबरें छापे तो अखबार विकेगा ही नहीं। क्योंकि क न खरीदेगा? अखवार को बरी खबरें छापनी पडती हैं ना मिले तो बनानी पडती हैं. झठी भी गढ़नी पड़ती हैं। क्योंकि बरा आदमी बरी खबरें पढ़ने को घर के भीतर ज ग कर बैठा हुआ है चाय पीकर। वह खवर पढ़ना है न्यूज पेपर कहां हैं। क्योंकि वह तृप्त हो सके कि अव दिन भर वूरा करो, सारी दुनिया में पूरा हो रहा है। इसलिए अखबार अच्छी खबर छापने में मजबूर है नहीं छाप सकता, विकेगा नहीं। बू रा आदमी अखबार पढ़ने की आतुरता से प्रतिक्षा कर रहा है वह जानना चाहता है ि क हर आदमी अपराधी है, क्यों? क्योंकि वह अपने अपराध के बोझ को कम करना चाहता है जव सभी अपराधी है तो हर्ज क्या है। फिर मैं भी हूं आखिर मैं भी तो सव जैसा ही हूं। फिर बदलने की जरूरत भी क्या है? दुनिया ही ऐसी है दूसरे की रफ हम देखते हैं, हम जैसे हैं उससे बचने के लिए। और जिस आदमी को अपने को बदलना है। वह अपनी तरफ देखता है दूसरे की तरफ नहीं। एक छोटी-सी बात फिर दूसरे प्रश्न की बात करूं | मैंने सुना है जापान में एक फकीर था, एक साधु। एक रात आधी रात अपने कमरे में बैठा हुआ एक पत्र लिख रहा है। किसी ने दरवाजे पर आकर धक्का दिया, कोई चोर. . .। दरवाजा अटका था खु ल गया। चोर ने समझा साधु सो गया होगा, साधु ने आंखें उठाई, चोर घबरा गया। उसने छुरा निकाल लिया। साधु ने कहा, 'छुरे को भीतर रखो। यहां कोई जरूरत ना पड़ेगी। आओ अंदर आ जाओ।' चोर इतना घबरा गया, इसलिए नहीं कि साधु के हाथ में कोई छुरा था। जिसके हाथ में छुरा है उससे बहुत घबराने की जरूरत न हीं। क्योंकि छुरे के खिलाफ छुरा उठाया जा सकता है। वह साधु निहत्था वैठा था। और जोर से हंसने लगा। उसने कहा, 'रख लो छुरा भी तर कोई जरूरत ना पड़ेगी। आओ बैठ जाओ कैसे आए, बड़ी रात आए।' वह आदम घिबराहट में बैठ गया। तो साधु ने पूछा, 'कोई जरूरी काम से ही आए होगे, इतन रात कोई भी तो नहीं आता। गांव दूर है कैसे आए क्या जरूरत पड़ गई। मैं क्या सेवा कर सकता हूं बोलो।' वह चोर तो घबरा गया। लेकिन इतने सच्चे आदमी के सामने झूठ बोलना भी बहुत मुश्किल हो जाता है। तो उस चोर ने कहा, 'क्षमा करें, मुझे जाने दें मैं किसी काम से नहीं आया, मैं चोरी करने के खयाल से आया हूं। उस साधु ने कहा, 'चारी करने के खयाल से, लेकिन वड़ा मुश्किल है, झोपड़े में तो कुछ है ही नहीं। और अगर आना था तो पहले खबर करनी थी यह तो फकीर का झोपड़ा है नहीं तो कुछ इंतजाम करके रखते। बड़ी गलती हो गई सूबह ही एक आ दमी सौ रुपए भेंट करता था। मैंने उसे वापस लौटा दिए। नहीं माना तो सिर्फ दस रु पए रखे, दस रुपए से काम चल जाएगा। अव दुवारा कभी आओ तो गरीब आदमी का खयाल रखकर आना चाहिए पहले खवर करनी चाहिए। अमीर के घर में विना खबर जा सकते हो। हम गरीव है हमारे घर में विना खबर किए नहीं आना चाहिए, इसमें हमारा बहुत अपमान होता।' Page 79 of 150 http://www.oshoworld.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वह चोर तो वहुत घबरा गया उसकी तो सांस फूल गई कि क्या करे क्या ना करे। उस फकीर ने कहा, 'उस आले में रखे हुए दस रुपए उठा लो लेकिन वड़ा दु:ख मन को होता है कि इतनी रात तुम आए और सिर्फ दस रुपए।' उस चोर ने घबराहट में उसे कुछ होश नहीं है रुपए उठा लिए, जाने लगा तो उस फकीर ने कहा कि, ' कृपा कर सको और असुविधा ना हो तो एक रुपया मुझे उधार दे जाओ, बाद में लौ टा दूंगा क्योंकि सुबह से ही जरूरत पड़ेगी मुझे।' उसने जल्दी से एक रुपया नीचे रख दिया। दरवाजे से भागने लगा तो उस फकीर ने कहा, 'ठहरो. कम से कम दरवाजा तो अटका दो। और कम से कम धन्यवाद तो दे जाओ, रुपए तो कल खत्म हो जाएंगे। धन्यवाद वाद में भी काम पड़ सकता है। उस चोर की तो सब समझ के बाहर हो गया। चोर को चोर मिल जाए तो सब सम झ के भीतर होता है। चोर को साधु मिल जाए तो सब समझ के बाहर हो जाता है। चोर चोर को ही पहचान पाते हैं, और जो चोर साधु को भी पहचानते हैं समझ ले ना कि साधु भी चोर होगा नहीं तो पहचानने का मतलब नहीं। चोर चोर को ही पह चान सकता है साधु तो बहुत गड़बड़ हो जाएगा। उसके समझ के वाहर हो जाएगा। तो चोर जिन साधुओं को पूजते हैं तो समझ लेना कि उन दोनों के बीच कोई आंता रक संबंध हैं। अन्यथा यह पूजा नहीं चल सकती। साधु की पूजा बहुत मुश्किल है सा धु की हत्या की जा सकती है, पूजा नहीं की जा सकती। लेकिन हां अपने ही ढंग । का चोर हो कपड़े और तरह के पहने हो तो चल जाएगा। उस साधु ने कहा, 'धन्य वाद पीछे काम पड़ेगा, दरवाजा अटका पागल है। धन्यवाद देना सीख। चोर ने धवरा हट में धन्यवाद भी दिया, दरवाजा भी अटकाया और भाग गया। दो साल बाद वह चोर पकड़ा गया और चोरियों के भी जुर्म उसके ऊपर थे। यह चो री का भी पता चल गया अदालत को, तो उस साधु को बुलाया गया पूछने के लिए कि क्या इसने कभी तुम्हारे यहां चोरी की थी'? चोर डरा हुआ था क्योंकि साधु की इतनी उसके शब्द का इतना मूल्य था कि अगर वह कह दे कि हां यह यहां चो री करने आया था तो फिर सब प्रमाण व्यर्थ हैं। फिर चोरी सिद्ध ही हो गई चोर ड रा हुआ कप रहा है। साधु गया, जज ने पूछा, 'इसने कभी चोरी की है। उस साधु ने गौर से देखा 'चोरी! चोरी की बात ही अलग यह आदमी बहुत अदभूत है। एक रुपया इसका मुझे उधार देना है, दो साल से खीसे में रखकर घूम रहा हूं। इसका क ई पता नहीं।' 'यह रुपया ले। फिर मिला कि नहीं मिला यह तो अदालत की कृपा है कि तू मिल गया। यह रुपया संभाल अपना हम मुसीबत में पड़े हुए हैं कि रुपया कैसे लौटाएं।' जज ने कहा, 'कहां का रुपया यह कैसा मामला है। उस साधु ने कहा, 'नौ रुपए, दस रुपए मैंने इसे भेंट किए थे। भेंट के बदले में इसने धन्यवाद दे दिया था वह बात खत्म हो गई। एक रुपया इससे मैंने उधार लिया था, वह मुझे वापस लौटाना है औ र इसको आप चोर कहते हैं। यह चोर नहीं है, अगर यह चोर होता तो चोरी करने Page 80 of 150 http://www.oshoworld.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज की जरूरत ही ना पड़ती। चोरों को चोरी करने की जरूरत नहीं, राजधानी में बड़ेबडे महल बनाकर वह बैठे हए हैं। चोर को चोरी की कोई जरूरत ही नहीं है। यह चोर, इसको चोरी की क्या जरूरत होती अव तक महल खड़े कर लिए होते, तिजो रयां भर ली होती इसने। यह आदमी बहुत सीधा-साधा है।' नो वहत घवराया. उसने कहा, 'सीधा-साधा आप कहते हैं आपके घर यह चो री करने नहीं गया। उसने कहा, 'पागल है यह. जिस घर में कछ भी नहीं है दो म ल गांव छोड़कर वहां गया था। यह बहत दीनहीन है, यह बहत दरिद्र है, यह चोर कैसे हो सकता है? यह दया के योग्य है। और जिस समाज ने इसे इतना दीनहीन ब नाया, वह समाज चोर है। लेकिन ऐसे आदमी को समझना बहुत मुश्किल हो जाएग ।। यह आदमी इस चोर में भी चोर को नहीं देख पा रहा है। इस चोर में भी यह अ और कुछ देख पा रहा है, जो हमें दिखाई पड़ना मुश्किल हो जाए। क्यों? हम तो इस में चोर ही देखना चाहेंगे ताकि हमारे भीतर के चोर को राहत मिल जाए। दूसरे की तरफ देखकर हम अपने को तृप्त कर रहे हैं। अपने को तृप्त इस तरह कर ना बहुत खतरनाक है। इसलिए मत पूछे कि हम दूसरे में कैसे पहचानें कि क्या अस ली है और क्या नकली है। जानें, खोजें खुद में क्या असली है और क्या नकली है। एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि, पश्चिम में मटीरियललिज्म है वहां भी लोग शांत न ही हैं। वहां भी बड़ी अशांति है।' भारत इस तरह की बातें सुनकर बड़ी तृप्ति अनुभव करता है। अच्छा वह भी अशां त हैं। तो फिर ठीक है हम भी अशांत हैं तो फिर क्या वजह है? लेकिन मैं आपसे कहना चाहता हूं, गरीब की अशांति में अमीर की अशांति में बुनियादी फर्क है। गरी व की अशांति अभाव की अशांति है, और अभाव की अशांति बहुत खतरनाक है। अ मीर की अशांति अभाव की नहीं, अतिरेक की एफ्यूलैंस की अशांति हैं और अतिरेक की अशांति बहुत स्वभाविक है क्यों? क्योंकि गरीब अपनी अशांति में रोटी-रोजी के सिवाय कुछ भी नहीं सोच सकता, और अमीर अपनी अशांति में परमात्मा के संबं ध में खोजना और सोचना शुरू कर देता है। गरीब अशांत होता है तो उसकी कामना पदार्थ के लिए होती है। और अमीर अशांत होता है तो उसकी कामना परमात्मा के लिए शुरू हो जाती है। यह बहुत अदभुत बात है कि जो मटिरियलिस्ट हैं भौतिकवादी है वह आध्यात्मिक हो सकते हैं। लेकिन जो निपट थोथे अध्यात्मवादी हैं वह सिवाय भौतिकवादी के कुछ भी नहीं हो सकते। इसलिए पश्चिम में एक अशांति है, लेकिन वह अशांति सौभाग्यपूर्ण है। पश्चिम उस जगह पहुंच गया है जहां से पदार्थ व्यर्थ हो जाएगा। धन मिल गया है, मकान मिल गए हैं, सब मिल गया है जो मिल सकता था। लेकिन अब क्या करें, अब कहां जा एं, अब कहां खोजें, वाहर खोज लिया है। बाहर जो मिल सकता था मिल गया है। लेकिन फिर भी शांति नहीं है। पश्चिम की भीतर की खोज शुरू हो जाएगी, हो गई Page 81 of 150 http://www.oshoworld.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लेकिन भारत में बाहर की खोज ही पूरी नहीं हो पाई तो भीतर की खोज कैसे शुरू हो? रोटी ही नहीं मिल पाई, प्रार्थना कैसे शुरू हो? नहीं, हम कहेंगे गलत कहते हैं आप हम तो प्रार्थना करते हैं। लेकिन वह प्रार्थना भी रोटी के लिए होती है। वह प्र र्थना भी प्रार्थना नहीं है रोटी ही है। मंदिर में एक आदमी हाथ जोडे खडा है। खोलो उसके हृदय को और पूछो क्या मांग रहे हो? मांग रहा है कि लड़की की शादी न हीं हो रही कहीं शादी लगा दो। यह अध्यात्मवाद है। मांग रहा है कि लड़का वीमार है दवा के लिए पैसे चाहिए, हे भगवान! या तो पैसे दिलवा दो या तो फिर लड़के की बीमारी ठीक कर दो। यह अध्यात्मवाद है। मांग रहा है कि नौकरी नहीं लगती नौकरी लगवा दो। यह अध्यात्मवाद है। गरीब आदमी की प्रार्थना भी पदार्थ के लिए ही हो सकती है, परमात्मा के लिए कैसे होगी? वह अगर परमात्मा को भी मांग लेगा तो वह इसलिए कि पदार्थ मिल जाए , रोटी मिल जाए, रोटी मिल जाए। मैं आपसे कहता हूं कि पश्चिम भी अशांत है, पूरव भी। लेकिन पश्चिम की अशांति बहूत दूसरी है पूरव की अशांति से। पूरब की अशांति गरीव की अशांति है, गरीव की अशांति क्या सोचती है, क्या मांगती है? ग रीव की अशांति से मटीरिलिज्म पैदा होता है। भौतिकवाद पैदा होता है। अमीर की अशांति से आध्यात्मवाद पैदा होता है। हिंदुस्तान के तीर्थांकरों का इतिहास उठाकर देखें, जैनियां के चौबीस तीर्थांकर राजा ओं के लड़के हैं। हिंदूओं के भगवान सब राजाओं के लड़के हैं। हिंदुस्तान में गरीब क । एक भी वेटा अब तक तीर्थांकर और राजा, अवतार नहीं हो सका भगवान का। क यों? कुछ कारण हैं। वुद्ध के घर में सब कुछ है, महावीर के घर में सब कुछ है, अ और फिर भी शांति नहीं है तो भीतर की यात्रा शुरू हो गई। महावीर को एक गरीब के घर में रख दो, भूख में पैदा हों, नंगे पैदा हों फिर नंगे होने का खयाल कभी पैदा नहीं होगा। फिर यही खयाल पैदा होगा कि कपड़े कैसे मिल जाएं, मकान कैसे मिल जाएं, रोटी कैसे मिले, नौकरी कैसे मिले। धर्म समृद्ध जीवन से पैदा होता है। मेरे हिसाव में धर्म जो है समृद्धि की आखरी लर जरी है। जव समृद्ध होता है समाज तो धर्म के फूल खिलते हैं। गरीब समाज में नहीं , लेकिन गरीब समाज बड़ी तृप्तियां और कंसोलेशन खोजता है। वह यह कहता है, 'अरे! तो तुम भी तो अशांत हो, तुम्हारे पास हवाईजहाज हैं, रोकेट हैं, चांद पर ज [ रहे हो क्या फायदा है, तुम भी अशांत हो।' बड़ी राहत मिलती है मन को कि ह म भी अशांत हैं फिर क्या दिक्कत है? तुम भी अशांत हो, तुम्हारे यहां भी तो सब अशांति है तुम भी तो पूरव आते हो पूछने की शांत कैसे हो जाएं। तो फिर क्या ज रूरत है हमें। मैंने सुना है एक मित्र एक कहानी मुझे सुना रहे थे। वह कह रहे थे, एक स्टेशन पर हरिद्वार जाने के लिए ट्रेन खड़ी है सारे लोग चढ़ रहे हैं डिब्बों में। और हर आदमी यही चिल्ला रहा है कि जल्दी अंदर जाओ सामान चढ़ाओ, गाड़ी छूटने को है जगह घेरो स्थान बनाओ। पांच सात मित्र एक आदमी को घेरे खड़े है उसे खींच रहे हैं। Page 82 of 150 http://www.oshoworld.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज और वह आदमी कुछ दलीलें कर रहा है गाड़ी का गार्ड सीटी बजा रहा है झंडी दि खा रहा है। वह आदमी. . . और मित्र कह रहे हैं जल्दी अंदर चलो। मित्र कह रहा है पहले एक बात बता दो. इस गाडी से उतरना तो नहीं पडेगा. अगर उतरना ही पड़ा हो तो चढ़ने की क्या जरूरत है? चढ़ने से क्या फायदा है ? अगर उतरना ही है तो चढ़े क्यों? उस आदमी का दलील ठीक है। वह यह कह रहा है कि उतरना ही पड़ेगा इस गाडी से तो फिर हम नहीं चढ़ते। अगर ना उतरना हो तो चढ़ते हैं। अब वह मित्र कैसे समझाएं, गाड़ी छूटने को है उन्होंने जवरदस्ती उस आदमी को बिना समझाए भीतर गाड़ी के अंदर कर लिया। फिर गाड़ी हरिद्वार पहुंच गई। अब गाड़ी उतरने को है, स रे लोग उतर रहे हैं पिछले स्टेशन पर सारे लोग चिल्ला रहे थे अंदर चलो, अब सा रे लोग चिल्ला रहे हैं बाहर उतरो गाड़ी छूटने को है नीचे उतरो सामान निकालो, जल्दी वाहर आओ। अब वह मित्र फिर उसको पकड़े हैं वह मित्र कह रहा है कि ह म उतरेंगे नहीं, क्योंकि हमको चढ़ाया क्यों? जब चढ़ गए तो उतरें ही क्या? हम वै से लोग नहीं है कि चढ़ गए तो उतर जाएं। अब हम उतरने वाले नहीं हैं। जब उतरना ही था तो हम उतरे ही हुए थे हमको चढ़ाया क्यों? और वह मित्र कह रहे हैं कि, 'तुम विलकुल पागल हो उतरे हुए तुम अमृतसर पर थे यह हरिद्वार है। अगर वहीं उतरे रह जाते तो अमृतसर पर ही रह जाते, हरिद्वार नहीं आ पाते। य ह हरिद्वार है, यहां उतरो अब यात्रा पूरी हो गई। हिंदुस्तान का गरीव आदमी कहत । है कि अगर समृद्ध होने से भी अशांति रहती है तो हम समृद्ध ही क्यों हों? हम चढ़ें ही क्यों बकवास छोड़ो? हम गरीब ही ठीक हैं, अशांत तो हम पहले से ही हैं। लेकिन यह अमृतसर है खयाल रखना, वह हरिद्वार है। वह पहुंच कर उतर रहे हैं। आप पहुंचे ही नहीं हैं। दोनों के बिंदुओं में भेद है। वे ज हां खड़े हैं वह समृद्धि के बाहर है। हम जहां खड़े हैं वह समृद्धि के पहले। इसमें फ र्क समझ लेना जरूरी है एक आदमी भूखा मर रहा है अकाल में। विहार में अकाल पड़ा हुआ है एक आदमी भूखा मर रहा है, और दूसरा आदमी उर्लीकांचन में आकर उपवास कर रहा है। फर्क समझते हैं दोनों में, यह आदमी ज्यादा खा गया है ओवर फैड। जो उर्लीकांचन में आया हुआ है। यह ज्यादा खाने की वजह से उपवास कर र हा है। चले जाओ बिहार में और वहां भूखे आदमी से कहो कि, 'तू बड़ा सौभाग्यशा ली, भगवान की कृपा से, कि उर्तीकांचन जाने की जरूरत नहीं, तू यहीं उपवास क र रहा है।' तो उसकी समझ के बाहर होगा कि आप क्या कह रहे हैं ? उपवास, मैं भूखा मर रहा हूं उपवास करने वाला भूखा नहीं मर रहा है। ज्यादा खा गया है ज्या दा खाए को वह उतार रहा है। वह वहां लौट रहा है नौर्मल होने की हालत में। वह आदमी वेचारा उसको खाना ही नहीं मिला वह मरने की हालत में है उसे भोज न चाहिए ताकि वह नौर्मल हो सके। इन दोनों की यात्राएं अलग हैं एक अमतसर प र है, एक हरिद्वार पर। उपवास में और भूखे मरने में फर्क है। गरीव आदमी भूखा मरता है अमीर आदमी उपवास करता है। जिन समाजों के पास ज्यादा पैसा होता है Page 83 of 150 http://www.oshoworld.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज उन समाजों में उपवास करने वाला धर्म प्रचलित हो जाता है। जैसे जैनियों में उप प करने वाला धर्म प्रचलित है। ओवर फेट सोसाइटी. और कोई कारण नहीं। गरी व आदमी में उपवास की क्रीड नहीं चल सकती, उपवास का पंख नहीं चल सकता। गरीब आदमी कहेगा कि हम उपवासी हैं ही। यह कहां की बातें कर रहे हो। हमें क छ ऐसा धर्म बताओ कि कभी-कभी वह सौ का दिन आ जाए धर्म का उस दिन हम अच्छा खाना भी खा सकें तो गरीब आदमी का जो धर्म होगा। उसमें धार्मिक दिन पर ज्यादा खाना खाया जाएगा। अमीर आदमी का जो धर्म होगा उसमें धार्मिक भी प्रभू का राज आ जाएगा। इसके कारण हैं पीछे वह अमीर और गरीब का मामला है। उसमें कुछ और मामला नहीं है। महावीर नग्न खड़े हो गए वह एक राज पुत्र हैं। उन्होंने श्रेष्ठतम कपड़े पहने हैं अच्छे-अच्छे कपड़े भी अगर मिलते रहें। और आगे अच्छे कपड़े मिलने का दरवा जा बंद हो जाए, मतलब आखिरी कपड़े मिल जाएं तो उनसे वोर्डम शुरू हो जाती है , आदमी ऊबने लगता है। फिर वह आदमी कहता है अब गरीब होने का मजा लेना चाहिए। सिर्फ अमीर आदमी गरीव होने का मजा ले सकता है, यह ध्यान रखना। गरीब आदमी कभी गरीब होने का मजा नहीं ले सकता। गरीब आदमी को अमीर ह ने में थोड़ा बहुत मजा आ सकता है गरीब होने में नहीं। इसलिए गरीब अमीर होना चाहता है और जव अमीर अपनी अमीरी पर पहुंच जाता है तो फिर गरीवी की क ट्स शुरू हो जाती है। अभी मैं बनारस में था। हिप्पी और विटनीक और विटिल बनारस की सड़कों पर सैं कड़ों आते हैं। दो हिप्पी मुझसे मिलने आए। मैंने उनसे पूछा कि, 'तुम क्या कर रहे हो यह।' वह करोड़पतियों के लड़के हैं अमरीका में और बनारस की सड़कों पर दस पैसा मांग रहे हैं सड़कों पर खड़े होकर। मैंने उनसे पूछा कि, 'तुम यह कर क्या र हे हो? तुम्हारे पास सब कुछ है तुम बिना चप्पल के वनारस की गर्म सड़क पर चल रहे हो, झाड़ों के नीचे सो रहे हो, दस-दस पैसे भीख मांग रहे हो। तुम्हारे पास सव है।' उन्होंने मुझसे क्या कहा? उन्होंने मुझसे कहा, 'वह सब है लेकिन उससे हम ऊ व गए हैं। गरीवी बड़ा चेनज मालूम पड़ती है, बड़ा अच्छा लगता है।' हाथ फैलाकर मांग रहे हैं, वृक्ष के नीचे सो गए हैं बड़ा आनंद आता है। लेकिन यह आनंद किसको आ रहा है। यह बड़े महलों में जो ऊब गया है उसको। सड़क के कि नारे जो पड़ा है उसकी समझ के बाहर है कि कैसा आनंद आ रहा है आपको। बड़ा आदमी जिसके घर में दस-पच्चीस कारें हों, पैदल चलना चाहता है। कारों में मजा नहीं आता। पैदल चलना चाहता है, पैदल चलने में बड़ा सुख मालूम होता है। राकफ लर और मार्जन जैसे लोग जब सड़क पर पैदल चलते हैं तो सारी सड़क के लोग चौं क कर देखते हैं, राकफ्लर जा रहा है पैदल । एक गरीब आदमी भी निकलता है वह से पैदल, कोई उसकी तरफ नहीं देख रहा। और उस गरीब आदमी के बगल से क र थर्राती हुई निकलती है धूल उड़ाती हुई, उसकी छाती जल जाती है। सोचता है कव कार में वैलूं लोग कितना आनंद उठा रहे होंगे। कव मैं बैठू। Page 84 of 150 http://www.oshoworld.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज मेरे एक मित्र . . . . में गए हुए थे। रास्ते भटक गए। कार से ही यात्रा कर रहे थे रोप की। एक रास्ते पर जहां कोई नहीं है. एक बढा किसान सड़क के किनारे बैठ । हुआ तम्बाकू पी रहा है। गाड़ी रोक कर उससे पूछा, 'यह रास्ता कहां जाएगा।' व ह चुप रहा, फिर पूछा कि, क्या आप सुनते नहीं।' उसने कहा, 'मैं सुनता हूं लेकिन किसी कार वाले से पूछो हम तो पैदल चलने वाले हैं, हमसे क्या मतलव, हमसे क या संबंध।' तम कार वाले हम पैदल चलने वाला। किसी कार वाले से पछो यह रास ता कहां जाता है। हम अलग ही तरह के आदमी हैं। हम पैदल चलने वाले हैं हमसे तुम्हारा संबंध क्या? उन्होंने मुझसे कहा, 'उस आदमी ने यह कहा, कि हमसे तुम्हा रा संबंध ही नहीं है कोई तुम दूसरी तरह के आदमी हो। तुम उनसे पूछो जो तुमसे संबंधित हैं हमसे क्या पूछते हो। हम पैदल चलने वाले हैं कोई पैदल चलने वाला हो गा तो हम बताएंगे कि रास्ता कहां जाता है।' पैदल चलने वाले के मन में आग लग जाती है कार बगल से गजरती है तब। ईर्ष्या से भर जाता है वह कोई उसे नहीं देखता कि वह पैदल जा रहा है। लेकिन जब का र में चलने वाला आदमी पैदल चलता है चारों तरफ लोग देखते हैं। और मजा सम झ लिजिए आप। गरीब आदमी कार में क्यों बैठना चाहता है। क्योंकि गरीब आदमी को कार में बैठे तो लोग देखते हैं। और अमीर आदमी जब पैदल चले तो लोग देख ते हैं। दोनों की आकांक्षा एक है कि लोग देखें। लेकिन अमीर जव पैदल चले तव दे खेंगे और गरीब जब कार में बैठे तब देखेंगे। दोनों की आकांक्षा में बुनियादी फर्क न हीं है। लेकिन अमीर की आकांक्षा और गरीव की आकांक्षा में स्थान का फर्क है। औ र वह स्थान यह है कि वह अमीर पहुंचकर लौट रहा है। अमीर अनुभव से लौट रहा है। गरीब अनुभव के पहले खड़ा है। इसलिए गरीव अगर संन्यासी भी हो जाएं तो भी ठीक अर्थों में संन्यासी नहीं हो पात । है क्योंकि जो उसने भोगा नहीं है, उसका त्याग कैसे कर सकता है। वह उसके म न में भोगने की कामना बनी ही रहती है। इसलिए गरीव अगर संन्यासी हो जाएं तो बहुत जल्दी आश्रम खड़ा करेगा। और अमीरों के सारे ढंग उस आश्रम में इकट्ठे हो ने शुरू हो जाएंगे। गरीब अगर संन्यासी होगा तो आश्रम खड़ा करेगा। अमीर अगर संन्यासी होगा, तो आश्रम खड़ा नहीं करेगा। जानकर आप हैरान होंगे, कि महावीर के संन्यासियों ने कोई आश्रम खड़ा नहीं किया। वह पैदल चलते रहे उन्होंने आश्रम खड़ा ही नहीं किया। वह धनी घरों से आनेवाले लोग थे, वह बड़े-बड़े मकानों में रह चुके थे। अब बड़े मकान बनाने का कोई सवाल नहीं था। गरीब घरों से जो संन्यासी आए जिन समजों के, उन्होंने बड़े-बड़े आश्रम खड़े कर लि ए और आश्रम में वही इंतजाम कर लिया जो गरीब आदमी अपने महलों में नहीं क र पाया था। एक शंकराचार्य हैं, कोई भी शंकराचार्य हो सोने का सिंहासन साथ लेकर चलते हैं। गरीव आदमी का सबूत है, यह गरीब घर से आ रहा है आदमी, गरीव ब्राह्मण है सं न्यासी हो गया है। सोने के सिंहासन पर बैठता है। वह कहता है नीचे मैं नहीं वैलूंगा, Page 85 of 150 http://www.oshoworld.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज मैं सोने के सिंहासन पर बैठेगा। सोने के सिंहासन पर बैठने की इच्छा थी, गरीब ब्रा ह्मण है मौका मिला नहीं. अब संन्यासी हो गया. अब मौका मिल गया वह कहता है हम नीचे नहीं बैठेगे हम सोने के सिंहासन पर बैठेंगे। आगे सिंहासन चलता है पीछे वह गरीब ब्राह्मण संन्यासी चलता है, वह कहता है पहले सोने का सिंहासन रखो फि र हम बैठेंगे। महावीर के लिए ले जाओ सोने का सिंहासन वह कहेंगे. यह क्या यहां ले आए। हम छूते नहीं अलग हटाओ यहां से। क्यों यह फर्क क्यों है। यह फर्क क्या है? यह फर्क यह है कि जो सोने के सिंहासनों से उतर कर आया है उसे सोने के सिंहासन कोई अर्थ नहीं रह गया। लेकिन जिसके मन में गरीब की जो कामना थी वह रह गई है अगर कोई भी मौका मिल जाए तो वह अमीर दिखाने के ढोंग पूरे के पूरे करेगा, व ह करेगा ही। मैं आपसे यह कहना चाहता हूं कि पश्चिम में अशांति है। लेकिन वह अशांति बहुत शुभ है। और भगवान वैसी अशांति इस मूल्क को कब देगा। इसकी प्रा र्थना करनी चाहिए। इस मूल्क की जो अशांति है बहुत दुःखद है, अभाव की अशांति है। उससे हम कब मुक्त हो जाएं तो अच्छा। यह मुझे दिखाई पड़ता है। कि पूरव के मुल्क धीरे-धीरे भौ तिकवादी होते चले जाएंगे। पश्चिम के मुल्क धीरे-धीरे आध्यात्मिक होते चले जाएंगे , होगा यह होगा ही। और जिन दिनों पूरव आध्यात्मवादी था वह उन दिनों था जव पश्चिम गरीब था और पूरब अमीर था। जब पूरव में भी अमीरी थी, तो पूरव आध यात्म की बातें करता था। अव अमीरी पश्चिम चली गई। पैंडूलम बदल गया है। अ व वह आध्यात्म की बातें करेंगे। अब आप नहीं। अब आपको तो कम्यूनिजम की बात करनी पड़ेगी। समाजवाद की बात करनी पड़ेगी, टैक्नोलोजी की बात करनी पड़ेगी। आपको तो बड़े उद्योग तंत्र खड़े करने पड़ेंगे। आ पको तो मटेरिलिजम की बात करनी पड़ेगी, आपको साईंस की बात करनी पड़ेगी। नहीं तो आप नासमझी में पड़ जाएंगे अमृतसर पर खड़े रह जाएंगे। और कहेंगे हरिद्व र पर लोग उतर रहे हैं तो हम चढ़ें ही क्यों? हम यहीं रूके रह जाएं जब उतरना ही है तो हम चढ़ते ही नहीं। भारत में इस तरह की बातें समझाने वाले लोग हैं व ह कहते हैं देखो पश्चिम की तरफ सब है फिर भी दुखी हैं। इसलिए किसी चीज की कोई जरूरत नहीं है। हिंदुस्तान में गरीबी की एक कल्ट, गरीबी का एक पंथ चल रहा है। दरिद्र को हम दरिद्र नारायण करते हैं। यह बड़ा खतरनाक शब्द है। दरिद्र नारायण, गरीबी को मेर नीफाई कर रहे हैं। गरीवी को ग्लोरीफाई कर रहे हैं। गरीवी को सम्मान दे रहे हैं। कह रहे हैं कि यह दरिद्र नारायण है। यह नकल है लक्ष्मी नारायण शब्द तो होता थ । दरिद्र नारायण शब्द विलकुल नया है। अभी-अभी गढ़ा गया है। लक्ष्मी नारायण श ब्द पुराना है। पैसा जिसके पास था उसको हम लक्ष्मी नारायण कहते थे। गरीव को हम कहते हैं दरिद्र नारायण है यह। Page 86 of 150 http://www.oshoworld.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वनस्था से एक मित्र ने जाकर कहा कि, 'गांधी जी कहते हैं, कि दरिद्र नारायण है।' दरिद्रता भी एक आध्यात्मिक बात बनाए दे रहे हैं वह । वह थर्ड क्लास में चलते हैं और कोई पूछता है कि, 'थर्ड में क्यों चलते हैं?' वह कहते हैं क्योंकि चूंकि फोर्थ क्लास नहीं है। वह गरीबी को एक आदर दे रहे हैं। वनस्था ने कहा, 'मैं गरीवी को घृणा करता हूं। उतनी ही जितनी प्लेग को, मलेरिया को। और दुनिया से गरीवी ि मटनी चाहिए। जड़ मूल से मिटनी चाहिए, गरीवी को बचाने की जरूरत नहीं है। ले कन गरीबी को अगर आदर देंगे तो फिर गरीबी मिटेगी नहीं बचेगी। और हिंदुस्तान गरीबी को आदर दे रहा है। और आदर देने के लिए वह तरकीबें खोजता है, वह एक तरकीब तो यह खोजता है कि देखो, जिनके पास सब है उनके पास भी क्या है। अशांत वह भी है, अशांत हम भी हैं। खत्म हो गई बात। कुछ, कुछ वैज्ञानिक साधनों से संपत्ति पैदा करने की ज रूरत नहीं। लेकिन यह बुनियादी फर्क ठीक से समझ लेना चाहिए गरीब आदमी भीत र से हमेशा अमीर होना चाहता है यह स्वभाविक है। और अगर समझ-बूझ को उस ने अपने को गरीब बना कर रोक लिया तो वह अमीर भी नहीं हो पाएगा। और अ मीरी के बाद जो गरीवी का सूख है वह भी उसे कभी नहीं मिल पाएगा। अगर सारी दुनिया समृद्ध हो जाए। और सारी दुनिया समृद्ध हो सकती है आज। वि ज्ञान ने वह स्थिति पैदा कर दी है कि अगर दुनिया से राष्ट्र मिट जाएं, अव राष्ट्रभर एक वीमारी रह गई है जिसकी वजह से दुनिया गरीव है। अगर दुनिया के राष्ट्र मि ट जाएं, और सारी दुनिया एक हो जाए तो आज विज्ञान ने इतनी ताकत पैदा कर दी है कि ना किसी को भूखे रहने की जरूरत है ना किसी को गरीव रहने की। सब समृद्ध हो सकते हैं। और अगर सब समृद्ध हो जाएं, तो मैं आपसे कहता हूं कि समा द्ध फिजूल हो जाएगी। और पहली दफा दुनिया में सरलता पैदा होगी, सादगी पैदा ह गी, अव तक पैदा नहीं हो सकी। अव तक सादगी एक तपश्चर्या रही है। लेकिन अ गर दुनिया पूरी समृद्ध हो जाए तो सादगी सहजता हो जाएगी। अगर सारी दुनिया में संपत्ति बिखर जाएं तो वह ऐसी ही हो जाएगी जैसे पानी और हवा है। कोई उसकी चिंता नहीं करेगा किसी को समझाना नहीं पड़ेगा कि धन का मोह मत करो, धन छोड़ो त्याग करो, समझाना ही नहीं पड़ेगा। धन कम है। इसलि ए धन का मोह है। धन थोड़े लोगों के पास है। इसलिए धन की आकांक्षा है। धन इ तना कम है कि धन की तृष्णा है। धन इतने मुश्किल से मिलता है कि आदमी सब गवां कर धन को इकट्ठा कर लेता है और धन में कुछ भी नहीं पाता। कि मैं मुश्कि ल में पड़ जाता है, धन जिस दिन हवा पानी की तरह होगा और आज हो सकता है लेकिन जिस देश में लोग गरीवी को आदर देंगे, और कहेंगे कि हम तो चरखा चला एंगे। हम बड़ी टैक्नोलोजी नहीं लाएंगे। हम तो पैदल चलेंगे, हम हवाई जहाज नहीं वनाएंगे हम तो बड़ी मशीन नहीं लगाएंगे। हम तो ग्रामोध्योग चलाएंगे, हम तो गांव गांव में स्वावलंबी बनेंगे। हम सैंटलाईज नहीं करेंगे। ऐसी वातें करने वाली कौम गर Page 87 of 150 http://www.oshoworld.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज व ही रहेगी और उसका चित्त हमेशा भौतिकवादी रहेगा. वह कौम कभी भी धार्मि क नहीं हो सकती और आध्यात्मिक भी नहीं हो सकती। लेकिन यह बड़ी उल्टी बातें मालम पडती हैं. क्योंकि हमको हमेशा यही सिखाया गया है कि धन कछ भी नहीं है लेकिन ध्यान रहे. धन कम है इसलिए लोगों को समझाना पड़ता है कि धन कछ भी नहीं है। इस समझाने में भी कि धन मिढ़ी है तच्छ है कछ भी नहीं है जो समझा ता है वह भी बताता है कि धन जरूर कछ है. नहीं तो समझाने की कोई जरूरत न हीं। हम कभी नहीं कहते लोगों से जाकर कि मिट्टी मिली है। हम यह कहते है कि सोना मिट्टी है, सोना मिट्टी नहीं होगा तभी कहते हैं नहीं तो नहीं कहते। कोई जरूरत न हीं है कहने की। हम कभी नहीं कहते कि कंकड़-पत्थर, कंकड़-पत्थर हैं। हम कहते हैं कि, हीरे-जवाहरात कंकड़-पत्थर हैं।' क्यों? यह हम किसको समझा रहे हैं? हम जो समझाते हैं ठीक उससे उल्टी हालत होगी इसलिए हम समझा रहे हैं नहीं तो स मझाने की जरूरत नहीं है। मेरी समझ यह है पांच हजार साल हो गए समझाते लोगों को, कौन धन से मुक्त हु आ है? हां, कुछ लोग मुक्त होते हैं। और वह वे ही लोग है जो किसी ना किसी अ र्थों में धन से गुजर जाते हैं। हां कुछ लोग और भी मुक्त होते हैं। लेकिन वह मुक्त होते दिखाई देते हैं, वह मुक्त नहीं हो पाते। वह धन से मुक्त होते ही नहीं, धन छो. ड देते हैं लेकिन मुक्त नहीं होते । वह हमेशा धन को पकड़े ही रहते हैं। नए-नए रू पों में पकड़े रहते हैं। मैं जयपुर में था। एक आदमी मेरे पास आया। और उसने कहा कि, 'फलां-फलां मुि न हैं। वहुत बड़े संन्यासी हैं आप उनसे मिलिएगा आपको बड़ी खुशी होगी।' मैंने कह [, 'आपने किस तराजू से पता लगाया कि वह बहुत बड़े मुनि हैं, कैसे तोला तुमने । क बहुत बड़े संन्यासी हैं। एक बड़े धनी आदमी को तोला जा सकता है कि बड़ा धन है कि धन के सिक्के नापे जा सकते हैं। एक आदमी को तोला जा सकता है कि व ह बहुत बड़े पद पर है। क्योंकि पद के सिक्के नापे जा सकते हैं।' मैंने कहा, 'तुमने कैसे पता लगाया कि बहुत बड़े संन्यासी हैं।' उसने कहा, 'पता, खुद जयपुर महाराज उनके चरण छूते हैं।' तो मैंने उससे कहा कि, 'भाई, ठीक से समझ लो, जयपूर महाराज बड़े हैं, वही मा प-दंड अगर जयपूर महाराज उनके चरण ना छूते हों संन्यासी के, संन्यसी छोटे हो ज एंगे। जयपूर महाराज क्यों बड़े हैं क्योंकि धन उनके पास ज्यादा है। तो धन ही संन्य सी को नाप रहा है। धन की ही तोल पर तराजू पर संन्यासी भी नापा जा रहा है। अगर गरीव का बेटा संन्यासी हो जाएं, कोई नहीं कहेगा त्यागी हैं लोग पूछेगे था क या जिसको छोड़ा। था ही नहीं कुछ, कुछ काम नहीं करना चाहता था काहिल है, सु स्त है, अनएमप्लाईड था, वेकार था। संन्यासी हो गया। लेकिन अमीर का वेटा संन्यासी हो जाएं लोग कहते हैं मान त्याग किया। इसलिए अ गर जैनों के, वौद्धों के ग्रंथ पढ़े तो उनमें लिखा हुआ मिलेगा कि इतने घोड़े थे महा Page 88 of 150 http://www.oshoworld.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वीर के पास, इतने हाथी थे, इतने रत्न थे, इतने रथ थे , इतना यह था, इतना य ह था. इतना लंबा शिलशिला बताते हैं यह सब होने का क्यों? क्योंकि महावीर कि तने बड़े त्यागी थे। और तो कोई रास्ता नहीं त्याग का। कहानी वहत अदभत है महावीर की। कहानी यह है कि महावीर का पहले गर्भ एक ब्राह्मण के घर में हुआ। एक गरीव ब्राह्मणी के पेट में वो आए। कहानी बड़ी अर्थपू र्ण है। देवताओं ने कहा, 'ऐसा कभी हुआ है कि तीर्थांकर गरीव के घर में पैदा हुआ । और अगर गरीब के घर में पैदा होगा तो लोग पहचान ही नहीं सकेंगे। तो देवता ओं ने गरीब ब्राह्मणी के पेट से निकलकर महावीर को राजा की पत्नी के पेट में रख दिया। और राजा की पत्नी के पेट के गर्भ को निकाल कर ब्राह्मणी के पेट में रख दिया। देवताओं ने बड़ा अच्छा काम किया। नहीं तो महावीर को कभी कोई पहचान नहीं सकता था कि कितने बड़े त्यागी हैं। कितने ही बड़े त्यागी होते, लेकिन पहचान ना मुश्किल हो जाता क्योंकि तोलना मुश्किल हो जाता। रुपए से हम तोलते हैं त्याग को भी। और यह जो लोग निरंतर भौतिक वाद को गाली देते हैं। निरंतर, जब कोई आदमी कहता है मटिरियलिस्ट तो ऐसा लगता है कि बड़ी भारी निंदा कर रहा है वह। ले कन आपने कभी सोचा हर आदमी मटिरियलिस्ट है, हर आदमी। महावीर को भी भो जन करना पड़ेगा, और वुद्ध को भी, और भोजन मैटर है कोई आत्मा नहीं है। महा वीर को भी सांस लेनी पड़ेगी, कृष्ण को भी मुझको भी सांस लेनी पड़ेगी, आपको भी और सांस सांस मैटर है, कोई आत्मा नहीं है। जीना ही मैटर के भीतर है। जीना ह । पदार्थ के बीच है। जीवन ही पदार्थ के बीच है। तो पदार्थ से भागकर जाओगे कहां ? कैसे जाआगे? और सच तो यह है कि पदार्थ और जिसे हम परमात्मा कहते हैं य ह दो चीजें नहीं है एक ही चीज के दो नाम हैं। कहीं ऐसा नहीं है कि पदार्थ कुछ अलग है, और परमात्मा कुछ अलग है। पदार्थ जो दिखाई पड़ता है वह परमात्मा है। और परमात्मा जो पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता है वह पदार्थ है। डिविज्विल पार्ट वह जो दिखाई पड़ता है परमात्मा उसका नाम पदार्थ है। द इनविज्वल मैंटर। जो पदार्थ नहीं दिखाई पड़ता उसका नाम परमात्मा है। परम त्मिा ही सघन होकर पदार्थ है। और पदार्थ ही विरल होकर परमात्मा है। कोई परम त्मिा और पदार्थ दो चीजें नहीं हैं। दोनों एक ही चीज के दो रूप हैं। इसलिए यह स व पागलपन की बातें हैं कि कोई कहे कि फलां मटिरियलिस्ट है और हम स्प्रिच्युलइस ट हैं। हम आध्यात्मवादी है, और फलां भौतिकवादी हैं। इस तरह की बातें सिर्फ अज्ञ न के सबूत है और कुछ भी नहीं। हां, यह हो सकता है कि एक आदमी पदार्थ पर ही रूक जाएं और आगे खोज ना करे कि पदार्थ के और सूक्ष्मतम लोग भी हैं जहां परमात्मा की. . .। आदमी पदार्थ पर रूक सकता है। लेकिन जो पदार्थ को ही नहीं पकड़ पाता, समझ पाता वह और आगे कैसे बढ़ पाएगा। वह सिर्फ गालियां दे सकता है, गालियां देने से तृप्ति मिलती है और कुछ भी नहीं होता। Page 89 of 150 http://www.oshoworld.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज एक, एक पश्चिम का विचारक है। वह हिंदुस्तान आया हुआ है। एक दो छोटी-सी घ एं फिर मैं अपनी बात परी करूं वह हिंदस्तान आया। वह दिल्ली उतरा। वह जैसे ही दिल्ली के स्टेशन पर उतरा एक सरदार जी ने उसका हाथ पकड़ लिया। जार्ज माईस उसका नाम था। सरदार ने उसका हाथ पकड़ लिया, और जल्दी से बिना उस के कहे वह सरदार उसका बताने लगा भविष्य और अतीत और जन्म और मृत्यु औ र रेखाओं का अर्थ। उस जार्जमाईस ने कहा, 'क्षमा करिए मैं जानना ही नहीं चाहत । हूं। मैं जानना ही नहीं चाहता हूं आप मांफ करिए। मुझे भविष्य को जानने की को ई उत्सुक्ता नहीं है। मैं अभी जीना चाहता हूं। इसी क्षण जब भविष्य आएगा तब फि र जीऊंगा, अभी तो भविष्य आया नहीं है। जी सकता नहीं है। इसलिए उसकी फिक्र , बकवास में समय नहीं खोना मुझे। मैं अभी जीना चाहता हूं। तो सरदार ने कहा, 'मटिरियलिस्ट हो तुम, अभी जीना चाहते हो। और जो भविष्य की रेखा पूछ रहा है कि कल क्या होगा, परसों क्या होगा, कब मरूंगा, यह आध्या त्मवादी है। सच बात यह है कि यह भौतिकवादी से ज्यादा भौतिकवादी है। वह वेचा रा आज की फिक्र कर रहा है यह कल की भी फिक्र कर रहा है। इसकी एनजाईटी, इसकी चिता, इसका लाभ, कल तक फैला हुआ है। लेकिन वह सरदार जी बताएं ही चले गए। उस आदमीने कहा, 'माफ करिए, मैं सिर्फ शिष्ठता वश अपना हाथ आ पसे नहीं छुड़ा रहा हूं, मैं जानना ही नहीं चाहता।' लेकिन सरदार ने कहा, 'मेरी दो रुपया फीस हो गई है। इतनी देर मैंने बताया, दो रुपया मेरी फीस दे दीजिए।' उस आदमी ने दो रुपया फीस दे दी। सरदार फिर और आगे बोलने लगा। उस आदमी ने कहा, 'माफ करिए, आपकी फीस फिर हो जाएग ी, और मैं जानना ही नहीं, चाहता।' सरदार ने क्या कहा पता है कहा कि, 'तुम भ तिकवाद हो नीरे, दो रुपए के पीछे भविष्य भी नहीं जानना चाहते।' जार्जमाईस ने अपने संस्मरण में लिखा है कि भौतिकवादी कौन था मैं समझ ही नहीं पाया। मैं या वह आदमी जो बता रहा था। वह दो रुपया खींचने के लिए जबरदस्ती मुझे बताए चला जा रहा था। और जब मैं इनकार करता हूं दो रुपए दे चुका हूं और आगे दो रुपया देने से इनकार करता हूं तो मुझे गाली देता है कि तुम भौतिकवादी हो पश्चि म के लोग। दो रुपए के पीछे मरे जा रहे हो। यह हमारी, यह हमारी चित्त दशा अध्यात्मवाद है यह। हम बहूत भौतिकवाद के भी नीचे तल पर खड़े हैं। लेकिन अपने मन को फूलाने के लिए अध्यात्म की बातें किए चले जा रहे हैं। और क्या करते हैं अध्यात्म की बातें। एक दूसरी घटना मैंने पढ़ा तो मैं हैरान हुआ, एक विचारक, एक किताब पढ़ा स्वामी शिवानंद ने एक किताब लिखी है ऋषिकेश के, अब तो वह चल बसे, स्वर्गीय हो गए उस किताब में उन्होंने लिखा है कि जो अ उम् का जाप करे निरंतर सच्चे भाव से भावना से ओउम् का पाठ करे। उसको कभ । कोई वीमारी नहीं छू सकती। वह सदा स्वस्थ रहेगा। यहां तक कि अगर ओउम् क Page 90 of 150 http://www.oshoworld.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज [ पूरे भाव से पाठ किया जाए तो उस ओउम् का पाठ करने वाले को मृत्यु नहीं आ ती वह अमर हो जाता है। एक डाक्टर ने यह पढा. और उसने यह भी पढ़ा कि शिवानंद जी पहले खद डाक्टर थे संन्यासी होने से पहले। तो उसने कहा कि एक डाक्टर जब ऐसी बात लिखता है तो किसी आधार पर लिखा होगा।' वह आदमी यूरोप से हिंदुस्तान आया। वह भा गा हुआ ऋषिकेश गया, और उसने कहा कि, 'मैं जाकर पहले उनके दर्शन कर लूं। और यह ओउम् का पाठ सीख लूं, क्योंकि अगर ओउम् के द्वारा सब बीमारियां दूर हो सकती हैं तो यह मेडिकल कालेज, और यह मेडिकल का इतना जाल, और इतन 1 दवाईयां यह सब फिजूल हो जाएंगी। इतनी सस्ती तरकीव मिल जाए तव तो बहुत अच्छा है।' वह गया, उसने जाकर स्वामीजी के दफ्तर में जाकर क्लर्क को पूछा, उनके सेकरेट्री को पूछा कि, 'मैं स्वामीजी के दर्शन करना चाहता हूं इसी वक्त।' उनके सेकरेट्री ने कहा, 'स्वामीजी अभी नहीं मिल सकते।' उसने कहा, 'क्यों? क्योंकि वह बीमार प. डे हैं डाक्टर उनकी परीक्षण कर रहा है। उसने कहा, 'यह कभी हो ही नहीं सकता कि स्वामी जी बीमार पड़ जाएं। उन्होंने तो लिखा है किताब में कि ओउम् के पाठ करने से कोई बीमारी कभी नहीं आती, वह तो मर भी नहीं सकते। क्योंकि उसमें ि लखा है कि, 'ओउम् का पाठ करने से मृत्यु भी पास नहीं आती आदमी अमर हो ज ता है। तो उस सेकरेट्री ने क्या कहा है? पता है उसने कहा, 'तुम सव भौतिकवादी हो, तु म समझे ही नहीं उनका मतलब। वह आत्मा की अमरता की, और आत्मा के स्वास्थ य की वातें कर रहे हैं। शरीर की नहीं।' अव आत्मा कभी मरती है, अगर मरती ह ो तो फिर ओउम् का पाठ करने से अमर हो सकती है। आत्मा कभी वीमार पड़ती है, अगर बीमार पड़ती हो तो ओउम् के पाठ करने से स्वस्थ्य हो सकती है। वह बे चारा हैरान हो गया, उसने कहा कि, 'यह तो वात शरीर की होनी चाहिए। शरीर ही बीमार पडता है, शरीर ही मरता है।' लेकिन उस सेकरेट्री ने कहा, 'आप अजीव से आदमी आ गए हैं, हजारों आदमी आ ते हैं और हजारों आदमी स्वामीजी की किताब पढ़ते हैं। इस तरह के प्रश्न कोई भी नहीं उठाता। हम कभी इस तरह के प्रश्न उठाएंगे नहीं। अगर हमको स्वामीजी वीम र मिल जाएं, मरे हुए भी मिल जाएं तो हम कहेंगे कि स्वामीजी लीला दिखा रहे हैं | स्वामीजी कहीं मर सकते हैं। लीला कर रहे हैं, नाटक कर रहे हैं, भक्तों की परि क्षा ले रहे हैं। अरविंद मर चुके हैं लेकिन आश्रम में अभी भी यह माना जा रहा है । क वह जिंदा हैं, अभी मरे नहीं। अरविंद आश्रम में कोई मानने को राजी नहीं कि अ रविंद मर गए। क्योंकि अरविंद ने अपनी किताबों में लिखा है कि मैंने फिजिकल इम ोर्टलिटी को पा लिया। मैं शारीरिक रूप से अमर हो गया हूं। और मेरे योग का जो पालन करेगा वह शारीरिक रूप से अमर हो जाएगा वह कैसे मर सकता है? Page 91 of 150 http://www.oshoworld.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज अरविंद के आश्रम में अभी भी लोग यही मानते हैं, कि वह जिंदा है वह मरे नहीं सर्फ अदृश्य हो गए हैं। बड़े आध्यात्मीक लोग हैं, बड़े आध्यात्मवादी लोग हैं। और व हां बैठकर जो अरविंद का योग साध रहे हैं, वह किस लिए साध रहे हैं कि वह भी फिजिकली इम्मोर्टल हो जाएं। उनका शरीर भी कभी ना मरे । यह बड़ी आध्यात्मिक बात कर रहे हैं आप कि शरीर कभी ना मरे। आध्यात्मिक व्यक्ति वह है जो जीवन और मृत्यु को बराबर मान लेता है। आध्यात्मिक व्यक्ति वह है जो पदार्थ और पर मात्मा को बराबर मान लेता है। आध्यात्मिक व्यक्ति वह है जिसे अंधेरा और प्रकाश समान हो जाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति वह है जिसे सुख और दुःख एक ही हो जा ते हैं। लेकिन यह तो हमारी स्थिति नहीं है। हम निपट भौतिकवादी है। लेकिन आध्यात्मिक की खोल ओढ़े हुए वह झूठी खोल हो वह झूठा आदमी आध्यात्म के ऊपर बैठा है। और भीतर निपट भौतिकवादी आदमी बैठा है। और भीतर निपट भौतिकवादी आदम बैठा है। यह सब का सब जानना विचारना खोजना जरूरी है ताकि भारत की सच् ची प्रतिभा निखर सके, और प्रकट हो सके। भारत की प्रतिभा की रूकावट में यह स रे कारण हैं। यह थोड़े से प्रश्नों के आधार पर मैंने कुछ बात कही । कुछ और प्रश्न रह गए। कल संध्या होने के बाद कहूंगा। कल सुबह अंतिम सूत्र पर बात करूंगा कि भारत की स मस्याएं और उसकी प्रतिभा को रोकने में, कहां अटकाव है, कहां पत्थर है, कहां दी वार है। मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे अनुग्रहित हूं। और अंत में सब के भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें। ओशो नए भारत की खोज टाक्स गिवन इन पूना, इंडिया डिस्कोर्स नं० ५ मेरे प्रिय आत्मन् बीते दो दिनों में भारत की समस्याएं और हमारी प्रतिभा, इस संबंध में कुछ बातें मैं ने कहीं। पहले दिन, पहले सूत्र पर मैंने यह कहा, 'कि भारत की प्रतिभा अविकसित रह गई है पलायन एसकेपीजम के कारण। जीवन से बचना और भागना हमने सीखा है जीवन को जीना नहीं, और जो भागते हैं। वह कभी भी जीवन की समस्याओं को हल नहीं कर सकते। भागना कोई हल न हीं है, समस्याओं से पीठ फेर लेना और आंख बंद कर लेना कोई समाधान नहीं है। समस्याओं को ही इनकार कर देना, झूठा कह देना, माया कह देना, समस्याओं से अ Page 92 of 150 http://www.oshoworld.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज खि बंद कर लेना तो है। लेकिन उस भांति समस्याओं से मुक्ति नहीं मिलती। मन क ो राहत मिलती है कि समस्याएं हैं ही नहीं। लेकिन समस्याएं जीवित रहती है, विज य हैं। और समस्याएं जितना नकसान पहुंचा सकती है पहंचाती हैं। और जो समस्या विना हल की हई रह जाती है वह मस्तिष्क में घाव और बीमारी की गांठ बन जात है कोम्प्लैक्स वन जाती है। और भारत ने अपने इतिहास में समस्याएं इतनी इकट्ठी कर ली हैं। कि आदमी उन के नीचे दब गया है जैसे पहाड़ के नीचे दब गया हो। दूसरे दिन मैंने कहा कि, 'भारत की प्रतिभा के विकास में दूसरी वात वाधा बन गई है। और वह है परंपरावाद, ट्रेडीशनलटी। परंपरावादी चित्त हमेशा पीछे की तरफ दे खता है। आगे की तरफ उसकी आंखें नहीं होती हैं। समस्याएं आगे से आती हैं और परंपरावादी चित्त के समधान पीछे से आते हैं। समस्याएं सदा आगे से आती हैं और समाधान सदा पीछे से आते हैं। उनका कोई तालमेल नहीं बैठ पाता। उनमें कोई सं बंध नहीं हो पाता। समाधान अलग इकट्ठे होते चले जाते हैं। समस्याएं अलग इकट्ठी होती चली जाती हैं। और एक चमत्कार घटित होता है। समस्याओं के बोझ से भी हम दब जाते हैं और समाधानों के बोझ से भी। भारत की प्रतिभा को समस्याएं भी नुकसान पहुंचा रहीं हैं और भारत के तोते की तरह सीखे गए समाधान भी नुकसान पहुंचा रहे हैं। यदि समाधान पकड़ लिए जाएं और समस्य ओं से उनका कोई मेल ना होता हो तो वे समाधान नए समाधान खोजने में बाधा वनते हैं। और हमें यह भ्रम पैदा होता है कि हम तो समाधान जानते हैं। भारत को ज्ञानी होने का भ्रम पैदा हो गया है और इसलिए भारत ज्ञानी भी नहीं हो सकता है , नहीं हो पा रहा है। हम अपने अज्ञान में ठहर गए हैं क्योंकि ज्ञानी होने का भ्रम पै दा हो गया। एक छोटी-सी कहानी से मैं यह बात साफ करूंगा। फिर तीसरे सूत्र पर आपसे वात करूंगा। एक छोटी कहानी आपने सुनी होगी, सुना होगा वहुत पुरानी कहानी है। सुना होगा, कि एक राजमहल के चूहों ने बैठक की और विचार किया कि हम बहुत परे शान हैं। विल्लीयां सदा से हमें परेशान कर रही हैं। हम क्या करें बचाव का उपाय? तो उन चूहों के बूढ़े चूहे ने कहा, 'एक ही रास्ता है कि बिल्ली के गले में घंटी वां ध दी जाए।' लेकिन घंटी कोई कैसे बांधे? घंटी कौन बांधे, फिर हजारों साल बीत गए इस बात को जब भी विल्ली ने चूहों को परेशान किया चूहों ने सभा की, और ि फर वही समाधान बूढ़ों ने दिया कि घंटी बांध दो। लेकिन फिर चूहों ने कहा, 'घंटी कौन बांधे। घंटी कैसे वांधी जाए।' समाधान तो मा लूम है कि बिल्ली के गले में घंटी बंध जाए, घंटी बजती रहे तो चूहे सावधान हो ज एं और विल्ली हमला ना कर पाएं। लेकिन यह समाधान, समाधान ही है विल्ली चू हों को खाती ही चली जाती है। और यह समाधान पूरा हो नहीं पाता। और चूहों के पुराणों में लिखा है कि यह तो पहले से ही समाधान गुरुओं ने दिया हुआ है ऋषिमुनियों ने लेकिन समाधान पूरा नहीं हो सकता। फिर मैंने सुना है कि वीसवीं सदी में Page 93 of 150 http://www.oshoworld.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज फिर एक महल में यही मुसीबत, यह मुसीबत सदा रहेगी, जब तक चूहे हैं बिल्ली यां हैं मुसीवत रहेगी। फिर चूहे इकटे हुए, उन्होंने कहा, 'क्या करें? कैसे विल्ली से बचें।' फिर बूढ़े चूहों ने कहा, 'समाधान तो हमारे ग्रंथों में लिखा हआ है। ऋषि-मनियों ने बताया हआ है कि विल्ली के गले में घंटी बांध दो। लेकिन फिर सवाल यह है कि घंटी कौन बांधे ? घंटी कैसे बांधे। दो जवान चहों ने कहा 'घंटी कल सबह हम वांध देंगे।' बढे हैं ने लगे। उन्होंने कहा, 'ना समझ हो, बच्चे हो घंटी कभी बांधी नहीं गई, बांधोगे के से?' लेकिन दूसरे दिन सुबह उन चूहों ने घंटी बांध दी। और बूढ़े बहुत हैरान हुए। यह तो कभी ना हुआ था। और उन जवान चूहों से पूछने लगे, 'तुमने घंटी बांधी के से? उन जवान चूहों ने कहा, 'आपने समाधान पकड़ लिया था और यह बात भी पकड़ ली थी कि यह हो नहीं सकता। और जो नहीं हो सकता उसको पकड़ा था। और नह । हो सकता यह भी पकड़ा था। इसलिए सोचने के आगे द्वार बंद हो गए। यह तो व हत आसान बात थी। उन दो जवान चूहों का एक कैमिस्ट की दुकान में आना जान | था वह नींद की गोली निकाल लाए। और बिल्ली के दूध में गोली डाल दी और घं टी बांध दी। बिल्ली सो गई, बेहोश हो गई, और घंटी बांध दी गई। लेकिन हजारों साल से बूढ़े चूहे यही कह रहे थे कि समाधान यही है और यह हो नहीं सकता। दो नों बातें पकड़े हुए हैं सोचना मुश्किल हो गया था। भारत के मन में भी समस्याएं पूरातन हैं। समाधान भी पूरातन हैं और करीब-करीब सव समाधान ऐसे हैं कि उनके साथ यह भी जुड़ा है कि यह हो नहीं सकता, हिंसा है अहिंसा समाधान है और हम सब जानते हैं कि अहिंसा हो नहीं सकती। गरीवी समस्या है और अपरिग्रह समाधान है कि धन का त्याग कर दो। और यह भी हम जानते हैं कि यह हो नहीं सकता। समाधान है वह भी हम जानते हैं नहीं हो सकता यह भी हम जानते हैं। और इन सबको पकड़े हुए बैठे हैं। समस्याएं खाए चली जात । हैं। समाधान दोहराए चले जाते हैं, नहीं हो सकता है यह भी जाने चले जाते हैं, प्रतिभा के लिए नए उपाय, नए आयाम, नए द्वार, तोड़ने का मार्ग नहीं रह जाता। तीसरे सूत्र में आपसे मैं कहना चाहता हूं जो समाज भी आदर्शवादी होगा। वह समा ज सड़ जाएगा, मर जाएगा, वह समाज विकसित नहीं हो सकता। यथार्थवादी समाज होना चाहिए। प्रतिभा का विकास यथार्थवाद के मार्ग से तो होता है आदर्शवाद के मार्ग से नहीं होगा। वह जो अइडीयलिस्ट है वह बातें तो आकाश की करता है। और समस्याएं जमीन की। और उसकी बातें बहुत अच्छी लगती हैं। लेकिन वह आकाश की हैं। और समाधान चाहिए पृथ्वी पर, और पृथ्वी का उससे कोई संबंध नहीं। भारत अच्छे लोगों के चक्कर में हैं। और अच्छी बातों के चक्कर में हैं। और अच्छे लोगों का चक्कर उतना ही खतरनाक है जैसे किसी आदमी के हाथ में सोने की जंज रें डाल दी जाएं। जंजीरें तो खतरनाक होती है, लेकिन सोने की जंजीरें और खतर नाक होती हैं। क्योंकि वह जंजीरें भी होती हैं और सोने की वजह से उनको छोड़ने Page 94 of 150 http://www.oshoworld.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज की हिम्मत जुटानी मुश्किल हो जाती है। भारत के चित्त पर जो जंजीरें हैं वह जंजी रें भी हैं और साथ सोने की हैं अच्छी-अच्छी बातों की हैं। संतों की है साधु-संन्यासि यों की हैं। उनको छोड़ना भी मुश्किल है । और वह जंजीरें भी हैं। और वह चित्त को पकड़े हैं, और वह चित्त को विकसित भी नहीं होने देती । वह चित्त को नए ढंग से सोचने की हिम्मत, नए ढंग से सोचने का साहस भी नहीं जुटाने देतीं । आदर्शवाद का क्या अर्थ होता है ? आदर्शवाद का अर्थ होता है, जो है वह महत्त्वपूर्ण नहीं है, जो होना चाहिए वह महत्त्वपूर्ण है । और जो है वही वस्तुतः महत्त्वपूर्ण है और जो होना चाहिए उसका कोई भी मूल्य नहीं है क्योंकि वह नहीं है। जो होना च ाहिए वह है नहीं। उसका महत्त्वपूर्ण है आदर्शवादी चित्त में और जो है उसका कोई मूल्य नहीं। और जो है उससे ही सारे मार्ग निकल सकते हैं। बीज, वृक्ष हो सकता है । लेकिन बीज वृक्ष है नहीं। बीज है बीज । वृक्ष होने की संभावना है। संभावना हो भ सकती है नहीं भी हो सकती । लेकिन बीज है। होने ना होने का सवाल नहीं है । और अगर बीज कहीं वृक्ष होने के सपनों में पड़ जाए, सपने देखने लगे, और सपने में मानने लगे कि मैं वृक्ष हो गया हूं तो बीज बीज रह जाएगा और वृक्ष कभी नहीं हो पाएगा। बीज को अगर वृक्ष भी होना है तो अपने बीज होने को ही समझना पड़ेगा। उसके बीज होने से ही वह मा र्ग निकलेगा जो वृक्ष तक पहुंचता है। लेकिन बीज एक सपना देखने लगे कि मैं एक वृक्ष हो गया हूं। और वृक्ष होने की कल्पना में खो जाए दिवास्वप्न में खो जाए, त बीज बीज ही बना रहेगा वृक्ष सपना होगा । और वृक्ष वह कभी भी नहीं हो पाएगा । भारत मनुष्य जो है, उसे भुलाने की कोशिश में लगा हुआ है। और जो नहीं है और जो होना चाहिए उसकी तस्वीर मनुष्य के चित्त पर उसका ढांचा, उसकी आकृति को खोजने में लगा है। हम एक-एक आदमी को समझा रहे हैं कि तुम स्वयं परमात्म हो। सच्चाई यह है कि हर आदमी परमात्मा नहीं है सिर्फ पशु हैं। आदमी शु है यह सत्य है। आदमी परमात्मा हो सकता है यह संभावना है लेकिन हम समझा रहे हैं आदमी परमात्मा है। साधु संन्यासियों के पास पापी बैठकर बहुत सिर हिलाते हैं। और कहते हैं धन्य महाराज बहुत ठीक आप कह रहे हैं क्योंकि वह साधु-संन्यासी स मझाते हैं क्या? वह समझाते हैं तुम परमात्मा हो, तुम्हारे भीतर स्वयं सच्चिदानंद व्र ह्म का निवास है। तुम वही हो, और पापी बड़ा प्रसन्न होता है। अपने को भुलने में सुविधा मिल जाती है। वह जो है, उससे बचने का रास्ता मिल जाता है। सपने में वह ब्रह्म हो जाता है । औ र वस्तुतः वह पशु बना रहता है। और उसके पशु होने में और ब्रह्म होने में एक दी वार खड़ी जाती है। होता है पशु, उसे छिपा लेता है। जो नहीं होता उसका अभि नय करने लगता है। और इस तरह भारत का पूरा व्यक्तित्व स्पलीट पर्सनेलिटी है। पूरा व्यक्तित्त्व खंड-खंड हो गया है। दो बड़े खंडों में टूट गया है जो हम नहीं हैं वह हम अपने को मानते हैं। और जो हम हैं वह हम अपने को जानना भी नहीं चाहते मानने की तो बात दूर है। हम उस तरफ आंख भी नहीं उठाना चाहते। Page 95 of 150 http://www.oshoworld.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज बड़ी तरकीब है यह। आदमी पशु है यह भारत में यह आज तक स्वीकृत नहीं हो स का। और आदमी पशु है । पशुओं की बड़ी जमात्ता ही एक हिस्सा है। और जब तक हम आदमी की इस पशुता के तथ्य को यह रियल्टी है यह यथार्थ है इसको स्वी कार नहीं करते तब तक इसके रूपांतरण का भी कोई मार्ग नहीं मिल सकता है। ह मने क्या रास्ता निकाला है। हमने पशुता को इनकार ही कर दिया। हमने परमात्मा होने को स्वीकार ही कर लिया। हमारे शास्त्र घोषणा कर रहे हैं आदमी परमात्मा है । और वह जो हम हैं, इस परमात्मा के शोरगुल में उसको छिपाए बैठे हैं। ऊपर वा तें चलती जाती हैं, आदर्श की, भीतर वह जो असली अदमी है वह मौजूद है । और तब एक बड़ा तनाव पैदा होता है, बड़ी एनजाइटी, बड़ी चिंता पैदा होती है कि यह क्या है? और एक बड़ा दुःख पैदा होता है, बड़ा खीचाव पैदा होता है कि यह क्या है? हम हैं कुछ, और होने के कुछ और भ्रम में पड़े हुए हैं। और जो हम नहीं हैं उसको दिखाने का अभिनय कर रहे हैं। उसे दिखाने की पूरी चेष्ठा कर रहे हैं। और जो हम हैं उसे छिपाने की चेष्ठा कर रहे हैं। भारत की प्रतिभा के विकास में एक डिच पैदा हो गई है, एक खाई पैदा हो गई है। और वह खाई है यथार्थ और आदर्श के बीच की खाई । और वह खाई इतनी बड़ी है कि हमने एक तरकीब से उसे पूरा कर लिया, यथार्थ को हमने भुला ही दिया है। और आदर्श को हमने स्वीकार कर लिया है कि हम यह हैं । वीज ने मान लिया है कि वह वृक्ष है और वृक्ष होने की यात्रा बंद हो गई हैं। मनुष्य क पशुता को स्वीका र करने में भी बड़ी कठिनाई होती है। क्योंकि हमारे अहंकार को चोट लगती है जब डार्विन ने पहली दफा यह बात कही, और डार्विन ने मनुष्य के आध्यात्मिक उत्थान के लिए एक बहुत बड़ा सूत्र स्थापित किया कि आदमी पशुओं से आता है । तो सार दुनिया के धार्मिक लोग डार्विन के विरोध में खड़े हो गए। उन्होंने कहा, 'यह क्या बात कर रहे हो। आदमी और पशुओं से, कभी नहीं । आदमी तो परमात्मा से पैदा हुआ है। आदमी तो परमात्मा है। आदमी तो परमात्मा का पुत्र है। पशुओं का पुत्र, झूठ है यह बात, यह हम स्वीकार नहीं कर सकते।' लेकिन क्यों? क्योंकि पशुओं की संतती होने में अहंकार को चोट लगती है । वह जो आदमी ने अपनी ही कल्पना में अपने को परमात्मा मान रखा है। वह खत्म हो जात ा है। लेकिन तथ्य यही है । क्या है हमारे भीतर जो पशुओं के भीतर नहीं है ? वह ज ो पशुओं के भीतर है वही हमने नए नए रूपों में प्रकट हुआ है। वह जो पशुओं के भीतर है उसी श्रृखंला की हम आगे की एक कड़ी हैं। लेकिन आदमी बेईमान है। औ र उसने अपने को धोखा दे रखा है। और जो चीजें पाश्विक हैं उनको भी वह बहुत ऊंचे सिद्धान्तों के नाम पर सोने चांदी का मुलम्मा चढ़ा कर पेश करता L अगर मेरी पत्नी किसी की तरफ मुस्कराकर देख ले तो मेरे दिल में आग लग जाती है। छुरा निकल आएगा वहार प्रेम वगैराह सब विलीन हो जाएगा। वह वही की वह की बात, एक पशु की मादा अगर दूसरे पशु की तरफ देख ले तो खुंखार पशु फौरन दूसरे पर टूट पड़ेगा। वह उसके बर्दाश्त के बाहर है लेकिन हमने बड़े अच्छे सिद्धांत Page 96 of 150 http://www.oshoworld.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज बनाए हए हैं कि यह पत्नी धर्म है. यह पति धर्म है। यह एक पतिवता है. यह प्रेम एक के साथ ही हो सकता है। और वह जो पशता की वत्ति है कि प्रेम भी पजेशन. प्रेम भी मालकियत चाहता है। प्रेम भी मालिक बनने का एक ढंग है। वह जो पशु क । प्रवृत्ति है वह काम कर रही है। लेकिन अच्छे सिद्धांतों में हम उसको घेर रहे हैं। पशु आपनी जमीन पर अगर दूसरे पशु को आ जाना वर्दाश्त नहीं कर सकता। वह ि जस जमीन पर रहता है. जिस झाड के नीचे रहता है उसके नीचे दसरे को ठहरना वर्दाश्त नहीं कर सकता। हार जाए तो ठहर सकता है, जीत जाए तो हटा देगा दुश्म न को। लेकिन शेयर नहीं कर सकता, बांट नहीं सकता। व्यक्तिगत संपत्ति उसी पशू ता का हिस्सा है। मेरी जमीन, मेरा मकान, मेरा घेरा, मेरे मकान की बाउंड्री की दी वार इस तरफ मत आना। एक इंच जमीन छोड़ना मुश्किल है। और हम आदमी है, और हम परमात्मा हैं, और भीतर वही पशू वैठा हुआ है। जो कहता है मेरी जमीन के घेरे से मत फंसना। लेकिन पशू बेचारे सीधे साफ हैं वह जैसे हैं, वैसे हैं, उन्होंने कोई फिलोस्फी खड़े करके धोखे की आढ़ नहीं ली। मैंने सुना है। एक आदमी और उसकी पत्नी ने यह तय किया हुआ था कि दोनों में से जो पहले मर जाए वह मरने के बाद जो जीवित है उसे संपर्क स्थापित करने की कोशिश करे, और उस जन्म उस जीवन के संबंध में बताएं जहां वह पहुंच गया है। पति को मरे हुए एक वर्ष हो गया। पत्नी रोज राह देखती रही कि पति संपर्क साधे गा, अव साधेगा अव । लेकिन नहीं, कुछ नहीं पता नहीं चला। कोई उपाय भी नहीं था सिवाय प्रतिक्षा के। लेकिन एक सांझ पत्नी अखवार पढ़ रही थी अचानक उसे पी त की आवाज सुनाई पड़ी, और पति ने कहा, 'अरे! सुनती हो, क्या कर रही हो, क्या खबर है आज की। अब पत्नी तो हैरान हो गई। वह ऐसे पूछ रहा है जैसे अभी दस मिनट पहले किनारे के चौरस्ते पर चाय पीने गय । हो, लौट कर आया हो। लेकिन एक वर्ष हो चुके उसके मरे हुए। पत्नी ने चौंककर देखा वह कहीं दिखाई नहीं पड़ता। उसने खुशी से कहा, 'अच्छा! तो तुम हो, कहां हो? मजे में तो हो।' उस आवाज ने कहा, 'बहुत मजे में हूं। और देखती हो पास के खेत में जो गाय चर रही है। उस गाय की चमड़ी बड़ी मुलायम है बहुत सुन्दर है ।' उस पत्नी ने कहा, 'और सुनाओ उस जीवन के बावत। उसे बड़ी हैरानी हुई कि गाय के बावत बता रहा है। और बताओ उस जीवन के बाबत। उस आदमी ने कह I, 'इतनी सुंदर गाय मैंने नहीं देखी, बहुत सुंदर है, बहुत आकृषित करती है। उसक । पत्नी ने कहा, 'छोड़ो उस मूर्ख गाय को उससे क्या लेना देना है। सवाल यह है ि क मैं जानना चाहती हूं उस जीवन के संबंध में कि तुम जहां हो वहां के संबंध में कुछ बताओ।' उस आदमी ने कहा, 'शायद मैं बताना भूल गया, कि मैं सांड हो गया हूं। और सिव य गाय के मुझे और कुछ भी नहीं सूझ रहा। लेकिन एक पशु सीधा है साफ है। व ह कहता है मैं सांड हो गया हूं, मुझे गाय के सिवाय कुछ भी नहीं सूझ रहा है। पुरु प को स्त्री के सिवाय कुछ भी नहीं सूझता। स्त्री को पुरुष के सिवाय कुछ भी नहीं Page 97 of 150 http://www.oshoworld.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज सूझता। लेकिन हम सीधे और साफ भी नहीं है। हम ना मालूम कितनी कल्पनाओं में हों, ना मालूम कितने आदर्शों में तथ्यों को छिपाएंगे, छिपाएंगे और ऐसा कर देगें। क पहचानना मश्किल हो जाए कि क्या है? पहचानना मश्किल हो जाए कि क्या है? चक्र के भीतर चक्र और डब्वे के भीतर डब्बों को छिपाते चले जाएंगे और जो छिप एंगे वह वही पशुता है। उस पशता को छिपाकर आदर्शों की खोल में. आदर्शों के वस्त्रों में हम छिपा तो सक ते हैं लेकिन मिटा नहीं सकते। छिपाना मिटाने का उपाय नहीं। वह मौजुद रहेगी नए -नए रूपों में प्रकट होती रहेगी। नई-नई बातों में प्रकट होती रहेगी। अच्छे-अच्छे शन दों में जाहिर होती रहेगी। नए-नए रूप लेगी। हिंसा भीतर है सेक्स भीतर है। ब्रह्मच र्य की आढ़ में उसे छिपाया जा सकता है। लेकिन वह नए रूपों में प्रकट होना शुरू हो जाता है। वह नए सपनों में प्रकट होने लगता है। वह नए मार्गों से प्रकट होने ल गेगा और तब कठिनाई हो जाएगी। ब्रह्मचर्य संभव है लेकिन सेक्स को छिपाकर नहीं, सेक्स को जानकर, सेक्स को पहचान कर, उसके अतिक्रमण से। अहिंसा संभव है ले किन हिंसा को छिपा कर नहीं, हिंसा को जानकर, हिंसा को पहचानकर। परमात्मा होना संभव है, लेकिन पश को वस्त्रों में ढाक कर नहीं, पशु को पहचान कर, उघाड़ कर, पशु से मुक्त होकर। लेकिन हम उल्टा ही काम कर रहे हैं हम क र रहे हैं छिपाने का काम, और छिपाने को हमने बदलाहट का नाम दिया हुआ है। ि छपाना रूपांतरण नहीं है। और इस छुपाने में जितनी शक्ति लगती है उससे बहुत क म शक्ति में क्रांति हो सकती है। रूपांतरण हो सकता है। जीवन भर छिपाते हैं, छिप ते हैं दवाते हैं, किसको दवाते हैं, किसका छिपाते हैं, अपने को ही। कौन दवाएगा, कौन छिपाएगा हम ही। हम ही अपने को दवाएंगे अपने को छिपाएंगे। यह संभव कैसे हो पाएगा। किसी ना किसी कोने में हम जानते रहेंगे कि सत्य क्या है ? फिर धीरेधीरे हम उसे भी नहीं जानना चाहेंगे, हम दूसरे को भी धोखा देंगे और अंततः अपने को भी धोखा देंगे। आदर्शवाद अंतत: मनुष्य को सैल्फडिसेप्शन, आत्मवंचना में ले जाता है। अपने को भ । धोखा देना वह शुरू कर देता है। लेकिन आत्मवंचना के रास्ते इतने सूक्ष्म हैं कि अगर पहचान में ना आए तो जिंदगी अनेक जिंदगीयां भी बीत सकती हैं और वह प हचान में ना आए। मैं एक संन्यासी के पास गया हुआ था। उन्होंने सब छोड़ दिया है। घर द्वार छोड़ दि या है। मकान छोड़ दिया है धन छोड़ दिया है, पत्नी वच्चे छोड़ दिए हैं, वह कहते हैं कि मैंने सब छोड़ दिया है। लेकिन नए रूपों में उन्होंने सब फिर बसा लिया है, ब. डा आश्रम बन गया है और जब भी कोई जाए तो वह दिखाते हैं इस विल्डिंग में ए क लाख रुपया खर्च हुआ है। यह जमीन इतने सौ एकड़ है, इसके दाम इतने हैं। औ र उन्होंने सब छोड़ दिया है यह तो आश्रम की बात कर रहे हैं वह, और यह आश्र म किसका है यह आश्रम मेरा है। Page 98 of 150 http://www.oshoworld.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज मैं जब उनसे मिलने गया तो वह एक बडे तल पर बैठे हए थे। उनके तख्त के नी चे एक छोटा तख्त लगा हुआ था। उस तख्त पर दूसरे संन्यासी बैठे हुए थे। उस तख त के भी नीचे जमीन पर और संन्यासी बैठे हए थे। सबसे बडे तल पर बैठे हए सं. यासी जो गुरु हैं जिनका वह आश्रम है जिन्होंने सव छोड़ दिया है उन्होंने मुझसे कहा कि. 'आपको पता है कि छोटे तख्त पर बैठे हए सज्जन कौन हैं?' मैंने कहा, 'मझे पता करने की कोई जरूरत नहीं है। अपना ही पता हो जाए वही वहत है। फिर भ | आप चाहते हो तो आप बता दें। उन्होंने कहा कि, 'आपको मालूम नहीं है इसलिए आप ऐसा कह रहे हैं। यह जो आ दमी बैठा हुआ है यह साधारण आदमी नहीं है। यह हाईकोर्ट का जस्टिस था। इसने सब छोड़ दिया है। लेकिन बहुत विनम्र आदमी है, कभी मेरे साथ तख्त पर नहीं बैठ ता हमेशा छोटे तख्त पर बैठता है। मैंने कहा, 'विनम्रता तो जाहिर है छोटे तख्त से पता चल रही है। लेकिन आपको उनकी विनम्रता में जो मजा आ रहा है वह क्य । है? आपको वड़ा मजा आ रहा है कि अदमी वड़ा विनम्र है। विनम्रता आपके अहंक र को तृप्ति दे रही है। अगर यह आपके साथ तख्त पर बैठे तो तकलीफ होगी।' और मजा यह है कि यह आपसे छोटे तख्त पर बैठा है। लेकिन दूसरे संन्यासियों से ऊंचे तख्त पर बैठा है। और संन्यासी जमीन के नीचे बैठे हुए हैं। और यह आपके म रने की राह देख रहा है कि जब आप मर जाओ तो यह बड़े तख्त पर बैठ जाए। न चे वाला काम्पटीटर छोटे तख्त पर आ जाए। और यह भी लोगों से कहे कि वहुत ि वनम्र आदमी है जानते हैं यह कौन है? यह मिनिस्टर था। यह कोई साधारण आदमी नहीं है। और यह जो बनकर बैठा हुआ है। आंख बंद किए हुए बिलकुल सीधा-साध । वनकर वैठा हुआ है। लेकिन वैठा तो छोटे तख्त पर है। छोटे तख्त के नीचे भी लो ग हैं। हाई रेटी चल रही है। नीचे ऊपर पद चल रहे हैं। बच्चों का खेल चल रहा है। और यह आदमी कहता है कि मैं सब छोड़कर आ गया । और यह आदमी भी कहता है कि मैं सब छोड़कर आ गया। लेकिन क्या छोड़कर आ गए। वह खेल वह समाज के अहंकार का खेल। गृजारी वह एक शक्ल में चलता था वहां पड़ोस वाले का मकान छोटा था। अपना मकान बड़ा था वह वहां चल रहा था। अब वह यहां चल रहा है कि पड़ोस वाला नीचे तख्त पर बैठा है, हम ऊंचे त ख्त पर बैठे हैं। खेल जरी है शक्ल बदल गई है। वह पशुता का खेल जारी है लेकिन बदली हुई शक्ल में पहचानना और मुश्किल हो गया, और कठिन हो गया। एक गांव में मैं गया। वहां एक यज्ञ था। और उस यज्ञ में कोई साठ संन्यासी इकट्ठे हुए थे। यज्ञ करने वालों ने चाहा था कि साठों संन्यासी एक ही मंच पर एक साथ वै ठे तो बड़ा सुखद होगा, लेकिन उस बड़ी मंच पर एक-एक संन्यासी ने बैठकर ही व्य ख्यिान दिया क्योंकि साठों एक साथ एक ही तल पर बैठने को राजी नहीं हुए। किसी ने कहा कि, 'मेरे सोने के सिंहासन चाहिए, मैं उसी पर बैलूंगा। मैं जगतगुरु हूं, मैं कोई छोटा-मोटा आदमी तो नहीं हूं। मैं फलां पीठ का शंकराचार्य हूं। मेरा चार इंच Page 99 of 150 http://www.oshoworld.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ऊंचा होना चाहिए तख्त साठ आए थे लेकिन कोई किसी से नीचे ऊंचे बैठने को रा जी नहीं था। तब एक ही उपाय था कि उस बड़ी मंच पर एक-एक बैठकर बोले । एक-एक बैठकर ही बोला वह साठ इकट्ठे नहीं बैठाए जा सके। इन्होंने सब छोड़ दिया है लेकिन चार इंच तख्त नीचा हो कि ऊंचा यह इनसे नहीं छूट पाया है। बड़ी अद भुत बात है। छोटे-छोटे बच्चे खड़े हो जाते हैं कुर्सीयों पर अपने बाप से कहते हैं कि 'हम आपसे बड़े हैं। देखते हैं हम आपसे ऊंचे हैं। उन बच्चों को क्षमा किया जा सकता है, बच्चे हैं। लेकिन एक संन्यासी जगतगुरु होने का जिसे भ्रम है। ऐसा आदम कहता है कि चार इंच ऊपर मेरा तख्त होना चाहिए । इसको चाइलडिस कहें? बच् चा कहें ? क्या कहें ? सब छोड़ दिया है लेकिन क्या छोड़ दिया है? सब मौजूद है नई शक्लों में मौजूद है। हमारी जो पशुता है वह मिट नहीं पाती। क्योंकि हम आदर्श ओढ़ लेते हैं पशुता दू सरे मार्गों से निकल कर प्रकट होनी शुरू हो जाती है। यह बहुत हैरानी की बात है। हिटलर जैसे लोगों ने. हिटलर बर्दाश्त नहीं कर सकता किसी आदमी को कि मेरे साथ खड़ा हो। हिटलर का कोई नाम नहीं ले सकता कि कोई कह दे हिटलर | हेल फयूरेर कहना पड़ेगा। आदर सूचक शब्द ही उपयोग करने पड़ेंगे कोई हिटलर के कं धे पर हाथ नहीं रख सकता। हिटलर का अहंकार. . . लेकिन किसी जगतगुरु के कं धे पर हाथ रख सकते हैं आप। किसी महात्मा के कंधे पर हाथ रख सकते हैं। महात् मा बड़ा मुस्कराता है जब आप उसके पैर में सिर रखते हैं लेकिन कंधे पर कभी हा थ रखकर देखा। तो महात्मा एक दम नाराज हो जाएगा, महात्मा एक दम विलीन हो जाएगा। और भीतर का हिटलर दिखाई पड़ने लगेगा। गेरूआ वस्त्र से कोई हिटल र बदल जाता है। लेकिन हिटलर फिर भी एक अर्थों में एक ईमानदार और साहसिक है। गेरूआ वस्त्र के भीतर छिपा हुआ। फयूरेर जो है वह इतना साहस नहीं है इतना स्पष्ट नहीं है। व ह ज्यादा धोखे में है। दूसरे को धोखा देना तो ठीक भी है लेकिन वह खुद के भी धो खे में है। कि मैं बदल गया हूं, मैं दूसरा आदमी हो गया हूं। मैं महात्मा हो गया हूं। भारत आत्मवंचना में तल्लीन है। और इसलिए भारत के पास जिसको चरित्र कहें व ह पैदा नहीं हो पाएगा। आज पृथ्वी पर हमसे ज्यादा चरित्रहीन समाज खोजना मुश्कि ल है। लेकिन हम कहेंगे हमसे ज्यादा चरित्रहीन हैं ! हमसे ज्यादा माला जपने वाले ल रोग कहां हैं? हमसे ज्यादा मंदिर जाने वाले लोग कहां हैं? हमसे ज्यादा राम-राम क हने वाले लोग कहां हैं? हमसे ज्यादा गीता और रामायण पढ़ने वाले लोग कहां हैं? हम तो बहुत चरित्रवान हैं लेकिन इन चीजों से चरित्र का क्या संबंध है। मेरे एक मित्र हैं दिल्ली में, एक डाक्टर हैं। एक मेडिकल कोस में भाग लेने वह लं दन गए थे। लौटकर आए तो मुझे वहां की कई घटनाएं सुनाने लगे। एक घटना मुझे खयाल आती है। हाईप पार्क में पांच सौ डाक्टरों की एक बैठक थी। खाना-पीना भी था, गप-शप भी थी, मिलना जुलना भी था । वह मित्र भी, वह दिल्ली के डाक्टर Page 100 of 150. http://www.oshoworld.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज भी, वहां गए थे। जहां यह बैठक चल रही है, लोग गप-शप कर रहे हैं, खा-पी रहे हैं, एक दूसरे से मिल जुल रहे हैं। वहीं पास की एक बैंच पर एक युवक और एक युवती आंख बंद किए, एक दूसरे के गले में हाथ डाले, लीन बैठे हैं जैसे किसी और दुनिया में खोए हों। मेरे मित्र डाक्टर का मन कांस में नहीं रहा। भारतीय का मन वह उस बैंच पर ज जाने लगा, सीधा देख भी नहीं सकते, तिरछी आंखों से देखने लगे। और मन में होने लगा कैसी चरित्रहीनता है, यह क्या चरित्रहीनता है, एक जवान युवक और एक ज वान युवती पांच सौ लोगों के सामने गले में हाथ डाले हुए बैठे हैं। यह क्या बात है ? यह बहुत बुरा है, कोई पुलिस वाला आकर इनको रोकता क्यों नहीं है। बार-बार मन वहीं जाने लगा, मुझे कहने लगे, मेरे पड़ोस के डाक्टर ने, एक डच ने, मेरे का न में कहा कि, 'मित्र, बार-बार वहां मत देखें लोग आपको चरित्रहीन समझेंगे। ' यह उनका काम है कि वह क्या कर रहे हैं। आप क्यों परेशान हुए जाते हैं । और लस बुलाने की आड़ में, उनके चरित्रहीनता की आड़ में और कोई रस तो नहीं है । रस दूसरा है। और भीतर यह डाक्टर अपने मन में घुसें, और मैंने कहा कि, 'अप मन में जाओ। थोड़ा अपने रस को खोजो, कि रस क्या है ?' कहीं उस युवक की ज गह तुम बैठना चाहते हो। कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो मौका तुम्हें मिलना चाहिए वह कोई दूसरा ले रहा है, कहीं ऐसा तो नहीं कि पुलिस वाले को बुलाने के पीछे ई र्ष्या है, कहीं ऐसा तो नहीं है कि इस चरित्रवान और इस चरित्र होने के खयाल में तुम उन दो युवकों को मिलते हुए देखने का भी रस लेना चाहते हो, कहीं ऐसा तो नहीं है कि उस जवान लड़की को देखने का मन बार-बार वहां से जा रहा है, लेकि न चरित्र की आढ़ में वहां देखने जा रहे हो । सीधे भी नहीं जा रहे कि उसी सुंदरी को देखना है तो सीधे देख लो। उसमें भी एक चरित्र होगा कि युवती सुंदर है और उसको हम देखना चाहते हैं । यह भी चरित्र होगा एक । लेकिन युवती को कहीं इस बहाने तो नहीं देख रहे हो, कि देखना भी चाहते हैं, कन चरित्र की आढ़. यह बहुत गलत हो रहा है यह हम नहीं होने देंगे। सारे ज गत में धीरे धीरे मनुष्य के यथार्थ को स्वीकृति मिलनी शुरू हो गई हैं। वह जैसा है हम अस्वीकार कर रहे हैं, जैसा है उसे और जैसा वह नहीं है । उसको आरोपित कर रहे हैं उसको इम्पोज कर रहे हैं। उसको ऊपर ढांपते जा रहे हैं और चरित्रवान बन ते जा रहे हैं तो चरित्र हमारा ऊपर होता है लेकिन चरित्र की बातों की आढ़ दुष् चरित्रता छिपी होती है । उस आढ के पीछे कुछ दूसरी जलन, कोई दूसरी पीढ़ा, ई दूसरी इंग्सटिंक्ट, कोई दूसरी वृत्तियां काम करती हैं। आदर्शवादी इसीलिए दूसरों को बहुत गाली देता हुआ दिखाई देता है। दिखाई पड़ता है उस गाली देने में ईर्ष्या है, बदला है। रिवेंज है। प्रतिशोध है । वह जो स्वयं नहीं क र पाया उसका क्रोध भी है लेकिन जिस व्यक्ति का जीवन रूपांतरित होता है, जिस के भीतर क्रांति घटित होती है। जहां अंधकार है वहां प्रकाश आता है। जहां पशु है, पशु धीरे-धीरे विसर्जित होता है और परमात्मा प्रकट होता है, उसके भीतर। दूसरों Page 101 of 150. http://www.oshoworld.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज के प्रति दया तो हो सकती है क्रोध नहीं हो सकता और उसके प्रति दूसरे की थ त को समझने के लिए एक सदभाव हो सकता है, दंड देने की कामना नहीं हो सक ती। वह जानेगा कि यही स्वाभाविक है जो हो रहा है इससे श्रेष्ठतर भी हो सकता है लेकिन स्वाभाविक की निंदा उसके मन में नहीं होगी । श्रेष्ठतर का जन्म हो इसकी प्रार्थना होगी, लेकिन स्वाभाविक की निंदा नहीं होगी । मनुष्य के स्वभाव को, निसर्ग को हम इनकार करते चले आ रहे हैं पांच हजार वर्षों से। सब तरफ से हमने आदमी के स्वभाव को इनकार करके एक लोहे की कैद खड़ भी कर दी है। उस कैद के भीतर आदमी को खड़ा कर दिया है। उसकी सारी मुक्ति छीन ली है। क्योंकि उसका सारा स्वभाव छीन लिया है और आश्चर्य की बात यह है कि तथ्यों के इस अस्वीकार से, तथ्यों के इस निषेध से, तथ्यों से आंख चुरा लेने से तथ्य बदल नहीं गए हैं सिर्फ छिप गए हैं, और उन्होंने भीतर से काम शुरू कर दि या है वह अनकोन्शस हो गए हैं। और जो तथ्य अचेतन में उतर जाते हैं अंधेरे में, और वहां से काम करते हैं, उनका काम और भी आत्मघाती हो जाता है। मैंने सुना है। एक मां, रात नींद में उठने की उसे आदत थी। वह रात नींद में उठ आई है और अपने मकान के पीछे के बगीचे में चली गई हैं, वह सपने में है । और नींद में ही जोर-जोर से बोल रही है। और अपनी जवान लड़की को गालियां दे रही है, और कह रही है कि इसी दृष्ट के कारण मेरी जवानी नष्ट हो गई। जवानी तो लड़की पर चली गई, और मैं बूढ़ी हुई जा रही हूं। तभी उसकी लड़की की भी नींद खुल गई है वह भी रात नींद में चलने की आदी है, वह बगीचे में पहुंच गई है। व ह नींद में उस बुढ़िया को वहां देखती है, आधी खुली आंखों से, और सोचती है कि दुष्ट बुढ़िया यहां भी मौजूद है । इसने मेरे जीवन को कांटा बना दिया है। इसके मौजूद. जब तक यह जिंदा है, तब तक मुझे स्वतंत्रता नहीं मिल सकती, तब तक मेरा जीवन एक परतंत्रता है। वह दोनों नींद में एक दूसरे को गालियां दे र ही हैं। तभी मुर्गा बांग देता है। दोनों की नींद खुल जाती है सुबह की ठंडी हवा है । बूढ़ी कहती है, 'बेटी, इतनी जल्दी उठ आई सर्दी ना लग जाए शााल नहीं डाल दी है।' बेटी अपनी मां के पैर छूती है। और कहती है कि, 'मां भीतर चलो ! सुबह बहु त सर्द है कहीं तुझे सर्दी, जुकाम ना पकड़ जाए।' नींद में वह क्या कह रहीं थीं । जा ग कर वह क्या कह रही है। हम कहेंगे नींद, नींद तो सपना थी । झूठ थी जो जाग कर कह रही है वह सच है । बात उल्टी है जो जागकर वह कह रही है वह झूठ है, जो नींद में उन्होंने कहा था वह सच है। हम यही सोचते हैं कि सपने में जो हम देख रहे हैं वह झूठ है। लेकिन अब मनोविज्ञ कहता है कि, 'सपने में जो आप देख रहे हैं वह जो जागकर आप देखते हैं वह उससे ज्यादा सत्यतर है क्योंकि सपने में वही प्रकट हो रहा है जिसे आपने भीतर छि पा लिया है। बेटे बाप की हत्या कर रहे हैं सपने में, सुबह उठकर कहते हैं कि अरे सपना था वह सब झूठ है। लेकिन ऐसा बेटा खोजना मुश्किल है जिसने बाप की हत्य की कामना को कहीं अच्छे समय छिपा ना दिया हो। आदमी सपने में पड़ोसी की स् Page 102 of 150. http://www.oshoworld.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज त्री को लेकर भाग गया है। यह सब क्या बातें हैं यह सब सपना है। लेकिन पड़ोसी की स्त्री को लेकर भागने की अगर कोई कामना अचेतन में नग्नावादी रही होती तो सपना आसमान से पैदा नहीं होता है। वह सपना भीतर से आया है। वह सपना कह * छिपा है। उसने सपने को दवा दिया है। उसने मौका पाया जब आप सो गए। और आपका कंट्रोल ढीला हो गया, नियत्रंण ढीला हो गया, चित्त शिथिल हो गया तो व ह जो भीतर दवा था वह प्रकट हो गया और चित्त के परदे पर चलने लगा। सपने हमारे जाग्रत सत्य से ज्यादा सत्यतर हैं क्योंकि हमारे छिपे हुए मन को प्रकट कर रहे हैं। साधु-संन्यासियों के सपने देखिए। तो वह वही होंगे जो अपरधीयों ने जा गने में किया है। साधु-संन्यासी सपने में वही कर रहे हैं। अपराधी तो देख सकते हैं सपने साधू होने के, लेकिन साधू अपराधी होने के सपने देखते हैं। इसलिए साधु नींद लेने से डरते हैं, नींद से बहुत डर लगता है क्योंकि नींद में वह जो साधु चौवीस घं टे साधुता साधी है वह एक दम खो जाती मालूम पड़ती है। समझ नहीं पड़ता कि क या हो जाता है? बिलकुल उल्टा आदमी भीतर से प्रकट होने लगता है। वह उल्टा आदमी कहीं आसमान से नहीं उतरता वह हमने दबाया है वह हमारा तथ य है, वह हमारा फैक्ट है, वही हम हैं। इस हम को इनकार करने का एक उपाय थ [ जो हमने उपयोग किया भारत में और वह उपाय यह था भीतर हिंसा है वाहर से अहिंसा ओढ़ लो, भीतर हिंसा है पानी छान कर पीओ रात खाना मत खाओ, भीत र हिंसा है मांसाहार छोड़ दो, अहिंसक हो जाओगे। अहिंसक होना इतनी सस्ती वात नहीं है कि कोई मांसाहार छोड़ने से कोई अहिंसक हो जाए। अहिंसक कोई हो जाए तो मांसाहार छूट सकता है, वह दूसरी बात है। लेकिन मांसाहार छोड़ने से कोई अ हसक नहीं हो सकता। कोई अहिंसक हो जाए तो कुछ चीजें छूट सकती हैं, लेकिन कुछ चीजों के छूटने से कोई अहिंसक नहीं हो जाता। हिंसा भीतर है तो ऊपर से अहिंसा का वर्तन व्यक्तित्व को दो हिस्सों में तोड़ देगा। हिंसा भीतर सरकती रहेगी, अहिंसा ऊपर घूमती रहेगी। भीतर हिंसक आदमी तैयार रहेगा, जरा छेड़ दो और प्रकट हो जाएं। जरा छेड़ दो और प्रकट हो जाएं। हिंदुस्ता न में कितनी अहिंसा की वात गांधी जी ने और उनके साथियों ने की। और आजादी आई और हिंसा में डूब गया पूरा मुल्क, कोई दस लाख लोगों की हत्या हुई और करोड़ों लोगों को हत्या से भी ज्यादा दुःख झेलना पड़ा। यह कैसा देश है। अहिंसा की बातें कर रहा था फिर एक दम हिंसा का योगाल कहां से आ गया। यह कहां से पै दा हो गई। वह अहिंसा की बातें सब ऊपर थी, भीतर हिंसा थी, और हिंसा प्रतिक्षा कर रही थी कि कोई मौका मिल जाए. . . अभी हम यहां कितने अहिंसक भाव से वैठे हुए हैं। कोई किसी को मार नहीं रहा, कोई किसी की गर्दन नहीं दवा रहा ले कन अभी पता चल जाए वाहर कि हिंदू मुस्लिम दंगा हो गया है और आप बगल के आदमी की गर्दन दवा देंगे कि यह मुसलमान है, कि यह हिंदू है मारो छुरा इसको। यह आदमी अभी दोनों शांत बैठे थे। धर्म की बातें सुनते थे, गीता पढ़ते थे कुरान Page 103 of 150 http://www.oshoworld.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज पढ़ते थे, मस्जिद में हाथ जोड़े खड़े थे। अचानक पता चला कि हिंदू मुस्लिम दंगा हो गया। यह आदमी बदल गए इनके भीतर का आदमी बाहर आ गया। भीतर कौन बैठा हुआ ा है? भीतर हिंसा बैठी हुई है, भीतर घृणा बैठी हुई है, भीतर क्रोध बैठा हुआ है, भीतर जंगली जानवर बैठा हुआ है और उस जंगली जानवर को हम ऊपर अच्छे-अच् छे शब्दों के वस्त्र, अच्छे-अच्छे आदर्शों के वस्त्र ओढ़ कर छिपा रहे हैं। यह काम चल ाऊ व्यवस्था है। यह व्यवस्था बहुत मंहगी है । यह धोखे कि व्यवस्था है। जिंदगी भी गु जर सकती है और पता ना चले कि भीतर कौन था । और भारत ने इसी तरह पांच हजार वर्ष की एक पाखंडी संस्कृति खड़ी की है। जिस संस्कृति ने ऊपर से चीजें थो प ली हैं और भीतर का आदमी नहीं बदला है। निश्चित ही इस तरह की जबरदस्ती थोपी गई व्यवस्था प्रतिभा के विकास में अवरो ध बनेगी। प्रतिभा के लिए चाहिए इन्ट्रीग्रेशन व्यक्तित्व एक हो, इकट्ठा हो और हमने व्यक्तित्व को तोड़ दिया दो टुकड़ों में और विरोधी टुकड़ों में। हमने एक-एक व्यक्ि त की शक्ति को दो हिस्सों में बांट दिया और दोनों हिस्सों को एक दूसरे का दुश्मन बना दिया। व्यक्ति स्वयं से लड़कर ही नष्ट हो जाता है। उसके पास इतनी ऊर्जा, इतनी एनर्जी, इतनी शक्ति नहीं बच पाती कि वह कुछ और क्रिएट कर पाए, वह कुछ और सृजन कर पाए इसलिए बाहर पूरा का पूरा अनक्रिएटिव हो गया है। असृज नात्मक हो गया है। हम विध्वंस ही कर सकते हैं क्योंकि हमें हमने जो अपने भीतर किया है वही हम बाहर कर सकते हैं हम लड़ ही सकते हैं। हिंदू मुसलमान से लड़ सकता है, मराठी गुजराती से लड़ सकता है, हिंदी बोलने वा ला गैर हिंदी बोलने वाले से लड़ सकता है। हिंदू मुसलमान से लड़ सकता है। हम सर्फ लड़ ही सकते हैं क्योंकि भीतर हम अपने से ही लड़ने की शिक्षा लिए हैं। हम अपने से ही लड़ते रहे हम भीतर ही हिंदुस्तान और पाकिस्तान में बटे हुए एक-एक आदमी अपने भीतर ही टुकड़ों में बटा हुआ है। भारत के पास इकहरा व्यक्तित्व, जिसको हम व्यक्तित्व कहें इंडिविलिटी नहीं, इंडि विजलटी कहें जुड़ा हुआ एक आदमी नहीं है । और एक आदमी जुड़ा हुआ ना हो तो ख़ुद के खंड आपस में लड़कर शक्ति को नष्ट कर देते हैं, और शक्ति नष्ट हो जाए तो प्रतिभा कैसे विकसित हो, और प्रतिभा ना हो तो समस्याओं का समाधान कौन देगा? कौन भगवान? कौन देवता ? कौन वेद ? कौन ऋषि ? कौन मुनि देगा? समाध न हमें लाने हैं अपनी ही प्रतिभा से । और हमारी प्रतिभा क्षीण क्षीण, खंड-खंड होक र वह गई है। अगर भारत को प्रतिभा को जन्म देना है। अगर भारत को अपनी छुप हुई ऊर्जा को अपनी पूरी अभिव्यक्ति देनी है तो यह तीसरा सूत्र खयाल में रख ले ना जरूरी है और वह यह आदर्शों की बकवास बंद करो! आदमी का जो तथ्य है, य थार्थ है, वह जो वस्तुतः आदमी है उसे पहचानो । लेकिन इसका क्या यह मतलब है कि, 'मैं यह कह रहा हूं कि हिंसक हो जाओ, क्रोधी हो जाओ, घृणा से भर जाओ, Page 104 of 150 http://www.oshoworld.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज पशु हो जाओ नहीं, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि इसे जितना हम पहचानेंगे उतनी ही पहचान के द्वारा, इसमें रूपांतरण में परिवर्तन शुरू होते हैं। अगर कोई आदमी अपने भीतर देख ले कि उस उस दिशा में उसके भीतर पशु है, सर्फ देख ले कुछ और करना नहीं है पहचान ले कि मैं इस दिशा में पशु हूं और पि रवर्तन शुरू हो गया। पहचानते ही परिवर्तन शुरू हो गया। जैसे ही मैंने यह पहचाना कि मेरी यह घृणा, मेरा यह प्रेम, मेरा यह क्रोध, मेरी यह मालकियत, मेरा यह ड ेोमिनेशन एक पशु का हिस्सा है। सुना हुआ नहीं किसी और का कहा हुआ नहीं, मैंने अपने भीतर पहचाना, मैंने अपने भीतर खोज की कि यह मेरा पशु है और मैं आप से कहता हूं यह पहचान, यह रकगनिशन यह प्रतिभिज्ञा कि मैंने पहचाना, यह शु हैं और मेरे भीतर परिवर्तन की शुरुवात हो गई क्योंकि कोई भी पशु नहीं रह सकत है, नहीं रहना चाहता है। पशु हम तभी तक रह सकते है जब तक पशु अनजान हो, अंनोन हो, अनरिकगनाई स हो, पहचाना ना गया हो, जाना ना गया हो, आंख की रोशनी उस पर ना पड़ी ह हो, तभी तक हम पशु रह सकते हैं। और हमारे आदर्शवाद ने यह काम पूरा कर दि या है। आदर्श पर हमारी आंख लगी है आदर्श पर जो हम नहीं हैं, और जो हम हैं वहां से आंख हट गई है। हम देख रहे हैं आदर्श पर आगे, भविष्य में कल परसों, अ हिंसक हो जाऊंगा में, और हिंसा, हिंसा बिना देखे भीतर काम कर रही है । आज न हीं कल परमात्मा हो जाऊंगा मैं, आज नहीं कल इस जन्म में, अगले जन्म में मोक्ष मिल जाएगा। नजर वहां लगी है भविष्य पर और जो मैं हूं वहां से नजर हट गई है। जहां से नजर हट गई है वहां अंधेरा हो गया । जहां अटेंशन नहीं है, ध्यान नहीं है वहां अंधकार हो गया । और जहां अंधकार हो ग या वहां रूपांतरण कैसे होगा, वदलाहट कैसे होगी। आंख ले जानी है वहां जहां मैं हूं जो मैं हूं। लेकिन एक ही कठिनाई है वही कठिनाई रोकती है। स्वयं को देखने से, J और वह कठिनाई यह है कि स्वयं को देखना बहुत कष्टपूर्ण है। बहुत तपश्चर्या पूर्ण है क्योंकि हमने अपने अहंकार में अपनी एक प्रतिमा बना रखी है जो बड़ी सुंदर है और हम बड़े कुरूप है। हम बहुत अग्ली है, और प्रतिमा हमने बड़ी सुंदर बना रखी है। उस प्रतिमा को देखकर दिखाने के हम आदी हो गए हैं, हमारे अहंकार ने कहा है क यही मैं हूं। अब उस प्रतिमा को तोड़ना पड़ेगा, भीतर असली कुरूपता को देखने जाना है। इतनी हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं हम | इसको ही मैं तपश्चर्या कहता हूं। स्व यं निर्मित अपने ही अहंकार की प्रतिमाओं के खंडन का नाम तपश्चर्या है। उससे ज्या दा आर्डअस उससे ज्यादा श्रमपूर्ण, उससे ज्यादा कठिन और कुछ भी नहीं है । अपनी ही प्रतिमाओं को अपने हाथ से गिरा देना और उसे देखना, जो मैं वस्तुतः हूं, जो मे री कल्पना नहीं, जो मेरा आदर्श नहीं, जैसा मैं हूं । कैसा हूं मैं? उसे देख लेना उसक नग्नता में पहचान लेना, क्रांति की शुरूवात है। बदलाहट की शुरूवात है। Page 105 of 150. http://www.oshoworld.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज और जैसे ही कोई व्यक्ति अपने भीतर स्वयं को देखने जाता है। वैसे ही एक नए व्य क्ति का जन्म शरू हो जाता है। एक नया व्यक्ति पैदा होने लगता है। यह जो नया । यक्ति है शक्तिशाली होगा क्योंकि शक्ति आपस में बटेगी नहीं यह नया व्यक्ति बद्धि मान होगा. चंकि इसने बद्धि का प्रयोग किया है। बद्धि विकसित होगी यह नया व्य क्त प्रतिभाशाली होगा क्योंकि इसने चुनौती को स्वीकार किया है। चुनौती का सामन [ किया है। और चुनौती के ऊपर उठ गया है। प्रतिभा का जन्म एक आत्मज्ञान का परिणाम है। और हम आत्म अज्ञान में जी रहे हैं, यद्यपि हम आत्म ज्ञान की सर्वाधिक वातें करते हैं। लेकिन आत्म ज्ञान से हमने मतलब समझ रखा है उपनिषद पढ़ो, गीता पढ़ो, गीता उपनिषद के वचन कंठस्थ क ला। और सूबह आंख बंद करके उनको दोहरात रहा। दोहराते रहो कि अहम् ब्रह्म । अस्मि। में ब्रह्म हूँ। में सद सच सदानंद ब्रह्म है। परमात्मा हूँ, प्रभू , शुद्ध, वृद्ध हूँ । यह दोहराते रहो अपने भीतर, इसको रिपीट करते रहो, इसको दोहराते रहो, दो हराते-दोहराते धीरे-धीरे यह विश्वास वैठ जाएगा कि मैं यही हूं लेकिन यह विश्वास धोखा होगा, दोहराकर कोई सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। नहीं, मैं ब्रहम हूं यह दोहराने से कोई ब्रह्म नहीं हो जाएगा। मैं जो हूं, उसे जानने से , पहचानने से, उसके रूपांतरण से, उसकी बदलाहट से, उसकी क्रांति से व्यक्ति ब्रह्म के द्वार तक पहुंचता है। मनुष्य परमात्मा हो सकता है, है नहीं। संभावना है उसकी , पुटेन्शेलीटि है, लेकिन है वह पशु। पशुता तथ्य है। परमत्मा होना, वीज के भीतर से वृक्ष के आने की जैसी संभावना है, और अगर कोई बीज अपने को मानकर बैठ जाए कि मैं वृक्ष हूं तो वह बीज कभी वृक्ष नहीं हो सकता। हम अपने को मानकर वैठ गए हैं कि हम परमात्मा हैं। इसलिए हम परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते हैं। पशु ही रह जाते हैं। इस पशुता को पहचानना, जानना, खोजना, साधना है तपश्चर्या है, अपनी ही निर्मित, अपनी ही झूठी प्रतिमाओं को तोड़ देना त्याग है, तप है, और इ स तप से जो गुजरता है, वह एक नए व्यक्तित्व को उपलब्ध हो जाता है। जहां प्रा तभा अपनी परे प्रकाश में प्रकट होती है। भारत की प्रतिभा प्रकट हो सकती है, लेकिन आदर्श के पाखंड छोड़ देने होंगे। डायन वी ने कहा है कि, पश्चिम की संस्कृति सैंसेट कल्चर है। एंग्रिक संस्कृति है।' डायन वी को शायद यह भ्रम हो कि पूरब की संस्कृति स्प्रिच्चल है। तो डायनवी को अपना भ्रम ठीक कर लेना चाहिए। पश्चिम की संस्कृति एंग्रिक है यह बात डायनवी की हिं दुस्तान के साधु-संन्यासी लोगों को समझाते हैं कि देखो, पश्चिम के लोग खुद कह र हे हैं कि पश्चिम की संस्कृति एंग्रिक है। हमारी आध्यात्मिक है। मैं आपसे कहना चा हता हूं पश्चिम की संस्कृति संसेट है। और हमारी संस्कृति हिपोक्रेट है। तो उनकी संस् कृति एंग्रिक है और हमारी संस्कृति पाखंडी है। और मैं आपसे कहता हूं कि एंग्रिक संस्कृति कभी ना कभी आध्यात्मिक वन सकती है, क्योंकि एग्रिक एक सत्य है। लेकिन पाखंडी संस्कृति कभी भी आध्यात्मिक नहीं व न सकती। क्योंकि पाखंड एक झूठ है, स्वनिर्मित झूठ है। मनुष्य के तथत्य का स्वीका Page 106 of 150 http://www.oshoworld.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज र। मनुष्य के सत्य तक ले जाने की राह है। अगर हम मनुष्य के सत्य तक पहुंचना चाहते हैं तो मनुष्य के तथत्य को हमें परिपूर्ण स्वीकृति देनी जरूरी है। वह कितना ही नग्न हो, वह कितना ही कुरूप हो, वह कितना ही वेहुदा हो, उसे हम अंगीकार ना करें, आंख चुराएं, तो हम भटक जाते हैं हम भटक गए हैं। इन ती तीन दिनों में इन तीन सत्रों में पलायन से परंपरा से और आदर्श से इन तीन से मक्त होने के लिए मैंने कहा। अगर यह तीन पत्थर हट जाएं तो भारत की प्रति भा का श्रोत मुक्त हो जाएगा। वह भारत की सरिता सागर की तरफ दौड़ने लगे, लेकिन अगर यह तीन पत्थर भारत की प्रतिभा की सरिता को रोके रहें तो हम एक डबरा बन गए हैं जो दौडता नहीं, चलता नहीं, कहीं पहुंचता नहीं, सड़ता है सडता जाता है। गंदगी बढ़ती चली जाती है। रोग बढ़ता चला जाता है, बीमारी, घाव ब. ढते चले जाते हैं, मवाद इकट्ठी होती चली जाती है, दुर्गंध फैलती चली जाती है। अ र हम आंख बंद करके इस सब को माया माया, झूठ है, झूठ है। आंख बंद करके अपने को संतोष खोजते रहते हैं। इस संतोष से नहीं हो सकता है। तोड़ना पड़ेगा इ धारा को, इसे सागर की ओर उनमूख करना पड़ेगा। ताकि एक दिन मनुष्य पश से उठे और परमात्मा तक पहुंच जाए। परमात्मा का मंदिर निकट है। लेकिन पशु को भुलाकर, झुठलाकर नहीं, पशु को जा नकर, पहचानकर, ट्रान्सडेंस से उसके अतिक्रमण से। और ज्ञान अतिक्रमण का मार्ग है। जानना अतिक्रमण का ट्रान्सडिसेंस की वीटी है। अज्ञान आत्मघात है, ज्ञान आत्म क्रांति है। मेरी बातों को इतनी शांति और प्रेम से सुना, उससे बहुत अनुग्रहित हूं। और अंत में सबसे भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम करता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें। ओशो नए भारत की खोज टाक गिवन इन पूना, इंडिया डिस्कोर्स नं०६ मेरे प्रिय आत्मन्, बीते दिनों की चर्चाओं के आधार पर बहुत से प्रश्न मित्रों ने पूछे हैं। एक मित्र ने पू छा है, कि क्या सारा अतीत ही गलत था, क्या सारा अतीत ही छोड़ देने योग्य है, क्या अतीत में कुछ भी अच्छा नहीं है। इस संबंध में दो तीन बातें समझ लेनी चाहिए, पहली बात-पिता मर जाते हैं, हम उन्हें इस लिए नहीं दफनाते हैं कि वह बुरे थे, इसलिए दफनाते हैं कि वह मर गए Page 107 of 150 http://www.oshoworld.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हैं। और कोई भी यह कहने नहीं आता कि पिता बहुत अच्छे थे, तो उन्हें दफनाना नहीं चाहिए। उनकी मरी हई लाश को भी घर में रखना जरूरी है। अतीत का अर्थ है कि वह मर गया. जो अब नहीं है। लेकिन मानसिक रूप से हम अतीत की लाशों को अपने सिर पर ढो रहे हैं। उन लाशों से दर्गंध भी पैदा होती है सडती भी। उन लाशों के बोझ के कारण नए का जन्म असंभव और कठिन हो जाता है। अगर किसी घर के लोग ऐसा तय कर लें कि जो भी मर जाएगा। उसकी लाश को हम घर में रखेंगे। तो उस घर में नए वच्चों का पैदा होना बहुत मुश्किल हो जाएगा । और अगर बच्चे पैदा भी होंगे तो पैदा होते से ही पागल हो जाएंगे या आत्महत्या कर लेंगे। वह घर एक पागलखाना हो जाएगा। लाशें ही लाशें घर में इकट्ठी हो जा एं तो नए जीवन का अंकर फूटना मुश्किल हो जाता है। अतीत का अर्थ है जो अब नहीं है, जो मर चुका है। जो मर चुका उसे हमें विदा करने की हिम्मत होनी चाहि ए। दुःख होता है तो भी विदा करने का सामर्थ होना चाहिए। उसे मन के तल पर वचा-बचा कर रखना बहुत ही खतरनाक है। तो जब मैं कहता हं अतीत को छोड देने के लिए तो मेरा अर्थ है ताकि हम भवि य की तरफ देख सकें। मेरा अर्थ है कि जहां से हम गुजर रहे हैं, वहां से हम गुजर ही जाएं, मन हमारा उन रास्तों पर ना भटकता फिरे, जहां अब नहीं है कभी थे। ज हां हम हैं उन रास्तों पर हमारी दृष्टि हो, ताकि हम वहां पहुंच सकें जहां हम अभी नहीं हैं। लेकिन जहां हम थे। उनकी इस स्मृतीयों में खोया हुआ चित्त भविष्य के ि नर्माण में और वर्तमान के जीवन में असुविधाएं पैदा कर गया है। अगर रूस के बच्चों से जाकर पूछो तो वह चांद पर वस्तीयां वसाने के लिए योजना वना रहे हैं। अगर अमरीका के बच्चों से पूछो तो वह आने वाले भविष्य के निर्माण के लिए ना मालूम कितनी कल्पनाएं कर रहे हैं। उनका चित्त भविष्य में, और हमारे बच्चे, हमारे बच्चे रामलीला देख रहे हैं। रामलीला देखना बुरा नहीं है, अगर राम वहुत सुंदर हैं, अदभुत हैं, लेकिन रामलीला ही देखते हुए रूक जाना और रामलीला ही देखते रहना, और रामलीला ही चित्त पर मढ़ा रहना बहुत खतरनाक है क्योंकि यह पीछे की तरफ मुड़ी हुई गर्दन धीरे-धीरे पैरालाईट हो जाती हैं। फिर यह आगे की तरफ नहीं देखती। जैसे किसी कार में पीछे लाईट लगा दिया हो। वह तो कारें पश्चिम में बनती हैं। औ र हम उनकी नकल में बनाते हैं अगर हम शृद्ध भारतीय कार बनाएं तो उसमें एक लक्षण यह होगा कि उसके लाईट पीछे की तरफ लगे होंगे। चलेगी गाड़ी आगे देखे गी पीछे, धूल उड़ रही है उस रास्ते पर रोशनी पड़ेगी। और आगे अंधेरा होगा जहां जाना है। प्रकाश वहां होना चाहिए जहां जाना है। जहां हम चल चुके हैं वहां अंधेरा ही हानिकर नहीं है। क्योंकि पीछे तो कोई जा ही नहीं सकता। जाना तो सदा आगे ही पड़ता है। और जहां हम नहीं जा सकते वहां ध्यान को अटकाना, निश्चित ही जहां हम जा सकते हैं, वहां से ध्यान को वंचित रखना है। Page 108 of 150 http://www.oshoworld.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज र्ण एक बात, दूसरी बात यह अतीत का इतना गुणगान जो हम करते हैं, अतीत के स्व युग होने की गोल्डन ऐज होने की, रामराज्य होने की जो हम बातें करते हैं, यह अतीत इतना सुंदर कभी था नहीं जितनी हम कहानियां बनाए हुए हैं। लेकिन हमने यह कहानियां क्यों बनाई हैं इन कहानियों के पीछे बनाने के पीछे कुछ मनोवैज्ञानिक कारण हैं। एक बच्चा पैदा होता है। वह बच्चा भविष्य की तरफ देखता है। उसके पीछे कोई अतीत नहीं होता, एक बूढ़ा आदमी है बूढ़ा आदमी बैठकर अपनी आराम कुर्सी पर आंख बंद करके अतीत की तरफ देखता रहता है बचपन, जवानी जो बी त गए। क्योंकि बूढ़े के आगे कोई भविष्य नहीं है, बूढ़े के आगे मौत है। मौत को दे खना नहीं चाहता वह पीछे लौटकर अतीत की स्मृतियां देखता रहता है । और जिन जवानी की स्मृतियों को बड़ा सुखद पाता है। कि जब वह जवान था तब वह इतनी सुखद नहीं थी। और जिन बचपन की बातों को अब वह इतना स्वर्णीम बना लेता, सपने बना लेता है, वह बचपन वैसा ही साधारण बचपन था जैसा सबका होता है। लेकिन दुःखद को तो छोड़ देता है आदमी सुखद को संजो लेता है। एक चुनाव चलता है पूरे वक्त दुः खद को हम भूलते चले जाते हैं सुखद को याद करते चले जाते हैं बाद में जब लौट कर देखते हैं तो सुखद की एक लम्बी धारा दिखाई पड़ती है दुःखद भूल चुका होता है। हमारे अहंकार को दुःखद बर्दाश्त नहीं है । उसे हम अंधेरे में सरका देते हैं। सुख द को याद रखते हैं। बच्चों से पूछो कोई बच्चा नहीं कहेगा कि बचपन बहुत आनंद दे रहा है। बच्चे पूरे वक्त इस कोशिश में लगे हैं कि कव जवान हो जाएं, क्योंकि उ न्हें दिखाई पड़ रहा है कि जवानी बहुत आनंद मालूम पड़ रही है। छोटे-छोटे बच्चे रास्तों के किनारे गलियों में छिपकर सिगरेट पी रहे हैं। यह मत सो चना कि बच्चे सिगरेट इसलिए पी रहे हैं कि सिगरेट पीने में बहुत आनंद आ रहा है वह बड़ों को सिगरेट पीते देख रहे हैं। सिगरेट बड़े होने का सिम्बल है। वह उसे प कर बड़े होने की अकड़ से भर रहे हैं। एक दिन सुबह मैं घूमने निकला सैर को, पोस्ट आफिस के पास से जा रहा था । एक छोटा-सा बच्चा हाथ में छड़ी लिए हुए, छोटी-सी मूंछ दो आने में खरीद कर लगाए हुए रास्ते पर चल रहा था। मुझे देखा एक दम घबरा गया, झाड़ी के पीछे छिप गया मैं उसके पीछे गया। उसने जल्दी से अपनी मूंछ निकाल लीं। मैंने कहा, 'यह तू क या कर रहा है।' उसके पिता से मैं परिचित था, दोपहर उसके पिता से मिला। उन के पिता कहा, 'हमें पता नहीं है । यह मूंछ काहे के लिए लगाकर सुबह सड़क पर घूम रहा था।' मैंने कहा, 'पता होना चाहिए बच्चों को बचपन बहुत साधारण मालूम होता है, जवा नी बहुत असाधारण, बड़ी ताकत, बड़ी प्रतिष्ठा तो छोटा बच्चा भी मूंछ लगाकर हा थ में छड़ी लेकर सेम व्यत्ति हो जाता है वह कोशिश करता है उसको मिलने की जो बहुत है। लेकिन यही बच्चा बूढ़ा होकर बचपन की याद करेगा और कहेगा कि बहु त सुंदर दिन थे। जो कौम बूढ़ी हो जाती है वह याद करती है अतीत के संबंध में, Page 109 of 150. http://www.oshoworld.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज जो जवान होती है कौम, वह हमेशा भविष्य के संबंध में विचार करती है। यह कौम बूढ़ी होती है इसलिए पीछे लौट - लौटकर देखती है । और यह बहुत खतरनाक है। आदमी का बूढ़ा होना स्वभाविक है, कौम का बूढ़ा होना दुर्घटना है। एक-एक आदमी तो बूढ़ा होना पड़ेगा, लेकिन फिर भी शरीर ही बूढ़ा होगा। आदमी के मन को बूढ़ा होने की कोई अनिवार्यता नहीं है। आदमी का मन मरते क्षण तक जवान हो स कता है, रह सकता है। शरीर तो बूढ़ा होगा, हो जाएगा, लेकिन समाज को तो बूढ़ा होने की कोई भी जरूरत नहीं है। क्योंकि समाज तो सदा जवान हो वह कभी बूढ़ा नहीं होगा। लेकिन भारत में एक दुर्घटना घट गई है कि समाज भी बूढ़ा हो गया है । समाज भी पीछे की तरफ देखता है। यह पीछे की तरफ देखने का कारण यह नहीं है कि पीछे बहुत सुंदर दुनिया बीत गई है। पीछे की तरफ देखने का कारण यह है कि भविष्य को निर्माण करने की क्षमता और साहस हमने खो दिया है। बाहर भवि प्य में कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता सिवाय अंधकार के। वह पीछे लौट के मन को स मझाते रहते हैं, पीछे लौटकर देखते रहते हैं। और तीसरी बात, एक बहुत अदभुत तार्किक भूल हो रही है । और वह यह हो रही है कि जैसे आज, आज से दो हजार साल बाद ना तो मुझे कोई याद रखेगा, ना अ ापको कोई याद रखेगा, लेकिन गांधी का नाम दो हजार साल तक याद रखेंगे। और दो हजार साल बाद लोग कहेंगे गांधी, इतना अच्छा आदमी। उस जमाने के लोग कतने अच्छे रहे हों, और उस जमाने के लोग, उस जमाने के लोगों का गांधी से क्य ा संबंध? लेकिन गांधी की याद रहेगी, हम सब भूल जाएंगे । और गांधी की याद पर हमारे संबंध में निर्णय लिया जाएगा कि बहुत अच्छे लोग थे। और हम, हमारा गां धी से कोई भी संबंध नहीं, गौम्से से तो कोई संबंध हो भी सकता है। गांधी से हमारा क्या लेना देना। लेकिन गांधी हमारे प्रतिकपन के इतिहास में जिंदा रहेंगे, और लोग गलती करते रहेंगे हमेशा । वह कहेंगे गांधी युग कितने अच्छे लोग थे। वही भूल सदा होती है हम कहते हैं राम राज्य, राम का युग । कितने अच्छे लो ग थे। राम याद रह गए। और वह जो वृत्तर मनुष्य था उसका नाम कुछ भी पता न हीं कि वह बहुत अच्छा नहीं रहा होगा। बुद्ध याद रह गए, महावीर याद रह गए। उस जमाने का आम आदमी हमें याद नहीं रहा । कहता हूं कि वह बहुत अच्छा न हीं रहा होगा। क्यों कहता हूं ? आप कहेंगे कि जब हम सितम्बर में कुछ पता नहीं तो ऐसा मैं क्यों कहता हूं। कुछ कारण से कहता हूं । इसलिए कहता हूं कि बुद्ध सुबह से शाम तक लोगों को समझाते हैं कि चोरी मत करो! झूठ मत बोलो! हिंसा मत करो! बेईमानी मत करो! किसको समझाते हैं अच् छे आदमियों को। महावीर सुबह से शाम तक चालीस साल तक यही समझाते रहे क संयम साधो, असंयम बुरी चीज है। ज्यादा मत खाओ, कम खाओ किन लोगों को समझा रहे थे महावीर यह । अच्छे लोगों को, जो चोर नहीं थे उनको समझा रहे थे कि चोरी मत करो। और अगर महावीर ने चालीस साल में एक आद बार कहा हो ता कि चोरी मत करो तो हम समझते कि एक आद आदमी मिल गया होगा चोर। Page 110 of 150. http://www.oshoworld.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लेकिन सुबह से शाम तक महावीर ये ही चिल्लाते हैं कि चोरी मत करो! हिंसा मत करो! इससे क्या पता चलता है। इससे दो बातें हो सकती हैं, या तो महावीर का दिमाग खराव रहा हो या समाज खराव रहा हो। तो मझे लगता है कि महावीर का दिमाग को खराव नहीं था। समाज चोरों और वेईमानों का रहा होगा इसलिए वेचारे महावी र को सुबह से शाम तक यही समझाना पड़ता है। शिक्षाएं बताती हैं कि लोग कैसे थे? शिक्षाओं से पता चलता है कि लोग कैसे थे? शक्षाएं खबर देती हैं कि किनको दी गईं होगी, महावीर और बुद्ध से पता नहीं चल ता कि जमाना कैसा था। महावीर और बुद्ध की शिक्षाओं से पता चलता है कि जमा ना कैसा था। क्योंकि महावीर, वृद्ध से तो महावीर वूद्ध का पता चलता है कि वह कैसे थे। लेकिन शिक्षाओं से पता चलता है कि जिनको वह शिक्षा दे रहे थे वह कैसे दुनिया की पुरानी से पुरानी किताब यही कहती है कि आज कल के लोग खरा ब हो गए हैं पहले के लोग अच्छे थे। चीन में छः हजार वर्ष पूरानी किताब और उसकी भूमिका को अगर पढ़ें तो ऐसा ल गेगा पूना के किसी दैनिक अखवार में एडिटोरियल लिखा हो। भूमिका में लिखा हुआ है कि आजकल के लोग विलकुल ही अनैतिक हो गए हैं। दुराचारी हो गए हैं व्या भचारी हो गए हैं, आजकल के लोग बिलकुल धार्मिक नहीं रहे, आजकल के लोगों में कुछ नहीं रहा जो अच्छा है। पहले के लोग बहुत अच्छे थे, छः हजार साल पहले की किताव है। तो पहले के लोग कव थे जो अच्छे थे। कभी थे अब तक ऐसी एक भी किताब नहीं मिली है। जिसमें यह लिखा हो कि इस समय के लोग अच्छे हैं। सब कितावें कहती हैं कि पहले के लोग अच्छे थे। यह पहले के लोग वहुत काल्पनिक म लूम पड़ते हैं। यह पहले के कुछ अच्छे लोगों की स्मृति के कारण सारे लोगों को अच् छे मानने की कल्पना मालूम पड़ती है। मैंने सुना है बिलीरोम में खुदाई करने वाले पुरातत्व के खोज करने वाले लोगों को एक ईंट मिली है जो ईंट अंदाजन दस हजार से पंद्रह हजार साल पुरानी होनी चाहि ए, उस ईंट की पर जो लिखा हुआ है उसको खोज करने वालों ने पता लगाया है ि क क्या लिखा है? उस ईंट पर एक मोटो लिखा हुआ है, चोरी करना पाप है।' पंद्रह हजार साल पुरानी ईंट पर लिखा है, 'चोरी करना पाप है।' क्या मतलब है इस वा त का? इसका मतलब है कि पंद्रह हजार साल पहले की चोरी, बड़े जोर से चल र ही थी। ईंटों पर लिख कर मकानों पर लगाना पड़ता था चोरी करना पाप है।' लोग कहते हैं कि मकानों में ताले नहीं लगाने पड़ते थे। इसका एक ही कारण हो स कता है कि लोग ताला बनाना ना जानते हों। चोरी तो जारी थी। या इसका दूसरा कारण यह हो सकता है कि ताले में रखने योग्य पास में कुछ भी ना रहा हो। लेकि न चोरी तो जारी थी क्योंकि पुरानी से पुरानी किताब कहती है कि चोरी करना पा प है। चोरी नहीं करनी चाहिए, चोरी करने वाले को नरक में सड़ना पड़ता है। चोर Page 111 of 150 http://www.oshoworld.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ी करने वाले को बहुत-बहुत कष्ट देने का वर्णन है । चोरी करने वाले को बहुत-बहुत दंड का डर है। यह क्या है ? समाज कभी भी अच्छा नहीं था। आदमी कुछ अच्छे पैदा हुए। व्यक्ति कुछ अच्छे पैदा हुए। समाज, समाज आज से पहले से हर हालत में अच्छा है, समाज । समाज रोज अच्छा हो रहा है। आने वाला समाज कल और भी अच्छा हो सकता है। समाज विक ास कर रहा है इसलिए पीछे के स्मृति और गुणगान बहुत धोखे के हैं और खतरना क हैं। खतरा यह है कि जो लोग यह मान लेते हैं कि पीछे का समाज बहुत अच्छा था, वह जाने-अंजाने अपने समाज को एक हीनता के भाव से भर देते हैं। और वह हीनता आदमी को बुरा होने की तरफ ले जाती है, अच्छे होने की तरफ नहीं । और भारत में तो एक बहुत अजीव धारणा है। हमारा तो खयाल यह है कि पतन ह ो रहा है विकास नहीं हो रहा है। पहले था सत युग अब चल रहा है कलयुग । अच्छे युग पहले हो चुके। बुरे युग अब चल रहे हैं। आदमी रोज पतित हो रहा है। कि नु कसान के सोचने का जो ढंग है वह कहता है कि समाज पतित हो रहा है, ढंग खत रनाक है। विकसित श्रेष्ठतर आगे आ रहा है यह अगर खयाल और धारणा हो तो हम श्रेष्ठतम होने का प्रयास करते हैं। और यह पक्का ही है कि कलयुग आ रहा है बुरा होना जरूरी है तो फिर भले होने की कोशिश कौन करेगा, हमारा कसूर भी न हीं है कुछ कलयुग चल रहा है। हम बुरे हैं पंचम काल चल रहा है हम बुरे हैं हमा रा बुरा होना मजबूरी है। हम क्या कर सकते हैं, समय ऐसा है की हम बुरे हैं । यह धारणाएं समाज की प्रतिभा को ऊंचा उठाने का कारण नहीं बनती, रोकने का कारण बनती हैं। महापुरुष हुए हैं महान मनुष्य अवतक पैदा नहीं हुआ है। महान मनु प्य को पैदा होना है। और जो महापुरुष पैदा हुए हैं । वह महापुरुष भी इसी लिए मह पुरुष मालूम पड़ते हैं यह चौथी बात आपसे कहना चाहता हूं। बुद्ध को हुए ढाई हज वर्ष हो गए। ढाई हजार वर्ष तक बुद्ध को याद रखने की जरूरत क्या थी। आप कहेंगे कि बुद्ध को याद ना रखें, महावीर को याद ना रखें। नहीं, मैं यह नहीं कह र हा हूं, मैं यह कह रहा हूं कि ढाई हजार वर्ष तक महावीर, बुद्ध या राम और कृष्ण को याद रखना पड़ता है उसका एक ही कारण हो सकता है। कि राम, बुद्ध और महावीर जैसे आदमी मुश्किल से पैदा होते हैं। गिने-चुने कभी उंगलियों पर गिने जा सकें। अगर दुनिया में बहुत अच्छे आदमी पैदा होंगे तो महापुरुषों को याद रखना मुश्किल हो जाएगा। महापुरुष अतिन्यून है । इसलिए याद रखे जा सकते हैं और ध्यान रहे मह पुरुष पैदा ही इसलिए हो पाते हैं कि चारों तरफ हीन आदमियों का जमघट है। स्कू ल में शिक्षक लिखता है काले बोर्ड पर सफेद खड़िया से । उससे कहो ना कि काली खड़िया से क्यों नहीं लिखते । या उससे कहो कि सफेद दीवार पर क्यों नहीं लिख क र काम चला लेते सफेद खड़िया से । वह कहेगा, 'पागल हो गए हो ! सफेद खड़िया से लिखूंगा, सफेद दीवार पर लिख तो जाएगा लेकिन दिखाई नहीं पड़ेगा। सफेद ख डया का लिखा हुआ दिखाई पड़ता है काले ब्लैकबोर्ड पर महापुरुष दिखाई पड़ते हैं, Page 112 of 150. http://www.oshoworld.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज काली मनुष्यता के बोर्ड के ऊपर नहीं तो दिखाई नहीं पड़ेंगे। कैसे दिखाई पड़ेंगे? मह पुरुष होंगे, लेकिन दिखाई नहीं पड़ेंगे। अगर दुनिया अच्छी होगी तो महावीर, बुद्ध ऐसे लोग खो जाएंगे। इनका पता नहीं चलेगा कि कहां हैं। लेकिन आदमी की काली तख्ती का लम्बा फैलाव उस ब्लैकबोर्ड पर कभी किसी महावीर के हस्ताक्षर सफेद खड़िया में हो जाते हैं, हजारों साल बीत जाते हैं। और हम उन्हें देखते रहते हैं क्योंकि वह दिखाई पड़ते हैं क्योंकि उन हस्त ाक्षरों पर भी नए हस्ताक्षर करने वाले नहीं आते कि वह दब जाएं वह दिखाई ही प. डते रहते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि महापुरुष इतने कम हैं कि उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि एक-एक महापुरुष को दो-दो, हजार साल तक याद रखना पड़ता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि महामनुष्यता नहीं है इसलिए महापुरुष पैदा होते हैं महापुरुष दिखाई पड़ते हैं। महापुरुष तो पैदा होते रहेंगे। लेकिन दिखाई नहीं पड़ने चाहिए। इतनी अच्छी आदमियत को जन्म देना जरूरी है । मैं कहता हूं कि, 'अच्छे-अच्छे लोग हुए हैं। अच्छा-अच्छा समाज आगे होगा। और अ च्छे समाज पर ध्यान देना जरूरी हो गया है। अच्छे लोगों पर ध्यान देने से कुछ भी नहीं हुआ। एक आदमी अच्छा हो जाए इससे क्या होता है, पूना में, अगर पांच लाख आदमी और एक आदमी स्वस्थ हो जाएं तो ठीक है लेकिन क्या होगा, पांच लाख आदमी बीमार हैं और एक आदमी स्वस्थ है। इसका स्वास्थ्य भी पांच लाख लोगों की बीमारी में सुंदर नहीं मालूम होगा। इसका स्वस्थ होना भी एक दुर्घटना मालूम होगी एक एक्सीडेंट मालूम होगा। होना ऐसा चाहिए कि पांच लाख लोग स्वस्थ हों कभी कोई एक आद आदमी अस्वस्थ हो जाए । होना यह चाहिए कि दुनिया में जो बुरे अ आदमी पैदा हों उनका नाम हम उंगलियों पर गिन सकें। अच्छा आदमी आम बात हो बुरा आदमी मुश्किल हो जाएं, वह कभी पैदा हो तो हम याद रख सकें कि फलां आ दमी पैदा हुआ था दो हजार साल पहले। जब तक हम अच्छे आदमियों को याद रखते हैं, तब तक समझ लेना कि समाज र ा है। जिस दिन समाज अच्छा होगा बुरे आदमी की याद रहेगी, अच्छे आदमी का क कोई हिसाब नहीं रखेगा। ऐसा समाज भविष्य में हो सकता है। ऐसा समाज अतीत में नहीं था। इसलिए मैं. . इसलिए मैं कह रहा हूं कि अतीत से मुक्त होकर निरंतरनिरंतर भविष्य की तरफ गति जरूरी है । एक मित्र ने पूछा है कि, 'मैं कहता हूं कि भारत में पांच हजार सालों में कुछ भी नया नहीं सोचा तो उन्होंने एक आद दो उदाहरण दिए हैं कि गांधी जी ने नानकोओ परेशन, असहयोग का आंदोलन, नया सोचा, रामदास ने राष्ट्र धर्म की धारणा नई स ोची । फिर वह मेरी बात नहीं समझ पाए। यह ऐसा ही जैसे कोई मरुस्थल में जाकर क हे कि मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है और एक पागल आ जाए और कहे कि, 'च लिए! मैं दिखाता हूं। एक जगह छोटे-से डिब्बे में पानी पड़ा हुआ है। हम गलत कह ते हैं आपकी बात को और इस डिब्बे में पानी भरा हुआ है यह रहा । और आप कह Page 113 of 150. http://www.oshoworld.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ते हैं कि मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है। मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है इसक मतलब, इसका मतलब यह नहीं है कि मरुस्थल में कहीं दो चार डिब्बे ना मिल ज एंगे जहां पानी नहीं होगा । ' पांच हजार वर्षों तक भारत ने नए तरह से सोचने की प्रवृत्ति विकसित नहीं की है । इसका मतलब यह हमारी मूल धारा है । कभी इक्का दुक्का कोई आदमी कुछ नया सोचता है लेकिन इससे भारतीय संस्कृति की मूल धारा पता नहीं चलती। मूल धारा हमारी पुराने को पकड़ रखने की, जोर से पकड़ रखने की। कभी कोई एक गांधी कोई नई बात सोचता है। लेकिन गांधी की बात भी बहुत नई नहीं है कि जितना ह म सोचते हैं। सिर्फ नए संदर्भ में प्रयोग है। पर वह भी नया है । ऐसे तो गांधी की बात रस्किन, थोरो और टोलस्टाय से ली गई है। भारतीय लोगों को यह दिमाग से खयाल बहुत छोड़ देना चाहिए कि गांधी जी भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। गांधी के तीनों गुरु अभारतीय हैं । थोरो, रस्किन, टोलस्टाय, इन तीनों आदमियों से गांधी की दृष्टि का जन्म हुआ है। इन तीनों में से कोई भी भारत का नहीं है। नानकोआपरेशन का असहयोग की धारणा थोरो से मिली। लेकिन ऐसे असह योग की धारणा बहुत पुरानी है। घरों में स्त्रियों पतियों से हमेशा असहयोग करती र हीं। असहयोग कमजोर हमेशा प्रयोग करते रहेंगे। स्त्रियां कमजोर हैं इसलिए पुरुषों के खिलाफ असहयोग नानकोरपूरेशन का उनका हजारों साल से प्रयोग करती रहीं हैं । अब स्त्री घर में कुछ नहीं करती तो नानकोरपूरेट करती है। आप कहते हैं सिनेमा चलो वह देर तक साड़ी पहनती रहती है यह नानकोओपरेशन है। कमजोर हमेशा से असहयोग करता रहा है कमजोर और कर क्या सकता है। ज्यादा से ज्यादा यह कर सकता है कि आपको सहयोग ना दे । भारत कमजोर था उस कमजोरी में भारत को गांधी की बात समझ में आ गई । अ सहयोग ठीक है, उसका मतलब यह मत समझना कि भारत में असहयोग की दृष्टि को स्वीकार कर लिया। भारत को अपनी कमजोरी को छिपाने का मौका मिल गया । और उस असहयोग के उसने मान लिया और चल पड़ा। कमजोर हमेशा से वही क रते रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गांधी ने कुछ नया नहीं किया। गां धी बहुत-सी दृष्टियों में नए ढंग से सोचें। वह सोचना गलत हो सकता है। फर भी नया है नए होने से ही कोई चीज ठीक नहीं हो जाती। यह मत समझ लेना कि मैंने कह दिया कि, 'गांधी ने कुछ नया सोचा तो वह ठीक हो गया। नए होने से कुछ ठीक नहीं हो जाता। लेकिन फिर भी पुराने को पकड़े रहने से नया सोचना बेहतर है। नया सोचना भी गलत हो सकता है। नए सोचने में भी सैंकड़ों विकल्प हो सकते हैं ठीक और गलत के। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि भारत में कभी ऐसे लोग ही पैदा नहीं हुए, बुद्ध ने बहुत कुछ नया सोचा है । चालवाक्य ने बहुत कुछ नया सोचा है । नागार्जुन के पास बहुत कुछ नया है, शंकर के पास भी बहुत कुछ नया है। लेकिन भ ारत का जो आम दिमाग है, भारत का जो ट्रेडिशनल दिमाग है, जो मूल धारा है, Page 114 of 150 http://www.oshoworld.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज जो भारत की गंगा है उस गंगा में कभी-कभी कोई एक छोटी-सी धारा थोड़ी देर क ने चमकती है और खो जाती है। लेकिन मल गंगा की जो धारा है. जो मेनस्टीम है. भारतीय चेतना की वह अतित गामी है, वह पुरातन पंथी है, वह परंपरावादी है। उसके खिलाफ मैंने वातें कहीं इसलिए कोई इक्के-दुक्के के उदाहरण खोजकर यह म त सोचना कि मेरी बातों के विरोध में कछ सोच लिया। डवरे वताए जा सकते हैं ले किन इससे मरुस्थल. मरुस्थल ही रहता है। इससे मरुस्थल कछ उद्यान सिद्ध नहीं हो जाता। लेकिन कई बार मुझे ऐसा लगता है कि कमजोर चित्त अपने को बचाने की ना मालूम कैसी-कैसी कोशिश करता है। अव भी एक मित्र ने रास्ते में मैं आया हूं उन्होंने कहा कि, 'आपने सूबह सांड का उ दाहरण दिया, सांड तीन साल में जवान होता है। और आपने कहा एक साल में।' अव मुश्किल हो गई सांडों का मैं कोई हिसाव रखता हूं, कोई वैटरनरी का डाक्टर नहीं, सांडों से मुझे कुछ लेना-देना नहीं। जो बात कही थी वह क्या कही थी, वह ि मत्र कह रहे हैं कि सांड तीन साल में जवान होगा। कहा मैंने यह था कि, 'सांड ज ब सोचेगा तव गाय के संबंध में सोचेगा। वह उसका सोचना, वह उसके सांड के मा ईंड का सवाल है। वह तीन साल में सोचेगा तो तीन साल में सही उतना फर्क कर लेना लेकिन उससे कुछ मतलव हल नहीं होता उससे कुछ प्रयोजन नहीं।' ऐसी-ऐसी बातें लिखकर भेजते हैं कि मुझे हैरानी होती है। कि हम सोचते हैं, सुनते हैं, या क्या कर रहे हैं? जैसे हमने सोचना बंद ही कर दिया है। तो जो मूल आधा र होता है उसकी तो बात ही भूल जाती है और ना मालूम क्या-क्या उसमें से खोज ते नहीं कि यह ऐसा होगा। सांड तीन साल में जवान होगा, वह तीन साल में हो ि क तीस साल में हो और ना भी हो तो कोई चिंता नहीं है। जो मैंने कहा उससे इस का कुछ लेना-देना नहीं। मेरा प्रयोजन कुल इतना है कि हम जो हैं वही सोचते हैं, और जो हम सोचते हैं उससे पता लगता है कि हम कौन हैं। मैं यह कह रहा था सुवह कि आदमी भी पशु है, पशु में ही एक पशु हैं। उसके चिंत न का अगर हम गौर करेंगे तो हम पाएंगे, वह वही है जो पशुओं का है। वह पशुओं के ऊपर उठ सकता है लेकिन उठ नहीं गया है। और अपने को धोखा देना खतरना क है कि हम अपने को मान लें कि हम पशू नहीं हैं, हम परमात्मा हैं। यह धोखा खतरनाक है। आदमी परमात्मा हो सकता है, है नहीं। यह संभावना है सत्य नहीं है। और संभावना को सत्य मान लेना धोखा है। संभावना को सत्य बनाने का प्रयत्न ि वलकुल दूसरी बात है। और उस प्रयत्न में पहली बात यह होगी, कि हम अपने तथ य को समझें। हजारों लाखों साल हो गए जब आदमी जानवरों से दूर हो गया है। लाखों साल हो गए अंदाजन दस लाख साल हुए होंगे। दस लाख साल से आदमी वृक्षों से नीचे उतर आया है। बंदर नहीं रह गया। आज बंदर में और आदमी में कोई भी समानता नहीं है। लेकिन बहुत भीतर गौर करें तो बहुत समानताएं मिल जाएंगी। आप हैरान हों गे। दस लाख साल में भी बुनियादी आदतों में कोई अंतर नहीं पड़े हैं। अभी हम रास Page 115 of 150 http://www.oshoworld.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ते पर चलते हैं। तो आपने देखा दोनों हाथ हिलते हैं। बाएं के साथ दायां हाथ हिल ता है, दाएं पैर के साथ बायां हाथ हिलता है । यह काहे के लिए हिल रहे हैं। चलने से इनसे कोई मतलब है। कोई मतलब नहीं है। दस लाख साल पहले हम चारों हा थ पैर से चलते थे उसकी याददाश्त बाकि रह गई शरीर में । वह शरीर उसी ढंग से काम कर रहा है। वह मैकेनिकल हो गया है उसे पता ही नहीं कि अब उसकी कोई जरूरत ही नहीं है। आपके लूजमोश्न में आपकी गति में हाथों को हिलाने से कोई संबंध नहीं है। दोनों हाथ काट दें तो भी आप इतने ही तेज चल सकते हैं। लेकिन दाएं पैर के साथ बाय हाथ क्यों हिल रहा है ? बाएं पैर के साथ वायां हाथ क्यों नहीं हिलता ? क्योंकि प शु जो चार हाथ पैर से चलता है, उसका बायां पैर आगे उठेगा तो पीछे का दांया पैर आगे उठेगा वह दोनों के मूवमैंट का आंतरिक संबंध है। दस लाख साल से हमने चले हैं चार हाथ पैर से । लेकिन हाथ की आदत वही है । वह हाथ की आदत बता है कि हमारा पूर्वज कभी ना कभी चारों हाथ पैर से चलता रहा है। अगर हम आदमी के भीतर खोजबीन करें तो पता चलेगा कि उसके भीतर पशु मौजूद है। और उस पशु को पहचानना जरूरी है। ताकि वह उसे बदल सके। जिसे भी हम जान ले ते हैं उसे बदलने का हक मिल जाता है। जिसे हम नहीं जान पाते हम उसके हाथ में खिलौने होते हैं । अज्ञान के हाथ में हम खिलौने हैं। यह बिजली जल रही है । यह ही तीन हजार साल पहले वेद का ऋषी ह ाथ जोड़े इंद्र भगवान से कह रहा था कि हे भगवान नाराज मत होना बिजली मत चमकाना। आज का स्कूल का छोटा बच्चा भी यह नहीं कहेगा कि इंद्र भगवान बिज ली मत चमका। आज का छोटा-सा बच्चा भी जानता है कि विजली क्यों चमती है, इसमें इंद्र भगवान का कोई भी कसूर नहीं है। उनका हाथ ही नहीं है बेचारों का। सच तो यह है कि वह हैं ही नहीं। तो उनका हाथ हो ही नहीं सकता। बिजली चम कती थी हम डरते थे क्योंकि अंजान थी बिजली, पहचान नहीं थी उससे कुछ | हमारे प्राणों को कंपा देती थी । कभी गिरती थी वृक्ष जल जाता था, आदमी मर जाता थ हम डरते थे, घबराते थे। सोचते थे कि इंद्र सजा दे रहा है। अब हमने विजली को कैद कर लिया, हमने बिजली के राज को जान लिया। अब इं द्र भगवान पानी की टंकी चला रहे हैं। इंद्र भगवान घर में पंखा चला रहे हैं। अब इं द्र भगवान से कहो कि जरा पंखा ठीक से चलाएं। कोई नहीं कहेगा, क्योंकि पंखे की जो राज है बिजली वह हम जानते हैं। ज्ञान हमें बिजली का मालिक बना दिया । आदमी अपने भीतर के संबंध जब तक अज्ञान में है तब तक अपना मालिक नह हो सकता। विज्ञान ने हमें प्रकृति का मालिक बना दिया है। धर्म हमें अपना मालि क बनाता है। लेकिन अपना मालिक कोई भी ज्ञान के बिना नहीं बनता। अज्ञान में कोई कभी मालिक नहीं बन सकता । और हम अपने संबंध में अज्ञान हैं। और बड़े से बड़े अज्ञान ऐसे हैं कि उन्हें हम उघा. डना भी नहीं चाहते क्योंकि डर लगता है कि कहीं हमारे भीतर का असली आदमी Page 116 of 150. http://www.oshoworld.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज प्रकट ना हो जाए। असली आदमी हमारा पशु है । हां, उस पशु को जानकर रूपांतरि त किया जा सकता है। और हम ऐसी सीमाएं छू सकते हैं जिनकी कल्पना भी नहीं । हम ऐसे दृश्य देख सकते हैं जो कभी नहीं देखे गए हम वहां पहुंच सकते हैं जहां कभी कोई नहीं पहुंचा। हम वह जान सकते हैं जो कभी नहीं जाना गया। हम उसे प ा सकते हैं जिसे पा लेने पर सब पा लिया जाता है। लेकिन उस यात्रा को करना तो हमें पड़ेगा, और हम अगर अपने ही तरफ अज्ञानी हैं तो यह नहीं हो सकता। उस लिए मैंने वह बात कही । एक दूसरे मित्र ने पूछा है कि, 'आप कहते हैं कि धर्मों ने दुनिया को लड़ाया। और आदमी को वैज्ञानिक होना चाहिए, लेकिन अब तो साईंस दुनिया को लड़ा रही है। ए टमबम, हाईड्रोजनवम बना रही है । ' उन मित्र को मैं कहना चाहूंगा, 'साईंस दुनिया को नहीं लड़ा रही है। एटम तो जरूर साईंस बना रही है लेकिन साईंस यह नहीं कह रही कि एटम को जाकर हिरोशिमा पर पटको। यह बेवकूफ राजनीतिज्ञ कर रहे हैं। विज्ञान तो सिर्फ शक्ति खोज रहा है। और नासमझ राजनीतिज्ञों के हाथ में शक्ति दे रहे हैं आप। राजनीतिज्ञ लड़ा रहा है, धर्मों ने लड़ाया, राजनीति लड़ा रही है। विज्ञान तो एक कर रहा है। इस वक्त दुनिया में विज्ञानिकों की कोम्यूनिटी ही अकेली एक मात्र अंतराष्ट्रीय संप्रदाय है। ए क मात्र । जापान में एक वैज्ञानिक कुछ खोजता है वह भारत के वैज्ञानिक की संपत्ति हो जाती है। अमरीका में एक वैज्ञानिक कुछ खोजता है वह फ्रांस के वैज्ञानिक की संपत्ति हो जाती है। सिर्फ रूस और चीन के मामले में झंझट हो गई है। क्योंकि उन्होंने लोहे की दीवारें खड़ी कर रखी हैं। उनका वैज्ञानिक क्या खोजता है वह बड़ी मुश्किल से पता चलने देते हैं। यह जो विज्ञान है । वह तो जोड़ रहा है सबको लेकिन राजनैतिज्ञ राजनैतिज्ञ नहीं जोड़ना चाहता क्यों ? क्योंकि राजनैतिज्ञ की सारी ताकत लोगों के लड़ने पर निर्भर है। अगर आप लड़ते हैं तो राजनीतिज्ञ मालिक रहेगा। अगर आप नहीं लड़ते हैं तो राजनीतिज्ञ बेकार हो जाएगा। इसलिए राजनीतिज्ञ सीमाएं बनाता है हिंदुस्तान की, पाकिस्तान की, चीन की, वर्मा की, रूस की, अमरीका की, यह सी माएं कहीं भी पृथ्वी पर नहीं हैं । और यह सीमाएं कोई वैज्ञानिक नहीं खींचता । यह सीमाएं पहले धर्मों ने खींची अब राजनीतिज्ञ खींच रहा है। और यह सीमाएं वह क्यों खींच रहा है ? क्योंकि जब वह आपको सीमाओं में बांध दे ता है, और जब वह दो सीमाओं में बंटे हुए लोगों को लड़ने के लिए राजी कर लेत ा है। तब वह मालिक हो जाता है। जब आप लड़ते हैं तब आपको नेता चुनना पड़त ा है। एडोल्फ हिटलर ने अपनी आत्म कथा में लिखा है, 'नेता बनने के लिए खतरा पैदा करना जरूरी है।' अगर हिंदुस्तान में नेता बनना हो खतरा. खबर पैदा करो कि चीन का खतरा है। जिन्ना को नेता बनना है खबर करो कि इस्लाम पर खतरा है। हिंदूओं को इकट्ठा करना है तो घोलवेकर से सिक्रेट पूछो कि क्या है सिक्रेट।' वह सिक्रेट यह है कि हिंदू धर्म नष्ट हो रहा है। हिंदू धर्म खतरे में है। इकट्ठे हो जाओ, Page 117 of 150. http://www.oshoworld.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज दुश्मन चारों तरफ इकट्ठे हैं। दुश्मन इकट्ठे हैं। दुश्मन कौन बना रहा है? और वह जो दुश्मन इकट्ठे हैं हिंदुस्तान का नेता कह रहा है कि इकट्ठे रहो। क्योंकि पाकिस्तान का डर है। पाकिस्तान का नेता पाकिस्तान की गरीब जनता को कह रहा है इकटे रहो. क्योंकि पाकिस्तान का डर है। लेकिन डर किसका है? जव दोनों डरे हुए हो, छोड़ दो डर, म। लेकिन राजनीतिज्ञ मर जाएगा तो डर छोड दोगे। तो कौन मानेगा नेता. दनि या को भयभीत रखना जरूरी है बांट कर, खंड-खंड करना जरूरी है। जब तक दुनि या बटी है तब तक राजनीतिज्ञ मालिक रहेगा। दुनिया को राजनीतिज्ञ लड़ा रहा है। राजनीति लड़ा रही है। राजनीति नए तरह के धर्म पैदा कर रही है। उसे पुराने धर्म के नाम थे हिंदू, मुसलमान, ईसाई, जैन यह पुराने धर्मों के नाम हैं। सच में पूछिए तो यह पुरानी पोलिटिक्स के नाम हैं, पुरानी राजनीति के। नई राजनी ति के नाम हैं कम्यूनिज्म, शोशीयलिज्म, कैप्टललिज्म, डैमोक्रेशी, यह नए धर्म हैं नई राजनीति है। इनके भी मक्का मदीना हैं। इनके भी पौप जगतगुरु हैं। वह कम्यूनिष्ट क्रमलिन की तरफ उसी तरह देखता है जैसे हिंदू काशी की तरफ देखता है। मुसल मान मक्का की तरफ देखता है। क्रमलिन पर चमकता हुआ रैड स्टार वही मतलव र खता है जो काशी में विश्वनाथ के मंदिर के ऊपर का झंडा लगता है। दिमाग वही नए ढंग से आदमी को फिर बांट दिया गया है। विज्ञान ने तो मौका पैदा किया है ि क आदमी को बांटने की कोई जरूरत नहीं होगी, विज्ञान ने वह खोजें की हैं, और ि वज्ञान कहता है कि अगर एक शूद्र की और एक ब्राह्मण की हड्डी निकाली जाएं तो दोनों में कोई फर्क नहीं है। और बड़े से बड़ा खोज करने वाला वेद का ज्ञाता भी नह बता सकता कि यह हड्डी ब्राह्मण की है और यह शूद्र की, कि बता सकता है? क ोई रास्ता नहीं है। हड्डियां एक सी और जव ऐलोपैथ डाक्टर के पास जव एक शूद्र ज ता है वह यह नहीं कहता कि तुझे, तुझे दूसरी दवा कारगर होगी। ब्राह्मण के लिए है यह। यह जो पेनीसलीन है यह शूद्ध ब्राह्मणों के लिए है। तेरे लिए कोई शूद्र पेनी सलीन खोजनी पड़ेगी। वह अभी है नहीं। वह दोनों को लगा देता है। और बड़े मजे की बात है कि पेनीसलीन बड़ी ना समझ है वह दोनों को ठीक कर देती है ब्राह्मण को भी, शूद्र को भी। कोई फर्क नहीं करती। दुनिया के बड़े-बड़े संत हार गए, थक गए चिल्ला-चिल्लाकर कि सव एक है, शूद्र भाई है, फलां ढिका संत-वंतों की किसी ने भी नहीं सुनी। रेलगाड़ी चली और ब्राह्मण बैठा है उसके बगल में शूद्र बैठकर सिगरेट पी रहा है। व्र राह्मण बेचारा अपना खाना खा रहा है। और बगल में शूद्र बैठा है कुछ पता नहीं चल ता कौन-कौन है। क्योंकि रेलगाड़ी में हजार आदमी बैठे हैं रेलगाड़ी में ब्राह्मण को शू द्र को पास विठा दिया जो हजारों साल संग नहीं बैठ सके। रेलगाड़ी महासंग है। रेल गाड़ी को नमस्कार करना चाहिए। कि धन्य है तू जिसने ब्राह्मण और शूद्र को एक स Page 118 of 150 http://www.oshoworld.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज थ-साथ बिठा दिया। अगर आदमी पैदल चलता रहता बैलगाड़ी में चलता रहता तो शूद्र और ब्रह्मण कभी पास नहीं बैठ सकते थे। युरिगागरिन जव पहली दफा अंतरिक्ष में गया। तो वहां से जो उसने मैंसिज भेजी, इ सका पता है उसने क्या कहा, उसने कहा, 'यहां आकर पहली दफा मुझे लग रहा है माई अर्थ। मेरी पृथ्वी। यहां आकर मुझे ऐसा नहीं लगता मेरा रूस, वहां रूस दिखत । ही नहीं, अंतरिक्ष में दिखता है पृथ्वी। वहां ना कोई रूस है, ना कोई चीन है, ना कोई भारत।' उसने यह नहीं कहा, 'माई रसिया। युरिगागरिन ने कहा कि कहां है रूस यहां से तो सिर्फ पृथ्वी ही दिखाई पड़ती है मेरी पृथ्वी। अगर चांद की यात्रा शुरू हो गई और चांद पर आप गए समझ लें मंगल पर गए। और मंगल पर निवास करने वाले लोग हुए और उन्होंने पूछा, 'कहां से आते हैं, तो आपको कहना पड़ेगा पृथ्वी से।' यह नहीं कि महाराष्ट्र से आ रहे हैं। वह मंगल का आदमी महाराष्ट्र का कोई मतलब नहीं समझ पाएगा। अगर हम चांद पर पहुंचा दि या विज्ञान ने तो पृथ्वी एक हो जाएगी। धारणा बदल जाएगी, दृष्टि बदल जाएगी, ि वज्ञान ने इतने जोर का कोम्यूनीकेशन के साधन पैदा किए कि आज एक हिंदु लडका अमरीका में जाकर शादी कर सकता है। अमरीकी लड़की भारत आकर शादी कर सकती है। कितना सुंदर और सुखद अगर सारी दुनिया के बच्चे दूर-दूर शादी कर लेंगे तो दुनि या में युद्ध होना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अगर युद्ध जारी रखना है तो अपनी ही जाति में शादी करना। अगर युद्ध मिटाना है तो अपनी जाति में कभी भूलकर शादी मत करना। क्योंकि जितने हमारे संबंध दूसरी जातियों में फैल जाते हैं उतने दूसरी जातियों से हमारा खून जुड़ जाता है। हम एक हो जाते हैं। दुनिया के पुराने वैद्यों ने सिखाया कि अपनी जाति के वाहर मत जाना। यह लड़ाई का अड्डा है। अगर हिंदू स्तान में एक दूसरी जाति में विवाह होता, होता तो संतों-वतों को समझाने की कोई जरूरत नहीं थी। सब एक अपने आप ही होते। हिंदुस्तान जितना टूटा हुआ है उसक [ कारण यह है कि सब अपने अपने घेरे में विवाह कर रहे हैं। घेरे के बाहर कोई सं बंध ही पैदा नहीं हो पाता। घेरे के बाहर प्रेम के बढ़ने का कोई उपाय नहीं है। विज्ञा न ने सब सीमाएं तोड़ दी हैं। आने वाले पचास वर्षों में वही बची कुची सीमाएं भी टूट जाएंगी और दुनिया एक हो सकती है। लेकिन राजनीतिज्ञ बाधा डाल रहा है। राजनीतिज्ञ जैसे पहले के धार्मिक लोगों ने बा धा डाली थी, विज्ञान को नहीं बढ़ने दिया था। क्योंकि धर्म के लोगों को डर लगा थ [ कि अगर विज्ञान बढ़ेगा तो धर्म की जो गोप कल्पनाएं, गोप लीलाएं, मूलता पूर्ण कथाएं है वह सब मिट्टी हो जाएंगी। वह सब मिट्टी हो गई हैं। तो धार्मिक गुरु डरा कि उसने कहा कि विज्ञान नहीं बढ़ना चाहिए। क्योंकि हमने जो जाल फैला रखा है वह सब टूट जाएगा। लेकिन सत्य को ज्यादा देर तक नहीं रोका जा सकता। सत्य विज्ञान के पक्ष में था। धर्मों को हार जाना पड़ा, विज्ञान जीता। Page 119 of 150 http://www.oshoworld.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज अब राजनीतिज्ञ विज्ञान में बाधा डाल रहा है क्योंकि अब विज्ञान एक दुनिया वन वल र्ड पैदा कर रहा है और राजनीतिक को लग रहा है कि मेरी राजनीति गई। और रा जनीतिज्ञ कह रहा है बड़ा मुश्किल है राजनीति नहीं जानी चाहिए, धर्म गुरु चला ग या और राजगरु के जाने का मौका आ रहा है। विज्ञान के खिलाफ वह अडंगा डाल रहा है लेकिन वह भी नहीं जीतेगा। पक्ष फिर विज्ञान के पक्ष में। सत्य फिर विज्ञान के साथ है। विज्ञान का अर्थ ही है सत्य की खोज। और सत्य जीतता चला जाएगा। इसलिए यह मत कहिए कि विज्ञान लडा रहा है। एटम बनाया है विज्ञान ने यह स च है। अण शक्ति खोजी है, लेकिन अण शक्ति से आप आदमियों को मारेंगे, किस वैज्ञानिक ने कहा है। शायद आपको पता ना होगा सारे दुनिया के पांच हजार वैज्ञानिकों ने दस्खत करके यु० एन० को दिए है। कि हम जो शक्तियां खोज रहे है वह इसलिए नहीं खोज रहे हैं कि उनके द्वारा हत्या की जाए। लेकिन उनकी कौन सुन रहा है। हिरोशिमा पर ए टमबम गिरा तो सारे दुनिया के वैज्ञानिकों कि हालत चौंक गई। उनकी समझ में नह आया कि हमने इसलिए बनाया था कि एक लाख आदमी मर जाएगा कुछ घड़ी में । अणु की शक्ति तो इतनी सृजनात्मक है कि अगर अणु की शक्ति खेतों में उपयोग की गई . . . में उपयोग की गई। तो दुनिया से दरिद्रता हमेशा के लिए मिट जाए गी। और जैसा हम सुनते हैं कि देवता तरसते हैं पृथ्वी पर पैदा होने को अब तक तो न ही तरसे लेकिन अगर अणु शक्ति का प्रयोग हुआ तो देवता अर्जी लगाकर क्यू लगा कर खड़े हो जाएंगे कि हमको धरती पर पैदा होना है। लेकिन राजनीतिज्ञ विज्ञान जो शक्ति पैदा कर रहा है उसका समुचित सृजनात्मक क्रिएटिव उपयोगी होने देना चाहता है क्योंकि राजनीति मूलतः हिंसा पर खड़ी है। हिंसा ही राजनीति है। तो वह हिंसक राजनीतिज्ञ का क्या होगा? वह वाधा हटाता है, विज्ञान वाधा नहीं डालता। इसलिए दुनिया को धर्मों से मुक्त होने की जरूरत है और राजनीतिज्ञों से भी। ता क जीवन की सारी चेतना धीरे-धीरे, धीरे-धीरे वैज्ञानिक होती चली जाए। और हम जीवन को सुंदर से सुंदर बनाने में समर्थ हो सकें। यह हो सकता है यह इसके पहले कभी नहीं हो सकता। और अगर यह नहीं हुआ त ने राजनीतिज्ञ सारी दुनिया को हत्या का कारण बन जाएंगे। सारी दुनिया के हत्या क । कारण वह बनेंगे। आज हम समुद्र से भोजन निकाल सकते हैं, और समुद्र में इतना भोजन पड़ा है कि अभी जमीन की आवादी साढे तीन अरव है। अगर जमीन की अ विादी तीन सौ अरव भी हो जाए तो किसी आदमी को भूखा मरने की कोई जरूरत नहीं है। लेकिन शायद तीन अरव नहीं है और भूखे मरने शुरू हो गए हैं। आधी दुर्दा नया भूखी मर रही है क्योंकि आणुविक शक्ति का समुद्रों में प्रयोग करके समुद्र से भ जन निकाला जा सकता है। वह भोजन निकाले कौन? हमें तो एटमबम बनाना है पड़ोसी पर डालने को। पड़ोसी को भी एटमवम वनाना है हम पर डालने को। पड़ोसी भी भूखा मर रहा है हम भी Page 120 of 150 http://www.oshoworld.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज भूखे मर रहे हैं। और दोनों के हाथों में राजनीतिज्ञ दोनों को बरगला रहे हैं और धो खा दे रहे हैं कि लड़ने से हमारा हित लड़ने में किसी का भी हित नहीं। किसी का भी हित नहीं है। नक्शों पर लकीरें बदल जाने में किसी का भी हित नहीं है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि चीन और हिंदुस्तान लड़े हैं समझ में आता है महाराष्ट्र औ र मैसूर भी लड़ते हैं तब सर ठोक लेने का मन होता है या तो थोड़ी. . . लों के हाथ में सारा का सारा मामला खत्म होता हैअगर दनिया में कोई ताकत है तो राज सारी राजधानियों के राजनीतिज्ञों को पकड़ ले। और पागलखानों में डा ल दे। तो दुनिया आसान हो जाएं अभिशांत हो जाएं सारे पागल राजधानियों में इक ढे हो गए हैं। और उन्होंने सारी दुनिया को मैंकावूज बना दिया है। अब जहां अव मि साइलस रखे हुए हैं रूस में और अमरिका ने, एक चावी एक आदमी घुमा दे और । सब गड़बड़ हो जाएं। तो एक एक मिसाईल की चाबी तीन-तीन आदमियों को दी ह ई है। जब तीन आदमी चाबी लगाएं तब मिसाइल चल सकता है, अणु बम फेंका ज | सकता है क्योंकि खतरा है। एक आदमी का झगड़ा हो जाए पत्नी से और वह गुस्से में आ जाएं, और गुस्से में। आदमी को क्या नहीं सुझता कि खत्म करो। और एक आदमी का अपनी पत्नी से झ गड़ा हो गया वह मिसाइल चला दे, एटम, या हाईड्रोजन बम फेंक दे न्यूयार्क पर या मास्को पर तो आग लग जाए। सारी दुनिया इसी वक्त वर्वाद हो जाए। तो तीन-ती न आदमियों को चावी दी। लेकिन तीन आदमी साठगांठ कर लें फिर या तीन आदी मयों का दिमाग खराव हो जाएं। हजारों आदमियों का एक साथ दिमाग खराव हो ज ता है तीन की क्या बात है। हिंदू मुस्लिम दंगा हुआ तो हमने नहीं देखा कि हजारों आदमी एक साथ पागल हो ग ए। तीन आदमी का दिमाग खराव नहीं होता, तीन आदमी अगर ज्यादा शराब पी। जाएं। आज दुनिया में कोई पचास हजार उर्जन वम इकट्ठे हैं और इन इकट्ठे हुए उर्ज न बमों से इतना बड़ा खतरा पैदा हो सकता है कि इतना कि इस तरह की सात पुस् ते जलकर नष्ट हो जाएं। इस खतरे पर हम बैठे हैं और राजनीतिज्ञों के हाथ में ता कत है। और आप पूछते हैं कि विज्ञान से खतरा ला रहा है विज्ञान खतरा नहीं ला रहा। विज्ञान सिर्फ ताकत ला रहा है ताकत सिर्फ गलत लोगों के हाथ में पड़ जाती है। खतरा शुरू हो जाता है। ताकत तो शुभ है या कहना चाहिए ताकत ना शुभ है , ना अशुभ है, ताकत के उपयोग पर निर्भर करता है। कि हम क्या उपयोग करते लेकिन हमारा चिंतन अगर वैज्ञानिक ना हो तो बड़ी गड़बड़ हो जाती है। एक आदम । आकर खड़ा होकर कह देता है कि हिंदू मुस्लिम दंगा हो गया। और हम लड़ना शु रू कर देते हैं और कोई भी नहीं पूछता कौन हिंदू है? कौन मुसलमान है? कैसे पता चला कि मैं हिंदू हूं? कुछ मालूम नहीं है, कोई लिखा हुआ नहीं है, भगवान के यह में से कोई सर्टीफिकेट लेकर नहीं आता। कि यह हिंदू है। कहीं चमड़ी पर खुदा हुआ नहीं है कि यह हिंदू है। सिर्फ बचपन से सिखाया गया है इस आदमी को कि तू हिंदू Page 121 of 150 http://www.oshoworld.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज है | तू हिंदू है | तू हिंदू है, वह बेचारा चिल्ला रहा है कि, 'मैं हिंदू हूं।' फलां ने चि ल्लाया कि मैं मुसलमान हूं। वह चिल्ला रहा है कि मैं मुसलमान हूं। वह चिल्ला रहा है कि मैं मुसलमान हूं । यह दो शब्द सिखा दिए हैं । और यह दो शब्द एक दूसरे की छाती में छुरा भौंक देंगे । कैसा पागलपन है। दो शब्दों कि शिक्षा कि मैं हिंदू हूं और एक आदमी मुसलमान है। और छुरे चल जाएंगे और एक दूसरे की छाती में घुस जाएंगे । और धर्मगुरु कहेग , 'घबराओ मत ! धर्म के जेहाद में जो मरता है वह स्वर्ग जाता है।' धर्म का जेहाद हो सकता है। धर्म के जेहाद में जो जो मरेंगे अगर कहीं अगर कहीं नर्क है तो उस नर्क से कभी नहीं छूट सकते। क्योंकि धर्म का जेहाद नहीं हो सकता धर्म का, क्या हीनता हो सकती धर्म से । धर्म से युद्ध हो सकता है, तो फिर अधर्म से क्या होगा ? राजनीतिज्ञ और धर्मगुरु ने पीड़ित किया है जगत को । इसलिए मैंने इन तीन दिनों में कहा कि, 'हमारे प्राकृतिक साईंस की इनस्टीटयूट सोचने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण होना जरूरी है। एक दो छोटे प्रश्न और फिर मैं अपनी बात पूरी करूं । एक मित्र ने पूछा है कि, 'आप डिस्ट्रक्शन पर विद्धवंश पर बहुत जोर देते हैं। कन्सट्र क्शनस पर इतना जोर क्यों नहीं देते, निर्माण पर इतना जोर क्यों नहीं देते ?' पहली तो बात यह, एक आदमी बीमार पड़ा हो, पैर सड़ गया हो। और वह सर्जन के पास जाए और वह सर्जन कहे पैर काटना पड़ेगा, वह आदमी कहे कि विध्वंस की क्यों बातें करते हैं? निर्माण की बातें कहिए, कन्सट्रकशन की बातें कहिए। तो वह सर्जन कहेगा तो जाईए, लेकिन कल तक जब तक आएंगे तक यह दोनों पैर काटना पड़ेगा। और अगर परसौ तक आए तो फिर बचना मुश्किल है। समाज सड़ गया है, सब अंग सड़ गए हैं। और आप कह रहे हैं कि रचनात्मक। वह जितने लोग रचनात् मक कार्यक्रम चला रहे हैं। वह सब इसी सड़े-गले समाज को बचाने की कोशिश कर रहे हैं। खेगड़े लगा रहे हैं इसी समाज को, महान गिरने के करीब है सब दबकर म र जाएंगे उसमें वह उसी में बल्लियां लगा रहे है। पलस्तर बदल रहे हैं। बोर्ड पेंट क र रहे हैं दरवाजों पर नया रंग रोगन कर रहे हैं। कन्सट्रक्टिव वर्क कर रहे हैं रचना त्मक कार्यक्रम कर रहे है, सर्वोदय का आंदोलन चला रहे हैं। उसी समाज में जो सड़ गया है, उस सड़े समाज में जो भी रचना का काम कर रहा है वह सड़े समाज को बचाने की कोशिश कर रहा है। उसको जिलाए रखने की को शिश कर रहा है। वह मरे मरे आदमी को आक्सीजन दिला रहे हैं कि वह किसी तर ह बच जाए। क्यूं ! इतना बचाने का मूल क्या है ? जो मर गया है उसे मर जाने दो। नया सदा जिंदा होने को है, नया सदा पैदा होता है। पुराने पत्ते गिरते हैं पतझड़कर । वृक्ष चिल्लाकर नहीं कहते कि, 'हे परमात्मा, यह क्या विध्वंस कर रहे हो ? सब पुराने पत्ते गिराए रहे हो हम बिलकुल नंगे हो जाएंगे। नहीं वृक्ष नहीं कहते वृक्षों की अपनी विजिडम है अपना ज्ञान है। वह जानते हैं कि जो पुराने पत्ते गिरे उन्हीं ज गह फिर नए पत्ते निकल आएगें। Page 122 of 150. http://www.oshoworld.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज पुराने का विध्वंस होना जरूरी है, ताकि नए का जन्म हो। और ध्यान रहे विध्वंस सृ जन की प्रक्रिया का पहला चरण है। विध्वंस विध्वंस ही नहीं है। विध्वंस के बिना सृज न ही नहीं होता। विध्वंस बनाने की प्रक्रिया का हिस्सा है। तो मैं यह नहीं कह रहा हं कि तोड डालो. क्योंकि तोडने में वहत मजा आता है. यह मैं नहीं कह रहा है। मैं यह कह रहा हूं, तोड़ो ताकि बनाया जा सके। लेकिन बनाने से पहले इस सड़ेगले को तोड़ना जरूरी हो गया है। इससे क्यों जोर दे रहा हूं? इससे जोर इसलिए दे रहा हूं कि इसे हम तोड़ने को राजी हो जाएं तो फिर बनाने का भी विचार किया जाए। किन आप कहते हैं कि तोड़ने की बात मत कहिए। बनाने के संबंध में कुछ समझा इए। और आपको बनाने के संबंध में समझाया जाए तो आप इस सड़े-गले समाज में बनाने की कोशिश करेंगे। और अव यह समाज आमूल जड़ से सड़ गया है। इसे उखाड़ना जरूरी है। लेकिन हमें विध्वंस से बड़ा डर लगता है। जिसने पूछा है उसने बड़े धैर्य से पूछा लगता है। उन होंने पूछा है कि, 'विध्वंस ही विध्वंस, तोड़ो ही तोड़ो बहुत डर लगता है। इतना डर क्या है तोड़ने से। क्या वनाने की ताकत विलकन नहीं बची है कि तोड़ना ही इतना डर पैदा होता ।' बनाने की ताकत को तोड़ने से कोई डर नहीं है। यह बात जरूर है कि तोड़ने के लिए, तोड़ने का कोई मतलब नहीं। मैंने नहीं कहता कि तोड़ने के लिए तोड़ो। डिस्ट्रकसन फौर डिस्ट्रकसन सेक। यह मैं नहीं कह रहा। मैं यह कह रह । हूं कि डिस्ट्रकसन फोर दा क्रिएशन सेक। विध्वंस सृजन के लिए है। और निर्माण की बात मैं नहीं कर रहा हूं। मैं वात कर रहा हूं सृजन की। कन्सट्रक्श न और क्रिएशन में फर्क खयाल है आपको, सृजन में और निर्माण में क्या फर्क है। ि नर्माण पूराने का ही लीप-पोत कर बनाया हुआ डोंग ढडूरा होता है। सृजन नए का जन्म है। निर्माण ऐसे है जैसे एक बूढ़े आदमी की एक टांग टूट गई तो लकड़ी की ट ग लगा ली। एक आंख फूट गई तो पत्थर की आंख लगा ली। एक हाथ उखड़ गया एक नकली हाथ लगा लिया। दांत निकल गए तो नकली दांत . . . यह निर्माण, यह रचनात्मक कार्यक्रम है। सृजनात्मक का मतलब है कि वह हाथ विदा होने की त रफ आ गया। तो उसे प्रेम से विदा कर दो। दुनिया में नए बच्चों के लिए जगह बना ओ आने दो, नया वच्चा भगवान देने को तैयार है। सृजन का मतलब है नया। और निर्माण का मतलब है वही पुराना। लेकिन कुछ लोग होते हैं। मैंने सुना है एक आदमी ने शादी की। बड़ी उम्र में शादी की चालीस साल का हो ग या तव शादी की। बहुत दिन तक लोगों ने देखा कि अब शादी का निमंत्रण मिलेगा, अब मिलेगा, मिला ही नहीं। फिर लोग भूल ही गए कि अब शायद नहीं मिलेगा। चालीस साल में निमंत्रण मिला। लोग बड़े चौंके। एक मित्र नहीं जा पाया शादी में महीने भर वाद एक होटल से दूल्हा और दूल्हन वाहर निकलते थे। वह मित्र नहीं ज | पाया था, उसने क्षमा मांगने के लिए रूका लेकिन दूल्हन को देखकर वह बहुत हैर न हो गया। सव वाल नकली थे, आंख एक पत्थर की थी। जरासा मसल देते दांत Page 123 of 150 http://www.oshoworld.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज खड़खड़ाते थे। सब नकली थे। एक टांग लकड़ी की थी एक हाथ पाईप की। उसने क हा, 'मेरे भगवान इससे शादी की है तुमने! इस मरी हुई स्त्री से तुमने शादी की है। उस आदमी ने खिलखिलाकर हंसकर कहा. 'घबराओ मत! जोर से बोलो शी इज डै फ टू, वह बहरी भी है। तुम घबराओ मत। यह आदमी बड़ा रचनात्मक दृष्टि का रहा होगा। यह जो दूल्हन लाए हैं वड़ी कंसट्रक्टिव है। इस मुल्क में इसे कंसट्रक्शन करने वाले बहुत लोग हैं वह कहते हैं। पुराने की टांग ठीक ठाक करके, फिर लीप पोत कर खड़ा कर दो। लेकिन नए को सृजन की हिम्मत नहीं होती है। नए का सृज न करना हो तो पूराने का विध्वंस करना जरूरी है। पूराने को जाने दें, नया आ सके जगह खाली हो। हिरोशिमा पर नागासाकी पर एटमबम गिरा तो लोग सोचते थे कि हिरोशिमा और नागासाकी कभी भी पनप नहीं सकेंगे, सब वंजर हो गया। सब जमीन से मिल गए मकान। सब दरखत सूख गए। सब बदल गया सब खत्म हो गया, विरान हो गया, लेकिन जाओ. . . अभी मेरे मित्र लौटे जापान से वह कहने लगे मैं दंग रह गया हि रोशिमा देखो बिलकुल नया हो गया। और हिरोशिमा के लोग कहते हैं कि बड़ी कृपा रही कि एटम हम पर ही गिरा दूसरे नगर पर नहीं गिरा। सव पुराना खत्म हो गय । पुराने झोंपड़े, मकान, पुराना सब खत्म हो गया एक दम सब नया बन सका। वहां जर्मनी में इतना विद्धवंश हुआ युद्ध से गुजरे पहले महायुद्ध से गुजरे लोग सोच ते थे कि अव सौ वर्ष लग जाएंगे जर्मनी को लड़ने के लिए तैयार होने में। वह पंद्रह साल में फिर तैयार हो गया। फिर दूसरे महायुद्ध में कितना भयंकर विध्वंस हुआ दू निया की सारी ताकतें लगकर जर्मनी को रोंद डाली। आज जाकर जर्मनी को देखें, फर नया हो गया। और हिंदुस्तान में पता है युद्ध कव से नहीं हुआ महाभारत के वा द नहीं हुआ। पांच हजार साल कम से कम, और महाभारत का भी हुआ कि नहीं, कहना बहुत शक है। उससे जो विध्वंस हो गया है महाभारत के युद्ध से वह अभी त क पूरा नहीं हो पाया है। अभी भी जाएं पूना में और खोजें गली कूचे में वह मकान मिल जाएगा जो महाभारत के जमाने में बना होगा। जिसमें कौरव पांडव ठहरे होंगे। जरूर मिल जाएगी वह जगह। जहां रामचंद्र जी निकले होंगे, और जहां सीता जी ठ हरी होंगी जिस झाड़ के नीचे वह जरूर पूना में होगा। सब जगह हैं वह । वह मिटते ही नहीं। कोई विध्वंस नहीं हुआ है इस मुल्क में तो भी यह सड़ा हुआ जी रहा है। और बहुत इकट्ठा हो गया है कचरा। मैं यह नहीं कहता हूं कि युद्ध हो जाए, मैं यह कहता हूं कि हमें खुद ही हिम्मत जुटानी चाहिए, पुराने को जाने दें। और पुराने को जाने देंगे , तो नए को वनाना ही पड़ेगा। चूंकि बिना बनाए हम नहीं रह सकते। एक बार पुर ने को जाने देने का साहस जव इकट्ठा कर लेती है कौम तो नए को बनाने में लग जाती है। आपको शायद अंदाज ना हो, इस समय पृथ्वी पर जिन दो मुल्कों ने अदभु त प्रगति हुई है जैसी कभी नहीं हुई थी। उन दोनों मुल्कों की प्रगति का कारण आप Page 124 of 150 http://www.oshoworld.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज को पता है। रूस ने उन्नीस सौ सत्रह में पुराने को विदा दे दी नमस्कार कर दी। और कोई कारण नहीं है रूस की प्रगति का । पचास साल में रूस में इतनी प्रगति हुई है जितनी हम जैसे लोग पांच हजार साल में नहीं कर सकते। पचास साल में रूस क्या से क्या हो गया। लेकिन क्या किया रूस ने ? राज क्या है ? सिक्रेट क्या है ? सिक्रेट यह है कि उन्नीस सौ सत्रह की तारीख में कसम खा कर उन् होंने पीछे को नमस्कार कर लिया कि तुम पीछे हम आगे जाते हैं। अब हमें क्षमा क रो। अब हमारे सिर पर मत सवार रहो । अमरीका ने इतनी प्रगति क्यों की? आपको पता है । अमरीका नया मुल्क है उसके प ास कोई पुराना अतीत नहीं है। उसकी उम्र ही केवल तीन सौ साल है। तीन सौ सा ल कुल उनकी सभ्यता की उम्र है उनके पास पुराना कुछ है ही नहीं। कोई इतिहास जैसी चीज नहीं है। कोई अतीत नहीं है । इसलिए अमरीका ने आकाश छू लिया। संप त्ति का इतना निर्माण हुआ जैसा कभी ना हुआ । शक्ति इस तरह फूटी जिस तरह क भी नहीं फूटी। आज सारी दुनिया को भोजन दे रहे हैं । एक हम हैं कि पांच हजार साल से सिवाय इस खेती के और कुछ भी नहीं कर रहे। मुल्क के नब्बे आदमी सौ में से खेती में लगे हैं। बाकी सौ में से आज भी वह खेती में जो लगे हैं उनकी चीजें लाने ले जाने की दलाली कर रहे हैं सारा मुल्क पांच ह जार साल से खेती कर रहा है। और जब देखो तब हाथ जोड़े खड़ा है कि अकाल प. ड गया। भूख हो गई, फलाना हो गया । अब तो बीस साल से हम युनिवर्सल वैगिंग कर रहे हैं खड़े हैं। सारी दुनिया के सामने भिखारी बने हुए। हमको भीख दो, और जनसे भीख मांग रहे हैं उनको गाली दे रहे हैं और तुम तुम मैटीयरलइष्ट हो। हम इस्प्रच्अलिस्ट हैं। क्योंकि हम पैदा नहीं कर रहे हम सिर्फ मांगते हैं। हम भी पैदा कर ते हैं। सिर्फ एक चीज पैदा करते हैं, बच्चे पैदा कर सकते हैं । हम आध्यात्मिक लोग हैं भौतिक लोग गेहूं पैदा करते हैं गेहूं पदार्थ है । भौतिक लोग मशीनें बनाते हैं कारें बनाते हैं, हम आध्यात्म, हम आत्माएं पैदा करते हैं, हम बच् चे पैदा करते हैं। हम सिर्फ एक इंडस्ट्री है हमारे अंदर बच्चे पैदा करने की, वह हम करते चले जाते हैं। अमरीका ने तीन सौ वर्ष में आसमान छू लिया हम तीन हजार वर्ष में भी कुछ नहीं कर पाते। रूस पचास साल में कैसी प्रगति की जिसकी कल पना करनी मुश्किल है। और हम हो क्या गया है हमें, हम तोड़ने से डर गए हैं। ह म तोड़ते ही नहीं, हम उसी को बचाए चले जाते हैं, बचाए चले जाते हैं। मैं एक घर में कुछ दिन तक मेहमान था। बहुत लखपति आदमी थे। जिनके घर मैं ठहरा लेकिन देखकर हैरान हो गया घर देखा तो ऐसा लगा जैसे किसी कबाड़ी का घर हो। पुराने डब्बे भी इकट्ठे हैं पुरानी बुहारियां भी जो टूट गई फूट रह गई जिनसे अब कोई उपाय झाड़ने का नहीं है। वह भी संभाल कर रखी हुई हैं । उस घर क भी कोई चीज फैंकी ही नहीं गई हैं ऐसा मालूम पड़ता है वहां सब इकट्ठा है। घर के लोगों को रहने की मुसिबत हो गई है। ना मालूम बाप दादाओं की शादी हुई होगी तो उनके साथ ट्रंक सूटकेश आए होंगे वह सब रखे हुए हैं ढ़ेर लगा हुआ है। दो चा Page 125 of 150. http://www.oshoworld.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज र दस पीढ़ी पहले जिन पलंग उनके घर में कोई सोता होगा उनकी निवाड उनके टूटे हुए अंग भी रखे हुए हैं। वह घर एक ऐतिहासिक नमूना है। उस घर में जिंदा आदमी का रहना मुश्किल, क्यों मरे हुओं के इतने सामान वहां इकट्ठे हैं। मैंने उनसे पूछा, 'यह काहे के लिए इकट्ठे किए हुए हो। इनको फैंको ।' वह कहने लगे, 'पता नहीं कब कौन-सी चीज काम पड़ जाए।' यही भारत का दिमाग है । कुछ फैंको मत सब बचा कर रखो। पता नहीं क व किस चीज की जरूरत पड़ जाए। जरूरत किसी चीज की नहीं पड़ेगी सिर्फ अर्थी की पड़ेगी। और उसमें हमारी अर्थी निकलेगी, और यह सब सामान यहीं रखा रहेगा । हमारी अर्थी निकल जाएगी। अगर विध्वंस की तैयारी नहीं है तो विध्वंस होगा। उसमें हम मरेंगे सामान बच जाए गा, इतिहास की किताबें बच जाएगी गीता, रामायण सब बच जाएंगे। आदमी मर जाएगा। अब दो में से एक निर्णय करना है या तो आदमी को बचाना हो, तो यह सामान को आग लगाओ, फैंको, अलग करो इसे । और जगह बनाओ, स्पेस की कमी पड़ गई है। चित्त में जगह नहीं रही है। इतना कवाड़ इकट्ठा है । उसमें जगह बनाअ ताकि इस जगह में नया आ सके नया अंकुर आ सके। तो मैं कोई विध्वंस से मुझे कोई रस नहीं है, कोई मुझे मजा नहीं आता कि चीजें टूट जाएं तो मुझे बहुत मजा आएगा । विध्वंस के लिए जो कहता हूं उसका कुल कारण इतना है कि वह मार्ग साफ करेगा । जैसे कोई आदमी ने जमीन पर बगीचा लगाया। तो पहले घास - वास को उखाड़ कर फैंक देता है, जमीन को खोद कर जड़ें निकाल कर फैंक देता है आप खड़े हैं दरवा जे के बाहर और कह रहे हैं कि, 'क्या यह विध्वंस कर रहे हो। अरे बीज बो निर्मा ण करो, घास है तो रहने दो, जड़ें पुरानी है तो रहने दो, तुम तो बीज बो निर्माण करो। हम निर्माण को मानते हैं हम घास को उखाड़ेंगे ही नहीं, हम जड़ों को उखाड़ें गे।' वह आदमी कहेगा, 'फिर, फिर बीज खो जाएंगे घास में फूल पैदा नहीं होंगे। घ [स-पात इतना इकट्ठा हो गया है कि उसे साफ करना जरूरी है। देश के चित्त की भू मि साफ करनी जरूरी है। कोई चीजें तोड़ने का उसका सवाल नहीं है जो मैं कह रहा हूं। जो मैं कह रहा हूं व ह माइंड है हमारा। वह जो जराजीर्ण हो गया चित्त है उसे तोड़ने और बदलने का सवाल है ताकि वह नया हो सके और वह नया हो सके तो भारत की प्रतिभा का जन्म हो सकता है। और मैं आपसे अंत में यह कहना चाहता हूं। अगर भारत यह हिम्मत कर ले और नए चित्त का स्वागत करने को तैयार हो जाए तो शायद भारत में इतनी प्रतिभा प्र कट हो जितनी दुनिया का कोई देश प्रकट नहीं कर पा रहा है। उसका कारण है। जै से कोई खेत बहुत दिन तक बंजर पड़ा रहा, उस पर कोई खेतीबाड़ी ना हो, और प. डोंस के खेतों पर खेती बाड़ी होती रहे तो जिन खेतों में खेतीबाड़ी होती रही है। व ह अवशोषित हो जाते हैं। उनका सारा का सारा जो भी सार्थक है वह वृक्ष पी जाते Page 126 of 150. http://www.oshoworld.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हैं फिर खेती क्षीण होने लगती है, फिर कम फसल होने लगती है। और एक खेत पड़ा है जिसमें हजारों साल से खेती नहीं हुई खाली पड़ा है। उस पर अगर कोई दाने फैंक दे तो सारे पड़ोस के खेत पीछे पड़ जाएं उसमें जो फ सल आए उसका मुकाबला ना हो। भारत अगर नया होने की तैयारी कर ले तो शा यद भारत से बड़ी प्रतिभा खोजना पृथ्वी पर मुश्किल है। लेकिन हमारे नए होने की तैयारी ना हो। तो फिर, फिर सिवाय निराशा के भविष्य में और कुछ दिखाई नहीं प. डता। लेकिन निराश होने का मैं कोई कारण नहीं देखता हूं। मुझे लगता है कि नया हुआ जा सकता है। नए के सूत्र खोजे जा सकते हैं नए को.. वही चंदन टीका लगा रहे हैं वही भोग लगा रहे हैं खुद भूखे बैठे हैं। भगवान को भो ग लगा रहे हैं, घंटी बजा रहे हैं। वही पूजन चल रहा है। हे भगवान, कुर्सी भेजो । और दरवाजे बंद हैं। हे भगवान नया करो सब, और खिड़कियां बंद हैं। हे भगवान, सांस घुटी जा रही है, नया लेखा भेजो लेकिन भाग्य की प्रतिक्षा करनी पड़ेगी। एक छोटी कहानी और बात मैं पूरी करूं । मैंने सुना है एक बार ज्योतिषियों ने यह खबर दी कि, 'सात साल तक पानी नहीं गिरेगा।' एक किसान बेचारा अपने खेत क की तैयारी कर रहा था वर्षा आने के करीब थी । छोटी-छोटी वदलीयों ने निकलना शुरू कर दिया था। वह खेत खोद रहा था सुनी खबर लोगों ने कहा, 'ज्योतिषि कहते हैं कि सात साल तक वर्षा नहीं होगी तो उसने अपना सामान खल वक्खर उठा कर मकान के भीतर संभाल के रख दिए कि जब वर्षा ही नहीं होगी तो फिर खेत क्या तैयार करना। सात दिन घर में बैठे बैठे बहुत घबरा गया। हाथ पैर ढीले पड़ गए। सोचा कि सात दिन में यह हालत हो गई मरने की, कुछ ना करूंगा तो सात साल में तो मैं नहीं बचूंगा। और अगर बच भी गया मारा-पूरा किसी तरह तो सात साल में खेती कैसे की जाती है यह ना भूल जाऊं । तो उसने सोचा जब होगा जो होगा । हम खेत तो खोदेंगे ही। खेत तो खोदते ही रहें। कम से कम अभ्यास तो जारी रहेगा । कम से कम जानते तो रहेंगे कि खेती कैसे की जाती है। उसने आकर बाहर सात दिन बाद खेत खोदना शुरू कर दिया एक छोटी-सी बदली ऊपर से निकलती थी उ सने कहा, ‘अरे मूर्ख किसान तुझे पता नहीं कि ज्योतिषियों ने कहा है कि वर्षा सात साल तक नहीं होगी। क्या कर रहा है यह सुना नहीं तूने । उस किसान ने कहा, 'मैंने सुना है, बेरी सात दिन बैठा रहा, बैठे-बैठे घबरा गया। बैठ ना तो मौत हो गई मैंने सोचा कहीं भूल ना जाऊं कहीं मर ना जाऊं । कहीं भूल गय खेती करना तो वर्षा भी होगी तो किस काम पड़ेगी इसलिए मैं अपना काम जारी रखे हुए हूं जब होगी वर्षा तो ठीक है। तब तक कम से कम काम का अभ्यास तो रहेगा। उस बदली ने सोचा यह भी ठीक कहता कि कहीं सात साल में ऐसा ना ह कि मैं पानी बरसाना भूल जाऊं । भाड़ में जाएं ज्योतिषि, उसने वहीं पानी बरसा दया। सात साल में भूल गए पानी बरसाना तो मुश्किल हो जाएगी। जो श्रम करता है वहां भाग्य आ जाता है। भाग्य श्रम की छाया है। और हम भाग्य की प्रतिक्षा कर रहे हैं। और देख रहे हैं जो होगा उसे देखते रहेंगे। तमाशगिन की त Page 127 of 150. http://www.oshoworld.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज रह खड़े हुए हैं, राहगीर जैसे दूसरे को देख रहा हो कि क्या हो रहा है। ऐसे भारत की प्रतिभा नहीं जन्म सकती। इन तीन दिनों में थोड़ी सी बातें मैंने कहीं मेरी बातों को इतने प्रेम और शांति से सु ना उससे बहुत अनुग्रहित हूं और अंत में सबके भीतर बैठे परमात्मा को प्रणाम कर ता हूं। मेरा प्रणाम स्वीकार करें। ओशो नए भारत की खोज टाक्स गिवन इन पूना, इंडिया डिस्कोर्स नं ७ मेरे प्रिय आत्मन्, इसमें कोई श्रद्धा-विश्वास की जरूरत नहीं है। में पांच मील चल सकता हूं। मैं यह कहूं कि मैं एक घंटे में पांच मील चल सकता हूं इसमें कोई श्रद्धा विश्वास की जरूर त नहीं है, में पांच मील चल सकता हूं। मुझे अपनी शक्तियों का ध्यान होना चाहिए और मैं विश्वास करूंगा, पच्चीस मील चल सकता हूं तो मरूंगा, झंझट में पडूंगा। जबरदस्ती कर लिया तो झंझट में पड़े, क्योंकि वह सीमा के बाहर हो जाएगा। और कम किया तो भी नुकसान में पड़ जाएंगे। क्योंकि वह सीमा से नीचे हो जाएगा। इस लिए मैं कहता हूं कि आत्मज्ञान होना चाहिए। हमें अपनी सारी शक्तियों का हम क्य [ कर सकते हैं क्या नहीं कर सकते हैं? उन सव हमें पता होना चाहिए। और उस पता होने पर, उस ज्ञान के होने पर, हम उसके अनुसार जीते हैं। आत्मज्ञा न होना चाहिए। और आत्मज्ञान अपने आप श्रद्धा बन जाता है। जो आदमी जानता है मैं पांच मील चल सकता हूं। वह पांच मील चलने के लिए हमेशा तैयार है। उसे कोई भय नहीं है। लेकिन होता क्या है? होता क्या है? हम गलत चीजों में श्रद्धाएं कर लेते हैं। जैसे एक आदमी श्रद्धा कर ले कि मैं मर नहीं सकता हूं। वह विलकुल पागलपन की बातें कर रहा है। कितनी जबरदस्त करो इससे क्या होने वाला है? f कतनी ही जबरदस्त करो। आत्मज्ञान होना चाहिए। और उससे आत्मश्रद्धा अपने आ पवन जाती है उससे कुछ बनाने की जरूरत ही नहीं है। पर उसको श्रद्धा कहने की भी कोई जरूरत नहीं है। और जो लोग कहते हैं जबरदस्त श्रद्धा करनी चाहिए। वह कमजोर लोग होते हैं हमे शा। वह कमजोरी को पूरा कर रहे हैं श्रद्धा करके। कभी भी सचमुच अपने को जान ने वाला आदमी ना श्रद्धा करता है ना अश्रद्धा करता है। वह जानता है उसके अनुस र जीता है। लेकिन एक डरपोक आदमी डरा हुआ आदमी वह कहता है मैं बिलकुल नहीं डरता, मुझे अपने में बड़ी श्रद्धा है लेकिन वह डरा हुआ है इसलिए यह बातें कह रहा है। जो डरा हुआ है वह यह कहता है कि मेरी जबरदस्त श्रद्धा है। Page 128 of 150 http://www.oshoworld.com Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज मेरे शिक्षक थे जिस स्कूल में मैं पढ़ता था, वह मुझे पांचवीं अंग्रेजी पढ़ाते थे। और प हले ही दिन पढ़ाने आए तो मुझे लगा कि यह आदमी बहुत कावर्ड और डरा हुआ आदमी है। क्योंकि पहले ही दिन उन्होंने कहा, कि मैं किसी विद्यार्थी से डरता नहीं हूं।' अरे यह कोई बात कहने की है कि मैं विद्यार्थीयों से डरता नहीं, 'मेरी कक्षा में अगर किसी ने गड़बड़ की, तो ठीक नहीं होगा । मैं बहुत खतरनाक आदमी हूं। मैं अंधेरे रास्ते में अकेला चला जाता हूं।' तो मैंने उनको एक चिट्ठी लिखकर भेजी । उसी रोज चिट्ठी लिखी, और चिट्ठी में मैंने लिखा कि, 'आपने अपनी स्थिति जाहिर कर दी है। और लड़के आपको डराएंगे। अ और आप जब यह कहते हैं कि मैं अंधेरे में जाने से नहीं डरता तो इससे पक्का पता चलता है कि आप अंधेरे में जाने से डरते हैं नहीं तो पता ही नहीं चलना चाहिए । अंधेरा है या उजाला । जिस आदमी को जाना है, वह चला जाता है उसको पता ही नहीं चलता कि अंधेरा था । ' तो इसलिए आत्मश्रद्धा, जवरदस्त श्रद्धा यह सब बाद की बातें हैं। हमको अपने को जानना चाहिए। और जानने पर हमेशा दो बातें पता चलेंगी। यह भी पता चलेगा कि हम कितना कर सकते हैं । और यह भी पता चलेगा कि हम कितना नहीं कर सक ते। और बुद्धिमान आदमी को दोनों बातें जाननी चाहिए कि हम यह कर सकते हैं और यह हम नहीं कर सकते हैं। एक मुसलमान है। मौहम्मद के बाद अली, हां तो अली से किसी ने पूछा कि, 'हमार ताकत कितनी है ? ' तो अली ने उससे कहा कि, 'तुम अपना एक पैर ऊपर उठा लो।' उसने अपना बायां पैर ऊपर उठा लिया, फिर अली ने कहा, 'कि अब तुम दूस रा पैर भी ऊपर उठा लो ।' उसने कहा, 'यह कैसे हो सकता है, मैं एक पैर पहले उ ठा चुका। अब मैं दूसरा कैसे उठा सकता हूं?' अली ने कहा कि, 'तुमको समझ आ ना चाहिए, एक पैर उठाने की सामर्थ्य तुम्हारी है। तुम कोई भी उठा सकते हो चाहे बायां चाहे दायां। लेकिन दूसरा पैर उठाने की तुम्हारी सामर्थ्य नहीं है।' तो अली ने कहा, 'यह दोनों बातें जाननी चाहिए कि मैं कितना कर सकता हूं और कितना नहीं कर सकता हूं। जो नहीं कर सकता हूं उस झंझट में नहीं पड़ना चाहि ए, जो कर सकता हूं उससे कभी भागना नहीं चाहिए ।' पर यह ज्ञान से होगा। श्रद्धा की कोई जरूरत नहीं है। सर पुरुषों को भी एक आधार इतिहास जिसको भी आधार की जरूरत है, तो पहले का. यह सब उसके आधारभूत हैं और जो इन आधारों को पकड़ता है। वह कभी जी नह ीं पाएगा। क्योंकि झूठ को पकड़ कर कोई जी ही नहीं सकता। हां, समय गुजार लेगा । समय गुजार लेना एक बात है। एक आदमी कहता है कि, 'मैं इसीलिए जी रहा हूं कि मेरा बेटा बड़ा हो जाए। मेरी लड़की की शादी हो जाए। मेरे सब छोटे बच्चे सुखी हो जाएं। और बड़े मजे की बात है।' इसका बेटा बड़ा होकर क्या करेगा? वह यह करेगा कि उसका बेटा बड़ा हो जाए। और उसका बेटा बड़ा होकर क्या करेगा Page 129 of 150. http://www.oshoworld.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वह उसका बेटा बड़ा हो जाए । यह तो समय गुजारना हुआ सिर्फ । लेकिन चूंकि हमें जिंदगी मे कोई अर्थ नहीं दिखाई पड़ता । इसलिए हम कुछ व्यर्थ के आधार खोज लेते हैं। और उसी को अर्थ मानकर जीते हैं। तो पहले तो मेरा कहना है कि जिंदगी खुद ही आधार है। इसलिए दूसरा आधार खो जना ही मत। खोजा तो असली आधार खो जाएगा। बच्चे को आधार मत बनाना ज ळीने का, तुम्हारे जीने से बच्चा आ जाए यह समझ में आने वाली बात है। तुम इतने आनंद से जी रहे हो उसमें एक बच्चा भी आया तुमने उसको भी प्रेम किया लेकिन इसलिए तुम नहीं जीए कि यह बच्चा बड़ा हो जाए । तुम इस तरह जीए कि बच्चा भी बड़ा हुआ। लेकिन यह तुम्हारा कोई जिंदगी का ल क्ष्य नहीं था ।. हमें जीवन का आधार बनाना ही नहीं चाहिए। क्योंकि जीवन खुद ही आधार है। अपना ही आधार है और अगर जीवन का पूरा आनंद लेना है तो कोही आधार बनाना चाहिए और किसी चीज को नहीं । एक एक पल जीना चाहिए पूरी खुशी से । आधार बनाने वाला क्या है ? वह कहता है कि, 'अब मेरा लड़का बड़ा हो जाएगा, तो मैं उसके लिए मेहनत कर रहा है।' फर लड़का बड़ा हो गया। फिर वह कहता है, 'मेरी लड़की की शादी हो जाए, अब इसके लिए मेहनत कर रहा है।' वह जी ही नहीं रहा । यह तो आगे होता रहेगा, फर लड़के का लड़का हो जाएगा। फिर उसके लिए जी रहा है। पोस्टपोन कर रहा है जीने को। और क्या होगा लड़का बड़ा हो जाए शादी हो जाए बच्चे हो जाएं, तुम्हें क्या जीवन मिल जाएगा इससे ? मुझे तो जीना चाहिए इसी वक्त और पूरे आनंद से जीना चाहिए। और जीने को ही लक्ष्य मानना चाहिए । एक सांस भी ना लूं तो मुझे ऐसे लेना चाहिए कि हो सकता है कि यह सांस अंतिम हो। इसलिए इसे पूरे आनंद से ले लूं। कोई स्त्री मुझसे मिलने आई है तो हो सकता है कि कल मिलना ना हो सके। तो इससे पूरे प्रेम से मिल लूं। खाना खाने बैठा हूं हो सकता है कि सांझ खाना फिर ना हो। तो इस खाने को पूरे आनंद से खा लूं। ए क साड़ी पहनी है तुमने तो इसको ऐसे मत डाल दो। इसे पूरे आनंद से पहनों। जीव न की प्रत्येक छोटी-छोटी क्रिया को स्वनिर्भर बना दो। और उसमें पूरा रस लो पूरा आनंद लो। तो छोटे-छोटी क्रिया में दिनभर आनंद लेने से आनंद की बड़ी भारी राशी इकट्ठी हो जाती है। जो आदमी सुबह आनंद से उठा, और भगवान को धन्यवाद दिया कि आज फिर सूर ज के दर्शन हुए और आनंद से उसने सूरज को देखा । और फिर जिंदगी की सब छो टी चीजों में आनंद लिया, रात में सोया आनंद की एक श्रृंखला इकट्ठी हो गई सुबह से रात तक। और उसने कहा बहुत आनंदित हूं बहुत आनंद क्या है ? मेरा मतलब समझ रही हैं आप। मेरा मतलब यह है कि जीवन का आनंद ही जीवन का आधार है। इसलिए किसी सरे के सिर पर मत टालो उसे, टालना धोखा है। तो कोई कहता है कि मुझे यश मल जाए तो हमें बड़ा आनंद मिलेगा। लेकिन यश कल मिलेगा ना, अभी तो मिल Page 130 of 150. http://www.oshoworld.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज नहीं रहा है। कल मिलेगा तो आज का दिन तो हम टाल रहे हैं कल के लिए। फिर कल यश मिल जाएगा । तो यश की और आगे की यात्रा कायम है। वह यश कहेगा कि क्या हुआ कुछ भी नहीं हुआ। अभी तो आगे और बड़ा सब मौजू द है। वह आगे है, वह आगे है, तो हम निरंतर जितने लोग लक्ष्य बनाते हैं, लक्ष्य हमेशा भविष्य में होते हैं और जीवन वर्तमान में होता है। इसलिए वह सिर्फ समय गुजारते हैं जी नहीं पाते। तो मेरा कहने यह है कि जीवन खुद अपना पर्याप्त साधन है। और यह जो तुम कहती हो कि स्त्री पुरुष का सहारा लेती है । वह पुरुष ने सम झाया हुआ है। एक, उसने यह समझाया हुआ है कि बेसहारा तू खड़ी नहीं हो सकती | बाप बेटी को समझाता है कि बाप के सहारे पर चलो, फिर पति समझाएगा कि ह मारे सहारे पर चलो, फिर बेटा समझाएगा कि मां तुम हमारे सहारे पर चलो। तुम अकेली खड़ी होगी तो भटक जाओगी। डराया है हजारों साल से और गुलामी की । गुलामी पैदा कर ली और स्त्री का भी म न डरा हुआ है। उसकी भी जिंदगी में कोई अर्थ नहीं है। वह भी सहारा खोजती है। कभी पति का कभी बेटे का कभी किसी का, कभी किसी का । पुरुष का भी यही है। हां, हां, पुरुष का भी यही है । पुरुष भी डरा हुआ है । मेरा तो कहना ही यही है कि डराता वही है जो डरा हुआ है। जो पुरुष डरा हुआ नहीं वह किसी स्त्री को भी न हीं डराएगा। डराएगा किस लिए वह कहेगा कि तुम आनंद से जीओ। मैं आनंद से जीऊं। और अगर हम एक क्षण में साथ हों तो हम दोनों आनंद से जीएं। मेरा मान ना यह है कि तुम जितने आनंद से जीओगी, मैं जितने आनंद से जीऊंगा, तो हमारा कोई अगर एक साथ क्षण हुआ साथ हुआ, तो वह क्षण भी आनंद का होगा, क्यों क दोनों आनंदित व्यक्ति मिले। अभी हालत क्या है अभी दो डरे हुए आदमी हैं। मैं डरा हुआ हूं तो मैं कह रहा हूं क तुम्हारा मुझे सहारा है । और तुम डरी हुई हो और तुम कह रही हो और तुम क ह रही हो कि आपका मुझे सहारा है। और हम दोनों डरे हुए आदमी हैं। यह ऐसे हो गया जैसे एक भिखमंगा दूसरे भिखमंगे के सामने हाथ फैलाए हुए खड़ा हुआ है। कि कुछ मिल जाएं। और वह दूसरा भी हाथ फैलाए हुए है कि कुछ मिल जाएं। और दोनों भिखमंगे है और देने को दोनों के पास कुछ भी नहीं है। किसी को सहारा मत बनाओ खुद सहारा बनो । मेरा मतलब जो हुआ। खड़े हो जाओ अपने पैर ों पर जिंदगी के। और तब मेरा कहना है बहुत से साथी मिलेंगे। लेकिन वह सहारे नहीं होंगे। और तब तुम उन्हें आनंद दे भी सकोगी, उनसे पा भी सकोगी। लेकिन व ह लक्ष्य नहीं होगा । वह लक्ष्य नहीं होगा तुम्हारा, वह जिंदगी में सहज इसी में रास्ते से निकला। और साहब के घर फूल खिला हुआ है और रास्ते के किनारे फूल दिख गया, मैंने उ सका आनंद लिया और आगे बढ़ गया । वह फूल ना मेरे लिए खिला था, ना मैं उस फूल के लिए निकला था। Page 131 of 150. http://www.oshoworld.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज यह तो संयोग की बात थी कि वह फूल खिला था मैं उस रास्ते से निकला था। घड़ी भर मैंने उसे देखा और मैं खुश हुआ और हो सकता है कि फूल भी जीवित है। को ई देखकर उसे खुश हुआ हो तो फल भी खुश हआ हो. यह हमें पता नहीं क्योंकि फ ल ने हमसे कुछ कहा नहीं। लेकिन फूल ने भी एक आदमी ठहर गया है एक क्षण को और उसको देखा हो और खुश हुआ। बस जिंदगी ऐसी होनी चाहिए। मैं अपने आनंद में हं. फल अपने आनंद में है। हम क्षण के लिए मिले हैं हम दोनों आनंद में हैं फिर आगे बढ़ गए हैं। किसी का सह रा नहीं, किसी का आधार नहीं, नहीं तो क्या खतरा होता है? जिसको हम आधार बनाते हैं पहली तो वात हम उसके लिए वोझ हो जाते हैं दक्षणाएं। क्योंकि तुमने तो आधार बनाया ना, और उसके लिए तुम बोझ हो गए। बेटी बाप के लिए बोझ है, वह कह रहा है कि कब इसका शादी विवाह कर, और इससे छुटकारा पाएं। बुढ़ । मां बेटे के लिए बोझ है। यह कब स्वर्गवासी हो जाएं, भीतर यही चल रहा है। क्य कि वह बूढ़ी मां उसको सहारा बनाए हुए है। तो वह तो सहारा भी बोझ हो गया है। पत्नी पति के लिए बोझ है। पत्नी के लिए पति बोझ है क्योंकि वह एक दूसरे को सहारा बनाए हुए हैं। फिर जिसके लिए हम बोझ हैं उस पर क्रोध आता है। पता नहीं चलता पूरा वक्त रोता है क्योंकि बोझ हो गया। और जिसके प्रति हमारा बोझ है। उसके साथ हम आनंदित कभी नहीं हो स कते। इसलिए कोई पत्नी किसी पति के साथ आनंदित नहीं हो सकती, जब तक कि वह साथी ना हो जाएं। सहारा वहारा नहीं, और दोनों स्वतंत्र लोग हों तब तक क भी सुखी नहीं हो सकते। इसलिए तुम हैरान होगी, कभी हम अनजान आदमी से मिलकर जितने खुश होते हैं, अपने ही घर के आदमी से मिलकर उतने खुश नहीं होते। ज्यादा होना चाहिए। क्य में? यह वही कारण है उससे ना कोई लेना देना नहीं है कोई अपेक्षा नहीं है। अगर तुम रास्ते पर मुझे मिली और तुमने नमस्कार करके मुझे और मैंने हंसकर नमस्कार का उत्तर लिया तुम खुश हुई, क्योंकि मुझसे कुछ लेना देना नहीं था। मैंने मुस्कराकर तुम्हें जबाव दिया तुम्हें अच्छा लगा, लेकिन तुम्हारा पति भी मुस्करा कर जवाब देगा, यह रोज का धंधा है यह अपेक्षा है हमारी नहीं देगा तो हम गर्दन पकड़ लेंगे उसकी कि आज मुस्कराकर जवाब नहीं दिया, या मुस्कराकर दिया तो भी हम जांच रखेंगे कि सच में मुस्कराया था कि धोखा दे रहा है। यह सब चलेगा, क्य कि हमने गलत संबंध बना लिए हैं। मेरा कहना यह है कि प्रत्येक को अपने व्यक्तिगत जीवन को आधार बनाना चाहिए। फिर बहुत लोग किनारे से आएंगे, पति भी होगा बेटा भी होगा मां भी होगी, मित्र भी होंगे, साथी भी होंगे, ठीक है, वह साथ मिलेंगे हम आनंदित होंगे हम शेयर क रेंगे अपना आनंद उनसे, लेकिन किसी के कंधे पर हाथ नहीं रखना। क्योंकि जिसके कंधे पर तुमने हाथ रखा तुम उसी के लिए वोझ हो गए। और मजा यह है कि एक Page 132 of 150 http://www.oshoworld.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज दूसरे के कंधे पर दोनों हाथ रखे हुए हैं। तब तो बहुत मुसीबत हो गई वह भी सह रा खोज रहा है। इसलिए मैं सहारे के दर्पण को ही नहीं मानता। मैं मानता हूं एक एक व्यक्ति की इंडवीज्वललिटी को उसकी मुक्ति होनी चाहिए। अ और यह भी मेरी समझ है कि जब दो मुक्त व्यक्ति मिलते हैं तो एक दूसरे को आनंद देते हैं और जब दो बंधे हुए व्यक्ति मिलते हैं तो कैसे आनंद देंगे ? तुम मेरी लगाम पकड़े हो मैं तुम्हारी लगाम पकड़े हूं। क्या आनंद देंगे? और तरकीबों से लगाम पक. हुए हैं । एक पति है उसकी लगाम पत्नी पकड़े हुए है। कहीं खिसक ना जाए यहां वहां । पति ने पत्नी की लगाम पकड़े हुए है। और ब्राह्मण ने दोनों की लगाम बंधवा दी है, सा त चक्कर लगवा कर और सारे समाज ने कहा कि ठीक है लगाम अब बंध गई अव छोड़ नहीं सकते हैं। खाते हो कसम कि छोड़ोगे नहीं, उन दोनों ने कसम खा ली । अब यह बेवकूफी हो गई । और अब रस ही चला गया जीवन की जो सुगंध होनी चा हिए, प्रसन्नता वह सब गई। अब बोझ ही बोझ होगा । वाचक-. पति पत्नी में कभी आनंद नहीं आ सकता। पति पत्नी होने की वजह से नहीं आ सकता, दो मित्र की तरह आ सकता है। क्योिं क पति पत्नी होना बिलकुल ही अगली, बात है। वह बर्दाश्त के बाहर है। अग र रिते भर भी बुद्धी है तो बर्दाश्त के बाहर है। मित्रों में आनंद आ रहा है। और इ सलिए वही पत्नी और वही पति जब तक विवाह नहीं हुआ था, अगर उनमें प्रेम रह हो, तो जैसे आनंदित थे। विवाह के बाद आनंद सब खो गया। वाचक- आचार्य जी समाज के लिए आज क्या... के ऊपर निर्भर है सब । ओशो—आज से नहीं है इसलिए समाज बिलकुल सड़ा गला है, एक दम गंदा है नर्क है हमारा समाज। लेकिन होना चाहिए तो समाज स्वर्ग बन जाए । वाचक–तो फिर हमारे पूर्वज क्या... ओशो - पूर्वज तो हमेशा ही ना समझ होते हैं। वाचक- नहीं, ओशो—मेरा मतलब समझ लेना । मेरा मतलब यह है कि मुझसे आने वाले पांच सौ साल बाद जो बच्चे आएंगे। उनसे मैं ज्यादा नासमझ हूं। क्योंकि उनको पांच सौ साल का अनुभव और समझ मिल जाएगी । वाचक-लेकिन हमारे विचार से हमसे पहले जो थे वह भी बहुत सुखी थे । ओशो - कौन सुखी था वह ऋषि मुनि पूर्वज.. वाचक–ना, ना जो कुछ समाज के हमें बांधे हुए है जो पति पत्नी, कुछ एक समाज के नियम हैं जो नहीं थे, तब बहुत आनंद था, उन तक पहुंच पाना ही था । ओशो - नहीं, नहीं तब भी आनंद नहीं था । वाचकक - क्यों, क्योंकि दब गए है ओशो-तब भी आनंद नहीं था इसीलिए तो यह सारा इंतजाम करना पड़ा। नहीं तो इंतजाम काहे के लिए करते हम । तब दूसरी तरह का दुःख था कि जिस आदमी के Page 133 of 150 http://www.oshoworld.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज हाथ में ताकत हो, वह सारी खूबसूरत स्त्रियों को घेरकर खड़ा हो जाता था। क ही थी और तो कोई नियम नहीं था। ताकत ही नियम है। अभी भी निजाम हैदराब ाद पांच सौ, अभी भी । कृष्ण की कोई सोलह हजार औरतें । वाचक - लेकिन यह केवल तीन थी । मेरा मतलब नहीं समझी, पुरुष के हाथ में ताकत है इसलिए ताकत वाला कुछ करे गा। ऐसे समाज भी रहे हैं जहां स्त्रियों के हाथ में ताकत रही तो उन्होंने जवान खूब सूरत लड़कों को बाध कर रख लिया । ताकत, ताकत जहां होगी. . . तो ताकत ही थी उन दिनों । तो उसका परिणाम यह हुआ था कि एक आदमी सारी सुंदर स्त्रियों को पकड़ ले या एक स्त्री सारे सुंदर जवानों को पकड़ ले। सारे लोग.. . इस स्थिति को बदलने के लिए इंतजाम करना पड़ा। वह इंतजाम कि या। कोई संबंध हो, कुछ नियम हो, समाज की कोई व्यवस्था हो। वह व्यवस्था हो ग ई। अब उस व्यवस्था में हमें पता चला कि दूसरी बीमारियां हैं। अब हम उस व्यवस्थ को भी बदलना चाहेंगे। इसका मतलब यह नहीं है कि हम पीछे लौट जाएंगे, पचा स हजार साल पहले वहां तो हम कभी नहीं लौट सकते। अब तो जो हम व्यवस्था दें गे वह इससे बेहतर होगी। यह व्यवस्था उससे बेहतर थी । पूर्वज हमेशा अपने पूर्वजों से ज्यादा समझदार थे लेकिन अपने आने वाले बेटों से ज्या दा समझदार नहीं हो सकते जिन्होंने व्यवस्था दी विवाह की वह उन पूर्वजों से ज्यादा समझदार थे जो समाज में लाठी का बल चलाते थे। लेकिन अब फिर वक्त आ गय है कि फिर इसको बदलो यह भी सड़ गया है । और अब दुनिया ऐसी हालत में आ गई है कि यह बात समझी जा सकती है। मित्रता की बात यहां पर समझी नहीं ज ा सकती और अब दुनिया ऐसी हालत में आ गई है कि स्त्री इंडवीज्वल की हैसियत से खड़ी हो सकती है, अब तक खड़ी ही नहीं हो सकती थी । यानि पहले ही और मजा यह है कि यह सारा का सारा जो विकास हुआ है इ स सारे विकास में अब एक स्थिति ऐसी आ गई है, जैसे हुआ क्या है ? पुरुष के हाथ में ताकत थी जो स्त्री के हाथ में नहीं थी । शरीर के लिहाज से वह थोड़ी कमजोर है, स्वभावतः तो पुरुष उसको दबाता रहा। लेकिन अब अब हमने एक ऐसी समाज वकसित कर ली जिसमें ताकतवर कमजोर को दबाए इसकी जरूरत नहीं रह गई अ और दबाए तो हम इंतजाम कर सकते हैं कि वह ना दबा सके। अब यह संभव हुआ यह आज से पहले संभव नहीं था। फिर हमने यह व्यवस्था कर ली कि पुरुष के हाथ में अर्थ की सारी ताकत थी । कमाता वह था, और सूछता ही नहीं था कि स्त्री कैसे कमाए? क्योंकि कुछ काम ऐसे थे कि वह स्त्री कर ही नहीं पाती थी । जैसे शिकार का काम था, हजारों साल तक आदमी शिकार पर जीता था। तो वह स्त्री की जूल जी नहीं थी कि वह शिकार कर सके। ऐसे मसल्स नहीं थे, जो जाकर जंगली जानव रों से जूझ सके। तो वह पिछड़ गई, शिकार वह कर सकता था वह मालिक ज्यादा बड़ा होगा वह भोजन लाता था, भोजन जुटाता था । Page 134 of 150 http://www.oshoworld.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज अव जो दनिया आई है अब हमने टैक्नोलोजी का ऐसा विकास कर लिया कि अब व टन दबाने से सारे घर की बिजली दव जाती है। परुष दवाए कि स्त्री दवाए यह सवा ल नहीं है। और इसलिए कोई ताकत की जरूरत नहीं कि कोई पहलवान लाना पडेग [ जो बटन दबाए। टैक्नोलोजी के विकास में ताकत आदमी के हाथ से खत्म कर दी । ताकत मशीन के पास चली गई और मशीन ना स्त्री है ना पुरुष । अव मशीन को चलाने की बात है वह कोई भी चला सकता है। तो पहली दफा दुनिया में टैक्नोलाज ने ऐसी हालत ला दी है कि स्त्री और पुरुष दोनों कमा सकते हैं। और इसलिए अ व स्त्री को गुलाम होने की जरूरत नहीं। अब वह मित्र हो सकती है। लेकिन पूरव के मुल्कों में अभी भी नहीं हो सकते। क्योंकि पूरब की स्त्रियां बेवकूफी की बातें मानती चली जा रही हैं, अभी भी। सच बात तो यह है कि स्त्री ठीक से ि शक्षित हो जाए तो उसे पुरुष के पैसे पर निर्भर होने से इनकार करना चाहिए। विल कुल इनकार करना चाहिए। क्योंकि तुम पैसे की तो सारी सुविधा चाहो और सुगमत [ भी चाहो यह दोनों बातें बेईमानी हैं। नहीं, नहीं यह बेईमानी की बात है यानि क माए तो वह और बांटते वक्त दोनों मित्र होने का दावा करो। यह गलती बात है। वह जो कमाएगा वह बुनियादी रूप से मालिक होगा। तो जब दुनिया में थोड़ी और समझ वढ़ेगी जैसी समझ मैं चाहता हूं। तो कोई भी स्त्री अपने पति के पैसे को अपन [ नहीं मानेगी। वह यह कहेगी कि ठीक है तुमने कमाया है, ठीक है वह भी कमाएगी। यह दूसरी ब त है कि दोनों पूलअप कर लें। और दोनों मिलकर घर का काम चलाएं। लेकिन स्त्र डिपेडेंट नहीं होगी, वह कहेगी कि हम तो पैसे पर तुम्हारे निर्भर नहीं रह सकते। वाचक-वह सुपरीयोरटी कांप्लेक्स . . . ओशो-वह खत्म हो जाएगा, वह है इसलिए उसके कारण हैं ना, ना, ना। उसके का रण हैं। पश्चिम में वह खत्म होना शुरू हो गया। उसके तो कारण हैं। उस सुपरीयोर टी कांप्लेक्स जो है ना उसके लिए तो उसने कारण वनाए हुए हैं। सबसे बड़ा कारण तो पैसा है वह कमाता है। तुम निर्भर हो। तुम जब तक पैसे पर निर्भर हो तो तुम भयभीत भी हो कि अगर आज वह इंकार कर दे तो तुम कहां जाओगी? कल ही एक लड़की आई वह कहती है कि वह पति ऐसा ऐसा कहता है कि तुम य ह यह करो। वह नहीं करना चाहती। लेकिन है तो निर्भर पति पर, कपड़ा पति से लो, पैसा पति से लो, मकान पति से लो। तो फिर पति उसके साथ करता जाता है। .. . .जाओ कहां, वह कहती है कि, 'मैं जाऊं कहां? पिता कहते हैं कि मैं वहां लौट आऊं। और वह कहते हैं कि हमने एक दफा बोझ उतार दिया हम क्यों झंझट में प. डें?' आखिर पिता भी वह भी पैसे का ही मामला हैं। लड़कियों को अपने पांव पर खड़े होने. . . . . लड़की को, सारी दुनिया की स्त्रियों को अगर स्वतंत्र होना है, और पुरुष की बरावर हासिल करनी है तो यह वातचीत से होने वाला नहीं है उसके कारण मिटाने पड़ेंगे । जिनकी वजह से गैर वरावरी और बड़ा कारण आर्थिक है, सबसे बड़ा कारण आ Page 135 of 150 http://www.oshoworld.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज थक है, पहले एक कारण और था पुरुष ताकतवर है वह कारण अब बेईमानी हो ग या। अब उसका कोई मतलब नहीं है। अब उसका मतलब ही नहीं रहा है क्योंकि व ह तो हमारे विकास ने उसको व्यर्थ कर दिया। अब दूसरा कारण रह गया है। आर्थि क का, जैसे रूस है तो रूस में पुरुष की सुपेरिटी विलीन हो गई है। क्योंकि स्त्रियां कमा रही हैं, उतना ही जितना पुरुष कमा रहा है। और जब एक स्त्री पुरुष से विवाह करती है। तो फैमिली बनती है रूस में, हिंदुस्तान में तो बन ही नहीं सकती। क्योंकि स्त्री विलकुल ही खाली हाथ खड़ी होती है। वह कुछ करेगी नहीं, वह सिर्फ निर्भर रहेगी । सारी चिंता पर उस पर है। सारी परेशान उस पर है नहीं कमाए, परेशान हो तो वह चिंता करे इसकी उसको कोई फिक्र न हीं है। वह डिमांड करती चली जाएगी। तो इसके बदले में तुम्हें गुलाम होना पड़ेगा, इनफिरीयर होना पड़ेगा, इसके बदले में कुछ तो पुरुष मांगेगा, कि कम-से-कम तुम हमारी दासी तो रहो। हमारे पैर तो छूआ करे । स्वभावतः उसकी मांग एकदम नाजा यद भी नहीं है। और अगर हम कहते हैं कि नहीं हम यह भी नहीं करेंगे । और यही हम जारी रखेंगे सिलसिला, तो यह मांग नाजायज है। तो मेरा कहना है कि स्त्री को आर्थिक रूप से पैर पर खड़े होने की हिम्मत जुटानी चाहिए। और अगर घर में भी वह काम करती है तो उस काम का भी आर्थिक वि नयोग होना चाहिए। वह काम तो काफी करती है लेकिन उसका आर्थिक मूल्य नहीं है। जैसे तुम एक रसोईया घर में रखते हो। तो उसको तुम पचास रुपए महीने देते हो। एक कपड़ा धोने वाला रखते हो तो उसको तुम पचास रुपए महीना देते हो, ए क गुहारी लगाने वाला रखते हो तो उसको भी बीस रुपए महीना देते हो। वह पत्नी यह सब कर रही है वह दो सौ रुपए महीने का काम वह कर रही है लेकिन इसक कोई आर्थिक हिसाब नहीं है। इसका आर्थिक हिसाब होना चाहिए । लेकिन यह कोसीयसनेस जितनी बढ़ेगी, तब सा फ होगा। तो एक तो स्त्री को पूरे आर्थिक रूप से स्वनिर्भर. पति नहीं चाहेगा कि स्वनिर्भर स्त्री हो, इसलिए पति कहेगा कि मेरे इज्जत के खिलाफ है कि तुम कुछ काम करो। क्योंकि तुम जैसे ही स्वनिर्भर हुई वैसे ही पति की सुपेरीटी गई। इसलिए पति कभी नहीं चाहेगा कि स्त्री कमाए पति कहेगा कि जब मैं हूं तुम्हें कमाने की क या जरूरत I मैं जब नहीं रहूं तब सवाल है। मैं जब कमा सकता हूं तो तुम क्यों कमाओगी? औ र स्त्री इससे बड़ी खुश होती है कि पति कितनी प्रेम की बातें कर रहा है लेकिन व हुत गहरे में पति यह कह रहा है कि तुमने कमाया तो तुम मुक्त हो गई । तब मेरी गुलाम नहीं हो सकती । वाचक- अभी बहुत लड़कियां जो कमा भी रही हैं वह भी गुलाम हैं । दूसरे कारण. Page 136 of 150 http://www.oshoworld.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ओशो—ना, ना कारण और भी हैं। एक कारण और भी हैं वह जो लड़कियां कमा र ही हैं, वह जो लड़कियां कमा रही है वह सिर्फ प्रतीक्षा कर रही हैं कि कब उनको पति मिल जाएं और वह कमाना छोड़ दें । वाचक- नहीं शादी की हुई लड़कियां शादी की हुई लड़कियां जैसे ही कमाती हैं, तो उन लड़कियों में और जो पत्नियां न हीं कमा रहीं हैं बुनियादी फर्क पड़ जाएगा। फर्क पड़ेगा। उनके पास बल हो जाएगा, यानि वह अकेली खड़ी हो सकती हैं । इतनी हिम्मत हो जाएगी, वह पति पर बिल कुल निर्भर नहीं हैं। एक बात दूसरा उनका पूरा माईंड जो अब तक सिखाया गया है स्त्रियों को कहा है कि पुरुष तो है वृक्ष की भांति और स्त्री है लता की भांति वह उसके सहारे ही खड़ी हो सकती है। गिर जाएगी तो जमीन पर पड़ जाएगी। बिलकु ल झूठी बात है पुरुष ने सिखाई है। इससे कोई मतलब नहीं है। इससे कोई भी मत लब नहीं है . वाचक- आगे यह हो सकता है कि ओशो-. कर सकती हैं। यह कर सकती है यह रिवेन्ज हो सकता है। यह संभाव ना है। यह संभावना है क्योंकि जैसे जैसे टैक्नोलोजी विकसित होगी ताकत बेमानी हो जाएगी। जैसे मैं दौड़ एक स्त्री मेरे साथ दौड़ेगी, तो मैं काफी तेजी से दौडूंगा वह उतनी तेज नहीं दौड़ सकती। लेकिन एक स्त्री ड्राइव कर रही है मैं ड्राइव कर रहा हूं, यह बेमानी हो गई बात तो मेरे पुरुष होने की वजह से में ज्यादा तेजी से ड्राइव नहीं कर लूंगा, मोटर की टैक्नोलोजी ने दौड़ने में आपको दोनों को बराबर कर दि या। आप मेरा मतलब समझे ना। सब मामलों में टैक्नोलोजी विकसित होती चली जा एगी, और टैक्नोलोजी की वजह से ताकत का जो फर्क था वह क्षीण होता चला जा एगा। चाहे पु अब एक आदमी कुल्हाड़ी चला रहा है कोई स्त्री नहीं चला सकती उतनी कुल्हाड़ी । या चलाएगी तो पांच मिनट में थक जाएगी, वह दो घंटे चलाएगा तो वह सुपीरियर हो गया। लेकिन अब बिजली की आरा मशीन चल रही है, बटन दबाना रुप दवाए चाहे स्त्री दवाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह आरा मशीन पूछती नह कि किसने दवाया। लेकिन कुल्हाड़ी पूछती है कि तुम पुरुष हो कि स्त्री । . ना। टैक्नोलोजी के विकास ने ताकत की बात खत्म कर दी । अब ताकत बेमानी है। इस लए ताकत का वहां कोई सवाल नहीं है अब। अब कोई ताकत से नहीं डरवा सकता किसी को । तो वह तो एक आधार छूट गया है अर्थ का एक आधार रह गया है एक और दूसे माईंड का रह गया है। सबसे गहरे में। स्त्री जो है उसको इतने दिन तक यह सिखाय ा गया है कि तुम निर्भर ही सुखी रह सकती हो। जब तुम बच्ची हो तो बाप पर नि र्भर रहो, जवान हो तो पति पर निर्भर रहो, बूढ़ी हो जोओ तो बेटे पर निर्भर हो ज ओ। यह सिखाया पुरुष ने, पूरी फिलोसफी पुरुषों ने खड़ी की है । और पूरे टीचर्स पु Page 137 of 150. http://www.oshoworld.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज रुपों के हैं गुरु संन्यासी साधु पुरुषों के हैं। वह सब वही समझा रहे हैं स्त्रियां उनको सुन रही हैं और वही सीख रही हैं । यह माईंड का स्ट्रैक्चर तोड़ना पड़ेगा। और यह कहना पड़ेगा, कि कोई किसी पर नि र्भर नहीं है। हम एक दूसरे पर निर्भर हो सकते हैं लेकिन कोई किसी पर निर्भर नह ीं है। इनटरडिपेंडेंस हो सकती हैं लेकिन डिपेंडेंट नहीं हो सकती । मियुचुअल डिपेंडेंट है। हम कभी किसी पर निर्भर नहीं हैं, हम मित्र हैं हम शेयर करना चाहते हैं तो ह म एक दूसरे पर निर्भर हुए लेकिन कोई मालिक कोई गुलाम ऐसा नहीं है । एक बात, दूसरी एक बात थी जो टैक्नोलोजी में वह भी खत्म कर दी वह थी स्त्री के साथ बच्चों का प्रश्न । जैसे ही स्त्री को बच्चे पैदा होते हैं वह निर्भर हो जाती है क्योंकि उतने वक्त वह कमा नहीं सकती काम नहीं कर सकती। कमजोर हो जाती है। चार छः महीने बच्चे को पालने में भी उसको घर बैठना चाहिए। तो वह निर्भर हो जाती है। हां, टैक्नोलोजी ने भी वह स्थिति भी साफ कर दी। टैक्नोलोजी ने वह स्थिति साफ कर दी। तो बर्थ कंट्रोल ने इतनी बड़ी ताकत दे दी स्त्री को कि जिसकी कल्पना नह ीं। और जब तक बर्थ कंट्रोल पर स्त्रियां पूरे बल से प्रयोग नहीं करती पुरुषों के मुका बले खड़ी नहीं हो सकेंगी। वर्थ कंट्रोल ने बड़ी ताकत दे दी । एक बात अब दूसरी बात जो है, बच्चे को पालने की, बच्चे को बड़ा करने की, यह पुरुष और स्त्री की समान जिम्मेदारी है यह कोई स्त्री की अकेली जिम्मेदारी नहीं है । यह अकेली जिम्मेदारी नहीं है, बच्चे को पालने बड़े करने की । वह स्त्री बहुत जल्द ळी लीगल व्यवस्था होनी चाहिए कि बच्चे का बोझ कोई स्त्री पर ही पूरा पड़ने का न हीं है। और दूसरी बात अब तो, अब तो संभावनाएं इतनी बढ़ती जाती हैं महाराज जिसकी हम कल्पना ही नहीं कर सकते। मां के पेट में ही बच्चा बड़ा हो यह भी जरूरी नह ीं रह गया है। वह तो टैस्ट ट्यूब में भी बड़ा हो सकता है। स्त्री को जो नौ महीने क परेशानी है उससे मुक्त किया जा सकता है। बिलकुल मुक्त किया जा सकता है। वह जो उसकी वजह से निर्भरता है वह मुक्त होती है। और दूसरी बात है बच्चों का सारा का सारा कंट्रोल स्टेट के हाथ में जाएगा जैसे ही समाज वैज्ञानिक होगा। बच्चों का कंट्रोल मां-बाप के पास रहना ही नहीं चाहिए । . वाचक - (अस्पष्ट ) टूटना ही चाहिए, मित्र तक ही यह संबंध रह जाना चाहिए। यह रिलेशनशिप बहुत कुरूप है। और इसके लिए इसे बहुत दुःख हैं । तो यह सारी स्थिति जो नई आ गई है इस नई स्थिति का पूरा विनियोग अगर हम करेंगे सोचकर तो स्त्री आज स्वतंत्र हो सकती है, मुकाबले पर समान हो सकती है। कोई कठिनाई नहीं रह गई, लेकिन स्त्री को बहुत सी ऐसी धारणाएं छोड़नी पड़ेंगी, जो पुरुष ने उसमें पैदा की हैं। Page 138 of 150 http://www.oshoworld.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज अब जैसे स्त्री जा रही है और सड़क पर एक आदमी का धक्का लग गया, और वह घबरा गई, यह पुरुष ने उसमें पैदा किया हुआ है । अगर स्त्री सड़क पर चलते आद मी के धक्के से घबराती है तो पुरुष के समान कभी नहीं हो सकती। उसको घर में बंद रहना पड़ेगा। और जब पति उसको लेकर निकले तब निकलना पड़ेगा। मैं आगरा से लौट रहा था। मेरे साथ एक यह यह जो मामला है ना, एक पति और उनकी पत्नी थे। तो पति जैसे ही गाड़ी मे चढ़े उन्होंने नीचे हाथ बढ़ा या पत्नी को चढ़ा लेने के लिए मैंने उनकी पत्नी को कहा कि, 'इंकार कर दो कि यह बात गलत है। क्योंकि मैं चढ़ सकती हूं। प्रेम के लिए धन्यवाद । लेकिन यह बात गलत है। मैं जिस सीढ़ी पर चढ़ सकती हूं उस पर तुम्हारा हाथ पकड़ कर चढूं यह बात गलत है।' उसने कहा, ‘लेकिन क्यों? मैंने कहा, 'फिर तुम अपने हाथ से डिपेनडेंस को पालती हो। और तुम इसमें खुश हो रही होगी यह बहुत अच्छी बात है। लेकिन ऐसा मौका नहीं तुमने कभी दिया कि तुम गाड़ी में पहले चढ़ गई हो, और तुमने हाथ पकड़कर पति को ऊपर लिया हो ।' तो पति इंकार कर देता कि, 'इनसल्टिंग।' आप मतलब समझ रहे हैं ना, अगर आ पकी पत्नी ट्रेन में चढ़ जाएं और ऐसे हाथ बढ़ा कर कहे कि, 'आओ. तुम क होगे इनसल्टिंग। आसपास के लोग देखकर क्या कहेंगे कि गैर समाज की बात है। ले कन आप चढ़ जाओगे, और पत्नी को हाथ बढ़ाओगे, पत्नी बड़ी खुश होगी यह बहु त सम्मानपूर्ण लगेगा उसको । हां, तो हम उसको सिखाएंगे सारी बातें। वाचक- एक बात कि लेडिज को अपना हाथ दे दो ऊपर ले लो। जरूरत हो तो हाथ देना चाहिए लेडिज को नहीं किसी को भी लेडिज का सवाल नह ीं है। मेरा मतलब समझ रहे हैं ना आप, जगह-जगह मेरी क्लास होती थी तो लड़ कयों को अलग बैठने का है, लड़कों का अलग। मैंने लड़कियों से कहा कि, 'तुम जब तक इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा सकती कि लड़कों के साथ बैठो, तब तक तुम भी स्वतंत्र नहीं हो सकती।' मेरी क्लास में मैंने कहा, 'यह मैं बर्दाश्त नहीं करूंगा । अगर मेरी क्लास में बैठना है जो जब आ जाए और जहां जिसे जगह मिल जाए वह वहां बैठ जाए।' यह लड़कियां एक झुंड बना कर एक कौने में बैठी हुई हैं। लड़के झुंड बनाकर एक कौने में बैठे हुए है। यह बिलकुल अतिष्ठ है और असंस्कृत मालूम होता है। अनकलचर्ड मालूम होता है। अनकल्चर्ड है यह । हम कहते हैं कि सभा में महिलाओं के लिए विशेष सुविधा है। सारी महिलाओं को मुकदमा चलाना चाहिए। सभा के संयोजकों पर । क्योंकि विशेष सुविधा क्यों है ? विशे प सुविधा हमेशा कमजोरों को दी जाती है इसका खयाल नहीं हमको, विशेष सुविधा कमजोरों के लिए दी जाती है । और विशेष सुविधा मिलने से कमजोर और कमजोर होता चला जाता है। क्योंकि वह विशेष सुविधा के एक्सपेकटेशन मानता है । और प श्चिम में वह कहते हैं कि, 'लेडिज फर्स्ट, और स्त्रियां बड़ी खुश होती हैं। उनको बि लकुल इंकार करना चाहिए कि नहीं जो फर्स्ट है वह फर्स्ट, लेडिज का क्या सवाल है Page 139 of 150 http://www.oshoworld.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज । जो पहले क्यू में आया वह पहले खड़ा होगा, और हटता है तो वह अपमानजनक है। हम पीछे आए हैं तो हम पीछे खड़े होंगे। मगर मजा क्या है? इस वक्त शिक्षित से शिक्षित स्त्री कहती है, मैं पुरुष के बराबर हूं। लेकिन पुरुष जो सुविधाएं देता है वह बड़े मजे से लिए चली जाती हैं। यह डकट्री है यह कभी हो नहीं पाएगा । सुविधाओं को इंकार करो। अभी मैं अहमदाबाद में था । तो अहमदाबाद के हरिजन, एक पूरा मंडल बना कर आ ए, पच्चीस-तीस हरिजन आए । पहले उन्होंने मुझे चिट्ठी लिखी, और मुझे लिखा कि, ‘जैसे गांधी जी हरिजनों की कालोनी में ठहरते थे आप क्यों नहीं ठहरते। हम आप से मिलना चाहते हैं।' वह मिलने आए। उन्होंने मुझसे कहा कि, 'आप हरिजनों की कालोनी में क्यों नहीं ठहरते ? आप हरिजन के घर में क्यों नहीं ठहरते, जैसे गांधी जी ठहरते थे । ' तो मैंने कहा कि, 'पहली तो बात यह कि मैं किसी को हरिजन नहीं मानता, गांधी किसी को हरिजन मानते होंगे। मैं किसी को हरिजन नहीं मानता। मैं घर में ठहरता हूं। हरिजन और गैर हरिजन का सवाल ही नहीं । तुम आओ मुझसे कहो कि हमारे घर में ठहरने की व्यवस्था है। मैं चलूंगा, लेकिन तुम कहो कि हरिजन के घर में ठह रने चलो तो मैं नहीं चलूंगा।' क्योंकि हरिजन को मानना, हरिजन को जारी रखना, उसको जारी रखना उसका नीचा, यह भी नीचा दिखाना है । यानि महात्मा गांधी हरिजन के घर में ठहरते हैं यह बड़ा भारी उपकार कर रहे हैं वह। और हरिजन बड़ा प्रसन्न है और बेवकूफ उसको अति प्रसन्नता में, क्योंकि यह उसकी हीनता का सबूत है और वह कहता फिर रहा है कि महात्मा जी हमारे घर में ठहरे हुए हैं। तुम आदमी हो कि जानवर हो, तुम क्या हो जो तुम्हारे घर में ठहर ने से महात्मा जी ने तुम्हारे घर में ठहरने से बहुत बड़ा काम किया हुआ है । एक जमाना था कि उसको रिकग्रिशन दिया जा रहा था कि हरिजन के घर में हम नहीं ठहरेंगे वह भी विशेष व्यवहार था। अब वह गांधी जी कहते हैं कि हम हरिजन के घर में ही ठहरेंगे। यह भी विशेष व्यवहार है । और विशेष व्यवहार हमेशा कमज रों के साथ होता है। तो मैंने कहा, 'मैं तो हरिजन किसी को मान.. हां और मैं ने उनसे, वह बोले कि हरिजन कैसे मिटे ?' तो मैंने उनसे कहा कि, 'पहली तो बात यह है कि तुम मिटना नहीं चाहते । तुमसे कहता कौन है कि तुम अपने को हरिजन कहो तुम क्यों अपने को हरिजन कहने ए हो? यहां पर तीस आदमी मिलकर ।' और हरिजन होने से तुमको जो विशेष सुवि धाएं मिल रही हैं वह तुम इंकार नहीं करते। उसका तुम पूरा फायदा ले रहे हो । . बहुत जरूरत है। एक दम जरूरत है क्यों? एक तो मैं पूरे का विरोध करता हूं। ऐस कोई कभी भूल से भी ना सोचे कि गांधी की कुछ बातों का विरोध करता हूं कुछ का नहीं करता। क्योंकि मेरा मानना है या तो आदमी गलत होता है या आदमी ठी क होता हैं। कुछ गलत कुछ ठीक ऐसा आदमी होता ही नहीं, हो नहीं सकता। क्योिं Page 140 of 150 http://www.oshoworld.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज क एक ही आदमी से सारी बातें निकलती हैं। और वह एक ही दिमाग की वाई प्रोडै क्ट होती है। गांधी का दिमाग गलत है जो मेरा कहना है। यह सवाल नहीं है कि व ह क्या कहते हैं क्या नहीं कहते। इसलिए जो भी उस दिमाग से निकलता है वह ग लत है। और विरोध करना बहुत जरूरी है। उसका का कारण है उसका कारण है। महावीर और बद्ध का विरोध इतना जरूरी नहीं है क्योंकि पच्चीस सौ साल में धल जम गई है उनकी कोई फिक्र ही नहीं कर रहा है सिवाए पूजा पाठ के, और पूजा पाठ कोई फिक्र नहीं है निवटा रहा है। एक दिन आता है वर्ष में निवटा देता है। गांधी नए हैं। और गांधी की छाया दिमाग पर है। गांधी का विरोध एक दम जरूरी है मैं तो बहुत कम करता हूं। तुम्हारी हिम्मत देख कर। और नहीं तो जितना विरोध करना चाहिए, क्योंकि मुझे दिखाई यह पड़ता है । क अगर गांधी का विरोध नहीं हुआ तो इस मुल्क की हत्या हो जाएगी। जो मुझे दिखाई पड़ता है वह मुझे करना चाहिए। नहीं तो फिर मैं वड़ा खतरनाक अ दिमी हूं। अगर मुझे ऐसा दिखाई पड़े कि भला वह गलत हो तो जिनको गलत दिखा ई पड़े वह मेरा विरोध करें। उसमें कोई हर्जा नहीं है। लेकिन मुझे ऐसा दिखाई पड़त [ है कि गांधी को अगर माना मुल्क ने तो मुल्क को इतना बड़ा नुकसान पहुंचेगा जि तना किसी एक व्यक्ति को मारने से किसी मुल्क को कभी नहीं पहुंचा। वाचक-आपने पीछे आपने जो कहा कि, 'गांधी जी . . . . . जो मैं जो ठीक कहा हूं, जो ठीक कहता हूं यानि ठीक का मतलब यह । आपके दिमा ग से जो निकल रहा है मैं गलत कहता हूं लेकिन इसका मतलब यह थोड़े ही कि अ पि कपड़ा पहने हुए हैं कमीज तो वह गलत पहने हुए हैं। मेरा मतलब आप समझ र हे हैं ना, गांधी को जिस मामले में मैं ठीक कहता हूं, और वह मामला विलकुल दूस रा है उसके ठीक होने से गांधी की फिलासफी का कोई संबंध नहीं। जैसे मैं कहता हूं गांधी सिंसियर आदमी, ईमानदार आदमी, उन्हें जो ठीक लगता है वह कर रहे हैं लेकिन जो उन्हें ठीक लगता है वह गलत है। मेरा मतलब समझ रहे हैं ना। मैं उनकी नियत पर शक नहीं करता। मैं यह नहीं कहता कि, 'गांधी बेईमान हैं, कि गांधी जानते हैं कि इससे नुकसान होगा और कर रहे हैं। यह मैं नहीं कहता। तो ग धिी एक गंभीर सिंसियर आदमी हैं। मेरा मतलब समझ रहे हैं ना, एक डाक्टर है व ह एकदम ईमानदार आदमी है उसे लगता है कि आपका पैर काटने से आपका हित होगा। वह पैसे के लिए पैर नहीं काट रहा, वह आपका दुश्मन नहीं है, वह आपको नुकसान नहीं पहुंचाना चाहता। लेकिन मैं यह कहता हूं कि डाक्टर विलकुल ही ईमा नदार है लेकिन डाक्टर बिलकुल नहीं है, यह पैर काटने से नुकसान होगा, गांधी की ईमानदारी पर मैं शक नहीं करता हूं नेहरू की ईमानदारी पर मुझे शक है। गांधी की ईमानदारी पर मुझे शक नहीं है। क्योंकि नेहरू जिसको ठीक समझते हैं उस को नहीं कहते क्योंकि गांधी उसको ठीक नहीं समझते। और नेहरू गांधी को बिलकु ल गलत समझते हैं लेकिन हिम्मत नहीं जुटाते कहने की। और गांधी का जय-जयका र किए चले जा रहे हैं। नेहरू विलकुल . . . . हां, नेहरू इनसिसीयर, अगर नेहरू ई Page 141 of 150 http://www.oshoworld.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज मानदार हो तो नेहरू को गांधी के खिलाफ खड़े होना चाहिए । लेकिन गांधी के साथ प्रतिष्ठा मिलती है इज्जत मिलती है। और गांधी के खिलाफ होकर नेहरू हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री नहीं हो सकते थे। एक उन्नीस साल तक अकेला आदमी तानाशाही नहीं कर सकता था। वह गांधी के बल पर की गई तानाशाही । अब नेहरू को बिलकुल विश्वास नहीं गांधी की किसी बा त में कि गांधी जो भी कह रहे हैं वह सब उनको गड़बड़ मालूम होता है। वाचक—तो वह कह तो रहे थे पुस्तकों में कि जो गांधी कहते हैं वह समझ में नहीं आता और गड़बड़ है। हां, जब समझ में नहीं आता, तो जब समझ में नहीं आता। और लिखते हो कि गड़ बड़ है तो इसका विरोध करो, और फिर जब हुकूमत में आते हो तो फिर खादी को प्रोत्साहन मत दो। फिर ग्रामोद्योग की बात मत करो! फिर गांधी की फोटो लगाकर राष्ट्रपिता मत बनाओ। यानि मेरा मतलब समझ रहे हैं आप, इनसिंसियर्टी जो मैं कह रहा हूं वह यही कि नेहरू को लगता तो ऐसा कि गांधी गलत हैं और व्यवहार ऐसा करते हैं वह कि जैसे गांधी सब कुछ ठीक हैं । वाचक-नियोजक का तो पुरस्कार उन्होंने ही दिया. ना, ना हर्जा है, हर्जा है क्योंकि अगर नेहरू बर्थ कंट्रोल के लिए प्रोत्साहन देते हैं तो उन्हें कहना चाहिए कि, 'गांधी जो वर्थ कंट्रोल के लिए जो कहते हैं वह विलकुल गलत है, और खतरनाक है यह वह कहने की हिम्मत नहीं जुटाते, क्योंकि यह पोलि टीकल मामला होगा, इसमें नुकसान पहुंचेगा नेहरू को । मेरा मतलब समझ रहे हो न तुम वाचक - (अस्पष्ट) ना ना ना मैं यह ठीक और गलत का नहीं, मैं तो कहूं सिंसियर नहीं है। यानि मैं कहता हूं कि नेहरू गांधी से ज्यादा ठीक है लेकिन सिंसियर नहीं हैं । गांधी बिलकुल गलत हैं लेकिन एकदम सिंसियर हैं। मेरी जो तकलीफ है वह जो मैं जहां ठीक कह ता हूं ठीक का कुल मतलब मेरा इतना है। गांधी के साथ हिंदुस्तान में सैंकड़ों महात् मा थे। लेकिन गांधी की तरह सिंसियर कोई आदमी नहीं था। लेकिन गांधी की सिं सयर्टी बिलकुल गलत थी । जो उन्होंने दी हुई है और इसलिए मेरा कहना है कि उन की सिंसियर्टी खतरनाक है । क्योंकि एक आदमी आपकी गर्दन काट दे बिलकुल सिंसि यर्टी से, तो भी गर्दन ही काट रहा है आखिर में । उनको शक नहीं है वह जो कह र हे हैं वह गलत है या नुकसान पहुंचाएगा। शक हो तो फौरन रुक जाएं । वह जो जहां भी मैं कहता हूं उनको, जिस अर्थ में मैं कभी भी ठीक कहा हूं। वह इ तने अर्थ में ठीक कहता हूं। लेकिन जो भी गांधी कहते हैं वह जो गांधी में फिलोस्फी है। वह जो जिंदगी को देखने का ढंग है वह पूरा गलत है। और उसका विरोध कर बड़ा मजा यह है . .. कि गलत चीज ही चल सकती है क्योंकि सारा स माज गलत है। आप मेरा मतलब समझ रहे है ना, ठीक चीज को चलना ही मुश्किल है ठीक चीज को चलने में हजारों वर्ष लग जाते हैं। और गलत चीज ही चल सक Page 142 of 150 http://www.oshoworld.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ती है क्योंकि सारा समाज गलत है। और उस गलत चीज के अनकल है सारा समा ज। अव हजारों लाखों साल तक गलत चीजें चलती हैं, उससे कोई मतलब नहीं है। वाचक-ठीक आदमी को सक्सैस होने में बड़ा मुश्किल हो जाता है। ठीक आदमी को सक्सैस होने में समय लगता है। वहत समय लगता है और यह भी हो सकता है कि उसकी जिंदगी में कोई सक्सैस ना हो और अक्सर ऐसा हआ है क ठीक आदमी अपनी जिंदगी में सक्सैस नहीं हो सके। हजारों साल मर जाएं, मर जाने के बाद उनको बल मिला हो और लोगों को समझ में आया और वह बात ठी क थी। और गलत आदमी एक दम सक्सैस फूल हो सकते हैं। गांधी की सक्सैस फिन मिनल है ऐसा कोई आदमी अपनी जिंदगी में इस तरह सफल नहीं हो सकता, और गांधी जो कहते हैं भारत का जो मूढ़ चित्त है उसको वह अपील होता है। मेरा मत लब समझ रहे है ना, वह जो हमारा चित्त है वह बना हुआ है वह उसको अपील क रता है कि बिलकुल ठीक है यह बात। गांधी की सफलता गांधी के गलत होने की वजह से है। और यह भी हो सकता है ि क गांधी के खिलाफ जो बात कही जाए ठीक उल्टी दिशा में, वह सफल ना हो पाए इतनी जल्दी। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। लोग कहते हैं कि, 'सत्य हमेशा जीतता है। लेकिन अकसर ऐसा होता है कि असत्य जीतता है, सत्य को बहुत प्रती क्षा करनी पड़ती है। क्यों करनी पड़ती है क्योंकि जिन लोगों से हम बात कर रहे हैं उनका पूरा का पूरा दिमाग निर्मित है इस तरह से। अव जैसे कि जिन्ना सक्सैस नहीं हुआ, सफल नहीं हुआ, जिन्ना सफल हुआ! मुसलमा न इतिहास में लिखा जाएगा कि जिन्ना जैसा सफल आदमी खोजना मुश्किल है। क्या होती और सफलता। लेकिन जिन्ना मुसलमानों का नेता कैसे हो सका? क्योंकि मुस लमानों में जो वेवकूफी है उसको वह सहारा दे रहा है। इसलिए वह नेता है। फिलो सफर है ना जिन्ना की जो सफलता है वह. . . वाचक-वह सफलता समाप्त हो जाएगा तो जीना व्यर्थ हो जाएगा ना। समझदार मुसलमान हो जाएं तो जिन्ना से एकदम छुटकारा हो जाए। समझदार मुसल मान हो जाए तो मुसलमान होने से छुटकारा हो जाए। जिन्ना तो गया। मेरा मतलब यह है कि जिन्ना तो तभी तक है जब तक वह नासमझी है, लेकिन जिन्ना पूरी तर ह सफल हुए। इसमें क्या असफलता है लेकिन किस चीज को अपील किया उन्होंने व ह जिस चीज को अपील किया वह चीज ही गलत है। मेरी जो दृष्टि है यह यह तय नहीं होता, कि कौन सफल हो गया। इसलिए कोई सही नहीं होता। इसलिए कोई सही नहीं होता तो वह तो लोग जैसे जैसे तैयार होते चले जाएंगे मैं गांधी जी के पूरे विचार के वि रोध में हूं, एक एक इंच। लेकिन मैं दिखाई नहीं पड़ता ना। वाचक-जैसे आज आप कह रहे हैं कल आप कह दें. . . कल आपको लगेगा कि गां धी ठीक कह रहे हैं. . . तो आपको सुनने वाले कहां चले जाएंगे? Page 143 of 150 http://www.oshoworld.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज अगर मेरे सुनने वालों ने मुझे अंधे की तरह माना है, तो वह दिक्कत में पड़ जाएंगे ? और अंधे हमेशा दिक्कत में पड़ते हैं इसमें मेरा क्या कसूर है? जी, हां और अगर मेरे सुनने वालों ने और मैं तो पूरी कोशिश यह कर रहा हूं कि अंधेपन की दुश्मनी की कोशिश कर रहा हूं और अगर मेरे सुनने वालों ने ठीक सुना है तो वह मुझे गलत कहेंगे कि यह आदमी गलत हो गया। इससे क्या फर्क पड़ता है? यानि यह अगर मैंने कहा इसलिए आपने मान लिया तो मुश्किल में पड़ने वाले हैं क्योंकि कल में बदल सकता हूं। लेकिन मैंने जो कहा आपने सोचा, और इसलिए माना कि आपकी बुद्धि को जंचा तो कल जो मैं कहूंगा वह भी आप सोच लेना जंचे तो ठीक है नहीं वात खत्म। बंधने का सवाल ही नहीं है। और इसलिए मेरा कहना है मुझसे बंधने का कोई सवाल ही नहीं है। कोई मुझसे बंध ही नहीं है। कोई प्रश्न नहीं है मुझे जो ठीक लगेगा वह मैं कहंगा। आपको ठीक ल गेगा आप मानेंगे नहीं लगेगा आप नहीं मानेंगे। और मेरा कहना ही यह है कि आप मानना ही मत। और मेरा कहना ही यह है कि आप मानना ही मत, अंधे की तरह । गांधी जी ने इस पर बहुत जोर दिया अंधे की तरह मानने का। गांधी जी ने अपनी सारी बातें, बिना दलील के इस मुल्क को मनवाने की कोशिश की, बिना दलील के सत्याग्रह करना कोई दलील नहीं है। और यह कहना कि मेरी अंतरात्मा कहती है। इसलिए मैं ऐसे ही करूंगा। यह भी कोई दलील नहीं है। कल मैं यह डायरी देख रहा था, गांधी . . . . .से निकाली। तो उसमें लिखा है कि, 'जब किसी चीज का निर्णय ना हो पाए तो अंतिम निर्णय अंतरात्मा का है। वही स त्य है तुम्हारे लिए होगा। लेकिन तुम कहते हो कि पूरे मुल्क के लिए सत्य है। अंबे डकर की अंतरात्मा कुछ और कहती है जिन्ना की अंतरात्मा कुछ और कहती है, तु म्हारी अंतरात्मा कुछ और कहती है। हम किसको सत्य मानें। हमारी अंतरात्मा को मानेंगे ना, तुम्हारी तो नहीं। वाचक-बेसीकली रांग है। बेसीकली रांग है। अंतरात्मा की आवाज आपके लिए सत्य है, लेकिन आप दूसरे पर नहीं थोप सकते। और यह बड़ी थोपने की तरकीब है। मैं कहूं कि अगर आप नहीं मानोगे, तो मैं भूखा मर जाऊंगा। तो एक अच्छे आदमी को सोचकर कि यह आदमी भूखा ना मर जाए पता नहीं यही ठीक हो आप जल्दी-जल्दी चलो। और सव तरफ से आप पर प्रैशर पड़ना शुरू होगा। पूरा पूना कहेगा कि एक आदमी मर रहा है अ प क्या. . . वाचक-अगर ठीक से गांधी को समझ आ जाता क्या कहना है? तो फिर गोमसे को गोमसे तो गलत है ही, ना, ना, ना गोमसे तो गलत है ही। गांधी गलत है इसलिए गांधी को मारना थोड़े ही सही है। यह तो सवाल ही नहीं है। . . . नहीं आप मेरी बात नहीं समझे Page 144 of 150 http://www.oshoworld.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज ना, ना मारना तो गलत है ही क्योंकि मारने से गांधी की गलती को समझना मुश्कि ल हो गया है। गोमसे ने गांधी को महात्मा बना दिया। नहीं तो गांधी इतने बड़े महा त्मा थे नहीं। आप समझते हैं ना गांधी इतने बड़े महात्मा कभी भी नहीं थे यह गोम से की कृपा है कि गांधी एकदम इतने बड़े महात्मा हो गए कि अब उनका आलोचना करना मुश्किल हो गया है । गोमसे ने गोली मारकर जितना नुकसान किया है उसका हिसाब नहीं । वह नुकसान गांधी को मारने का था ही। फिर गांधी तो खैर मर ही जाते। दो चार पांच साल में मरते इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । लेकिन गांधी को मार कर गोमसे ने गांधीवाद पर ऐसी सील बिठा दी जिसका कोई हिसाब नहीं, अगर जीसस को यहूदियों ने ना मारा होता तो शायद क्रशचेयनटी कहीं भी नहीं होती। जीसस से कोई प्रभावित नहीं हुआ । सूली से बहुत लोग प्रभावित हो गए। गांधी से आप इतने प्रभावित नहीं थे गोली लगने से आप भी रोने लगे, और उस रोने में आप कोमल हो गए, एक साफ्टकार्नर हो गया माईंड का गांधी के लिए, यह बहुत बुरा हुआ गांधी के साथ । गोमसे बहुत बुरा आदमी है और इसकी तुलना में गांधी बहुत अच्छा आदमी है। वह गांधी का अच्छापन गोमसे की तुलना में हो गया। यानि जो कठिनाई हो गई ना क ट्रास्ट बहुत उल्टा हो गया । गांधी को सोचा जाना चाहिए था मार्क्स की तुलना में, महावीर की तुलना में, बुद्ध की तुलना में, फ्राइड की तुलना में, वह मामला खत्म हो गया। अब जब आप कहते हैं गांधी गोमसे, तब बड़ी गड़बड़ हो गई। गोमसे बिलकुल काली शक्ल है और गांध उसके सामने बहुत सच्चे दिखाई पड़ने लगे । और गोली मारकर गोमसे ने बुरा ही किया अच्छा नहीं किया। कोई आदमी कितना भी गलत है। उस गलत आदमी को अपनी गलत बात कहने का हक है । और कोई आदमी कितना ही सही है, तो भी ग लत आदमी की आवाज बंद करने का कोई हक नहीं। चूंकि यह इसका मतलब यह हुआ गोमसे जैसे लोगों की जो भूल है वह यह है कि गोमसे जैसे लोग गोली को आ ग्रूमेंट समझते हैं। कोई गोली आर्ग्रमेंट है अगर आप एक लट्ठ मेरे सिर पर मार दें तो तो उससे मेरी बात गलत हो गई। और अगर आप लट्ठ मारते हैं तो एक बात तो तय है कि आप मुझे ठीक मानते थे और मुझे गलत सिद्ध करने में असमर्थ हैं। गोमसे की कम्पनी जो थी इस मुल्क में या है अभी भी वह पूरी की पूरी कम्पनी गांधी को जवाब देने में असमर्थ है. हां, वह चलेगा। हां, उसको भगवान बनाने की कोशिश चलेगी. भगवान गोमसे बनाने की कोशिश चलेगी। गोली मारी उन्हीं को हम गवाह बना रहे हैं। हां, वह तो चलेगी । . Page 145 of 150. http://www.oshoworld.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज वह तो जिन्होंने मारा, कोई गोमसे अकेला नहीं था वह एक प्रतिनिधि था एक वर्ग का। एक वर्ग है पीछे वह आज भी है वह बीस साल चुप रह लिया, क्योंकि. वही जरूरी है। वही जरूरी है। गोमसे क्या करेंगे, किसी को काट कर गोमसे क्या क काट सकते हैं? वह तो गधे हैं इनकी नासमझी की वजह से तो भारी नुकसान होता है । यह आमेंट का मामला ही तोड़ देते हैं। वाचक-लेकिन . (अस्पष्ट ) गांधी जी ने बहुत शक्ति की, गांधी की शक्ति का एकाग्र नहीं है। इतनी कि हिटलर ने भी नहीं की। क्योंकि दिखलाई तो पूरा गांधी का मामला पढ़ोगे तो बहुत घबरा जाओगे। लेकिन कोई पढ़ ही नहीं रहा है, क्योंकि हम तो सिर्फ नेतागण जो वाह वा ही की बातें करते हैं तो वह सुनते हैं। करांची में कांोंस थी कांग्रेस की, कांग्रेस की बैठक थी। तो गांधी जी तो हमेशा कह ते थे कि मेरा कोई वाद नहीं है। वहां कम्यूनिष्टों ने काले झंडे दिखाए करांची में, अ और गांधीवाद मुर्दाबाद के नारे लगाए। वह मंच पर बैठे थे, उसी वक्त झंडे निकालक र उन्होंने चिल्लाया, ‘गांधीवाद मुर्दावाद ।' उनको एकदम गुस्सा आ गया। उन्होंने मा ईक पर जो शब्द कहे, वह भूल में निकल गए । फिर जिंदगी भर पछताए, शब्द यह निकल गए कहा उन्होंने कि, 'गांधी मर सकता है, गांधीवाद अमर है।' और हमेशा कहते थे कि गांधीवाद है ही नहीं। गांधी मर सकता है गांधीवाद अमर है। यह जल्दी में और गुस्से में निकल गए। मेरा मतलब समझ रहे हैं ना। लेकिन यह ज् यादा अर्थेटिक हैं जो मैं सुबह कह रहा था । यह सब कोन्सैस से आया। यह सब कान्सैस से यह भीतर से आया। यह ऊपर से नहीं आया। हो गई कि हम व्यक्तियों का विश्लेषण ही नहीं ण पूरा का पूरा खयाल में आ सके कि कहां से आ रहा है. मेरी मर्जी लगती नहीं, मेरी मर्जी लगती नहीं । क्यों यह समझना मुश्किल है कि आ म आदमी गोमसेवादी होता है। अगर उसकी बात ना मानूं तो मारने की तबियत हो ती है। अभी मुझे कितनी चिट्टियां पहुंची हैं कि आप फलां बात मत कहिए नहीं तो आपको गोली मार दी जाएगी। अब यह कोई गोमसे नहीं है बेचारों के दिमाग वही है । आया । यह भीतर से आया । लेकिन यह हमारी तो क्या कठिनाई करते कि कुछ खोजें कि वह विश्लेष अभी पटना में मैं शंकराचार्य के खिलाफ बोला बस उसी क्षण एक चिट्ठी पहुंच गई, क अगर आप शंकराचार्य के खिलाफ एक शब्द बोले तो आप पटना से जिंदा नहीं ज सकेंगे। अव गोमसेवादी कौन है ? हम सब गोमसे वादी हैं। अब बाप की अगर बेटा ना माने तो बाप कहता है कि चपत लगाऊंगा ठीक कर दूंगा । वह क्या कह रहा है ? वह गो मसेवादी है। वह यह कह रहा है कि हम बाप हैं हम तुमको मार सकते हैं अगर नह माना तुमने तो लड़का कहता है कि, 'मुझे फलां लड़की से शादी करनी है।' बाप Page 146 of 150. http://www.oshoworld.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज कहता है, 'नहीं करने देंगे, अगर करोगे तो घर से बाहर निकाल देंगे।' वह गोमसे वादी है। गोमसेवादी का मतलब क्या होता है ? गोमसे वादी का मतलब यह होता है कि बुद्ध को विचार को नहीं मानता, मारपीट को मानता है। इसका कोई और मतलब नहीं रखता। हम सब मार-पीट को मानते हैं । और ऊपर से मानते यह हैं कि नहीं मान रहा तो आदमी शसक्त हो जाएगा। फिर मान जाएगा । और जिनको तुम गांधीवादी कहते हो, उसमें से निन्यानवें परसैंट गोमसेवादी हैं । अभी राजकोट में मैंने यह किया कि जहां मेरी मीटिंग रखी वहां हाल कैंसिल करवा दिया। ग्राउंड तो ग्राउंड नहीं देंगे अखबार में खबर नहीं छापेंगे, एडवर्टाइजमेंट नहीं लेंगे कि मैं आया हूं राजकोट में यह भी पता ना चल सके। अब यह सब क्या है यह सब गोमसेवाद है। इसका मतलब यह है कि मैं जो कहना चाहता हूं वह नहीं सुन दिया जाए लोगों को। अगर कोई तरह से मैंने कहना जारी रखा तो आखिरी उपाय यह है कि गर्दन काट दो। फिर यह बोल ही नहीं सकेगा। मगर यह तरकीबें वही हैं। । हाल कैंसिल करवा दो, मीटिंग मत होने दो, अखबार में खबर मत निकलने दो, आप क्या कह रहे हैं, आप यह कह रहे हैं ? कि इस आदमी को बोलने नहीं देंगे। लेकिन अगर यह आदमी बोलता ही चला जाए और आपका कोई उपाय ना चले तो आप इसमें गोली मारो जिससे यह बोल ना सके। मारते किसलिए हैं ? वह इसलिए कि यह आदमी जो कर रहा है वह ना कर सके। मगर यह दलील नहीं है यह कम जोरी रही। गोमसे जो है, एकदम कमजोर आदमी है। और इस तरह के सब लोग कमजोर हैं। मैं गांधी का विरोध करता हूं तो कोई यह नहीं कहता कि, 'गोमसे कोई अच्छा आद मी था। गोमसे, गोमसे तो गलत आदमी ही है, तो कोई फर्क नहीं पड़ता वाचक - (अस्पष्ट ) बहुत से कारण हैं ताकत के कारण बहुत हैं ताकत के । अकेला सत्य ही कारण नह होता। अकेला सत्य ही कारण नहीं होता। हजार कारण होते हैं ताकत के जैसे -. ना ना ना फोर्ट बनाने के तो हजार रास्ते हैं। पहली तो बात यह है कि आम आदमी को सत्य तो समझ में नहीं आता ना, ना, ना मेरी बात सुन लें। आम आदमी को सत्य समझ में नहीं आता, स्व ार्थ समझ में आता है। और स्वार्थ बड़ी ताकत है जैसे- आज मजदूरों को जाकर ए क आदमी समझाए कि तुम इकट्ठे हो जाओ हम फैक्ट्री पर तुम्हारा कब्जा करवा देंगे । तो उस मजदूर को कोई कम्युनिज्म थोड़े ही समझ में आ रहा है । उसको तो कुल इतना समझ में आ रहा है कि यह तो बहुत बढ़िया है, कि अगर फैक्ट्री पर कब्जा हो जाए। उसे कम्युनिज्म से थोड़े ही मतलब है । उसे कोई कम्युनिज्म का सत्य थोड़े ही समझ में आ रहा है । उसे समझ में यह आ रहा है कि ठीक है अच्छा है। तो च लो बहुत रौब दिखा लिया मालिक ने अब अपन भी जरा इस पर कब्जा कर लें। Page 147 of 150 http://www.oshoworld.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज सब इकट्ठे हो गए उसके स्वार्थ इकट्ठे हो गए। मालिक भी कोई फैक्ट्री पर इसलिए क ब्जा नहीं किए हुए कि मजदूरों का भला कर रहा है। उसका अपना स्वार्थ है। अब द ने स्वार्थ हैं एक मालिक का एक मजदरों का जिसमें जो वडा होगा वह जीत जाएगा । यह. . . कोई सवाल नहीं। दो स्वार्थ लड़ेंगे जो ताकतवर होगा वह जीत जाएगा। अगर मालिक की पुलिस अदालत साथ है तो पूना में मालिक जीत जाएगा, कलकत्ते में मालिक हार जाएगा। क्योंकि वह उसका सौदा अलग मजदर के साथ होगी। जो संघर्ष चल रहा है जगत में वह स्वार्थों का संघर्ष है। और सत्य तो सिर्फ उसको दिख ई पड़ सकता है जिसका कोई स्वार्थ ना हो। और इसलिए सत्य बहुत कम लोगों को दिखाई पड़ता है। बहुत कम लोगों को दिखा ई पड़ता है। सत्य की ताकत जो है उसका दूसरा आग्रह है. हां, हां बिलकुल ले गया, बिलकुल ले गया। लेकिन वह इस ढंग से ले गया। कि अब सारा मुल्क स्टैलिन का स्टैलिन को गाली दे रहा है. . . नहीं, नहीं, पहले समझ में आने भी नहीं देता वह वह तो गोली का मामला था ना गोमसेवादी हैं सव। स्टैलिन तो समझ में यह सब, स्टैलिन के जिंदा रहते. . . मैं कल सुना रहा था कि क्रुशचव कह रहा था आपको नहीं कह रहा था। कल मैं कह रहा था कि, 'क्रुशचव एक मीटिंग में बोल रहा था, उनकी जो कम्युनिज्म है सारे बड़े ने ताओं की तीस सदस्यों की, उसमें वह बोल रहा था। और उसने स्टैलिन का उसने ि वरोध किया मर जाने के बाद, स्टैलिन के। तो एक सदस्य ने पीछे से आवाज लगाई कि, 'आप तव कहां थे जब स्टैलिन जिंदा था, तब आपने क्यों नहीं विरोध किया और आप तो जीवन भर से स्टैलिन के साथ थे।' क्रुशचव एक क्षण के लिए रुका और उसने पूछा कि, 'यह किस सज्जन ने आवाज लगाई है कृपया खड़े होकर अपना नाम बता दीजिए।' तो कोई खड़ा नहीं हुआ कोई नाम नहीं आया। क्रूशचव ने कहा कि, 'बस यही कारण मेरे साथ था जो तुम अपन । नाम नहीं बता पा रहे हो। जो मैं तुम्हारे साथ कर सकता हूं वही स्टैलिन मेरे सा थ कर सकता था। तो समझ रहे हैं ना, वह नहीं बता सका आदमी क्योंकि बताना मतलब मरना है। क्रू शचव ने कहा कि, 'यही मामला मेरा था, मैं भी सब सूनता था देखता था, लेकिन बोल नहीं सकता था। लेकिन मूल्क ने बहुत बुरा वदला लिया स्टैलिन के साथ। पहले उसकी कव्र वनाई कैमलीन के पास जहां लेनिन की कब है। फिर कव्र को उखाड़ा, हटाया वहां से। वहां से हटा दी कव्र को, लाश को हटा दिया वहां से वहां नहीं रख ने दिया किसी ने। तो स्टैलिन ने काम बहुत किया, लेकिन काम जिस ढंग से किया कोई अस्सी लाख आदमियों की हत्या की, रूस में। अकेले स्टैलिन की हुकूमत में अस् सी लाख लोग मारे गए। वाचक-उनको बचाया जा सकता था। अस्सी लाख को भी बचाया जा सकता था। इतनी बड़ी संख्या में हिंसा की जरूरत न ही थी। लेकिन हिंसा अगर वचाई जाती तो स्टैलिन को नहीं बचाया जाता। फिर स्टै Page 148 of 150 http://www.oshoworld.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज लन खो जाता। स्टैलिन खो जाता फिर. दसरे लोग ताकत में आ जाते तो जो भी त कित में आ सकता था उसको खत्म कर दिया फौरन. . . वाचकस्टैलिन के मन में, स्टैलिन के मन में असल में क्या था?. . देश का भला थोडी दर तक तो दिखाई पडेगा। लेकिन वहत गहरे में तो खुद का डक्टैनोशिटी राज थी। देखरेख के भले तो हमारे बहुत कुछ जस्टिफिकेशन होते हैं। ज ो हम कर रहे हैं। वह उतने उतने साफ नहीं होते। वाचक-. . . स्टैलिन की कब्र खोद कर फैकी गई। यह क्या राज थी या कोई राजन िित का पाठ था? घृणा और रिवेंज और बदला क्रुशचव का। असल में होता क्या है अंडरडाग जो होते हैं वह पीछे उनको क्रोध तो रहता ही है हमेशा अब ऋशचव को जिंदगी भर जब तक स्टैलिन जिंदा था जी हजूरी करनी पड़ी। जो स्टैलिन कहे वही सत्य था। इसमें कोई ना नूज करने की जरूरत नहीं थी। लेकिन मन में तकलीफ तो होती ही है, अ पमान तो होता ही है इस सबसे।. . . . . . . . . . . एक, और . . . को भारत वारत से कोई डर नहीं होता। उसका कोई मतलब नहीं और यह जो लोकप्रियता होती है, नेहरू जैसी लोकप्रियता यह किसी डिक्टेटर को क भी नहीं मिल सकती। यह मेरी नेचर है। डिक्टेटर को कभी नहीं मिल सकती। वाचक-डिक्टेटर बनने के लिएक्या यही खास चीज है ? । रूस में मामला बहुत अजीव है। रूस में पता ही नहीं चलता कि कल कौन आदमी व न जाएगा क्योंकि थोड़ा सा ग्रुप सव मेनिज कर रहा है। हां, वहुत थोड़ा सा ग्रुप है। मैनेज करता है। कुछ पता नहीं चलता। जनता को कुछ पता नहीं चलता कि वहां है । जनता को कुछ मतलब नहीं है. . . बहुत कारण लेकिन बहुत कारण हैं। बड़ा कारण तो यही था कि चीन जांच परख कर रहा है अपने आस पास कि कौन कितना ताकतवर है। सिर्फ. . . वह जांच परख हमला करने में यही खयाल था कि जांच परख हो जानी चाहिए आ सपास कि दुश्मन कौन ताकतवर है और किससे टक्कर हो सकती है? तो भारत से ही टक्कर ऐशिया में हो सकती थी। और भारत को उसने जान लिया कि कोई खत रा नहीं कि कभी भी टक्कर ली जा सकती है इसलिए वापस लौटा दिया। अब वर्ल्ड फोर्सीज में किससे टक्कर ली जा सकती है। तो दो ही फोर्सीज हैं, अमरीका है या रूस है। अमरीका से टक्कर लेना महंगा पड़ सकता है, रूस से टक्कर लेना सस्ता पड़े चीन के इतिहास वर्ल्ड डोमिनेशंस के हैं। माओग के पास वही दिमाग है जो हिटलर के पास में था, नैपोलियन के पास था, सिकंदर के पास था। वही दिमाग है वह अप नी पूरी कोशिश करेगा। एशिया में सिर्फ एक से डर था सिर्फ भारत । एशिया में किसी और से डर का कोई कारण ही नहीं। एशिया में वाकी पूरा एशिया दो दिन में रौंदा जा सकता है। और Page 149 of 150 http://www.oshoworld.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत की खोज भारत की जांच कर ली कि कितनी ताकत है। भारत को भी रौदा जा सकता है. . नहीं दिक्कत नहीं है भारत के साथ, दिक्कत नहीं है। इसकी जांच हो गई मामला खत्म कर लिया। इसकी जांच कर लेनी जरूरी है दश्मन से लडते हैं ना। दो आदमी कश्ती लडते हैं तो पहले हाथ मिलाते हैं तो जनता सोचती होगी कि हाथ प्रेम से मला रहे हैं। वह सिर्फ एक दूसरे का हाथ दवा कर देखते हैं कि ताकत कितनी है। पहलवान लड़ने जाते हैं ना तो पहले ऐसे हाथ मिलाते हैं तो लोग यह समझते हैं कि सिर्फ सदभाव प्रकट कर रहे हैं। सदभाव नहीं है वह। वह तो हाथ दबा कर देखते हैं कि मामला कितना है। हमें कैसे आदमी से जूझना है? वह सिर्फ हाथ दबाकर देख [भारत का। और समझ में आ गया कि मामला बिलकुल बोगस है भारत के पास। यह कभी भी तोड़ा जा सकता है। इसलिए पीछे लौट आओ। उससे फायदा हुआ / चाइना को कोई नुकसान ही नहीं हो रहा पंद्रह सालों से . . . यह भी समझ लिया, यह भी समझ लिया। हमारी हमारी साईक्लोजी समझना बहुत आसान है दुनिया में, और यही हम नहीं जानते। इसलिए चुपचाप वापस लौट गए क योंकि अगर लड़ाई जारी रखें तो हिंदुस्तान ताकतवर हो सकता है। वापस खींच लिय [ हाथ अपना, वात ही खत्म कर दी। और साल भर वाद आपने अपने सारे अरेंजमें ट तोड़ दिए जो आप तैयारी भी कर रहे थे। अब आप कोई तैयारी नहीं कर रहे। आपकी, आपके दिमाग को समझ लिया गया है कि आप जब लड़ाई होगी तभी तैया री करते हो। आगे पीछे तैयारी नहीं करते। आपका माईंड साफ है बहुत साफ है। यानि हम उन लोगों में से हैं जब मकान में आग लग जाएगी तब कुंआ खोदेंगे। मक नि में आग बुझ गई तो कुंआ खोदना बंद कर दिया। इसलिए वह तो वह तो सिर्फ. वाचक-सारा मुल्क ऐसा है। हमारा माईंड ऐसा है . . . 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