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भारत की खोज
ते हैं कि मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है। मरुस्थल में पानी बिलकुल नहीं है इसक मतलब, इसका मतलब यह नहीं है कि मरुस्थल में कहीं दो चार डिब्बे ना मिल ज एंगे जहां पानी नहीं होगा । '
पांच हजार वर्षों तक भारत ने नए तरह से सोचने की प्रवृत्ति विकसित नहीं की है । इसका मतलब यह हमारी मूल धारा है । कभी इक्का दुक्का कोई आदमी कुछ नया सोचता है लेकिन इससे भारतीय संस्कृति की मूल धारा पता नहीं चलती। मूल धारा हमारी पुराने को पकड़ रखने की, जोर से पकड़ रखने की। कभी कोई एक गांधी कोई नई बात सोचता है। लेकिन गांधी की बात भी बहुत नई नहीं है कि जितना ह म सोचते हैं। सिर्फ नए संदर्भ में प्रयोग है। पर वह भी नया है ।
ऐसे तो गांधी की बात रस्किन, थोरो और टोलस्टाय से ली गई है। भारतीय लोगों को यह दिमाग से खयाल बहुत छोड़ देना चाहिए कि गांधी जी भारतीय संस्कृति के प्रतिनिधि हैं। गांधी के तीनों गुरु अभारतीय हैं । थोरो, रस्किन, टोलस्टाय, इन तीनों आदमियों से गांधी की दृष्टि का जन्म हुआ है। इन तीनों में से कोई भी भारत का नहीं है। नानकोआपरेशन का असहयोग की धारणा थोरो से मिली। लेकिन ऐसे असह योग की धारणा बहुत पुरानी है। घरों में स्त्रियों पतियों से हमेशा असहयोग करती र हीं। असहयोग कमजोर हमेशा प्रयोग करते रहेंगे। स्त्रियां कमजोर हैं इसलिए पुरुषों के खिलाफ असहयोग नानकोरपूरेशन का उनका हजारों साल से प्रयोग करती रहीं हैं । अब स्त्री घर में कुछ नहीं करती तो नानकोरपूरेट करती है। आप कहते हैं सिनेमा चलो वह देर तक साड़ी पहनती रहती है यह नानकोओपरेशन है। कमजोर हमेशा से असहयोग करता रहा है कमजोर और कर क्या सकता है। ज्यादा से ज्यादा यह कर सकता है कि आपको सहयोग ना दे ।
भारत कमजोर था उस कमजोरी में भारत को गांधी की बात समझ में आ गई । अ सहयोग ठीक है, उसका मतलब यह मत समझना कि भारत में असहयोग की दृष्टि को स्वीकार कर लिया। भारत को अपनी कमजोरी को छिपाने का मौका मिल गया । और उस असहयोग के उसने मान लिया और चल पड़ा। कमजोर हमेशा से वही क रते रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि गांधी ने कुछ नया नहीं किया। गां धी बहुत-सी दृष्टियों में नए ढंग से सोचें। वह सोचना गलत हो सकता है।
फर भी नया है नए होने से ही कोई चीज ठीक नहीं हो जाती। यह मत समझ लेना कि मैंने कह दिया कि, 'गांधी ने कुछ नया सोचा तो वह ठीक हो गया। नए होने से कुछ ठीक नहीं हो जाता। लेकिन फिर भी पुराने को पकड़े रहने से नया सोचना बेहतर है।
नया सोचना भी गलत हो सकता है। नए सोचने में भी सैंकड़ों विकल्प हो सकते हैं ठीक और गलत के। यह मैं नहीं कह रहा हूं कि भारत में कभी ऐसे लोग ही पैदा नहीं हुए, बुद्ध ने बहुत कुछ नया सोचा है । चालवाक्य ने बहुत कुछ नया सोचा है । नागार्जुन के पास बहुत कुछ नया है, शंकर के पास भी बहुत कुछ नया है। लेकिन भ ारत का जो आम दिमाग है, भारत का जो ट्रेडिशनल दिमाग है, जो मूल धारा है,
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