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भारत की खोज
और जैसे ही कोई व्यक्ति अपने भीतर स्वयं को देखने जाता है। वैसे ही एक नए व्य क्ति का जन्म शरू हो जाता है। एक नया व्यक्ति पैदा होने लगता है। यह जो नया । यक्ति है शक्तिशाली होगा क्योंकि शक्ति आपस में बटेगी नहीं यह नया व्यक्ति बद्धि मान होगा. चंकि इसने बद्धि का प्रयोग किया है। बद्धि विकसित होगी यह नया व्य क्त प्रतिभाशाली होगा क्योंकि इसने चुनौती को स्वीकार किया है। चुनौती का सामन [ किया है। और चुनौती के ऊपर उठ गया है। प्रतिभा का जन्म एक आत्मज्ञान का परिणाम है। और हम आत्म अज्ञान में जी रहे हैं, यद्यपि हम आत्म ज्ञान की सर्वाधिक वातें करते हैं। लेकिन आत्म ज्ञान से हमने मतलब समझ रखा है उपनिषद पढ़ो, गीता पढ़ो, गीता उपनिषद के वचन कंठस्थ क
ला। और सूबह आंख बंद करके उनको दोहरात रहा। दोहराते रहो कि अहम् ब्रह्म । अस्मि। में ब्रह्म हूँ। में सद सच सदानंद ब्रह्म है। परमात्मा हूँ, प्रभू , शुद्ध, वृद्ध हूँ । यह दोहराते रहो अपने भीतर, इसको रिपीट करते रहो, इसको दोहराते रहो, दो हराते-दोहराते धीरे-धीरे यह विश्वास वैठ जाएगा कि मैं यही हूं लेकिन यह विश्वास धोखा होगा, दोहराकर कोई सत्य को उपलब्ध नहीं हो सकता। नहीं, मैं ब्रहम हूं यह दोहराने से कोई ब्रह्म नहीं हो जाएगा। मैं जो हूं, उसे जानने से , पहचानने से, उसके रूपांतरण से, उसकी बदलाहट से, उसकी क्रांति से व्यक्ति ब्रह्म
के द्वार तक पहुंचता है। मनुष्य परमात्मा हो सकता है, है नहीं। संभावना है उसकी , पुटेन्शेलीटि है, लेकिन है वह पशु। पशुता तथ्य है। परमत्मा होना, वीज के भीतर से वृक्ष के आने की जैसी संभावना है, और अगर कोई बीज अपने को मानकर बैठ जाए कि मैं वृक्ष हूं तो वह बीज कभी वृक्ष नहीं हो सकता। हम अपने को मानकर वैठ गए हैं कि हम परमात्मा हैं। इसलिए हम परमात्मा तक नहीं पहुंच पाते हैं। पशु ही रह जाते हैं। इस पशुता को पहचानना, जानना, खोजना, साधना है तपश्चर्या है, अपनी ही निर्मित, अपनी ही झूठी प्रतिमाओं को तोड़ देना त्याग है, तप है, और इ स तप से जो गुजरता है, वह एक नए व्यक्तित्व को उपलब्ध हो जाता है। जहां प्रा तभा अपनी परे प्रकाश में प्रकट होती है। भारत की प्रतिभा प्रकट हो सकती है, लेकिन आदर्श के पाखंड छोड़ देने होंगे। डायन वी ने कहा है कि, पश्चिम की संस्कृति सैंसेट कल्चर है। एंग्रिक संस्कृति है।' डायन वी को शायद यह भ्रम हो कि पूरब की संस्कृति स्प्रिच्चल है। तो डायनवी को अपना भ्रम ठीक कर लेना चाहिए। पश्चिम की संस्कृति एंग्रिक है यह बात डायनवी की हिं दुस्तान के साधु-संन्यासी लोगों को समझाते हैं कि देखो, पश्चिम के लोग खुद कह र हे हैं कि पश्चिम की संस्कृति एंग्रिक है। हमारी आध्यात्मिक है। मैं आपसे कहना चा हता हूं पश्चिम की संस्कृति संसेट है। और हमारी संस्कृति हिपोक्रेट है। तो उनकी संस् कृति एंग्रिक है और हमारी संस्कृति पाखंडी है। और मैं आपसे कहता हूं कि एंग्रिक संस्कृति कभी ना कभी आध्यात्मिक वन सकती है, क्योंकि एग्रिक एक सत्य है। लेकिन पाखंडी संस्कृति कभी भी आध्यात्मिक नहीं व न सकती। क्योंकि पाखंड एक झूठ है, स्वनिर्मित झूठ है। मनुष्य के तथत्य का स्वीका
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