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भारत की खोज
र नहीं बन सकता है। पति और पत्नी विदा होंगे दहेज घर विदा नहीं होगा। अगर वैज्ञानिक चिंतन होगा तो पति पत्नी भी विदा हो जाएंगे, रह जाएगी एक मित्रता। लेकिन मित्रता वहत घबराने की बात है। क्योंकि मित्रता में इनसिक्योरिटी है असरक्ष [ है। और पति-पत्नियों में हमने विलकुल सुरक्षा का इंतजाम कर लिया है। हमने स ब तर रह के कानन का इंतजाम कर लिया है. पलिस और अदालत विठाल दी है। का नून और समाज की इज्जत और सारी बातें विठाल दी हैं। पति-पत्नी को हमने सारे सामाजिक जकड़ों में बांध दिया है, सुरक्षा है पत्नी को पति रहना पड़ेगा, पति को पति रहना पड़ेगा। यह सुरक्षा के पीछे हमने जीवन का जो भी मूल्यवान है वह सब खो दिया है। लेकिन मेरा मानना है प्रेम ही सच्ची सुरक्षा है, कानन सच्ची सुरक्षा नहीं है। हम सिर्फ का नून से बंधे हैं। और इसलिए जब में कहता हूं कि प्रेम होना चाहिए अगर प्रेम ना हो
तो किसी व्यक्ति को पति और पत्नी होने का हक नहीं है, पाप है। तो मेरे पास अनेक लोग आकर कहते हैं कि आपकी बात से तो सारा समाज विक्षीप्त हो जाएगा।
तो मैं उनको कहता हूं कि जिनको यह डर पैदा होता है कि समाज विक्षीप्त हो जा एगा। वह मेरी बात सिद्ध करते हैं वह यह कहते हैं कि, 'अगर लोगों को मुक्त कर दिया गया कानून से तो पति पत्नी अभी विखर जाएंगे, अभी अलग हो जाएंगे। मत लव कानून से ही जुड़े हैं और कोई जोड़ नहीं है। पुलिस वाला खड़ा हुआ है एक वंदूक लिए हुए इसलिए आप एक दूसरे को प्रेम कर रहे हैं। और अगर मैं कहता हूं इस पुलिस वाले को जाने दो तो आप कहते हैं कि सव गड़बड़ हो जाएगा। लेकिन हमने बड़े सूक्ष्म पुलिस वाले खड़े किए हैं जो दिखाई नहीं पड़ते। और इसलिए हम पहचान भी नहीं पाते। वैज्ञानिक चिंतन तो जीवन के सारे पहलूओं को बदल देगा लेकिन वैज्ञानिक चिंतन तो जीवन के सारे पहलूओं को बदल देगा लेकिन वैज्ञानिक चिंतन पैदा नहीं हो पाता। और नहीं पैदा इसलिए नहीं हो पाता कि हमने उसके मूल जड़ को ही काट डाला है। और हिंदुस्तान में तो यह जड़ इतने लंबे समय से काटी गई है कि हम भूल ही गए हैं कि वह जड़ कभी थी भी। ऐसा आदमी नहीं मिलता जो संदेह करता हो। मेरी बातें सुनकर लोग मेरे पास आते हैं और कहते हैं कि हमें आपकी बातों पर विश्वास आ गया। तब तो बड़े मजे की वात है। मुझसे कहते हैं कि, 'आप हमारे गुरु बन जाइए। हम तो आपकी बात माने गे, हम तो आपके पीछे चलेंगे। हद हो गई, हमारे भीतर से विचार की सारी संभा वना समाप्त हो गई है। जो आदमी हमसे विचार करने को कहे हम कहेंगे कि चलो ठीक है तुम ही ठीक हो हम तुम्हारे प्रति अंधे हुए जाते हैं। हम तुम्हीं को माने लेते
अगर हमें कोई संदेह की बात भी सिखाए तो हम उस पर भी विश्वास कर लेंगे। ऐ सा मालूम होता है कि संदेह की कल्पना ही हमारे चित्त के मानस से कलैक्टिव माइं ड से हमारे सामूहिक चित्त से उसकी जड़ ही उखड़ गई है। उखड़ भी सकती है, अ
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