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भारत की खोज
सूझता। लेकिन हम सीधे और साफ भी नहीं है। हम ना मालूम कितनी कल्पनाओं में हों, ना मालूम कितने आदर्शों में तथ्यों को छिपाएंगे, छिपाएंगे और ऐसा कर देगें। क पहचानना मश्किल हो जाए कि क्या है? पहचानना मश्किल हो जाए कि क्या है?
चक्र के भीतर चक्र और डब्वे के भीतर डब्बों को छिपाते चले जाएंगे और जो छिप एंगे वह वही पशुता है। उस पशता को छिपाकर आदर्शों की खोल में. आदर्शों के वस्त्रों में हम छिपा तो सक ते हैं लेकिन मिटा नहीं सकते। छिपाना मिटाने का उपाय नहीं। वह मौजुद रहेगी नए -नए रूपों में प्रकट होती रहेगी। नई-नई बातों में प्रकट होती रहेगी। अच्छे-अच्छे शन दों में जाहिर होती रहेगी। नए-नए रूप लेगी। हिंसा भीतर है सेक्स भीतर है। ब्रह्मच र्य की आढ़ में उसे छिपाया जा सकता है। लेकिन वह नए रूपों में प्रकट होना शुरू हो जाता है। वह नए सपनों में प्रकट होने लगता है। वह नए मार्गों से प्रकट होने ल गेगा और तब कठिनाई हो जाएगी। ब्रह्मचर्य संभव है लेकिन सेक्स को छिपाकर नहीं,
सेक्स को जानकर, सेक्स को पहचान कर, उसके अतिक्रमण से। अहिंसा संभव है ले किन हिंसा को छिपा कर नहीं, हिंसा को जानकर, हिंसा को पहचानकर। परमात्मा होना संभव है, लेकिन पश को वस्त्रों में ढाक कर नहीं, पशु को पहचान कर, उघाड़ कर, पशु से मुक्त होकर। लेकिन हम उल्टा ही काम कर रहे हैं हम क र रहे हैं छिपाने का काम, और छिपाने को हमने बदलाहट का नाम दिया हुआ है। ि छपाना रूपांतरण नहीं है। और इस छुपाने में जितनी शक्ति लगती है उससे बहुत क म शक्ति में क्रांति हो सकती है। रूपांतरण हो सकता है। जीवन भर छिपाते हैं, छिप ते हैं दवाते हैं, किसको दवाते हैं, किसका छिपाते हैं, अपने को ही। कौन दवाएगा, कौन छिपाएगा हम ही। हम ही अपने को दवाएंगे अपने को छिपाएंगे। यह संभव कैसे
हो पाएगा। किसी ना किसी कोने में हम जानते रहेंगे कि सत्य क्या है ? फिर धीरेधीरे हम उसे भी नहीं जानना चाहेंगे, हम दूसरे को भी धोखा देंगे और अंततः अपने
को भी धोखा देंगे। आदर्शवाद अंतत: मनुष्य को सैल्फडिसेप्शन, आत्मवंचना में ले जाता है। अपने को भ । धोखा देना वह शुरू कर देता है। लेकिन आत्मवंचना के रास्ते इतने सूक्ष्म हैं कि अगर पहचान में ना आए तो जिंदगी अनेक जिंदगीयां भी बीत सकती हैं और वह प हचान में ना आए। मैं एक संन्यासी के पास गया हुआ था। उन्होंने सब छोड़ दिया है। घर द्वार छोड़ दि या है। मकान छोड़ दिया है धन छोड़ दिया है, पत्नी वच्चे छोड़ दिए हैं, वह कहते हैं कि मैंने सब छोड़ दिया है। लेकिन नए रूपों में उन्होंने सब फिर बसा लिया है, ब. डा आश्रम बन गया है और जब भी कोई जाए तो वह दिखाते हैं इस विल्डिंग में ए क लाख रुपया खर्च हुआ है। यह जमीन इतने सौ एकड़ है, इसके दाम इतने हैं। औ र उन्होंने सब छोड़ दिया है यह तो आश्रम की बात कर रहे हैं वह, और यह आश्र म किसका है यह आश्रम मेरा है।
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