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भारत की खोज
समय दूसरा सूत्र, एक सूत्र मैंने कल कहा, एसकेपिजम पलायनवाद । भारत की प्रति भा का आत्मघात सिद्ध हुआ है। दूसरा सूत्र में आज कहना चाहता हूं, परंपरावाद ट्रे डीसनलिजम। उसने भारत की प्रतिभा को विकसित नहीं होने दिया। समस्याएं रोज बदल जाती हैं और समाधान हमारे बदलते ही नहीं। समाधान हमारे सास्वत हैं और समस्याएं क्षण-क्षण में बदल जाती हैं। इससे कोई समस्याओं को नुक सान नहीं होता इससे पकड़े हुए जो समाधान को वैठे हैं वह पराजित हो जाते हैं, हा र जाते हैं और जीवन का मुकाबला नहीं कर पाते। बदली हुई समस्या बदला हुआ समाधान चाहती है। लेकिन परंपरावादी की दृष्टि यह होती है कि जो समाधान परंप रा ने दिया है वही सत्य है। जो पुराने से आया है वही सत्य है, नए की खोज करन [ पाप है। पुराने को मानना पूण्य है और धर्म है। और जो समाज पुराने को मानने को ही धर्म समझ लेता है और नए से भयभीत हो जाता है उस समाज की प्रतिभा का विकास अवरुद्ध हो जाए तो आश्चर्य नहीं है, क्योंकि प्रतिभा विकसित होती है न ए की खोज से, निरंतर नए की खोज से, जितना हम नया खोजते हैं उतना हमारा मस्तिष्क विकसित होता है जितना हम पूराने को पकड़ लेते हैं उतना ही मस्तिष्क के विकास की जरूरत समाप्त हो जाती है। नई समस्या एक मौका बनती है कि हम नई चुनौती स्वीकार करें, नया समाधान खोजें, ताकि हम विकसित हो जाएं। ना स मस्या का उतना मूल्य है, ना समाधान का उतना मूल्य है लेकिन समस्या समाधान को खोजने की चुनौती देती है। अंतिम मूल्य चेतना के विकास का है लेकिन जो लो ग पुराने समाधान से चिपट कर रह जाते हैं उनकी चेतना चुनौती खो देती है और वह विकसित नहीं हो पाते। भारत की प्रतिभा पुराने समाधानों को पकड़ कर ठहर गई है। और इतनी हैरानी मा लूम होती है कि पता नहीं कब ठहर गई है, कितने हजार वर्ष पहले यह भी कहना मुश्किल है। ऐसा ही लगता है कि ज्ञात इतिहास जव से हम जानते हैं इतिहास को तव से भारत ठहरा ही हुआ है। और जितना पुराना समाधान हो हमारे मन में उस का उतना ही आदर है। जितनी पुरानी किताब हो; उतना ही सम्मान है। यह पुराने का आदर यह पूराने का सम्मान नए को कैसे जन्म होने देगा। और जो प्रतिभा नए को जन्म देना बंद कर देती है वह प्रतिभा बहुत पहले मर चुकी है अब उसकी जीवं तता खो गई है अब वह जीवित नहीं है। जीवन की प्रत्येक बात के उत्तर हमने खो ज लिए हैं। पता नहीं कब खोज लिए हैं?
और ऐसा मालूम होता है कि जिन शास्त्रों को पकड़ कर हम बैठे हैं, वह शास्त्र भी यह कहते हैं कि, 'फलां ऋषि से फलां ऋषि ने सुना, फलां ऋषि से फलां ऋषि ने सूना, उनसे हमने सुना। जो हमने सुना है उसी से हम स्मरण करके हम कहते हैं।' हमारे पुराने शास्त्रों का नाम है श्रुति और स्मृति। श्रुति यानि जो सुना है, जाना न हीं। स्मृति जो याद किया गया है, जाना नहीं। हम सदा से सुनते और याद ही करते
रहे हैं। हमेशा पिछले से सुना है और आगे दोहरा दिया है। हजारों वर्ष से हम दोह रा रहे हैं।
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