Book Title: Bharat ki Khoj
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 33
________________ भारत की खोज भी नहीं हुआ। क्योंकि गुलाम स्त्री की गुलामी से पुरुष को सिवाय • नुकसान के कुछ कभी भी प्रेम का संबंध पुरुष से नहीं जोड़ सकती। उसका प्रेम भी गुलामी का हिस्सा है। उसका प्रेम भी उसकी मजबूरी है वह देने में वतंत्र नहीं है उसे देना पड़ता है। उसे देना पड़ेगा। और जब प्रेम देना पड़ता हो, मज बूरी हो तो प्रेम कुम्हला जाता है, सूख जाता है, नकली हो जाता है। प्रेम जब स्वतं सा दिया जाता है जब वह दान होता है तभी जीवंत होता है, असली होता है, खला हुआ होता है, नहीं तो मुरझा जाता है। इसलिए घरों में जिनका पत्नियां बना कर बिठा लिया है उनसे प्रेम की आशा नहीं हो सकती। उनसे खाना बनवाया जा स कता है, घर का काम करवाया जा सकता है, वह घर की नौकरानियां हो सकती हैं । लेकिन प्रेम की साथीन नहीं । हां, कलह की साथीन हो सकती हैं और चौबीस घंटे कलह जारी रहेगी। पति और पत्नी के बीच जितनी कलह है उतनी दुनिया में दो दुश्मनों के बीच भी नहीं होती। लेकिन चूंकि साथ रहना पड़ता है इसलिए कलह भी करनी पड़ती है और दोस्ताना भी बनाना पड़ता है। वह दोस्ताना भी कलह के बाद ही कलह से निपटने के लिए ब नाना पड़ता है। वह सारी अच्छी बातें भी जो बूरी बातें कह दी हैं उनको पौंछने के लिए वह कहनी पड़ती हैं। सारा प्रेम अभिनय और धोखा हो गया । मैंने सुना है एक बहुत बड़े अभिनेता की पत्नी गुजर गई। उसकी लाश जब कब्र में उतारी जा रही थी कि वह छाती पीट-पीटकर रोने लगा उसकी आंख से आसुंओं की धारा बही जा रही थी । उसके एक मित्र ने कहा, 'कि तुम्हें देखकर मुझे ऐसा लगत है कि तुम्हें बहुत तकलीफ हुई । मैं इतना नहीं सोचता था कि तुम अपनी पत्नी क ो इतना प्रेम करते हो। तुम्हारा दुःख तो आश्चर्यजनक है तुम बहुत दुखी हो । कैसे तु म्हें शांति मिलेगी।' उस अभिनेता ने कहा कि, 'छोड़ो भी, यह तो कुछ भी नहीं है जस वक्त मेरे घर से अर्थी उठाई जा रही थी उस वक्त देखते। यह तो कुछ भी नह है जो मैंने किया। जब अर्थी उठ रही थी तब देखते मेरे आंसुओं की धारा और मे री आवाज और छाती का पीटना । यह तो कुछ भी नहीं है। ' लेकिन अभिनेता अभिनय करे यह तो चल सकता है। लेकिन हम सब भी बहुत तरह के अभिनय कर रहे हैं। हमारी जिंदगी का जो सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है प्रेम वह भ अभिनय हो गया है। क्योंकि पहली तो बात यह है कि प्रेम से हम जुड़े नहीं हैं। प्रे म से हमारा संबंध नहीं हुआ । प्रेम को हमने एक व्यवस्था के भीतर जबरदस्ती खींच कर विकसीत करना चाहा है और स्त्री परतंत्र है उसे प्रेम देना पड़ रहा है। इस लि ए कोई स्त्री प्रेम देने में आनंदित नहीं है। मेरे पास सैंकड़ों स्त्रियां आती हैं, और मैं एक स्त्री को ऐसा नहीं पाता हूं जिसने मुझे यह कहा हो कि वह अपने पति को प्रेम देकर आनंदित है। प्रेम देना भी जैसे एक बोझ मालूम होता है। वह भी एक खींचन है । खींचा जा रहा है। देना पड़ रहा है। जब तक स्त्री परिपूर्ण स्वतंत्र नहीं है। जब तक वह मित्र की हैसियत पर खड़ी नहीं होती तब तक कोई पुरुष उससे प्रेम भी नहीं पा सकता । और तब तक परिवार सुंद Page 33 of 150 http://www.oshoworld.com

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