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तपस्वी
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अनेकान्त/१७ उपेक्षा भी कर दी जाए, तो भी क्रम परिवर्तन का सैद्धांतिक आधार विचारणीय है। 2. दश वैयावृत्यों का क्रम परिवर्तन
भौतिक और आध्यात्मिक विकास में तप का महत्वपूर्ण स्थान हैं बाह्य तपों की तुलना में अंतरंग तप अधिक निर्जराकर होते हैं। छह अंतरंग तपों में वैयावृत्य तीसरा तप है। स्थानांग 10.17 एवं 5.44-45 में तथा तत्वार्थसूत्र 9-21.24 में वैयावृत्य के दस प्रकार बतलाये गये हैं जैसाकि नीचे की सारणी से स्पष्ट है : स्थानांग 10.17
तत्वार्थ सूत्र 9.24 आचार्य
आचार्य उपाध्याय
उपाध्याय स्थविर तपस्वी ग्लान शैक्ष
6. शैक्ष कुल
7. ग्लान 8. गण
8. गण संघ
9. संघ 10. साधर्मिक
10. साधु 11. -
11. मनोज्ञ ___ इससे पता चलता है कि जहां तत्वार्थ सूत्र में 'स्थविर' और 'साधर्मिक' का नाम सही है, वहीं स्थानांग में मनोज्ञ और साधु की वैयावृत्य का नाम नहीं है। यदि साधर्मिक को साधु माना जाय, तो भी 'मनोज्ञ' का अभाव तो है ही। यही नहीं, यहां भी क्रम परिवर्तन दृष्टव्य है। संभवतः 'गण' और 'कुल' का विपर्यय तो परिभाषा की भिन्नता के कारण हो सकता है। ग्लान का क्रम भी स्थानांग में उचित लगता है। इन वैयावृत्यों के क्रम को ऐतिहासिक विकास क्रम को ऐतिहासिक विकास क्रम में भी देखा जा सकता है। फलतः वैयावृत्य के नाम और क्रम भी तर्क-संगति चाहते हैं। 3. स्वाध्याय के भेद
जैन आध्यात्मिक शास्त्र में अंतरंग तप के रूप में स्वाध्याय का अत्यंत