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१२ अमर-भारती को मृदु हिलोरें उठने दो । मेरे मन ! तुम सावन बनकर बरस पड़ो। मेरे जीवन के अण अणु में, कण-कण में बरसो । और कहां बरसोगे तुम ! बरसो, खूब बरसो-परिवार में, समाज में और राष्ट्र में । आज के जन-जन के जीवन में, संघर्ष, विग्रह और कलह की जो सर्वग्रासी भयंकर आग जल रही है, उसे शान्त करने के लिए मेरे मन ! तुम सावन के सुहावने, कारे-कजरारे मेघ बन कर घुमड़-घुमड़ कर बरस पड़ो। इतना बरसो, कि तुम्हारे वेगवान् नीर के प्रवाह में व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की अशान्ति, अविश्वास और असहयोग की कलुषित भावनाएं बह-बहकर सुदूर विस्मृति महासागर में लीन हो जाएं, जिससे व्यक्ति, समाज और राष्ट्र सुखद जीवन व्यतीत कर सकें । मानव का अशान्त और भ्रान्त मन जब सरस, सुहावना सावन बनकर बरसना सीख लेगा, तब वह अपने मनोगत जात-पात के टंटों को, ऊँच-नीच के रगड़ों को और मान-महत्ता के झगड़ों को भूल कर एकता, संघटन और समभाव के सुन्दर वातावरण में पनप सकेगा, ऊँचा उठ सकेगा, अपना उत्थान और कल्याण कर सकेगा।
सोजत सन्त-सम्मेलन के कार्यक्रम में, मैं जब व्यस्त था। एक सज्जन आकर बोला-"महाराज, आप अपनी समस्याओं के सुलझाने में ही मस्त रहोगे या कुछ हम लोगों की भी उलझी उलझनों को भी सुलझाने का समय दे सकोगे ? सज्जन का स्वर करुणा पूर्ण था । मैंने उसकी बात में दिलचस्पी लेते हुए कहा-“कहो तुम्हारी क्या समस्याएँ हैं ?" उसने कहा - वैसे तो समस्या कुछ भी नहीं, और हैं, तो बहुत बड़ी भी ? सुनेंगे, तो आपको ताज्जुब भी होगा और हँसी भी आएगी कि क्या ये भी अपने को भगवान् महावीर का भक्त कहते हैं ? श्रावक कहलाते हैं ?" बात उसने यो प्रारम्भ की-"हमारे यहाँ 'दो जी' का झगड़ा खड़ा हो गया है। बरसों हो गए हैं, अभी तक निवटने में नहीं आया ।" मैं नहीं समझ पाया, उसकी संकेतमयी भाषा से कि यह 'दो जी' क्या बला है ? कम से कम मेरे जीवन में तो यह एक नयी समस्या ही थी। उस सज्जन ने अपनी बात को स्पष्ट करते हुए कहा-"हमारे यहाँ के ओसवाल दो थोकों में बंटे हैं-एक व्यापारी और दूसरे राज-कर्मचारी । राज-कर्मचारी सत्ता प्राप्त होने से अपने नाम में दो जी' का प्रयोग करते थे-"जैसे भंडारी जी, सोहनलाल जी।" एक 'जी' गोत्र के आगे और दूसरो नाम के आगे । परन्तु, व्यापारी लोग एक ही 'जी' लगा सकते थे। यह उन्हें शल्य की तरह चुभता था। कालान्तर में राजा साहब से पट्टा लेकर व्यापारी भी 'दो जी' लगाने लगे । बस, रगड़े-झगड़े का
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