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सच्चा साधक : सम्यग्दृष्टि ६५ मिथ्या दृष्टि आत्मा इस संसार को सत्य और यहाँ के पदार्थों को सत्य और शाश्वत समझ कर दिन-रात उनकी प्राप्ति में लगा रहता है। धन और जन के संयोग से वह हर्षित हो उठता है और वियोग से विचलित। धन और जन के नाश को वह अपना विनाश समझ लेता है, देह की दीवार को भेद कर वह देही के तेज को पहचान नहीं पाता। वह शुभ को देखकर प्रसन्न होता है और अशुभ को देखकर खिन्न । पुण्य और पाप की भावनाओं के घेरे से वह निकल नहीं सकता । जीवन के चलचित्र में सुन्दर दृश्य आया, तो वह नाचने लगता है और बुरा दृश्य आया, तो रोने-चिल्लाने लगता है। उसके जीवन में सुख, सन्तोष और शान्ति नहीं । सदा बेकरार, बेचैन बना रहता है।
इसके विपरीत सम्यग्दृष्टि आत्मा इस विराट-विश्व को अपना शाश्वत निवास स्थान कभी नहीं मानता, यहाँ के पौद्गलिक पदार्थों को क्षण-नाशी समझता है । धन और जन के संयोग से हर्षित नहीं होता और वियोग से विचलित नहीं होता । धन और जन के नाश को वह अपना नाश कभी नहीं मानता । उसका वीतराग वाणी में अटल व अडिग विश्वास होता है"नत्थि जीवस्स नासोत्ति ।" देह के भीतर स्थित देही को वह पहचानता है। "मैं देह नहीं हूँ, देही हूँ" इस प्रकार उसे दृढ़ निष्ठा होती है । पाप
और पुण्य की भावनाओं के घेरे से ऊपर उठकर वह धर्म की भावना में स्थित रहता है। शुभ और अशुभ भावों को छोड़कर वह शुद्ध भाव की उपासना करता है । शुद्ध योग की साधना करता है। हर्ष में हषित नहीं, विषाद में विषण्ण नहीं । वह अपने अध्यात्म मार्ग पर मस्त होकर चलता रहता है । अतएव उसके जीवन में सुख, सन्तोष और शान्ति रहती है।।
मानव जीवन के दो पक्ष होते हैं-कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष । पहला अन्धकार का, दूसरा प्रकाश का । जीवन की यात्रा में बहिमुखी होकर चलना, कृष्ण पक्ष । विभाव दशा में रखड़ना कृष्ण पक्ष और स्वभाव दशा में रमण करना शुक्ल पक्ष । कृष्ण-पक्ष वाला विवेक हीन होता है, और शुक्ल पक्ष वाला विवेकशील होता है। विवेक धर्म है और अविवेक अधर्म है।
मैं आप से कह रहा था कि सुख और दुःख जीवन में धूप-छाया की तरह आते हैं । मिथ्या दृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों का जीवन सुख-दुःख की राह में से गुजरता है। पहला व्याकुल हो जाता है और दूसरा निराकुल
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