Book Title: Amarbharti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 184
________________ कर्तव्य-बोध १७५ चला है, पहले उसे अपना भी अवलोकन कर लेना चाहिए कि कहीं उसी के हृदय-सदन में तो अन्धेरा नहीं है । जो दूसरों का पथ-प्रदर्शक बनकर निकला है, कहीं वही तो उन्मार्ग पर नहीं चल पड़ा है ? साधक को इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए, कि जो विकार उसे बाहर दीख रहा है, उसका मूल कहीं उसी के भीतर तो नहीं है न ? साधक यदि अपने आप में सावधान होकर चलता है, जागरूक होकर अपने पथ पर बढ़ रहा है, तो फिर संसार कुछ भी क्यों न कहे ? उसे भय क्या हो ? यदि अभिभावक, माता-पिता और गुरुजन यह कहते हैं कि आजकल के शिष्य, आज-काल के पुत्र पूर्व काल के शिष्य और पुत्रों की भांति गुरुभक्त नहीं हैं, माता-पिता के अनुशासन को नहीं स्वीकार करते, तो उन्हें यह भी देखना चाहिए कि कहीं उनमें स्वयं गुरुत्व का अभाव तो नहीं है ? यदि किसी अभिभावक में अभिभावकत्व नहीं है, तो फिर उसका सत्कार, सम्मान और पूजा का स्वप्न देखना भी व्यर्थ है। भूख लगने से ही किसी को भोजन नहीं मिलता । प्रत्येक अभिलाषा की पूर्ति त्याग और श्रम साध्य होती है। किसी भूले राही को उसके पर का बोध कराना एक बात है और उसे अपने पुराने वैर का शिकार बनाना बिल्कुल अलग है। चीन देश के प्राचीन दार्शनिक कनफ्यूशन ने कहा है-"वही श्रेष्ठ राष्ट्र है - जिसमें राजा अपना, प्रजा अपना, पिता और पुत्र अपना, माता और पुत्री अपना तथा गुरु और शिष्य अपना कर्तव्य निष्ठा के साथ पूरा करते हैं।" वस्तुतः बात बहुत ही ऊँची कही गई है । सब अपने कर्तव्य को समझकर उसके अनुसार आचरण करें। मर्यादा का अतिक्रमण अपने लिए ही अकल्याणकर होता है । जो स्वयं अपने आचरण को मर्यादित नहीं कर सकता, वह दूसरों को अनुशासन में कैसे रख सकेगा? अतः आत्म-शासन सहज नहीं है, अपने पर अधिकार दुष्कर है । थोड़ा-सा अधिकार पाते ही मनुष्य आपे से बाहर हो जाता है । शक्ति के उन्माद में अपना कर्तव्य भूल जाता है। नीति-शास्त्र के धुरन्धर विद्वान आचार्य शुक्र के शब्दों में"अधिकार मद को चिरकाल तक पीकर कौन नहीं मोहित होता ?" अधिकार-मदं पीत्वा को न मुह्यात् पुनश्चिरम् ? भगवान महावीर ने साधकों को शिक्षा देते हुए कहा-"प्रत्येक साधक को प्रतिदिन अपने आप से ये तीन प्रश्न करने चाहिए और अपनी अन्तरात्मा से उत्तर लेना चाहिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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