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“भिक्षा कानून और साधु-समाज "
जैन धर्म नम्रता सिखाता है, दीनता नहीं । वह एक बहुत बड़ा त्याग का आदर्श स्थापित करता है। त्याग जैन धर्म का मूलभूत सिद्धान्त है । लोक में एक कहावत है
"अनमिली के त्यागी, स्त्री मरी भयं वैरागी ।"
जैन धर्म इस बात को स्वीकार नहीं करता । वह तो त्याग की अन्तरंग से प्रेरणा देता है । वह मानव को जीवन जीना सिखाता है, भिखमंगापन नहीं । मन में त्याग की भावना न हो और ऊपर से त्यागी बना रहना इस बात को जैन धर्म कदापि बर्दास्त नहीं कर सकता । वह जीवन को तेजस्वी बनाता है, निस्तेज और प्राणहीन नहीं ।
हजारों वर्ष की दासता के बाद आज भारत स्वतन्त्र हो चुका है । भारत की धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थिति तेजी से बदल रही है । फलतः स्वतन्त्र भारत में भिक्षावृत्ति को मिटाने के लिए बड़ी दौड़-धूप चल रही है । बम्बई में, यह कानून लागू भी हो चुका है ।
इसके विरोध में साधु समाज में बड़ी हलचल मची हुई है । भविष्य में हमारा क्या होगा ? जीवन की इस भावी चिन्ता में साधु समाज आकुलव्याकुल- सा हो रहा है । समाज इस चिन्ता को दूर करने के लिए धन एक
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