Book Title: Amarbharti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 198
________________ नगर-नगर में गूंजे नाद, सादड़ी सम्मेलन जिन्दाबाद १८६ सादड़ी के सन्त-तीर्थ में पहुँचकर हमें सबसे पहले लोह आवरण का, इसी विस-वृष का और इसी काले चश्मे का क्षय करना है, अन्त करना है, विनाश करना है। आज के इस प्रगतिशील युग में भी यदि कदाचित् हम इस गले-सड़े सम्प्रदायवाद को छोड़ न सके और उसे बानरी की भांति अपनी छाती से चिपकाये फिरते रहे, तो याद रखिए हमसे बढ़कर नादान दुनिया में ढूंढ़ने से भी न मिलेगा। हम सबको मिलकर एक स्वर से, एक आवाज से और अन्योन्य सहयोग से सम्प्रदायवाद के भीषण पिशाच से लोहा लेना है। विचार कीजिए आप धन-वैभव का परित्याग करके सन्त बने हैं। अपने पुराने कुल और वंश की जीर्ण-शीर्ण शृंखला को तोड़कर विश्व हितकर साधु बने हैं । अपनी जाति और बिरादरी के घरौंदे को छोड़कर गगन बिहारी विहंगम बने हैं। यश, प्रतिष्ठा, पूजा और मान-सम्मान को त्याग कर भ्रमणशील भिक्षु बने हैं। इतना महान् त्याग करके भी आप इन पदवी, पद और टाइटिलों से क्यों चिपक गए हो ? इनसे क्यों निगहित होते जा रहे हो ? युग आ गया है कि आप सब इनको उतार फेंको। यह पूज्य है, यह प्रर्वतक है, यह गणावच्छेदक हैं। इन पदों का आज के जीवन में जरा भी मूल्य नहीं रहा है, यदि हम किसी पद के उत्तरदायित्व को निभा सकें, तो हमारे लिए साधुत्व का पद ही पर्याप्त है। सन्त-सेना के सेनानो को हम आचार्य कहें, यह बात शास्त्र संगत भी है और व्यवहार सिद्ध भी । आज के युग में तो साधु और आचार्य ये दो पद ही हमें पर्याप्त हैं, यदि इनके भार को भलीभांति सहन कर सकें तो। ___याद रखिए, यह भिन्न-भिन्न शिष्य परम्परा भी विष की गाँठ है। इसका मूलोच्छेद जब तक न होगा, तब तक हमारा संघटन क्षणिक ही रहेगा, वह चिरस्थायी न हो सकेगा। शिष्य-लिप्सा के कारण गुरु-शिष्य में, गुरु भ्राताओं में कलह होता है, झगड़े होते हैं । शिष्य-मोह में कभी-कभी हम अपना गुरुत्व भाव, साधुत्व भाव भी भूला बैठते हैं। हमारे पतन का, हमारे विघटन का और हमारे पारस्परिक मनो-मालिन्य का मुख्य कारण शिष्य-लिप्सा ही है। इसका परित्याग करके ही हम सम्मेलन को सफल बना सकते हैं। आप हमें अन्ध परम्परा, गलत विश्वास और भ्रांत धारणाएँ छोड़नी ही होगी । भिन्न-भिन्न विश्वासों का, धारणाओं का, परम्पराओं का और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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