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सत्पुरुष स्वयं ही अपना परिचय १६३ पैर बढ़ते ही रहें।
मैं अपने आज के श्रमण-श्रमणी वर्ग से कहेंगा, कि उन के जीवन से त्याग और वैराग्य की शिक्षा ग्रहण करें। जो साधना के मार्ग पर चल पड़े हैं, जिन्होंने संयम के पथ पर कदम बढ़ा दिया है, उन्हें सोचना चाहिए कि उनके अन्तर्जीवन में त्याग-वैराग्य की ज्योति कितनी चमकी है ? साधना के धर्म को कितना समझ रहे हैं ? अध्यात्मवादी कवि तथा सन्त आनन्दघन जी के शब्दों में कहना होगा
"धार तलवारनी सोहली, दोहली चोदवां जिन तणि शरण सेवा । धार पर नाचता देख बाजीगरी,
सेवना धार पर रहे न देवा ॥ तलवार की धारा पर चलना सहज है, सुगम है। दो-दो पैसे की भीख मांगने वाले बाजीगर भो खेल दिखलाते समय तलवार की तीक्ष्ण धारा पर चल पड़ते हैं, नाच सकते हैं। परन्तु साधना की धार पर बड़ेमहारथियों के तैर भी धूजने लगते हैं, लड़खड़ाने लगते हैं। अतः संयमसाधना के पथ पर चलना कोई सहज काम नहीं है, बड़ा ही दुष्कर है।
संयम-साधना के महामार्ग पर चलने वाले साधक अनेक प्रकार के होते हैं। कुछ ऐसे हैं, जो इस पथ पर रोते-रोते कदम धरते हैं और रोतेरोते ही गीदड़ों की भांति चलते हैं । दूसरे कुछ ऐसे होते हैं, जो गीदड़ों की तरह कांपते-कांपते मार्ग पर चढ़ते हैं, परन्तु बाद में शेर की तरह दहाड़ते हुए चलते हैं। कुछ ऐसे हैं, जो पहले भावनाओं में बहकर शेर की तरह दहाड़ते हुए निकलते हैं, पर बाद में गीदड़ की तरह कायरतापूर्ण जीवन व्यतीत करते हैं । कुछ ऐसे भी साधक होते हैं, जो सिंह की भांति गर्जना करते हुए ही मार्ग पर आते हैं, वीरता-पूर्ण ही जीवन व्यतीत करते हैं।
पूज्यवर श्री रघुनाथजी महाराज सिंह की भाँति ही संयम के मार्ग पर चढ़े और सिंहवृत्ति से ही उसका पालन करते रहे, अपने ध्येय की ओर बढ़ते रहे । उनके ज्ञान और चरित्र का प्रकाश हमारे अन्तर मानसों को आलोकित करता रहे, यही हम सब को भावना रहनी चाहिए।
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