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शक्ति का अजस्त्र - स्त्रोत : संघटन
आज प्रवचन तो मुख्य रूप से परम श्रद्धेय उपाचार्ष श्री जी का होगा । परन्तु उनका आदेश है कि पहले मैं भी थोड़ा-सा बोल दूं । फिर आप और हम श्रद्धेय श्री के सुधा मधुर प्रवचन का अमृत पान करेंगे ।
लोग पूछा करते हैं कि क्या जैन धर्म सम्प्रदायवाद में विश्वास करता है । इस सम्बन्ध में मेरा यह विश्वास रहा है कि जैन धर्म मूल में असम्प्रदायवादी रहा है । मुझे कहना होगा कि वह सम्प्रदायवाद के विरोध में खड़ा है । उसका प्राचीन इतिहास इस बात का प्रबल प्रमाण है, कि उस में सम्प्रदायवाद, पन्थशाही और फिरकापरस्ती को जरा भी जगह नहीं है । भगवान महावीर से पूर्व और उनके बाद कालान्तर में भी लम्बे अर्से तक जैन धर्म की धारा अखण्ड रूप में प्रवाहित रही है । जैन धर्म का मूल मंत्र परमेष्ठी इस तथ्य का प्रत्यक्ष साक्षी है, कि जैन धर्म मूल में एक था । परन्तु आगे चलकर मनुष्यों में ज्यों-ज्यों विचार भेद होता गया, त्यों-त्यों सिद्धांत भेद और मनोभेद भी होता गया । यदि भेद की सीमा, विचार तथा सिद्धांत की रेखा का उल्लंघन करके मानस तक न पहुँची होती, तो पन्थों का जन्म ही न हो पाता । मनोभेद से ही सम्प्रदाय और पन्थों का जन्म होता है, आविर्भाव होता है ।
आदिम युग में हम एक थे, मध्य युग में अनेक हुए और वर्तमान
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