Book Title: Amarbharti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 207
________________ १६८ अमर भारती हमारा मध्य युगीन इतिहास बार-बार एक हो कहानी सुनाता है. कि - "हमारा जब-जब बिगाड़ हुआ है, तब-तब घर से हो हुआ है । गुरु और शिष्यों के लम्बे संघर्षों के अध्याय के अध्याय इस इतिहास में नत्थी हैं । शिष्य ने देखा कि गुरु की अपेक्षा मेरी पूजा-प्रतिष्ठा बहुत कम है, तो आवश्यक न होने पर भी उसने विचार भेदों के नाम पर मनोभेदों की गहरी परिखा खोद डाली। गुरु को छोड़ा, गुरु परम्परा को छोड़ा, गुरुपरिवार को छोड़ा और अपने मन मिले दो-चार साथिवों को लेकर अलग पन्थ खड़ा कर लिया । तब अपने पन्थ और सम्प्रदाय को परिपुष्ट और स्थिर करने के लिए गुरुपक्ष की निन्दा की जाने लगी और स्वपक्ष की प्रशंसा | गुरु के विचार पुराने हैं । मैं नये विचार लेकर आया हूँ | मेरी श्रद्धा विशुद्ध है । मेरा आचार शास्त्र संमत है । इस प्रकार के स्नार्थ पूर्ण नारे लगाए जाने लगे । एक अखण्ड जैन धर्म इसी तरह टुकड़ों में बँटता रहा । विभक्त होना, इतना बुरा और मँहगा न पड़ता यदि उन में परस्पर सहयोग और सद्भाव बना रहता । वृक्ष की शाखा प्रशाखा, डाली और टहनी कितनी भी क्यों न हों ? परन्तु यदि इन सब का मूल एक है, तो भूमि का जल और सूर्य का आतप उसका पोषण हो करते हैं । यदि उस वृक्ष की जड़ में जहरीले कीड़े लग जायें, तो वृक्ष कभी भी हरा-भरा नहीं रह सकता । जैन धर्म के मूल में भी जब से स्वार्थ का, अहंकार का और विद्वेष का कीड़ा लगा, तब से वह निरन्तर ही सूखने लगा । यही कारण है कि हमारा मध्य युगोन इतिहास धूमिल और अटपटा बन कर खड़ा रह गया । उसमें से प्राणतत्व निकल गया, गति और विकास निकल गया, वह जड़ हो गया । हिन्दुस्तान की आजादी के बाद भारत के लोह पुरुष सरदार पटेल ने एक बार अपने भाषण में कहा था-' - "हिन्दुस्तान को बाहर के दुश्मनों से खतरा नहीं, उसे खतरा है, अन्दर के दुश्मनों से । हिन्दुस्तान का जब कभी अहित होगा, हिन्दुस्तान के लोगों के हाथों से ही होगा ।" लंका का सर्वनाश लंका के नागरिक विभीषण के कारण ही हुआ था । जैन धर्म के टुकड़े भी उसके अपने अनुयायियों ने ही किए हैं। " इस घर को आग लग गई, घर के चिराग से ।" हमारा घर भी अपने चिराग से ही जला है । श्रमण संघ का निर्माण हो चुका । जन्म हो चुका है। अब आवश्यकता है, उसके लालन-पालन और अभिवर्धन की। जितनी तीव्रता से इसके प्रति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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