Book Title: Amarbharti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

View full book text
Previous | Next

Page 185
________________ १७६ अमर भारती "किं मे कडं, किंच मे किच्च सेसं, कि सक्कणिज्जं न समायरामि ॥" मैंने अपने कर्तव्य-कर्मों में से क्या-क्या कर लिया है ? अब, क्या करना शेष रह गया है ? और वह कौन-सा कर्तव्य है ? जो मेरी शक्ति की परिधि में होकर भी अभी तक मेरे से बन नहीं सका है ? पयुषण-पर्व के इन महत्ब-पूर्ण तथा सौभाग्य-भरित दिवसों में श्रमण और श्रमणी तथा श्रावक और श्राविका अपनी आत्मा के चिरपोषित विकारों को चुनकर बाहर निकाल सके और अपने कर्तव्य-कर्मों में स्थिर होकर निष्ठापूर्वक अपना-अपना भाग अदा कर सकें, तो अवश्य ही वे अपनी सुप्त आत्मा को जागृत करने के प्रयत्न में सफल होंगे। दूसरों के दोष न देख कर, यदि हम अपने ही दोष देखना सीख लें, तो आज तक का हमारा दूषण ही भूषण बन सकता है । जीवन की गति और यति में समन्वय सध सकता है। मानपाड़ा स्थानक, १०-८-५० आगरा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210