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१७४ अमर भारती परमोच्च रहस्य है।" जिस ढंग से व्यवसायी अपनी रोकड़ मिलाता है, उसी ढंग से ही साधक को भी अपने जीवन का हिसाब-किताब साफ रखना है। एक पैसे की भूल से भी रोकड़ गड़बड़ा जाती है, उसी प्रकार एक भी त्रुटि से भले ही नगण्य भी क्यों न हो-साधक का धवल-जीवन धूमिल एवं मलिन बन जाता है।
संस्कृत भाषा में एक शब्द है-"दोषज्ञ ।" सामान्यतः इसका अर्थ होता है दोषों को जानने वाला । विशेषतः इसका अर्थ होता है-"पंडित ।" एक आचार्य ने कहा है-"मनुष्येण दोषज्ञेन भवितव्यम् ।" मनुष्य को दोषदर्शी होना चाहिए । दोष देखना. पण्डित का लक्षण है । जो भूल देख सकता है, भूल पकड़ सकता है, वही सच्चा पण्डित है ।
__ पर, प्रश्न उपस्थित होता है कि दोष किसके देखें ? अपने या पराये ? पराये दोष देखते-देखते ही अनन्त-काल हो गया, परन्तु आत्मा का क्या सधा उससे ? अतः फलित हुआ कि अपने दोषों को देखो, उन्हें उसी क्रूरता से पकड़ो, जितनी क्रूरता से दूसरों के दोषों को पकड़ते हो। जिसने अपने को पकड़ा, अपनी चोरी पकड़ी, वही सच्चा पण्डित है, वही सच्चा साहकार है।
अपने स्वभाव, अपने विचार और अपने व्यवहार की परीक्षा करने से मनुष्य को अपनी बहुत-सी कमजोरियों का पता चल जाता है। दूसरों को दूषण देने की अपेक्षा अपने को ही परखना सीखना चाहिए, यही जीवन की यथार्थ कला है । भगवान् महावीर ने अपने साधकों को सावधान करते हुए कहा
"जाए सद्धाए निक्खंता तामेव अनुपालिया।" साधको ! जिस श्रद्धा से, जिस विश्वास से और जिस मजबूती से तुमने साधना के महामार्ग पर अपना पहला कदम रखा है, उसी श्रद्धा से, उसी विश्वास से और उसो मजबूती से जीवन की सन्ध्या तक निरन्तर चलते रहो । अपनी गति को यति देना, तो दुर्बलता नहीं है, परन्तु पथ से स्खलित हो जाना, विचलित हो जाना, अवश्य तुम्हारे लिए कलंक है, दूषण है, दोष है । और दोषमय जीवन साधक के लिए विष है, मृत्यु है । उसका जीवन तो दोष विवजित होना चाहिए ।
___ संसार को दोष देने के पूर्व साधक पहले अपनी ओर देखले कि कहीं दोष का बीज स्वयं उसी में तो नहीं है ? जो साधक संसार को प्रकाश देने
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