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भारत का राष्ट्रवाद १६१ राष्ट्र रूप में बन गए । समाज अपना अभ्युदय राष्ट्र के अभ्युदय में देखनेसोचने लगा। समाज का कल्याण, राष्ट्र के कल्याण के पीछे बंध गया।
___ अब विचारीय प्रश्न यह है कि यह राष्ट्र-वेदना हमारी अपनी है अथवा कहीं बाहर से हमारे अन्दर आ घुसी है ? यदि आप भारतवर्ष के इतिहास की कड़ियों को छूते रहे हैं, तो आपको मालूम होगा कि भारत के पुरातन मनीषियों ने हजारों-लाखों वर्षों से राष्ट्र के सम्बन्ध में चिन्तनमनन किया है। उनका राष्ट्र-प्रेम, राष्ट्र-भक्ति बहुत ही उच्च कोटि की थी। उन्होंने मानव-समाज को एक दिव्य सन्देश दिया था
"संगच्छध्वम्, संवदध्वम्" मनुष्यों, साथ चलो, साथ बोलो! जीवन का आनन्द अकेले रूप में प्राप्त नहीं हो सकता।
मानव तो क्या, भारत का तो ईश्वर भी अकेला नहीं रहा ? इस सम्बन्ध में, उपनिषदों में एक बड़ी सुन्दर भावना आई है
"एकोऽहं बहु स्याम्" जब मैं एक से अनेक होता हूँ।
भारत के एक महान दार्शनिक ने कहा है --"स एकाकी न रमते"उसका मन अकेले में नहीं लग रहा था। तो भारत का ईश्वर भी एक नहीं रह सकता, फिर वहाँ का निवासी मानव अकेला कैसे रह सकता है। इस एकाकीपन को मिटाने के निमित्त ही तो परिवार, समाज तथा राष्ट्र की रचना हुई है । भारत के धर्म तथा दर्शन तो प्राचीन काल से ही मनुष्य को एकत्व की भावना से उठाकर उसको विराट रूप का दर्शन कराते रहे हैं । अभिप्राय यह है कि भारत की पुरातन परम्परा क्षुद्र पिण्ड की बात नहीं करती, वह तो विराट रूप की ओर ले जाती है। एकत्व में अनेकत्व की साधना करती है । हजारों दवाईयों को कूट कर जब एक गोली बना ली गई, तब उसको अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का रूप मिला या नहीं?
यहाँ हम हिन्दू और मुसलमान के रूप में रहते हैं । हिन्दुओं में भी जैन, बौद्ध, वैष्णव तथा सिक्ख अनेक भेद-प्रभेद हैं। मुसलमान भी सिया और सुन्नी के रूप में बँटा हुआ है । फिर राष्ट्रीयता का अधिवास किस में
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