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भारत का राष्ट्रवाद
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मिलती रहे और जिनके पास रोटी नहीं है, उनका प्रबन्ध करना होगा । एक तरफ रंगीन महल है, दूसरी तरफ टूटी-फूटी झोंपड़ी । दोनों का सामं जस्य होना चाहिए । या तो झोंपड़ियों को महल बनाना होगा या फिर महलों को झोंपड़ियों के रूप में आना पड़ेगा । तभी विषमता दूर होगी ।
भारत के विचारकों से जब कभी इस सम्बन्ध में विचार चर्चा होती है, तो मालूम होता है, कि उनके पास कोई मौलिक समाधान नहीं है ? इधर का उधर करने से क्या होना-जाना है ? इस बारे में मुझे अन्धों की एक बड़ी सुन्दर कल्पना याद आ रही है -
किसी सज्जन ने दस अन्धों को भोजन कराने की व्यवस्था की । थाली में भोजन लाया गया । एक अन्धे के सम्मुख थाली रखी और कहा - क्यों सूरदास जी, भोजन आ गया है न ? उसने इधर-उधर टटोल कर कहा - हाँ, आ गया है । यही थाली फिर दशों के पास फिर गई । और अन्त में यह थाली जहाँ की तहाँ पहुँच गई । घर मालिक ने कहा कि अब आप भोजन कीजिये। हाथ चला तो थाली गायब ? अन्धे एक दूसरे पर अविश्वास करने लगे । यहाँ तक कि जब उन लोगों में परस्पर मुक्केबाजी होने लगी, तो घर के मालिक ने कहा - "तुम सब के सब नालायक हो । मेरे घर से निकलो ।" सब के सब हाथ मलते लौटे ।
अन्धों की थाली के हेर-फेर की तरह समाज तथा राष्ट्र की आर्थिक समस्या हल होने वाली नहीं है ? व्यापारी की थाली मजदूर के आगे, मजदूर की किसान के आगे और फिर किसान की बुद्धि-जीवी शिक्षक के आगे सरकाने से काम न चलेगा । सब के पेट की आग को शान्त करने से ही राष्ट्र सुखी बन सकेगा । और यह महत्वपूर्ण कार्य सरकार तथा जनता के सहयोग से ही पूरा होगा ।
एक युग था - जब राजा, राजा था और प्रजा, केवल प्रजा । हजारों-लाखों वर्षो तक ऐसो हुकूमत रही है, जिसमें राजा, राजा के रूप में तथा प्रजा, प्रजा के रूप में परिसीमित थी । वैसा युग अब नहीं रहा । लोग कहते हैं कि भारत में अब प्रजातन्त्र आ गया है। पर, मैं यह कहता कि भारत के लिए यह कोई नयी वस्तु नहीं है । भगवान महावीर के युग भी प्रजातन्त्र था । वे भी वैशाली प्रजातन्त्र के राजकुमार थे ।
आज सरकार और प्रजा के बीच दीवार - सी खड़ी हो गई है । वह
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