Book Title: Amarbharti
Author(s): Amarmuni
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 178
________________ जनतन्त्र दिवस १६६ गुण-गान इसलिए हो रहा है कि भारत की जो चेतना, जो संस्कृति है, वह व्यष्टि न होकर समष्टि की रही है । समष्टि के सुख में ही उसने अपना सुख माना है । उसी हार्दिक विराटता के कारण आज इतिहास हमारा गुण गा रहा है । भगवान महावीर के युग में जनता के मन में एक दार्शनिक प्रश्न उलझा हुआ था, कि 'पाप कहाँ बँधता है और कहाँ नहीं ?" इस यक्ष प्रश्न को सुलझाने के लिए न मालूम कितने दार्शनिक मस्तिष्क की दौड़ लगा रहे थे । किन्तु भगवान महावीर की जन-कल्याणी वाणी ने जनता के हृदयकपाट खोल दिये । उन्होंने बतलाया कि इस प्रश्न का समाधान अन्तर्मुख होने से मिल सकता है । जब मानव व्यष्टि के चक्कर में फँस कर अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्रवृत्ति करता है, अपनी आवश्यकताओं को ही सर्वाधिक महत्व देता है, अपने ही सुख-दुःख के विषय में विचार करता है, तो वह पाप कर्म का उपार्जन करता है, किन्तु जब उसकी चेतना व्यष्टि की ओर से समष्टि को ओर प्रवाहित होती है, जब वह अपने वैयक्तिक स्वार्थों से ऊपर उठकर विश्व कल्याण की सद्भावना से प्रेरित होकर विशुद्ध प्रवृत्ति करता है, तो वह विश्व में शान्ति का साम्राज्य स्थापित करता है, फलतः पाप कर्म में लिप्त नहीं होता । वह दिव्य वाणी आज भी भारत के मैदान में गूंज रही है सव्वभूयप्पभूयस्स, सम्मं भूयाइ पासओ । पिहिआसव्वस्स दंतस्स, पावकम्मं न बंधइ ॥ अपने अन्तहृदय को टटोलकर देखो कि आप विश्व के प्रत्येक प्राणी को आत्मवत् समझते हो या नहीं ? यदि आप प्राणीमात्र को आत्ममयी दृष्टि से देखते हो, उन्हें कष्ट पहुँचाने का विचार नहीं रखते हो, उनके सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझते हो, तो तुम्हें पाप कर्म का बन्ध नहीं होगा । पापों का प्रवाह प्राणियों को दुःख देने में आता है, दुःख मिटाने से नहीं । अतः ज्यों-ज्यों हमारे अन्दर समाज, राष्ट्र और विश्व की विराट चेतना पनपती जाती है, त्यों-त्यों पाप का बन्ध भी न्यून - न्यूनतर होता जाता है । जब हम वैयक्तिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय चेतना से ऊपर उठकर जागतिक चेतना से उत्प्रेरित होकर अखिल विश्व को अपना बना लेते हैं, उसके सुख-दुःख में अपनेपन की अनुभूति करते हैं, तब हमारा पापास्रव का द्वार बन्द हो जाता है । अतः हमें अपने अन्दर ही सीमित नहीं होना है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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