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१६२ अमर भारती है, हिन्दु में या मुसलमान में ? मतलब यह है कि इस भिन्नता में भी भारत की राष्ट्रीयता एक रही है, अक्षुण्ण रही है ? भारत ने सुदूर अतीत में भी अनेक जातियों को प्रश्रय दिया है। भारत का इतिहास बतलाता है. कि एक दिन पारसी सुरक्षा की भावना से भारत माँ की गोद में आ छिपे । शक तथा हूण भी हम आप में ही घुल-मिल गये हैं। मुसलमान तो आज भी भारत की भूमि में सुख से रह रहे हैं। भारत में कोई विजेता बन कर आया, कोई व्यापारी के रूप में आया, कोई भेदिया बन कर आया, तो कोई धर्म प्रचारक का बाना पहनकर आया। शत्र, या मित्र जिस-किसी भी रूप में जब कोई विदेशी यहाँ आया, तो यहीं का बनकर रह गया। भारत की संस्कृति तो गंगाधारा के तुल्य है, जो जिस रूप में आया, सब को अपना बना लिया। सब के सब एक रंग में रंग गए । क्योंकि उस समर भारत की पाचन-शक्ति दुरुस्त थी। उसने सबको पचा लिया, हज्म कर लिया । आज हम उन जातियों का पृथक्करण करना चाहें, तो कर नहीं सकते ?
पर, दुर्भाग्य है कि आज हमारी वह चिर-पोषित राष्ट्रीयता साम्प्रदायिकता की ज्वालाओं में झुलस रही है ? हमारी पाचन-शक्ति मन्द पड़ गई है । सर्व-मंगलमयी-भारतीय संस्कृति की धारा आज क्षीण-शरीरा दीख पड़ती है । फलतः भारत-अखण्ड भारत-पाक और हिन्द के रूप में बँट गया है। पतन का अवसान यहीं पर न समझिये । जाटिस्तान, सिक्खिस्तान और द्राविडस्तान का सिर दर्द करने वाला कोलाहल अभी शान्त नहीं हुआ है ? बंटवारे का फल हम देख चुके हैं। फिर भी हम बँटवारा चाहते है ? यह राष्ट्रीयता की महती विडम्बना है।
आप देखते हैं कि संसार किधर वढ़ा चला जा रहा है ? चारों तरफ आग सुलग रही है। उसमें कभी कोरिया जल उठता है, कभी इन्डोनेशिया तो कभी हमारा पड़ोसी चीन जल उठता है, सारी दुनियाँ के भूकम्प से भारत कैसे बचेगा? आज' यदि भारत को संसार में जीवित रहना है, तो अन्दर की जातियता तथा साम्प्रदायिकता की भावना को नष्ट करके सब इकाइयों को मिलाकर राष्ट्रीयता की रक्षा करनी होगी।
रोटी-कपड़े का भी प्रश्न बड़ा पेचीदा है । आर्थिक विषमता भी हमारी राष्ट्रीयता के विकास में अन्तराय बन रही है। इस उलझन को बिना सुलझाये सवाल हल न होगा । जिनको रोटी मिल रही है, उनको तो
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