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अमर भारती
अब नहीं रहनी चाहिए । प्रजातन्त्र का मतलब है - राजा तथा प्रजा के मध्य में जो भेद की दीवारें हैं, उनको तोड़ देना । वर्तमान में राष्ट्रपति भी प्रजा है और नेहरू, पटेल भी प्रजा हैं तथा प्रजा भी राजा है। सरकार को प्रजा के हित में और प्रजा को सरकार के हित में सोचना-समझना है । एक-दूसरे के साथ चलना है । दोनों हाथ धोने हैं, तो एक अकेला हाथ • अपने आप को नहीं धो सकता । दोनों का सहयोग आवश्यक हो जाता है । इसी प्रकार प्रजा की समस्या सरकार को, सरकार की कठिनता प्रजा को हल करनी है । आज तो प्रजा सरकार की आलोचना कर रही है तथा सरकार प्रजा की । घर के चौधरी की अपेक्षा पंचायत के चौधरी की मुसीबत बढ़ जाती है । आप विचार कीजिए, यदि आप में से कोई नेहरू तथा पटेल की गद्दी पर होते, तो आप के समक्ष क्या परिस्थिति बनती ?
एक बात और है कि भारत का निर्माण पश्चिमी संस्कृति से होने वाला नहीं है, भारत का उद्धार उन्हीं पुराने आदर्श तथा प्राचीन तेजस्वी विचारों से हो सकेगा । भारत के पवित्र हृदय में पाश्चात्य संस्कृति के बीज नहीं पनप सकते । क्या भारत के पास एक-दूसरे के सुख-दुःख को समझने की शक्ति नहीं है ? क्या भारत को अपनी रोटी तलाश करने का ढंग नहीं आता ? क्या भारत में अपना मकान अपने ढंग से खड़ा करने की कला नहीं है ? क्या हम भाई को भाई समझने की शिक्षा कहीं बाहर से लाएँगे ? यह कला तो हमें अपने पुराने ऋषियों से हजारों वर्षों से मिली है । राम और कृष्ण, महावीर और बुद्ध तथा गाँधी ने हमें यही शिक्षा दी है, बही कला सिखलाई है । आज हम उस दिव्य कला को पाश्चात्य संस्कृति की आपाततो रमणीय चकाचौंध में गुमा बैठे हैं ।
बड़े खेद की बात है, कि बीसवीं सदी का भारत अपने गौरवपूर्ण प्राचीन इतिहास को भूल बैठा है । भारत के तेजस्वी सम्राट विक्रमादित्य के जीवन को क्या आप भूल गए हैं ? जब सम्राट विक्रमादित्य राज सभा में आते, तब हीरा- मणिक्य खचित सुवर्ण सिंहासन पर विराजित होते थे । ऐसा मालूम होता था कि साक्षात् इन्द्र ही स्वर्ग से उतर कर आ विराजा है ? किन्तु उनका व्यक्तिगत जीवन इससे भिन्न था। भारत के विदेशी राजदूत जब व्यक्तिगत बानघीत के समय सम्राट् को तृण निर्मित चटाई पर बैठा देखते, तब विस्मय में पड़ जाते थे । जब कोई पूछता कि आप सम्राट् होकर भी इस चटाई पर क्यों बैठते हैं, तब सम्राट् मुस्करा कर उत्तर देते - यह
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