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अपने आपको हीन समझना पाप है १५६ मान तो मनुष्य में होना ही चाहिए। यदि ऐसा स्वाभिमान आपके अन्दर जागृत न होगा, तो आप कभी भी अन्धकार से प्रकाश में नहीं आ सकते, आत्म विकास नहीं कर सकते । नम्रता, सुशीलता, वाणी की मधुरता, आचरण की सत्यता आदि मानवीय गुण अपने आप में अधिकाधिक प्रस्फुटित करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए, तभी आप जीवन की सर्वोच्च परिणति प्राप्त कर सकेंगे। अपना उत्थान-पतन भी कुछ लोग ईश्वरीय सत्ता के अधीन मानते हैं । यदि ईश्वर को ही हमें उठाना होता, तो हमारी और आपकी आज यह स्थिति न होती, हम कभी के उठ गए होते। हम और आप तो तभी ऊपर उठ सकेंगे, जबकि हम स्वयं उठने का प्रयत्न करेंगे । जीवन में स्वयं जागरण प्राप्त करके अपने बन्धनों को तोड़ने के लिए परमुखापेक्षिता की, दूसरों की सहायता की उपेक्षा करके ईश्वर को भी एक ओर बैठे रहने के लिए बलपूर्वक यह कह सकेंगे
“सखे ! मेरे बन्धन मत खोल! स्वयं बंधा हूँ, स्वयं खुलूंगा, तू न बीच में बोल !! यह जैन धर्म की विशेषता है, कि वह अपने बन्धनों का उत्तरदायित्व भी अपने ऊपर लेता है और उनको तोड़ने का भी। वह प्रत्येक आत्मा को ईश्वर और भगवान मानता है । मनुष्य स्वयं ही अपना उत्थान और अभ्युदय कर सकता है। मनुष्य मात्र में महान् बनने की अपार शक्ति है। अखिल भारतीय हरिजन सम्मेलन,
१९४५ आगरा
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