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. अपने आपको हीन समझना पाप है १५७ खिल उठा । इन सारभूत शब्दों से उसे एक अभिनव प्रेरणा और एक नयी चेतना मिली, एक अश्रुत-पूर्व दिव्य सन्देश मिला। उसने अपने जीवन को एक नये रूप में सोचा-"इस वैषम्य पूर्ण संसार में कम से कम एक स्थान तो ऐसा है, जहाँ हमारे ऊपर कोई घृणा नहीं बरसाता, जहाँ जात-पांत की कोई पूछ नहीं और जहाँ मानव-मानव एक हैं।" उसके जीवन की धारा बदली और वह 'बुद्धं सरणं, धम्म सरणं, संघं सरणं गच्छामि' का दिव्य पाठ पढ़कर बुद्ध-शासन में दीक्षित होकर एक प्रख्यात विदुषी हुई।
_ 'कर्म' शब्द का अर्थ यदि शास्त्रों का पठन-पाठन अच्छा समझा जा सकता है, कलम चलाना अच्छा माना जा सकता है, दीन-दुर्बलों के परित्राण के लिए तलवार चलाना अच्छा गिना जा सकता है, तो क्या 'जनसेवा' जैसा महान कार्य किया जिसके लिए आचार्य भर्तहरि ने यह कहा'सेवा धर्मः परम गहनो योगिनामप्यगम्यः' और जिसे आप नित्यप्रति करते हैं, क्या अच्छे की कोटि में नहीं आ सकता ? आखिर, मनुष्य है और उसके सामने पेट भरने की दुनिया की सबसे आवश्यक समस्या है । इस उदरपूर्ति के लिए उसे कोई कर्म तो करना ही पड़ता है। यदि अच्छा धन्धा मिलता हो, तो उसे भी अवश्य करना चाहिए। किसी विशेष का किसी विशेष कर्म पर एकमात्र अधिकार नहीं हो सकता, विशेषकर आज के जनतन्त्र युग में । बीच का काल ऐसा था, जबकि शास्त्रों का पठन-पाठन, चिन्तन-मनन और लिखने-लिखाने के लिए, जन-रक्षार्थ तलवार चलाने के लिए, सेवा का कार्य करने के लिए विशेष जाति का अधिकार मान्य समझ लिया गया था। यह भारत के लिए सबसे दुर्भाग्य पूर्ण काल था, जब ज्ञान की पावनी शक्ति को, जनरक्षा के आदर्श कार्य को तथा सेवा जैसी महती कर्मशक्ति को एक संकीर्ण शिकंजे में जकड़ दिया था, जिसका दुष्परिणाम आज भारत भोग रहा है। इतिहास के उन पृष्ठों को उलटकर इतिहास का प्रत्येक विद्यार्थी जान सकता है कि तत्कालीन इस अदूरदर्शिता पूर्ण संकीर्णता तथा भेद-भाव भरी भूल ने राष्ट्र को कितना लाभ या क्षति पहुँचाई है ?
___ महावीर, बुद्ध और गांधीजी की दृष्टि में जो कार्य ईमानदारी और प्रसन्न भाव से कर्तव्य समझकर सुचारु रूप से किया जाता है, वही सुन्दर और अच्छा है । एक क्लर्क है, जो बेचारा दिन भर कलम घिसता रहता है, परन्तु उस कार्य को राष्ट्र और समाज की सेवा की दृष्टि से कर्तव्य समझ
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