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अमर भारती
कह कर टाल दें। परन्तु, सत्य है, कि सौन्दर्य की ओर झुकना मानव का सहज धर्म है। सौन्दर्योन्मुख प्रवृत्ति ही तो कला कही जाती है। अन्तर इतना ही है कि भौतिकवादी बाहर के सौन्दर्य को देखता है और अध्यात्मवादी आत्मा के सौन्दर्य को देखता है। भारत के महान् चिंतकों ने जीवन की सफलता में भूलकर भी विलास की गणना नहीं की । जीवन में सौन्दर्य को भी माना, कला को भी माना । परन्तु सौन्दर्य और कला में संयम की संयोजना को वे कभी नहीं भूले । सौन्दर्य की उपासना की, पर संयम के साथ । कला की आराधना की, पर संयम के साथ । आनन्द की कामना की, पर वह भी संयम के साथ । भारत के अध्यात्मवादी कलाकारों ने अन्तर्जगत के सौन्दर्य का मन-भर कर वर्णन किया है। गीता का विराट रूप दर्शन इस कल्पना का प्रमाण है।
राजा जनक की राज सभा में, अष्टावक्र ऋषि ज्योंही पहुंचे कि उन्हें देखकर समस्त विद्वान् हंसने लगे - ऋषि का रूप ही ऐसा था । पर साथ में तपस्वी अष्टावक्र भी हंसने लगे। विद्वानों ने पूछा--"आप क्यों हंसे ?" अष्टावक्र ने मुस्कान भर कर कहा- "मैं अपनी भूल पर हंसा हूँ।" मैं समझता था कि राजा जनक अध्यात्मवादी हैं, उनके विद्वान् सभासद भी अध्यात्मवादी होंगे। परन्तु, मैंने यहां आकर देखा-"यह सभा तो चर्मकारों की सभा है।" यहाँ चमड़े का रंग-रूप देखा जाता है, आत्मा का सौन्दर्य नहीं।
मुनि की वाणी में भोगवादी संस्कृति पर एक करारा व्यंग है । साथ ही भारत की अध्यात्म भावना में अट निष्ठा भी है। जीवन में सौन्दर्य भी है, परन्तु उसका उपयोग योग में करो, न कि भोग में । भोग-कला में नहीं, योग-कला में भारत का विश्वास सदा से रहा है। कला-कला में भी बड़ा अन्तर होता है । एक प्राचीन अध्यात्मवादी कवि की वाणी में
"कला बहत्तर पुरुष की, वा में दो सरदार ।
__ एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ॥" बहत्तर कलाओं में दो कलाएँ प्रधान हैं-भोग-कला और योग कला। भोग की एक सीमा है, उसके बाद योग की सीमा-रेखा आती है। भोग से योग की ओर जाना, आगार से अणगार बनना, यह भारत की मूल
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