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चार प्रकार के यात्री १३७ है ? जैसा हम खाते-पीते हैं, वैसा यह भी खाता-पीता है। महल में रहता है। जीवन के समस्त सुखद साधन इसे यहाँ उपलब्ध हैं, फिर त्याग क्या रहा ?
सन्त मन राजा के संशय को समझ गया। व्यवहार मनुष्य के मन का दर्पण होता है। राजा ने सन्त से कहा-जिज्ञासा हो तो कुछ पूछो । राजा बोला-एक ही जिज्ञासा है कि आप में और हम में किन बातों में भेद है ? सन्त ने कहा-योग्य समय पर समाधान हो जाएगा।
सन्त अपने मन के मौजी होते हैं। कन्धे पर अपना फटा कम्बल डाला और महल छोड़कर चल पड़े। सूचना पाते ही नगर के नर-नारी और राजा-रानी भी पीछे-पीछे दौड़े। नगर से कुछ दूर एक लघु ग्राम में सन्त ठहरे। रूखी-सूखी मोटी रोटी साथ में छाछ, सन्त बड़े आनन्द में भोजन करने लगे । राजा को भी ग्राम में वही भोजन मिला। परन्तु गले से नीचे नहीं उतर रहा था। राजा की परेशानी देखकर सन्त बोले
. "राजन् ! आप में और मुझ में यही अन्तर है । जैसा सुख मुझे महल में था, वैसा ही यहां पर है। रूखी-सूखी मोटी रोटो में वही आनन्द है, जो आपके मोहन भोग में था । राजा ने सन्त के चरण पकड़ कर कहामेरा समाधान हो गया।
सच्चा साधक वह है, जो अनुकूलता में और प्रतिकूलता में सम रह सके। यही प्रकाश से प्रकाश में जाने का जीवन है। ऐसा विवेकशील व्यक्ति कभी अन्धकार में नहीं भटक सकता।
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