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अमर प्रीत
बात बिल्कुल ठीक ही कही गई है । मनुष्य यदि गन से साफ है, स्वयं अपने प्रति आप ईमानदार हैं, तो वह किसी से भी छोटा या हीन नहीं है ।
किसी जाति विशेष में जन्म लेने मात्र से ही मनुष्य को जाति हीन या उच्च नहीं मानी जा सकती और विशेष कर आज के जागरणशील युग में तो जात पांत की यह गली सड़ी दीवार इतनी जीर्ण-शीर्ण तथा जर्जरीभूत हो गई कि एक धक्के की चोट भी बर्दाश्त नहीं कर सकती । लार्ड बेबल के समय में जब हम दिल्ली में थे, तो वहाँ 'गांधी - ग्राउण्ड' में 'अखिल भारत वर्षीय विद्यार्थी सम्मेलन' हो रहा था । जब चांदनी चौक से होकर क्रान्तिशील नवयुवकों का एक विराट जुलूस निकल रहा था, तो उच्च स्वर से वे यही नारा लगा रहे थे
" इस गली सड़ी दीवार को एक धक्का और दो ।"
उनके नारे का अभिप्राय था कि अंग्रेज शासन की दीवार बिलकुल गल-सड़ गई है, जर्जर हो गई है, उसे जरा एक धक्का और देकर भूमिसात् कर दो। इसी प्रकार की चेतनामय तथा ऊर्ध्वमुखी भावना जब आपके अहृदय से निःसृत होगी, तो क्या इस दीवार के ढ़ह जाने में बिलम्ब लगेगा ?
अस्तु, हमें इन सारहीन जात-पांत के झगड़ों में अधिक मत्था-पच्ची करने की आवश्यकता नहीं । किसी असद्वस्तु के विषय में अधिक सोचविचार करने से भी मनुष्य मस्तिष्क विकृत हो जाया करता है । इस दीवार को तो परिवर्तनशील युग के प्रबल थपेड़े लग चुके हैं और गांधीजी का तो ऐसा जोरदार धक्का लगा है, कि जिससे यह दीवार गिरी ही समझिए । अढ़ाई सहस्र वर्ष पूर्व का युग भी ऐसा ही अन्धकार पूर्ण युग था, जब कि भगवान् महावीर ने इस दीवार को तोड़ने का सफल प्रयत्न किया था । उस महावीर ने जिसकी चरण-शरण प्राप्त करने का मुझे पुण्य अव-सर मिला है ? जिनके क्रान्तिशील शासन का मैं भी एक छोटा-सा सदस्य हूँ तथा जिनकी उदात्त वाणी के अनुशीलन करने का मुझे परम सौभाग्य प्राप्त हुआ है ।
यह महावीर जो एक राजकुमार थे, सोने के महलों में फूलों के बिछोनों पर, जिसका जन्म और पालन-पोषण हुआ था, जिनके दायें-बायें
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