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अपने आपको हीन समझना पाप है
आज आपके सामने मुझे जो कुछ बोलना है और जिसे बोलने के लिए लालमन भाई, जो प्रतिदिन निकट सम्पर्क में आते रहते हैं, उनकी शुभ प्रेरणा कहिए अथवा आपके अन्तर का सच्चा प्रेम समझिये, मुझे आप तक खींच लाया है।
हमें सभा मंच पर दृष्टिगत करके आपको परम आश्चर्य हो रहा होगा, क्योंकि आप हम लोगों कों तथा जैन धर्म के अनुयायियों को अपने पास मिलकर बैठे देख रहे हैं। जन्म-जात संस्कार या हीन भावनाएँ, जो आप में रही हुई हैं, सम्भवतः उसी दृष्टि-बिन्दु से सोचने के आदी होने के कारण आपको यह सब विचित्र-सा अनुभव हो रहा हो।
हम अधम हैं, पतित हैं, हमारा उत्थान या विकास नहीं हो सकता, आदि हीन भावनाएँ आपके विकास में सबसे प्रबल बाधक हैं और ऐसा सोचना एक बहुत बड़ी दुर्बलता और भयंकर पाप है। क्योंकि जीवन का यह सर्वमान्य नियम है कि जो जैसा सोचता है, वह वैसा ही बन जाता है। हम अपने विचारों को प्रतिमूर्ति हैं। वीरता के संकल्प वीर बनाते हैं और कायरता के संकल्प कायर । जो जैसी श्रद्धा या विश्वास रखता है, वह वैसे ही सांचे में ढल जाता है__ "श्रद्धामयोऽय पुरुषः, यो यत् श्रद्धः स एव सः।"
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