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चार प्रकार के यात्री
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पहला-जो अन्धकार से प्रकाश में जाता है। दूसरा-जो प्रकाश से अन्धकार में जाता है। तीसरा - जो प्रकाश से प्रकाश में जाता है। चौथा जो अन्धकार से अन्धकार में जाता है। जो आत्मा अन्धकार से अन्धकार में और प्रकाश से अन्धकार में जाने वाला है, वह पापात्मा है और जो अन्धकार से प्रकाश में तथा प्रकाश से प्रकाश में जाने वाला है-वह पुण्यात्मा है।
आत्मा के पतन का पुख्य कारण है-मिय्यात्व, कषाय और प्रमाद । मिथ्यात्व से वह अपने स्वरूप को भूल जाता है । कषाय से वह सदा अशांत रहता है । प्रमाद से वह उत्थान के लिए सत्प्रयत्न नहीं कर पाता । भगवान की वाणी है -
"साधक ! तु संसार के अंधेरे में भटकने के लिए नहीं है । तेरी यात्रा तो ज्ञान और विवेकपूर्वक होनी चाहिए । सम्यकत्व से तू मिथ्यात्व को हटा, उपशम भाव से कषाय को जीत और अपने बल-वीर्य तथा पराक्रम से प्रमाद को दूर कर । तू अन्धकार से आया है, तो चिन्ता नहीं, पर यहाँ से प्रकाश की ओर जाएगा। इस बात का ध्यान रहे कि अन्धकार की ओर तेरी गति न हो।
__ साधक ! तू अपने अन्तर में गहरा डूब जा और विचार कर मैं कौन हूँ ? मैं देह नहीं हूँ, इन्द्रिय नहीं हैं। क्योंकि ये सब तो पुद्गल हैं और मैं हूँ चिन्मात्र शक्ति । शरीर मेरा घर है, पर वह शाश्वत और सनातन नहीं है। शाश्वत और सनातन तो एकमात्र आत्म-तत्व ही है । कृष्णत्व और शुक्लत्व - मेरा नहीं, पुद्गल का धर्म है । न मैं स्थल हूँ और न मैं सूक्ष्म हूँ। मैं तो अनन्त और अक्षय शक्ति का भण्डार हूँ। मैं अनन्त हूँ, शाश्वत हूँ, सना. तन है।
कहाँ से आया है ? मैं एक यात्री हूँ । अनन्त काल से मेरी यात्रा चल रही है । जब तक मैं विभाव दशा से हूँ, तब तक मेरी यात्रा चालू ही रहेगी। स्वभाव दशा होते हो मैं स्थिर, शान्त और अचल बन जाऊँगा। सकर्मा हूँ, तभी तक मेरी यह यात्रा है, अकर्मा होते ही मैं सिद्ध, बुद्ध, मुक्त बन जाऊँगा।
क्या करना है ? अपने विकार को जीतना है, अपनी वासना को जीतना । अपने विकृत मन को संस्कृत बनाना है । आत्मा का संस्कार करना
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