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मानव को महत्ता १४७ नहीं कर सकते । देवताओं का जीवन भोगविलास का जीवन है । वे भला क्या शास्त्र बनायेंगे ?
____ मैं आप से कह रहा था, कि शास्त्र का बनाने वाला मनुष्य है, क्योंकि मनुष्य ही शास्त्र-प्रतिपादित सिद्धान्तों को जीवन में उतार सकता है । विचार को आचार में बदल सकता है ? पशु में अनुभूति की कमी है और देवता में चारित्र का अभाव है। मनुष्य में विचार और आचार की दोनों ही शक्तियाँ पूर्ण हैं । अतः वह जहाँ उत्कृष्ट चिन्तन कर सकता है, वहाँ उसका आराधन भी पूर्ण रूप से कर सकता है।
मनुष्य की अपनी भव्य एवं विशाल अनुभूति ही उसका सब से बड़ा शास्त्र है । जो व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो, वही दूसरों के लिए होना चाहिए । जैसी अनुभूति तुम्हें होती है, वैसी ही दूसरों को भी होती है। अतः सभी के साथ समुचित व्यवहार करना चाहिए
"आत्मनः प्रतिकूलानि,
परेषां न समाचरेत् ।" यही सबसे बड़ा शास्त्र है । यही महत्वपूर्ण सिद्धान्त है । यही है, जैन संस्कृति का मूल-स्रोत । इस सिद्धान्त की सृष्टि मनुष्य ने अपनी उच्च. तम अनुभूति के आधार पर की है ।
मैं आपसे कह रहा था कि सच्चा मनुष्य वही है, जो दूसरों के प्रति अपने जैसा ही सरल वर्ताव करता है। तेल की वृंद जमकर नहीं बैठेगी, वह फैल जाती है । और घी की बूंद जमकर बैठ जाती है। तुम्हारी अहिंसा और प्रेम भावना तेल की बूंद हो, जो समग्र विश्व के ऊँचे-नीचे सभी प्राणियों के प्रति एक भाव से फैल जाए । केवल अपने लिए अहिंसक रहना, कहाँ की उच्च भावना है ? इतनी अहिंसा तो खूख्वार जंगली हिंस्र-पशु में भी मिल सकती है। जिस कष्ट से तुम पीड़ित हो रहे थे, वही तुम दूसरे को दो, तो क्या तुम मनुष्य बने रह सकोगे ? आज से ढाई हजार वर्ष पहले भारत की पथ-भ्रष्ट मानवजाति को, भगवान महावीर ने मनुष्य के रूप में मनुष्यता का अमर उपदेश दिया था। उन्होंने हमें अपने पवित्र विचारों को आचार में बदलने की पवित्र शिक्षा दी है। अतः वे सच्चे महामानव कहलाए।
प्रकृति की ओर से मिले हुए दुःख बहुत थोड़े होते है। मानव जाति
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