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१२६ अमर भारती तप करने की विधि का । श्रावक कहलाते हैं, पर भान नहीं है श्रावक के क्या कर्तव्य हैं ? साधु बन गए हैं पर साधुत्व का परिबोध नहीं है । धर्म क्रिया करते हैं, पर इसलिए कि यह हमारी कुल परम्परा है। क्षेत्र में सन्त पधारे है । दर्शन करने और प्रवचन सुनने जाना ही पड़ेगा-भले मन मैं उत्साह और तरंग न हो। क्योंकि इस धर्म-क्रिया को हमारे पुरखे इसी रूप में करते चले आ रहे हैं । धर्म भी एक कुल परम्परा ही बन गया है । साधु को दान देना है । आहार का, पानी का, वस्त्र का और पात्र का। साधु घर पर आया हो, तो कुछ न कुछ देना ही पड़ेगा-भले ही वह देय वस्तु साधु के स्वास्थ्य के अनुकूल न हो पर साधु का पात्र घर से खाली न लौटे । साधु को आवश्यकसा हो या नहीं हो, इस बात को साधु जाने । पर पात्र में डालना धर्म है।
बहिनों में तो इस दिशा में और अधिक अज्ञान-अंधेरा है। तप हो, जप हो, धर्म हो, क्रिया-काण्ड हो । वे करती ही रहती हैं। उस क्रिया के पीछे क्या भावना है ? क्या विचार है ? क्या रहस्य है ? इस विवेक जागृति से उनका कोई लगाव नहीं रहता । पर्युषण पर्व आया कि उनमें तप करने की भावना बलवती हो जाती है । बेला, तेला, चौला, पचोला, और अठाई तक दौड़ लगाती हैं । काना-फूंसी आरम्भ हो जाती है। मेरी सास, ननद और सहेलियाँ अठाई तक जा पहुँची हैं। मैंने अभी तक कुछ भी नहीं किया। वे क्या समझेंगी, मुझे ! अब मैं भी अठाई करू। सासरे और पीहर में एक हल-चल पैदा होगी । पीहर से सुन्दर वस्त्र, चमकीले आभूषण और सहेलियों के मधुर गीत-इस तप के बिना नहीं मिल सकते । मैं न करूंगी तो सहेली क्या कहेंगी? भले गिर पड़ कर ही रात-दिन काटने पड़ें, पर इस वर्ष अठाई अवश्य करनी पड़ेगी। गाजे-बाजे के साथ जाकर व्याख्यान के बीच में गुरु महाराज से पचलूँगी ? सास-ससुर का आशीष
और लोगों को 'धन्य-धन्य' की झड़ी। कितना आनन्द है ? - मैं समझता हूँ, इस प्रकार के तप में, जप में, धम-साधना में देहदमन भले ही हो, आत्म-दमन नहीं है, मनोमन्थन नहीं है, विवेक नहीं है, जीवन की एक सही दिशा नहीं है । जीवन का लक्ष्य स्थिर नहीं है । जीवन का ध्येय नहीं बना है । भेड़िया चाल में एक परम्परा हो सकती है, पर धर्म नहीं । धर्म की साधना के लिए स्थिरता की विशेष आवश्यकता है। मन को स्थिर करो । बुद्धि को स्थिर करो। आत्मा को स्थिर करो। जब
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