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११८ अमर भारती बढ़ता है, तब तक प्रकृति का एक-एक कण उसका पोषण करता है । जब उस का विकास रुक जाता है, तो वही प्रकृति धीरे-धीरे उसे नष्ट-भ्रष्ट कर देती है। मानव जीवन का भी यही हाल है। जब तक मनुष्य में गति करने की क्षमता रहती है, तब तक उसकी स्वाभाविक शक्ति के साथ प्रकृति की समस्त शक्तियां भी उस के विकास में सहयोग देती हैं । जब तक उपादान में शक्ति है, तब तज निमित्त भी उसे बल-शक्ति देते हैं । मनुष्य का कल्याण इसी में है कि वह शोक जीवन के साथ अपनी अन्तःशक्ति का संयोग स्थापित करता रहे, इसी को जीवन जीना कहते हैं। महाकवि प्रसाद की भाषा में कहना होगा
"इस जीवन का उद्देश्य नहीं है,
शान्ति भवन में टिक रहना। किन्तु पहुँचना उस सीमा तक,
जिसके आगे राह नहीं है ॥" मैं अभी आप से कह रहा था कि चलते रहना, मनुष्य का मुख्य धर्म क्यों है ? जीवन कोई पड़ाव नहीं, बल्कि एक यात्रा है । मनुष्य जीवन की परिभाषा करते हुए कवि कहता है--
"समझे अगर इन्सान तो,
दिन-रात सफर है।" जीवन एक यात्रा है, मनुष्य एक यात्री है। लोक-मार्ग में वह स्वेच्छा से खड़ा नहीं रह सकता। उसे या तो आगे बढ़ना चाहिए या मर मिटना होगा । क्योंकि जीवन एक संघर्ष है। संघर्ष करने वाला ही यहाँ पर जीवित रह सकता है। गतिशील होना ही वस्तुतः जीवन का लक्षण है । उपनिषद् का एक ऋषि कहता है
शरवत् तन्मयो भवेत् ।" धनुष से छूटा बाण सीधे लक्ष्य में जाकर टिकता है। मनुष्य को भी अपने लक्ष्य पर पहुँच कर ही विराम करना चाहिए ।
वीर पुरुष वह है, जो कभी पथ-बाधाओं से व्याकुल नही बनता । वह अपने जीवन की यात्रा में मस्ती के साथ गाता है
"पन्थ होने दो अपरिचित,
प्राण रहने दो अकेला ।
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