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जीधन : एक सरिता ११७ __ बहुत-से लोग कहा करते हैं-निद्रा दशा में जीवन गति कहां करता है ? परन्तु, यह धारणा भ्रमपूर्ण है । विचार कीजिए, क्या देह की हलचल को ही आप जीवन मानते हैं। यदि यही बात आपको स्वीकृत हो, तो कहना होगा कि आपने जैन दर्शन के जीव-विज्ञान को समझा ही नहीं ? जैन धर्म कहता है, यह तो स्थूल जीवन है। सूक्ष्म जीवन है, संकल्प का, जिसे अन्तर्जीवन कहते हैं । जीव भले ही निद्रा दशा में हो या मूर्छा अवस्था में, उसका संकल्पमय जीवन सदा क्रियाशील रहता है। असंज्ञी प्राणी में भी अध्यवसाय तो माना ही गया है। यदि इससे इन्कार होगा, तो फिर पाप, पुण्य और धर्म की व्यवस्था से भी आपको इन्कार करना होगा । प्राणी बाहर में चाहे चेष्टारहित दीख रहा हो, किन्तु उसके अन्तर में सदा संकल्प और अध्यवसायों की एक विराट हलचल रहती है । आपने सुना ही होगा कि तन्दुल मच्छ महामच्छ की आंख के कोर पर बैठा-बैठा ही अध्यवसाय के ताने-बाने से सातवीं नरक का बन्ध बाँध लेता है। बाहर में भले ही उसकी क्रिया न हो, गति न हो ? पर अन्तर में उसके एक महान् द्वन्द्व चलता रहता है। वह प्राणी के अन्तर जीवन की गति है, क्रिया है। प्रसुप्त दशा में, मूर्छा की हालत में भी प्राणी अन्तर क्रिया करता ही रहता है । कभी स्थूल जीवन के चेष्टा रहित होने पर भी सूक्ष्म जीवन, जिसे मनोविज्ञान की भाषा में संकल्प और अध्यवसाय कहते हैं-सदा प्रवाहित ही रहता है । अन्तर जीवन की हलचल कभी बन्द नहीं होती?
इस विषय पर आध्यात्मिक दृष्टि से भी विचार करें, तो यही तथ्य निकलता है कि जीवन सदा गतिशील और क्रियाशील ही रहता है। जैन शास्त्र में इस बात का पर्याप्त वर्णन आता है-'आत्मा में गति और क्रिया होती है।" गति व क्रिया आत्मा का धर्म है। संसारी जीवों में ही नहीं, सिद्धों में भो स्व-रमण रूप क्रिया रहती ही है। क्योंकि क्रिया ओर गति
आत्मा का धर्म है । वह उससे अलग नहीं हो सकता । इस दृष्टि से भी यही सिद्ध होता है कि जीवन सदा क्रियाशील है, गतिशील है। क्रियाशील रहना ही जीवन का सहज धर्म है।
मैं आप से कह रहा था कि जीवन एक हल-चल है, जीवन एक आन्दोलन है, जीवन एक यात्रा है। यात्री यदि चले नहीं बैठा रहे तो, क्या वह अपने लक्ष्य पर पहुंच सकेगा? नहीं, कदापि नहीं। जगत् का अर्थ ही है-नित्य-निरन्तर आगे बढ़ने वाला । पेड़ जब तक प्रकृति से संयुक्त होकर
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